भक्ति के सब अधिकारी हैं |
मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। अनादिकाल से, ये मन मायिक जगत में आनंद ढूँढ रहा है और ऐसे करते करते ये अत्यंत मलिन हो चुका है (1)। इसलिए जिस आनंद की हमें तलाश है, उसे पाने के लिए सबसे पहले मन की शुद्धि अनिवार्य है। पिछले दो अंकों में हमने अपने लक्ष्यप्राप्ति का सही मार्ग जानने के लिए वेदों में वर्णित भगवत्प्राप्ति के मार्गों को तीन कसौटियों (अन्वय, व्यतिरेक और अन्य निरापेक्षता) पर कसकर देखा। शास्त्रों और संतों के विभिन्न प्रमाणों से हमने सिद्ध किया कि केवल भक्ति ही इन कसौटियों पर खरी उतरती है। मन को शुद्ध करने का एकमात्र साधन भक्ति ही है।
इस अंक में हम चौथी कसौटी, सार्वत्रिकता, पर चर्चा करेंगे। सार्वत्रिकता का अर्थ है “सभी के लिए सुलभ” । इस कसौटी पर कर्म, ज्ञान तथा भक्ति को कसकर देखते हैं कि किस मार्ग में सार्वत्रिकता है ।
प्रथम तो कर्मकांड के नियमों का सम्यक् शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना ही कठिन है. फिर उसका सही क्रियान्वन और कठिन है. पुनः एक भी त्रुटि हो जाय तो यजमान का ही विनाश हो जाता है. पुनः बहुत से अनुष्ठान स्त्री अथवा अब्राह्मण के लिए वर्जित होते हैं. अतः सार्वत्त्रिकता का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।
कर्मकांड में देवी देवताओं की पूजा होती है। देवी देवता स्वयं माया के बंधन में हैं, अतः उनके वहाँ अत्यंत ही कड़े-कड़े नियम होते हैं । जैसे हमारे संसार में बड़े आदमियों के घर में बहुत सारे नियम होते हैं जिनका वहाँ के कर्मचारियों को पालन करना होता है। मान लीजिए किसी करोड़पति के घर में नौकर उसे चाय नाश्ता दे रहा है और गलती से थोड़ी सी चाय करोड़पति के ऊपर गिर गई । नौकर को दंड तो मिलेगा ही, साथ ही हो सकता है उसको नौकरी से भी निकाल दिया जाए ।
देवी देवताओं के वहाँ तो संसार के सबसे बड़े ऐश्वर्य वाले से भी कई गुना अधिक ऐश्वर्य है । अतः कर्मकांड में बहुत ही कड़े 6 नियम हैं जिनका पूर्णतया पालन करना होता है । उनमें से एक भी नियम का यदि थोड़ा सा भी उल्लंघन हो गया तो देवी-देवता कुपित हो जाते हैं और कर्मकांड करवाने वाले यजमान का अनिष्ट हो जाता है ।
इस अंक में हम चौथी कसौटी, सार्वत्रिकता, पर चर्चा करेंगे। सार्वत्रिकता का अर्थ है “सभी के लिए सुलभ” । इस कसौटी पर कर्म, ज्ञान तथा भक्ति को कसकर देखते हैं कि किस मार्ग में सार्वत्रिकता है ।
प्रथम तो कर्मकांड के नियमों का सम्यक् शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना ही कठिन है. फिर उसका सही क्रियान्वन और कठिन है. पुनः एक भी त्रुटि हो जाय तो यजमान का ही विनाश हो जाता है. पुनः बहुत से अनुष्ठान स्त्री अथवा अब्राह्मण के लिए वर्जित होते हैं. अतः सार्वत्त्रिकता का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।
कर्मकांड में देवी देवताओं की पूजा होती है। देवी देवता स्वयं माया के बंधन में हैं, अतः उनके वहाँ अत्यंत ही कड़े-कड़े नियम होते हैं । जैसे हमारे संसार में बड़े आदमियों के घर में बहुत सारे नियम होते हैं जिनका वहाँ के कर्मचारियों को पालन करना होता है। मान लीजिए किसी करोड़पति के घर में नौकर उसे चाय नाश्ता दे रहा है और गलती से थोड़ी सी चाय करोड़पति के ऊपर गिर गई । नौकर को दंड तो मिलेगा ही, साथ ही हो सकता है उसको नौकरी से भी निकाल दिया जाए ।
देवी देवताओं के वहाँ तो संसार के सबसे बड़े ऐश्वर्य वाले से भी कई गुना अधिक ऐश्वर्य है । अतः कर्मकांड में बहुत ही कड़े 6 नियम हैं जिनका पूर्णतया पालन करना होता है । उनमें से एक भी नियम का यदि थोड़ा सा भी उल्लंघन हो गया तो देवी-देवता कुपित हो जाते हैं और कर्मकांड करवाने वाले यजमान का अनिष्ट हो जाता है ।
अन्य युगों में भी कर्मकांड का पालन मुश्किल था परंतु कलिकाल में कर्मकांड का अक्षरशः पालन करना तो सर्वथा असंभव है । अतः कर्म मार्ग में सार्वत्रिकता है ही नहीं ।
अब ज्ञान मार्ग का निरीक्षण करते हैं ।
अब ज्ञान मार्ग का निरीक्षण करते हैं ।
कहत कठिन समुझत कठिन, साधन कठिन विवेक,
होहि घुणाक्षर न्याय ज्यों, त्यों प्रत्युष अनेक ।।
होहि घुणाक्षर न्याय ज्यों, त्यों प्रत्युष अनेक ।।
ज्ञान मार्ग के दर्शन को तो कहना ही कठिन है। समझना तो और कठिन है। फिर उस पर चलनेवाला तो कोई बिरला ही हो सकता है।
ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका, साधन कठिन ना मन कहँ टेका
ज्ञान मार्ग पर चलने से पूर्व साधन-चतुष्टय-संपन्न होना होगा । शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान मार्ग में चलने के लिए प्रथम सोपान है मन पर कंट्रोल । मन पर कंट्रोल कर लो, उसके बाद ही ज्ञान मार्ग का क ख ग घ शुरू होगा। इसका तो अधिकारित्व ही इतना बड़ा है कि 8 अरब में से 8 लोग भी ऐसे नहीं मिलेंगे जो अधिकारी हों । मन पर कंट्रोल कैसा होता है ? इसको एक उदहारण के द्वारा समझिये।
आपने राजा जनक की कहानी सुनी होगी। त्रेता युग में रामावतार में जनक जी महाराज माता सीता के पिता तथा भगवान् राम के ससुर थे ।
राजा जनक के गुरु थे याज्ञवल्क्य । वे पाठशाला में सदा राजा जनक को आगे बिठाते थे । अतः अन्य विद्यार्थी उनसे ईर्ष्या करते थे। उन विद्यार्थियों की मान्यता थी कि जनक राजा हैं इसलिए गुरुजी उन्हें आगे बिठाते हैं । अंतर्यामी गुरु जी ने भाँप लिया तो उन्होंने योगमाया से एक लीला रची । उन्होंने अपने आश्रम में शिष्यों की कुटी में आग लगा दी। सारे विद्यार्थी अपनी एक लंगोटी और कमंडल बचाने के लिए गुरुजी की पाठशाला छोड़कर भागे।
आपने राजा जनक की कहानी सुनी होगी। त्रेता युग में रामावतार में जनक जी महाराज माता सीता के पिता तथा भगवान् राम के ससुर थे ।
राजा जनक के गुरु थे याज्ञवल्क्य । वे पाठशाला में सदा राजा जनक को आगे बिठाते थे । अतः अन्य विद्यार्थी उनसे ईर्ष्या करते थे। उन विद्यार्थियों की मान्यता थी कि जनक राजा हैं इसलिए गुरुजी उन्हें आगे बिठाते हैं । अंतर्यामी गुरु जी ने भाँप लिया तो उन्होंने योगमाया से एक लीला रची । उन्होंने अपने आश्रम में शिष्यों की कुटी में आग लगा दी। सारे विद्यार्थी अपनी एक लंगोटी और कमंडल बचाने के लिए गुरुजी की पाठशाला छोड़कर भागे।
पुनः जब सब आकर बैठ गए तो थोड़ी देर बाद उन्होंने पूरी जनकपुरी में आग लगा दी। राजा जनक के सैनिक भागे भागे आए और राजा साहब को बताया । राजा साहब ने सुनकर अनसुना कर दिया और गुरु जी से क्षमा माँग कर बोले गुरुजी “ब्रह्म के लक्षण बताइए” । थोड़ी देर बाद कुछ और सैनिक आए । उन्होंने बताया कि रनिवास में भी आग लग गई है सारी रानियाँ जलने लगी हैं। राजा जनक ने उनकी डाँट लगाई और कहा “जाओ बुझाओ और यहाँ दोबारा मत आना” ।
तब याज्ञवल्क्य ने जनक से पूछा कि तुम जा क्यों नहीं रहे हो? तो जनक ने बताया कि यह सब तो नश्वर है । जो आप दे रहे हैं वही मृत्यु के बाद भी साथ जाएगा । अतः उसी को प्राप्त करने हेतु मैं यहाँ बैठा हूँ, छोड़कर नहीं जा रहा हूँ । तब याज्ञवल्क्य ने अन्य बालकों को संबोधित करते हुए कहा कि राजा जनक इतने विरक्त हैं कि पूरा राज्य जल गया और जनक उठ कर नहीं गए और तुम लोग एक कमंडल और एक लंगोटी बचाने के लिए ब्रह्म का विषय छोड़कर भागे । कोई व्यक्ति राजा जनक जितना विरक्त हो तो वह ज्ञान मार्ग पर चलने का अधिकारी होता है । इतना उत्कट वैराग्य तो सबको होता नहीं हैं । और इसके बाद ज्ञानमार्ग की साधना तो और भी कठिन है । तो स्वाभाविक है कि यह मार्ग तो सबके लिए हो ही नहीं सकता । अर्थात ज्ञान मार्ग में भी सार्वत्रिकता नहीं है ।
अब भक्ति मार्ग के अधिकारियों की चर्चा करते हैं । भगवान् की अपेक्षा देवताओं का ऐश्वर्य नगण्य है और वहाँ इतने कड़े-कड़े नियम हैं तो भगवान् की उपासना के नियम कितने कड़े नियम होंगे ? जब हम कर्म तथा ज्ञान के ही अधिकारी नहीं हैं तो भक्ति के अधिकारी कैसे बनेंगे ?
हाँ, भगवान् के बराबर तो किसी का ऐश्वर्य न था, न है, न होगा । परंतु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगवान् की भक्ति में कोई अधिकारित्व नहीं है ।
तब याज्ञवल्क्य ने जनक से पूछा कि तुम जा क्यों नहीं रहे हो? तो जनक ने बताया कि यह सब तो नश्वर है । जो आप दे रहे हैं वही मृत्यु के बाद भी साथ जाएगा । अतः उसी को प्राप्त करने हेतु मैं यहाँ बैठा हूँ, छोड़कर नहीं जा रहा हूँ । तब याज्ञवल्क्य ने अन्य बालकों को संबोधित करते हुए कहा कि राजा जनक इतने विरक्त हैं कि पूरा राज्य जल गया और जनक उठ कर नहीं गए और तुम लोग एक कमंडल और एक लंगोटी बचाने के लिए ब्रह्म का विषय छोड़कर भागे । कोई व्यक्ति राजा जनक जितना विरक्त हो तो वह ज्ञान मार्ग पर चलने का अधिकारी होता है । इतना उत्कट वैराग्य तो सबको होता नहीं हैं । और इसके बाद ज्ञानमार्ग की साधना तो और भी कठिन है । तो स्वाभाविक है कि यह मार्ग तो सबके लिए हो ही नहीं सकता । अर्थात ज्ञान मार्ग में भी सार्वत्रिकता नहीं है ।
अब भक्ति मार्ग के अधिकारियों की चर्चा करते हैं । भगवान् की अपेक्षा देवताओं का ऐश्वर्य नगण्य है और वहाँ इतने कड़े-कड़े नियम हैं तो भगवान् की उपासना के नियम कितने कड़े नियम होंगे ? जब हम कर्म तथा ज्ञान के ही अधिकारी नहीं हैं तो भक्ति के अधिकारी कैसे बनेंगे ?
हाँ, भगवान् के बराबर तो किसी का ऐश्वर्य न था, न है, न होगा । परंतु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगवान् की भक्ति में कोई अधिकारित्व नहीं है ।
भगवान् जीव के सनातन पिता हैं तथा स्वभाव से भी हितैषी तथा अकारण-करुण (2) हैं । स्वार्थी संसार में भी यह देखा जाता है कि पिता संतान की गलतियों को देख कर अनदेखा कर देता है और साम, दाम दण्ड भेद से सुधरने को प्रोत्साहित करता है । हितैषी होने के कारण संसारी पिता से कहीं अधिक भगवान् जीवों को आनंद देने हेतु कृपा करते हैं । इसलिए भगवान ने भक्ति करने के लिए कोई अधिकारित्व रखा ही नहीं है ।
नातिसक्त-नातिविरक्त - जो संसार में नातिसक्त (न-अति-आसक्त) हो और नातिविरक्त (न-अति-विरक्त ) हो, वे सब भक्ति मार्ग में चलने के अधिकारी हैं। ऐसे तो सभी हैं, क्योंकि संसार में किसी को परमानंद नहीं मिलता इसलिए हर जीव में थोड़ा थोड़ा वैराग्य होता ही है और इसलिए भगवान् में थोड़ा अनुराग होता ही है ।
अतः इस मार्ग पर चलने के सब अधिकारी हैं ।
तुलसीदास जी रामायण में कहते हैं -
नातिसक्त-नातिविरक्त - जो संसार में नातिसक्त (न-अति-आसक्त) हो और नातिविरक्त (न-अति-विरक्त ) हो, वे सब भक्ति मार्ग में चलने के अधिकारी हैं। ऐसे तो सभी हैं, क्योंकि संसार में किसी को परमानंद नहीं मिलता इसलिए हर जीव में थोड़ा थोड़ा वैराग्य होता ही है और इसलिए भगवान् में थोड़ा अनुराग होता ही है ।
अतः इस मार्ग पर चलने के सब अधिकारी हैं ।
तुलसीदास जी रामायण में कहते हैं -
पुरुष नपुंसक नारि नर जीव चराचर कोइ।
सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ। साधक सिद्ध विमुक्त उदासी, कवि कोविद कृतज्ञ सन्यासी । योगी शूर सुतापस ज्ञानी, धर्मनिरत पंडित विज्ञानी । तरइ न बिनु सेये मम स्वामी, राम नमामि नमामि नमामि । |
स्वांश भी विभिन्नांश भी
ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर, जो त्रिदेव कहलाते हैं, भगवान् की पराशक्ति के अंश हैं तथा स्वरूप शक्ति के गवर्नर (नियंता) हैं । वे भी भगवान् की भक्ति करते हैं । और हम जैसे विभिन्नांश जीव भी भक्ति करने के अधिकारी हैं ।
ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर, जो त्रिदेव कहलाते हैं, भगवान् की पराशक्ति के अंश हैं तथा स्वरूप शक्ति के गवर्नर (नियंता) हैं । वे भी भगवान् की भक्ति करते हैं । और हम जैसे विभिन्नांश जीव भी भक्ति करने के अधिकारी हैं ।
सदाचारी भी दुराचारी भी
सदाचारी तो कहलाता ही वह है जिसमें भगवदीय गुण हों । बिना भक्ति किये किसी में भगवदीय गुण अनंत मात्रा में आ ही नहीं सकते (3)। कुछ मात्रा में यदि आ भी जाएँ, तो स्थाई रूप से रह नहीं सकते । सदाचारी का अर्थ ही यह है जो भगवद् भक्ति करता हो ।
दुराचारियों को भी भक्ति करने का अधिकार है । अजामिल (4) और गणिका जैसे पापाचारियों ने भी भक्ति करके अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है । कहाँ तक कहें राम न कह सकने वाला डाकू रत्नाकर (5) भी भक्ति करने का अधिकारी है जो भक्ति करके महर्षि वाल्मीकि बन गया ।
ज्ञानी भी अज्ञानी भी
ज्ञान वह ही है जिससे भगवान् में प्रेम बढ़े । अतः ज्ञानी तो भक्ति करता ही है अज्ञानी भी भक्ति करने का अधिकारी है। धन्ना जाट (6) जैसा अंगूठा छाप मूढ़मति भी एक हफ्ते में प्रेम से भगवान् को अपने वश में कर लेता है ।
सदाचारी तो कहलाता ही वह है जिसमें भगवदीय गुण हों । बिना भक्ति किये किसी में भगवदीय गुण अनंत मात्रा में आ ही नहीं सकते (3)। कुछ मात्रा में यदि आ भी जाएँ, तो स्थाई रूप से रह नहीं सकते । सदाचारी का अर्थ ही यह है जो भगवद् भक्ति करता हो ।
दुराचारियों को भी भक्ति करने का अधिकार है । अजामिल (4) और गणिका जैसे पापाचारियों ने भी भक्ति करके अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है । कहाँ तक कहें राम न कह सकने वाला डाकू रत्नाकर (5) भी भक्ति करने का अधिकारी है जो भक्ति करके महर्षि वाल्मीकि बन गया ।
ज्ञानी भी अज्ञानी भी
ज्ञान वह ही है जिससे भगवान् में प्रेम बढ़े । अतः ज्ञानी तो भक्ति करता ही है अज्ञानी भी भक्ति करने का अधिकारी है। धन्ना जाट (6) जैसा अंगूठा छाप मूढ़मति भी एक हफ्ते में प्रेम से भगवान् को अपने वश में कर लेता है ।
बद्ध भी मुक्त भी
जो मायाबद्ध हैं उनको मायातीत होने के लिए भक्ति करनी ही होगी । शंकराचार्य के अनुसार यदा-कदा (करोड़ों में एक) ब्रह्मानंद प्राप्त मुक्त ज्ञानी पुनः शरीर धारण करके प्रेमानंद प्राप्त करने हेतु भक्ति करता है । ब्रह्मलीन ज्ञानी भी भक्ति करने के अधिकारी हैं । आपने श्री महाराज जी से अनेक बार सुना होगा कि राम राज्य में एक भी मायाधीन व्यक्ति नहीं था । साथ ही आपने यह भी सुना होगा कि ब्रज में अनेक परमहंस वृक्ष, लता, पता बनकर औंधे मुँह खड़े थे और श्री कृष्ण की लीलाओं का रसपान करते थे ।
जो मायाबद्ध हैं उनको मायातीत होने के लिए भक्ति करनी ही होगी । शंकराचार्य के अनुसार यदा-कदा (करोड़ों में एक) ब्रह्मानंद प्राप्त मुक्त ज्ञानी पुनः शरीर धारण करके प्रेमानंद प्राप्त करने हेतु भक्ति करता है । ब्रह्मलीन ज्ञानी भी भक्ति करने के अधिकारी हैं । आपने श्री महाराज जी से अनेक बार सुना होगा कि राम राज्य में एक भी मायाधीन व्यक्ति नहीं था । साथ ही आपने यह भी सुना होगा कि ब्रज में अनेक परमहंस वृक्ष, लता, पता बनकर औंधे मुँह खड़े थे और श्री कृष्ण की लीलाओं का रसपान करते थे ।
विरक्त भी विमुख भी
राजा जनक अत्यंत विरक्त थे इसलिए उनको विदेह की उपाधि मिली थी । वे भी भक्ति करने के अधिकारी हैं । आपने सुना ही होगा बगीचे में श्री राम को देखते ही जनक महाराज मुग्ध हो गए ।
जो जीव भगवद् विमुख हैं उसको भी भक्ति करने का अधिकार है । सारे वेद शास्त्र उन्हीं लोगों के लिए लिखे गए हैं जिससे वे भगवद्भक्ति के मार्ग पर प्रवृत्त हो सकें ।
विमुक्त भी विषयी भी
जिसको संसार से वैराग्य है उसको तो भगवान् में आसक्ती होगी ही - क्योंकि मन चलायमान है, अतः बिना कुछ किये रह ही नहीं सकता । मायिक जगत और भगवदीय क्षेत्र के अतिरिक्त कोई तीसरी जगह ही नहीं है । जिसको मायिक जगत से वैराग्य है, उसको निश्चित ही भगवान् में अनुराग होगा ।
जो विषयों में अत्यधिक आसक्त हो वह भी भक्ति करने का अधिकारी है । आपने तुलसीदास का आख्यान सुना होगा । वे अपनी पत्नी में इतने आसक्त थे कि अपनी ससुराल में सांप को पकड़कर उसके कक्ष में पहुँच गए । जब साँप को पकड़ कर कोई युवक ऊपर चढ़ेगा तो साँप को कष्ट होगा । तो साँप ने अपने शरीर को मरोड़ा होगा । तुलसीदास को फिर भी कुछ भान ही नहीं हुआ, इतने आसक्त थे । ऐसे घोर विषयी भी भक्ति करने के अधिकारी हैं ।
नर भी नारी भी
अनेक पुरुष संतों के नाम आपने सुने होंगे यथा तुलसी, सूर, कबीर, नानक, तुकाराम, और पाँचों जगद्गुरु । तो स्वयं सिद्ध है कि पुरुष भक्ति के अधिकारी हैं । श्री महाराज जी की कृपा से आप यह भी जान गए हैं कि ब्रज की बनचरी स्त्रियाँ (इन्हें गोपियाँ कहा जाता है) भक्ति की आचार्या हैं । अर्थात स्त्रियाँ भी भक्ति की अधिकारी हैं ।
बालक भी वृद्ध भी
भक्ति करने में भगवान् भक्तों की आयु नहीं देखते । आपने ध्रुव (7) तथा प्रह्लाद (8) का आख्यान सुना होगा जिन्होंने 5 वर्ष की आयु में ही भगवत्प्राप्ति कर ली । और गुरु वशिष्ठ, कबीर आदि वृद्धावस्था में भी भक्ति करते रहे । और युवक तथा युवतियाॅं भी भक्ति करने के अधिकारी हैं ।
राजा जनक अत्यंत विरक्त थे इसलिए उनको विदेह की उपाधि मिली थी । वे भी भक्ति करने के अधिकारी हैं । आपने सुना ही होगा बगीचे में श्री राम को देखते ही जनक महाराज मुग्ध हो गए ।
जो जीव भगवद् विमुख हैं उसको भी भक्ति करने का अधिकार है । सारे वेद शास्त्र उन्हीं लोगों के लिए लिखे गए हैं जिससे वे भगवद्भक्ति के मार्ग पर प्रवृत्त हो सकें ।
विमुक्त भी विषयी भी
जिसको संसार से वैराग्य है उसको तो भगवान् में आसक्ती होगी ही - क्योंकि मन चलायमान है, अतः बिना कुछ किये रह ही नहीं सकता । मायिक जगत और भगवदीय क्षेत्र के अतिरिक्त कोई तीसरी जगह ही नहीं है । जिसको मायिक जगत से वैराग्य है, उसको निश्चित ही भगवान् में अनुराग होगा ।
जो विषयों में अत्यधिक आसक्त हो वह भी भक्ति करने का अधिकारी है । आपने तुलसीदास का आख्यान सुना होगा । वे अपनी पत्नी में इतने आसक्त थे कि अपनी ससुराल में सांप को पकड़कर उसके कक्ष में पहुँच गए । जब साँप को पकड़ कर कोई युवक ऊपर चढ़ेगा तो साँप को कष्ट होगा । तो साँप ने अपने शरीर को मरोड़ा होगा । तुलसीदास को फिर भी कुछ भान ही नहीं हुआ, इतने आसक्त थे । ऐसे घोर विषयी भी भक्ति करने के अधिकारी हैं ।
नर भी नारी भी
अनेक पुरुष संतों के नाम आपने सुने होंगे यथा तुलसी, सूर, कबीर, नानक, तुकाराम, और पाँचों जगद्गुरु । तो स्वयं सिद्ध है कि पुरुष भक्ति के अधिकारी हैं । श्री महाराज जी की कृपा से आप यह भी जान गए हैं कि ब्रज की बनचरी स्त्रियाँ (इन्हें गोपियाँ कहा जाता है) भक्ति की आचार्या हैं । अर्थात स्त्रियाँ भी भक्ति की अधिकारी हैं ।
बालक भी वृद्ध भी
भक्ति करने में भगवान् भक्तों की आयु नहीं देखते । आपने ध्रुव (7) तथा प्रह्लाद (8) का आख्यान सुना होगा जिन्होंने 5 वर्ष की आयु में ही भगवत्प्राप्ति कर ली । और गुरु वशिष्ठ, कबीर आदि वृद्धावस्था में भी भक्ति करते रहे । और युवक तथा युवतियाॅं भी भक्ति करने के अधिकारी हैं ।
ब्राह्मण भी चाण्डाल भी
भगवान् भक्तों का कुल नहीं देखते । रैदास (9), कबीर, और अनेक सूफी संत कितने ही हो चुके हैं जो ब्राह्मण नहीं थे, परंतु भगवान् को अत्यंत प्रिय थे । साथ ही उच्च कुलीन ब्राह्मण भी भक्ति करने का अधिकारी है। मूर्ख भी विद्वान् भी पूर्ववर्ती चारों जगद्गुरु, मधुसूदन सरस्वती आदि विद्वान तो भक्ति करते ही हैं । मूर्ख भी भक्ति करने का अधिकारी है । वास्तव में विद्वान भक्त तो कम ही हुए हैं ।अधिकांश तो अंगूठा छाप भक्तों ने ही भक्ति करके अपना परम चरम लक्ष्य प्राप्त किया है । मनुष्य भी तथा पशु-पक्षी भी मनुष्य तो भक्ति करने के अधिकारी हैं ही, पशु-पक्षी यहाँ तक कि वृक्ष भी भगवान् की भक्ति के अधिकारी हैं। आपने कागभुशुडि और गजराज (10) का आख्यान सुना होगा जो भक्ति से तर गए । बड़े-बड़े परमहंस वृक्ष बन कर अपनी शाखा पर श्यामा-श्याम के झूले को बँधवा कर झूला झूलते समय युगल सरकार पर पुष्प वृष्टि करने के अधिकारी थे । कहाँ तक कहें जड़ वस्तु (जिसमें चेतना, मन, इंद्रिय और बुद्धि नहीं हैं) के अतिरिक्त सब भक्ति करने के अधिकारी हैं । अतः एकमात्र भक्ति मार्ग में ही सार्वत्रिकता का गुण है । |
कर्म आदि में नियम, गोविंद राधे । भक्ति में नियम, कछु ना बता दे ॥
- राधा गोविंद गीत
जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज कर्मादि आध्यात्मिक उत्थान के उपायों का पालन करते समय कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। लेकिन भक्ति मार्ग पर चलने का कोई नियम नहीं है ।
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सिद्धान्त, लीलादि |
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