सृष्टि |
सृष्टि की प्रक्रिया में आपको इतना विरोधाभास मिलेगा कि आप अविश्वास में अपना सिर हिला देंगे और कहेंगे "यह असंभव है"। फिर भी, हालांकि, यह अभी तक मानवीय समझ से परे है, क्योंकि कुछ लोगों ने यह जानकारी मांगी है, मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगी ।
संक्षेप में, बस इतना जान लें कि संसार के निर्माण में ईश्वर की योगमाया शक्ति महत्वपूर्ण है। योगमाया ईश्वर की आंतरिक शक्ति है। योगमाया के कार्य मानव समझ से परे हैं। यह इतनी शक्तिशाली होती है कि इसे कर्तुम अकर्तुम अन्याथा, कर्तुम समर्थ शक्ति कहते हैं, जिसका अर्थ है "यह जो चाहे करे, जो चाहे ना करे, जो चाहे उल्टा करे"। सृष्टि की रचना में बहुत से तथ्य विरोधाभासी प्रतीत होते हैं परंतु फिर भी भगवत् प्राप्त संतों ने उनको शास्त्रों वेदों में निरूपित किया है।
सृष्टि से पूर्व महाप्रलय के समय माया और जीव दोनों श्रीकृष्ण के महोदर (कार्णार्णव) में निष्क्रिय अवस्था में लीन रहते हैं। फिर एक कल्प के अंत में सर्वेश्वर ब्रह्म श्री कृष्ण माया को सक्रिय कर सृष्टि करते हैं । तत्पश्चात सभी जीवों को संसार में भेज देते हैं।इस प्रक्रिया को सृष्टि कहते हैं।
तो पहले हम इस शब्द "सृष्टि" का अर्थ समझते हैं -
संक्षेप में, बस इतना जान लें कि संसार के निर्माण में ईश्वर की योगमाया शक्ति महत्वपूर्ण है। योगमाया ईश्वर की आंतरिक शक्ति है। योगमाया के कार्य मानव समझ से परे हैं। यह इतनी शक्तिशाली होती है कि इसे कर्तुम अकर्तुम अन्याथा, कर्तुम समर्थ शक्ति कहते हैं, जिसका अर्थ है "यह जो चाहे करे, जो चाहे ना करे, जो चाहे उल्टा करे"। सृष्टि की रचना में बहुत से तथ्य विरोधाभासी प्रतीत होते हैं परंतु फिर भी भगवत् प्राप्त संतों ने उनको शास्त्रों वेदों में निरूपित किया है।
सृष्टि से पूर्व महाप्रलय के समय माया और जीव दोनों श्रीकृष्ण के महोदर (कार्णार्णव) में निष्क्रिय अवस्था में लीन रहते हैं। फिर एक कल्प के अंत में सर्वेश्वर ब्रह्म श्री कृष्ण माया को सक्रिय कर सृष्टि करते हैं । तत्पश्चात सभी जीवों को संसार में भेज देते हैं।इस प्रक्रिया को सृष्टि कहते हैं।
तो पहले हम इस शब्द "सृष्टि" का अर्थ समझते हैं -
सृष्टि का अर्थ यह गोविंद राधे। प्रलय पूर्व जग प्राकट्य करा दे।। 1430
“सृष्टि शब्द का अर्थ है प्राकट्य। प्रलय के पूर्व जैसी सृष्टि थी वैसी ही भगवान प्रकट कर देते हैं”।
हरि ना बनावे जग गोविंद राधे। जैसा पूर्व में था वैसा प्रकट करा दें ।। 1431
"सर्वशक्तिमान भगवान संसार का नवनिर्माण नहीं करते। प्रलय से पूर्व संसार की जो स्थिति थी उसी स्थिति को पुनः प्रकट कर देते हैं। " यह कार्य माया द्वारा सम्पादित होता है ।
जड़ वस्तुएँ कुछ काम नहीं कर सकतीं। तो फिर माया संसार को कैसे प्रकट करती है?
जड़ वस्तुएँ कुछ काम नहीं कर सकतीं। तो फिर माया संसार को कैसे प्रकट करती है?
माया जड़ चीमटी है गोविंद राधे । हरि कर जो चाहे सोई करा दे ॥ राधा गोविंद गीत 1294
“जड़ शक्ति है । भगवान की शक्ति के द्वारा यह शक्तिमती बनती है भगवान की इच्छा को ही कार्यान्वित करती प्रतीत होती है।”
तो इन आध्यात्मिक सिद्धांतों को समझते हुए हम आगे देखते हैं कि सृष्टि का आरम्भ कैसे हुआ?
तो इन आध्यात्मिक सिद्धांतों को समझते हुए हम आगे देखते हैं कि सृष्टि का आरम्भ कैसे हुआ?
श्री कृष्ण सर्वशक्तिमान परात्पर ब्रह्म हैं।
सर्व कारण कारणम्
“श्री कृष्ण ही सभी कारणों के कारण हैं।" यद्यपि श्री कृष्ण ही सभी कारणों के कारण हैं, तथापि वे सृष्टि की प्रक्रिया स्वयं नहीं करते।
सर्वेश्वर ब्रह्म श्रीकृष्ण स्वयं सृष्टि का कार्य नहीं करते । स्वयं श्रीकृष्ण के एक दृष्टिपात से अपनी एक कला कार्णार्णवशायी महाविष्णु को प्रकट करते हैं । इनको प्रथम पुरुष, संकर्षण तथा बलराम के नाम से भी जाना जाता है । पश्चात इनके एक दृष्टिपात से माया सक्रिय हो जाती है और अपनी क्रियाओं को संपादित करने लगती है।
कार्णार्णवशायी महाविष्णु ने अपनी चित्तशक्ति से जड़ माया को चैतन्यवत करके सृष्टि की रचना की। माया से सर्वप्रथम अखंड ज्योति प्रकट हुई जिसको महान अथवा महत-तत्त्व कहते हैं।
महतत्त्वं हिरण्मयम्
महान श्री कृष्ण की अखंड ज्योति स्वरूप शक्ति है जो उनके योग निद्रा के समय अकार्यशील रहती है। किंतु उनके जागने पर अखंड ज्योतिर्मयी हो जाती है। इस ज्योति का भौतिक प्रकाश के समान विखंडन अथवा परावर्तन नहीं हो सकता । और प्रसुप्त माया को भी क्रियाशील कर देती है जिससे जीव भी क्रियाशील हो जाते हैं। अर्थात सृष्टि का मूल कारण महान है। महाप्रलय के समय महान में घोर अंधकार होता है जो अखंड ज्योति को क्षीण कर देता है । पुनः सृष्टि का समय होने पर वह अंधकार महान में लीन हो जाता है ।
अहंकार की उत्पत्ति
महान से तीन प्रकार के अहंकार का निर्माण होता है सात्विक, राजस तथा तामस।
सात्विक अहंकार से स्वर्गादिक लोकों के देवी देवताओं का प्राकट्य होता है।
- सात्विक,
- राजसिक
- तामसिक
सात्विक अहंकार से स्वर्गादिक लोकों के देवी देवताओं का प्राकट्य होता है।
पंचतन्मात्रा की उत्पत्ति
तामस अहंकार से पंचतन्मात्रा का प्राकट्य होता है शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध । और पंचतन्मात्रा से सूक्ष्म इंद्रियों का भी प्राकट्य होता है । प्रत्येक सूक्ष्म इन्द्रिय पंचतन्मात्रा को ही ग्रहण करने में समर्थ होती है ।
और पंचतन्मात्रा से सूक्ष्म इंद्रियों का भी प्राकट्य होता है । प्रत्येक सूक्ष्म इन्द्रिय पंचतन्मात्रा को ही ग्रहण करने में समर्थ होती है ।
- शब्द,
- स्पर्श,
- रूप,
- रस,
- गंध
और पंचतन्मात्रा से सूक्ष्म इंद्रियों का भी प्राकट्य होता है । प्रत्येक सूक्ष्म इन्द्रिय पंचतन्मात्रा को ही ग्रहण करने में समर्थ होती है ।
तामसाश्च विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यचोदिताम्। शब्दमात्रबभूत्तस्मान्नभः श्रोत्रं तु शब्दगः ॥
भा 3.26.32
तामस अहंकार से शब्दतन्मात्रा प्रकट होता है । शब्दतन्मात्रा से आकाश तथा कर्णेंद्रिय की उत्पत्ति होती है । अतः कर्णेंद्रिय (कान) शब्द को ग्रहण करने में सक्षम है।
नभसः शब्दतन्मात्रात् कालगत्या विकुर्वतः । स्पर्शोऽभवत्ततो वायुस्त्वक् स्पर्शस्य च संग्रहः ॥
भा 3.26.35
कुछ काल के पश्चात भगवदीय इच्छा से शब्दतन्मात्रा में विकृति आने से स्पर्शतन्मात्रा की उत्पत्ति हुई । स्पर्शतन्मात्रा से आकाश तथा त्वकेंद्रिय (त्वचा)की भी उत्पत्ति हुई । अतः त्वकेंद्रिय स्पर्श को ग्रहण करने में सक्षम है।
वायोश्वस्पर्शतन्मात्रात्दैवेरितादभूत् समुत्थितंततस्तेजश्चक्षूरूपोपलम्भनम् ॥ 3.26.३८ ॥
कुछ काल के पश्चात स्पर्शतन्मात्रा में विकृति आने से रूपतन्मात्रा की उत्पत्ति हुई । रूपतन्मात्रा से तेज तथा चक्षु इन्द्रिय की भी उत्पत्ति हुई । चक्षु (आँख) इन्द्रिय की संरचना में तेज महाभूत की प्रधानता है अतः चक्षु इन्द्रिय रूप को ग्रहण करने में सक्षम है।
रूपमात्राद्विकुर्वाणात्तेजसो दैवचोदितात् रसमात्रमभूत्तस्मादम्भो जिह्वा रसग्रह: ॥ 3.26.४१ ॥
पुनः कुछ काल के पश्चात रूपतन्मात्रा में विकृति आने से रसतन्मात्रा की उत्पत्ति हुई । रसतन्मात्रा से जल तथा रस इन्द्रिय की भी उत्पत्ति हुई । रस इन्द्रिय (रसना / जिह्वा) की संरचना में रस महाभूत की प्रधानता है अतः रसना रस को ग्रहण करने में सक्षम है।
रसमात्राद्विकुर्वाणादम्भसो दैवचोदितात् गन्धमात्रमभूत्तस्मात्पृथ्वी घ्राणस्तु गन्धग: ॥ ४४ ॥
कुछ काल के पश्चात रसतन्मात्रा में विकृति आने से गंधतन्मात्रा की उत्पत्ति हुई । गंधतन्मात्रा से पृथ्वी तथा गंध इन्द्रिय (नासिका) की भी उत्पत्ति हुई । अतः नासिका (नाक) इन्द्रिय गंध को ग्रहण करने में सक्ष्म है।
पंचमहाभूत की उत्पत्ति
पंचतन्मात्रा से मन तथा पंचमहाभूत का निर्माण होता है।
सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति हुई । फिर आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।
सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति हुई । फिर आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः ।अग्नेरापः ।अद्भ्यः पृथिवी ।
पृथिव्यांओषधयः । ओषधीभ्योऽन्नम्। अन्नात्। पुरुषः । स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ॥
पृथिव्यांओषधयः । ओषधीभ्योऽन्नम्। अन्नात्। पुरुषः । स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ॥
तैत्ति
प्रत्येक कार्य में अपने कारण के समस्त गुण होते हैं । उदाहरणार्थ आकाश में केवल शब्द का गुण होता है।
आकाश में तो गुण गोविंद राधे। एक ही प्रमुख है शब्द बता दे ।। 1316
आकाश से वायु उत्पन्न हुई । वायु का प्रमुख गुण है स्पर्श, साथ ही वायु में आकाश का गुण शब्द भी होता है ।
वायु में दो गुण गोविंद राधे। किंतु है प्रमुख एक स्पर्श ही बता दे ।। 1315
वायु से अग्नि पैदा हुई । अग्नि का प्रमुख गुण है रूप तथा उसके साथ स्पर्श एवं शब्द गुण भी होते हैं ।
तेज में तीन गुण गोविंद राधे। किंतु है प्रमुख एक रूप ही बता दे।। 1314
अग्नि से जल पैदा हुआ अतः जल में रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द गुण होते हैं ।
जल में हैं चार गुण गोविंद राधे। किंतु है प्रमुख एक रस ही बता दें।। 1313
जल से पृथ्वी पैदा हुई अतः पृथ्वी में गंध के साथ-साथ रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द गुण भी होते हैं ।
पृथ्वी में पाँच गुण गोविंद राधे । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध बता दे। 1311
पृथ्वी में पाँच गुण गोविंद राधे। किंतु प्रमुख है गंध ही बता दे।। 1312
पृथ्वी में पाँच गुण गोविंद राधे। किंतु प्रमुख है गंध ही बता दे।। 1312
गर्भोदशायी महाविष्णु का प्राकट्य
कार्णार्णवाशायी महाविष्णु ने असंख्य ब्रह्माण्ड तथा प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक गर्भोदशायी महाविष्णु को प्रकट किया। गर्भोदशायी महाविष्णु का दूसरा नाम “द्वितीय पुरुष” तथा प्रद्युम्न भी है ।
ब्रह्मा, विष्णु, शंकर का प्राकट्य
प्रत्येक गर्भोदशायी महाविष्णु की नाभि से एक दिव्य कमल उत्पन्न हुआ जिसके ऊपर ब्रह्मा उत्पन्न हुए । पुनः गर्भोदशायी महाविष्णु से क्षीरोदशायी महाविष्णु (अनिरुद्ध) तथा भगवान शंकर भी उत्पन्न हुए । प्रत्येक ब्रह्माण्ड में तीन नायक होते हैं एक ब्रह्मा, एक क्षीरोदशायी महाविष्णु तथा एक भगवान शंकर होते हैं ।
पश्चात गर्भोदशायी महाविष्णु ने तीन चौथाई को ब्रह्माण्ड दिव्य जल से भर दिया फिर योगनिद्रा में सो गए । तत्पश्चात सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ब्रह्माण्ड के अंदर समस्त चराचर जगत उत्पन्न करते हैं । विष्णु पालन करते हैं तथा शंकर संहार करते हैं ।
पश्चात गर्भोदशायी महाविष्णु ने तीन चौथाई को ब्रह्माण्ड दिव्य जल से भर दिया फिर योगनिद्रा में सो गए । तत्पश्चात सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ब्रह्माण्ड के अंदर समस्त चराचर जगत उत्पन्न करते हैं । विष्णु पालन करते हैं तथा शंकर संहार करते हैं ।
यह श्रीमद्भागवत महापुराण तथा जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार सृष्टि की प्रकिया का संक्षिप्त वर्णन है।
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