
होली का पावन पर्व हमें सर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण के प्रति भक्त शिरोमणि संत प्रह्लाद की दृढ़ भक्ति की याद दिलाता है।
एक दिन ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनकादिक परमहंस भगवान महाविष्णु के बैकुंठ लोक पधारे। बैकुंठ लोक के मुख्य द्वार पर जय और विजय नामक द्वारपालों ने उनको अंदर जाने से रोक दिया। क्रोधित होकर चारों भाइयों ने जय विजय को राक्षस बनकर अपने ही स्वामी के विरुद्ध युद्ध करने का श्राप दे दिया। यही जय और विजय पृथ्वी लोक में हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष नामक राक्षस हुए।
हिरण्याक्ष क्रूर राक्षस था जो सभी को यातनाएँ देता था। भगवान ने वाराह का अवतार लेकर उसका वध कर दिया। अपने भाई के वध पर हिरण्यकशिपु भगवान विष्णु पर अत्यंत क्रोधित हुआ तथा बदला लेने के उद्देश्य से कठोर तपस्या करके उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे लगभग अमर होने का सा वरदान प्राप्त कर लिया। वरदान प्राप्त करने के पश्चात वह अत्यंत अहंकारी हो गया तथा उसने अपनी प्रजा द्वारा विष्णु की पूजा अर्चना करना वर्जित कर दिया। उसने अपने आपको भगवान घोषित कर प्रजा को अपनी पूजा करने का आदेश दिया।
एक दिन ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनकादिक परमहंस भगवान महाविष्णु के बैकुंठ लोक पधारे। बैकुंठ लोक के मुख्य द्वार पर जय और विजय नामक द्वारपालों ने उनको अंदर जाने से रोक दिया। क्रोधित होकर चारों भाइयों ने जय विजय को राक्षस बनकर अपने ही स्वामी के विरुद्ध युद्ध करने का श्राप दे दिया। यही जय और विजय पृथ्वी लोक में हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष नामक राक्षस हुए।
हिरण्याक्ष क्रूर राक्षस था जो सभी को यातनाएँ देता था। भगवान ने वाराह का अवतार लेकर उसका वध कर दिया। अपने भाई के वध पर हिरण्यकशिपु भगवान विष्णु पर अत्यंत क्रोधित हुआ तथा बदला लेने के उद्देश्य से कठोर तपस्या करके उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे लगभग अमर होने का सा वरदान प्राप्त कर लिया। वरदान प्राप्त करने के पश्चात वह अत्यंत अहंकारी हो गया तथा उसने अपनी प्रजा द्वारा विष्णु की पूजा अर्चना करना वर्जित कर दिया। उसने अपने आपको भगवान घोषित कर प्रजा को अपनी पूजा करने का आदेश दिया।
भगवान की इच्छा अनुसार हिरण्यकशिपु के पुत्र के रूप में भक्त प्रह्लाद ने जन्म लिया। बचपन से ही प्रह्लाद अपना अधिकांश समय भगवान के चिंतन में व्यतीत करते थे। भक्त प्रह्लाद के द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वी भगवान विष्णु की उपासना हिरण्यकशिपु के लिए असहनीय थी अतः उसने अपने सैनिकों को प्रह्लाद का वध करने का आदेश दिया। सैनिकों के अनेक प्रकार से प्रह्लाद का वध करने का प्रयास किया किंतु असफल रहे। इसका कारण था कि भगवान अपने भक्तों के लिए यह विरद निभाते हैं -
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ गीता 9.22
जो जीव अनन्य भाव से मेरी उपासना करता है मैं उसके योगक्षेम को स्वयं वहन करता हुँ अर्थात इस लोक तथा परलोक दोनों में उसके पास जो है उसकी रक्षा करता हूँ और जो उसके पास नहीं है वह उसको देता हुँ "
जब सभी सैनिक असफल हो गए तब हिरण्यकशिपु ने स्वयं प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया। हिरण्यकशिपु ने अत्यंत क्रोधित होकर प्रह्लाद से पूछा, "तेरा भगवान कहाँ रहता है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया,"भगवान सब जगह विद्यमान हैं, वे आपके हृदय में भी रहते हैं।" |

उसी समय हिरण्यकशिपु ने अपने महल में एक खंबे की ओर इंगित करते हुए प्रह्लाद से पूछा "क्या तेरा भगवान इस खंभे में भी रहता है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया "जी हाँ इसमें भी रहते हैं "। उस राक्षस ने अपनी गदा से उस खंभे पर प्रहार किया। सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण वहां उस खंभे से प्रकट हुए। आपके शरीर का अर्ध भाग नर समान था एवं शरीर का दूसरा भाग सिंह के समान था। भगवान के इस अवतार को नरसिंह अवतार कहा जाता है। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी जँघाऔं पर रखकर अपने तिक्ष्ण नखौं द्वारा उसका वध कर दिया और प्रह्लाद को उसके पिता के कोप से बचा लिया। साथ ही अपने सर्वव्यापी होने का प्रमाण भी दे दिया ।
अपने लोक को वापस जाने से पहले भगवान नरसिंह ने प्रह्लाद से वरदान मांगने को कहा जिस पर प्रह्लाद थोड़ा चकित हुए क्योंकि उन्होंने अपनी मां के गर्भ में ही सुना था कि भगवान से कभी कुछ नहीं माँगना चाहिए।
जिस समय हिरण्यकशिपु ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या कर रहा था उस समय स्वर्ग के राजा इंद्र ने हिरण्यकशिपु की सन्तान की गर्भ में ही हत्या करने के उद्देश्य से हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु का अपहरण कर लिया। भक्त प्रह्लाद उस समय कयाधु के गर्भ में थे। नारद मुनि ने इंद्र को ऐसा करने से रोका तथा कयाधु को अपनी शरण में रखा और उसे भगवत ज्ञान प्रदान किया। उस समय ही, प्रह्लाद ने, गर्भ में उस ज्ञान को ध्यानपूर्वक सुना एवं मनन कर उसका पूर्ण रूप से अंगीकरण कर लिया था। यद्यपि अभी प्रह्लाद 5 वर्ष के ही बालक थे परंतु वे अनन्य एवं निष्काम भक्ति से ओतप्रोत पूर्ण रूप से भगवान के शरणागत थे।
अतः प्रह्लाद ने उत्तर दिया -
अपने लोक को वापस जाने से पहले भगवान नरसिंह ने प्रह्लाद से वरदान मांगने को कहा जिस पर प्रह्लाद थोड़ा चकित हुए क्योंकि उन्होंने अपनी मां के गर्भ में ही सुना था कि भगवान से कभी कुछ नहीं माँगना चाहिए।
जिस समय हिरण्यकशिपु ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या कर रहा था उस समय स्वर्ग के राजा इंद्र ने हिरण्यकशिपु की सन्तान की गर्भ में ही हत्या करने के उद्देश्य से हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु का अपहरण कर लिया। भक्त प्रह्लाद उस समय कयाधु के गर्भ में थे। नारद मुनि ने इंद्र को ऐसा करने से रोका तथा कयाधु को अपनी शरण में रखा और उसे भगवत ज्ञान प्रदान किया। उस समय ही, प्रह्लाद ने, गर्भ में उस ज्ञान को ध्यानपूर्वक सुना एवं मनन कर उसका पूर्ण रूप से अंगीकरण कर लिया था। यद्यपि अभी प्रह्लाद 5 वर्ष के ही बालक थे परंतु वे अनन्य एवं निष्काम भक्ति से ओतप्रोत पूर्ण रूप से भगवान के शरणागत थे।
अतः प्रह्लाद ने उत्तर दिया -
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः ।
भा. 7.10.6
"ओ मेरे स्वामी! यह आप क्या कह रहे हैं? अपने लिये दास का स्वामी से कुछ माँगना दासत्व के नियम के विरुद्ध होगा। क्या अभी भी आपने मुझे अपना दास नहीं माना?"
भगवान स्तब्ध रह गए वे प्रह्लाद की निष्काम भक्ति पर मुस्कुराए परंतु अभी भी उन्होंने वरदान माँगने के लिए कहा क्योंकि यह नियम है। तब प्रह्लाद ने अत्यंत नम्रता से उत्तर दिया "यदि यह अनिवार्य है तो मैं आपसे अवश्य माँगूंगा "
भगवान स्तब्ध रह गए वे प्रह्लाद की निष्काम भक्ति पर मुस्कुराए परंतु अभी भी उन्होंने वरदान माँगने के लिए कहा क्योंकि यह नियम है। तब प्रह्लाद ने अत्यंत नम्रता से उत्तर दिया "यदि यह अनिवार्य है तो मैं आपसे अवश्य माँगूंगा "
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षम । कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्॥
भा 7.10.7
"मुझे यह वरदान दीजिए कि स्व-सुख की कामना तथा उन कामनओं का बीज सदा के लिये समाप्त हो जाये। "
अतः प्रह्लाद ने हमको यह शिक्षा दी कि विशुद्ध भक्ति हर प्रकार की इच्छाओं से रहित होती है। इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं। मायिक इच्छाएँ जो मृत्युलोक से ब्रह्मलोक तक होती हैं इसे भुक्ति कहते हैं दूसरी मुक्ति।
अतः प्रह्लाद ने हमको यह शिक्षा दी कि विशुद्ध भक्ति हर प्रकार की इच्छाओं से रहित होती है। इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं। मायिक इच्छाएँ जो मृत्युलोक से ब्रह्मलोक तक होती हैं इसे भुक्ति कहते हैं दूसरी मुक्ति।
यो न कामयते किञ्चित्। ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
महाभारत
विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चर्ति निःस्पृहः । निर्मो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
गीता 2.71
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदिश्रिता । अथ मर्त्योऽमृतो भ्वत्यत्रब्रह्म समश्नुते ॥
कठो. 2.3.14
उपर्युक्त सभी श्लोक एक स्वर में यह कहते हैं कि "सभी इच्छाओं का त्याग कर दो तो भगवान के समान हो जाओगे"। इन इच्छाओं का निर्मूल त्याग तो भगवद प्राप्ति पर ही संभव है। तथा भगवद प्राप्ति के लिये भगवद कृपा अनिवार्य है। सभी दुखों का मूल कारण इच्छाएँ हैं।
भक्त प्रह्लाद के गुरु संत नारद ने नारद भक्ति दर्शन में एक सूत्र लिखा है -
भक्त प्रह्लाद के गुरु संत नारद ने नारद भक्ति दर्शन में एक सूत्र लिखा है -
तत्सुखसुखित्वम्
नारद भक्ति दर्शन

"उनके सुख में ही मेरा सुख निहित है"
कामनाएँ ही हमारे दुखों का कारण है। साधारण बुद्धि से कामनाओं का अभाव होने से दुःख समाप्त हो जायेंगे। किंतु कामनाओं का अभाव होना स्वभाव के विपरीत है अतः अप्राप्य है, तथापि जीव अपने सुखों की इच्छाओं का त्याग करके यदि अपने प्रभु के सुख की इच्छा से सेवा करे तो वह जीव भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है। यद्यपि भगवान पूर्ण काम हैं तथापि भगवान प्रयोजन देख कर उस जीव पर कृपा कर देते हैं। गोपियों की एकमात्र इच्छा भगवान श्री कृष्ण को सुख देने की ही थी अतः श्री कृष्ण भगवान गोपियों की विशुद्ध निष्काम भक्ति के कारण उनके सदैव ऋणी रहते हैं।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसको नहीं जलाएगी। हिरण्यकशिपु ने होलिका को आज्ञा दी कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि चिता पर बैठ जाए जिससे प्रह्लाद भस्म हो जाएगा। हिरण्यकशिपु की इस योजना को भगवान ने असफल कर दिया और प्रह्लाद को बचा लिया।
होली का पावन पर्व स्मरण कराता है कि भगवान अपने शरणागत जीवों का योगक्षेम वहन करते हैं। इस दिन हमको भक्त प्रह्लाद की दृढ़ भक्ति के आदर्श का पालन करने का प्रण लेना चहिये। निष्काम भक्ति करने के लिए हर क्षण भगवान से प्रेम करते हुए उनके चिंतन में ही बिताना चाहिए जिससे भगवान हम पर कृपा करके हमको अपने परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति करवा सकें।
अतः साधक को सदैव दिव्यानंद प्राप्त करने का लक्ष्य रखना चाहिए। भक्त प्रह्लाद की भांति निष्काम भक्ति से दिव्यानंद प्राप्त होगा।
कामनाएँ ही हमारे दुखों का कारण है। साधारण बुद्धि से कामनाओं का अभाव होने से दुःख समाप्त हो जायेंगे। किंतु कामनाओं का अभाव होना स्वभाव के विपरीत है अतः अप्राप्य है, तथापि जीव अपने सुखों की इच्छाओं का त्याग करके यदि अपने प्रभु के सुख की इच्छा से सेवा करे तो वह जीव भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है। यद्यपि भगवान पूर्ण काम हैं तथापि भगवान प्रयोजन देख कर उस जीव पर कृपा कर देते हैं। गोपियों की एकमात्र इच्छा भगवान श्री कृष्ण को सुख देने की ही थी अतः श्री कृष्ण भगवान गोपियों की विशुद्ध निष्काम भक्ति के कारण उनके सदैव ऋणी रहते हैं।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसको नहीं जलाएगी। हिरण्यकशिपु ने होलिका को आज्ञा दी कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि चिता पर बैठ जाए जिससे प्रह्लाद भस्म हो जाएगा। हिरण्यकशिपु की इस योजना को भगवान ने असफल कर दिया और प्रह्लाद को बचा लिया।
होली का पावन पर्व स्मरण कराता है कि भगवान अपने शरणागत जीवों का योगक्षेम वहन करते हैं। इस दिन हमको भक्त प्रह्लाद की दृढ़ भक्ति के आदर्श का पालन करने का प्रण लेना चहिये। निष्काम भक्ति करने के लिए हर क्षण भगवान से प्रेम करते हुए उनके चिंतन में ही बिताना चाहिए जिससे भगवान हम पर कृपा करके हमको अपने परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति करवा सकें।
अतः साधक को सदैव दिव्यानंद प्राप्त करने का लक्ष्य रखना चाहिए। भक्त प्रह्लाद की भांति निष्काम भक्ति से दिव्यानंद प्राप्त होगा।