भगवत् प्राप्ति करने में जल्दी क्यों करनी है ? |
प्रश्न :
श्री महाराज जी के अनुसार जीव भी अनादि अनंत है और भगवान भी अनादि अनंत है। अतः जब समय की तो कोई कमी है ही नहीं, तो फिर जल्दी से भगवत प्राप्ति करने को क्यों कहा जाता है ? उत्तर : जी हाँ, भगवान भी अनादि अनंत शाश्वत है। जीव भी अनादि अनंत है तथा इस कारण जीव के पास समय की भी कोई पाबंदी नहीं है। |
इस बात को ध्यान में रखते हुए चलिए अब आपको आपके पिछले 24 घंटों की यात्रा पर ले चलते हैं। सोचिये, पिछले चौबीस घंटों में आप कितनी बार भूख, प्यास, थकान, नींद और दर्द जैसी शारीरिक परेशानियों से त्रस्त हुए। और कितनी बार आपको भय, असुरक्षा, क्रोध, ईर्ष्या जैसे मानसिक कष्टों और अन्य बहुत सी अप्रिय भावनाओं का सामना करना पड़ा। शास्त्रों की भाषा में इन्हें दैहिक ताप कहा जाता है।
इसके अलावा, एक दैविक ताप भी होता है जो प्रकृति के कारण होता है, उदाहरण के लिए तूफान, बाढ़, सूखा आदि। और फिर आता है भौतिक ताप, जो कीड़े आदि अन्य जीवों के कारण होता है। |
क्या आपको ये सब कष्ट अच्छे लगते हैं? क्या आप इन सभी दर्दों से छुटकारा पाने का कोई उपाय जानते हैं?
क्या आपने उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर "हाँ" में दिया था? यदि आपका उत्तर "नहीं" है तो क्या आप इन आपदाओं से छुटकारा पाना चाहते हैं? छुटकारा पाने के लिये सर्वप्रथम उपाय जानना होगा तत्पश्चात प्रयत्न भी करना होगा। करना न करना आपके हाथ में है। हम तो केवल उपाय बता सकते हैं।
उपाय जानने के लिये आगे बढ़ते हैं।
क्या आपने उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर "हाँ" में दिया था? यदि आपका उत्तर "नहीं" है तो क्या आप इन आपदाओं से छुटकारा पाना चाहते हैं? छुटकारा पाने के लिये सर्वप्रथम उपाय जानना होगा तत्पश्चात प्रयत्न भी करना होगा। करना न करना आपके हाथ में है। हम तो केवल उपाय बता सकते हैं।
उपाय जानने के लिये आगे बढ़ते हैं।
हमारे शास्त्रों के अनुसार किसी भी तत्त्व को सिद्ध करने के लिए तीन प्रकार के प्रमाण का प्रयोग किया जाता है - ये हैं प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण और शब्द प्रमाण। प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण अशक्त हैं क्योंकि उनसे उल्टा निष्कर्ष भी निकल सकता है। लेकिन किसी भी बात तो सिद्ध करने के लिए शब्द प्रमाण सबसे अच्छा और विश्वसनीय माना जाता है। और संत, जो दिव्यानंद का अनुभव कर चुके, उनके अनुभव शब्द प्रमाण के रूप में हमें प्राप्त हैं । इसलिए इस लेख में शब्द प्रमाण के द्वारा ही इस प्रश्न का उत्तर दिया जायेगा।
वेदों के अनुसार, तीन तत्त्व - जीवात्मा, परमात्मा और माया, शाश्वत और अनंत हैं। अत: यह भी सत्य है कि जीव और भगवान चेतन हैं।
वेदों के अनुसार, तीन तत्त्व - जीवात्मा, परमात्मा और माया, शाश्वत और अनंत हैं। अत: यह भी सत्य है कि जीव और भगवान चेतन हैं।
ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा, ह्येका भोक्तृ भोग्यार्थयुक्ता ।
अनंतश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता, त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्॥
अनंतश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता, त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्॥
तथापि मनुष्य को सर्वथा इसी जीवनकाल में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और वह भी जल्द से जल्द करने के लिए कहा जाता है -
इहचेदवेदिदथसत्यमस्ति न चेदिहावेदीन् महती विनष्टि: । के. उ. २.५
“अरे मनुष्यों ! इसी मानव-देह में ईश्वर को जान लो, अन्यथा महान हानि हो जायगी”। वो महान हानि क्या हो सकती है ? उत्तर -
इहचेदशकद्बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्रसं ।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।
कठोप २.६.४
“मानव देह पाकर यदि ईश्वर को नहीं जाना तो पुन: करोड़ों कल्पों तक चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाना होगा"। उससे बड़ी कोई भूल न होगी। अतएव मानव देह का महत्व समझकर ईश्वर को प्राप्त करना ही जीवन का परम चरम लक्ष्य है ।
यह सुनकर कुछ लोग ये मानने को तैयार नहीं हैं कि अन्य जीव मानव योनि से निम्न कक्षा के हैं। बहुत से लोग आकाश में उड़ते पक्षियों को देखकर सोचते हैं कि "काश मैं भी एक पक्षी होता, तो मैं भी स्वतंत्र होकर आसमान में उड़ सकता था !" विचार कीजिये - ये पक्षी बाज़ और चील जैसे अन्य पक्षियों के शिकार हो जाते हैं। उनकी सुरक्षा के लिए कोई पुलिस या न्यायपालिका नहीं है। हममें से अधिकांश लोगों की तरह आँधी तूफान में सर ढकने के लिये कोई छत नहीं है । पेड़ पौधों के जीवन को देखिये, कैसे वे मौसम को बर्दाश्त करते हैं। बर्फ़ के तूफ़ान, सूखे या बाढ़ में मनुष्य सुरक्षित स्थान पर जा सकता है, लेकिन एक पेड़ असहाय होकर उसी जगह खड़ा रहता है। क्या आप यह समझने के बाद भी युगों तक लाचार पौधों और जानवरों की योनियों में जीना चाहेंगे ? |
ये दो वेद मंत्र कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं,
1. जीवन का एक अनिवार्य लक्ष्य है, जिसे प्राप्त किये बिना नहीं रह सकते।
2. वह मानव योनि में ही प्राप्त किया जा सकता है।
3. मानव देह क्षणभंगुर है।
4. मृत्यु का समय किसी को नहीं पता।
यद्यपि आत्मा शाश्वत है, भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं -
1. जीवन का एक अनिवार्य लक्ष्य है, जिसे प्राप्त किये बिना नहीं रह सकते।
2. वह मानव योनि में ही प्राप्त किया जा सकता है।
3. मानव देह क्षणभंगुर है।
4. मृत्यु का समय किसी को नहीं पता।
यद्यपि आत्मा शाश्वत है, भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं -
न जायते म्रियते वा कदाचि नायं भूत्वा भविता वा न भूय: |
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || 2.20||
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || 2.20||
“आत्मा का न तो कभी जन्म होता है न ही मृत्यु होती है। आत्मा अजन्मा, शाश्वत, अविनाशी और चिरनूतन है। शरीर का विनाश होने पर भी इसका विनाश नहीं होता।”
तो, हम यह समझ सकते हैं कि शरीर क्षणिक है और मृत्यु कभी भी आ सकती है। इसलिये हमें अपने एकमात्र लक्ष्य अनंत अपरिमेय दिव्यानंद प्राप्ति को इसी जीवन में पाना होगा क्योंकि केवल मानव शरीर में हम ये कर सकते हैं। अन्य किसी भी योनि को यह अधिकार नहीं दिया गया है चाहे स्वर्ग के देवता ही क्यों न हों। मनुष्य शरीर देव दुर्लभ है। अगर हम विषयासक्त होने के कारण दिव्यानंद प्राप्ति के मार्ग को नहीं अपनाएँगे तो इस दुर्लभ अवसर को खो देंगे और यह शरीर करोड़ों युगों तक दोबारा नहीं मिलेगा। हमारी दुनिया में भी यह होता है, अगर कोई कर्मचारी अपनी कंपनी से मिली हुई सुविधाओं का दुरुपयोग करता है, तो कंपनी उन सुविधाओं को उससे वापस ले लेती है। संत तुलसीदास जी कहते हैं - |
कबहुँक करि करुणा नर देही । देत ईश बिनु हेतु सनेही ॥
"मानव देह , जो इस बार मिला है, ये तो कभी कभी किसी बड़भागी को भगवत् कृपा से प्राप्त होता है।" कुछ भोले-भाले लोग कहते हैं, “मैं तत्त्वज्ञान को अच्छी तरह समझता हूँ। फिर भी मेरी सारी जिम्मेदारियाँ जब पूरी हो जाएँगी तब भक्ति करना प्रारम्भ करूँगा"। इस तरह की सोच उन लोगों में पाई जाती है जो जीवन की क्षणभंगुरता को नहीं समझते। महाभारत कहता है -
बहिःसरति निःश्वासे विश्वासः कः प्रवर्तते ॥
"जो साँस बाहर निकल गई उसका क्या विश्वास कि वो पुनः अंदर आएगी?"
यह स्पष्ट है, मानव जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि अनंत शाश्वत दिव्यानंद (भक्ति) प्राप्ति है, या माया से मुक्ति है।
यह स्पष्ट है, मानव जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि अनंत शाश्वत दिव्यानंद (भक्ति) प्राप्ति है, या माया से मुक्ति है।
अधिकांश सिद्धांत माया से मुक्ति को ही जीव का अंतिम लक्ष्य मानते हैं। जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज हमें समझाते हैं कि मुक्ति का लक्ष्य रखने में बुद्धिमत्ता नहीं हैं। मुक्ति से दुःखनिवृत्ति तो हो जाएगी, लेकिन आनंद प्राप्ति नहीं होगी। मुक्ति पाने का लक्ष्य रखने वाले साधक साकार भगवान में विश्वास नहीं करते, तो वे निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं। इसलिए जब उनकी माया निवृत्ति होती है, तो वे अपने भौतिक शरीर से भी हमेशा के लिये मुक्त हो जाते हैं, जिसमें इंद्रियाँ, मन और बुद्धि सम्मिलित हैं। शुद्ध आत्मा परात्पर ब्रह्म में लीन हो जाती है। भगवान आनंद सिंधु हैं। मुक्त आत्मा सदा आनंद सिंधु में निवास करता है लेकिन वो साकार भगवान के निरंतर बढ़ते हुए आनंद का अनुभव नहीं कर पाता क्योंकि वह स्वयं आनंद बन गया। भोक्ता और भोग्य के द्वैत का आनंद अनुपमेय है। एक मुक्त आत्मा इस आनंद को हमेशा के लिए खो देता है।
साकार भगवान (यानी भगवान का मानव रूप में अवतार) अनंत सौंदर्य, कांति, कोमलता, रस, माधुर्य और अनंत दिव्य प्रेम रस सपन्न हैं। उनके अनंत गुण और अनंत रसमय लीलाएँ हैं। भगवान के सारे अवतारों में, स्वयं परब्रह्म भगवान का अवतार, जो एक कल्प (432,000,000 वर्ष) में एक बार होता है, सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसमें अत्यंत आकर्षक लीलाएँ, अत्यंत सुंदरता, प्रबल प्रेम एवं मुरली माधुरी से ओत प्रोत है।
इसलिए, भगवान कृष्ण की भक्ति जीव का सर्वोच्च लक्ष्य है। भक्ति नित्य है। यदि आप इस जीवन में 40% भक्ति पूरी कर लेते हैं, तो आपको अगले मानव जीवन में केवल 60% अधिक भक्ति करनी होगी। इस प्रकार, धीरे-धीरे कुछ ही जन्मों में हम अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। अतः इसी जीवन में ही अपने लक्ष्य को पाने का दृढ़ संकल्प करना चाहिये, क्योंकि क्या पता आगे हमें कौनसा शरीर मिले, और हमें कहाँ पैदा होना पड़े ? वर्तमान काल हमारे हाथ में है। इस शरीर को छोड़ने के पहले घोर परिश्रम कर सुधार लेना चाहिये। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य कहते हैं - |
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे ॥
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे ॥
“बार-बार जन्म-मृत्यु-गर्भ शयन के चक्कर में पड़कर असहनीय पीड़ा और कष्ट सहना होगा। यह संसार एक दुख का विशाल सागर की तरह है, जिसे केवल भगवान की कृपा से पार किया जा सकता है।"
इह संसारे खलु दुसतारे कृपया पारि पाहि मुरारे ॥
अर्थात् यदि आप इस मानव देह की क्षणभंगुरता को नहीं समझते हैं, तो आपको बार बार माँ के गर्भ की गन्दगी में 9 महीने उल्टा टंगकर पीड़ा सहना होगा, बार बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना होगा। इसलिए, संसार के दुःख के महासागर से बाहर निकलने के लिये निरंतर भगवान का स्मरण करो।
यदि आपको यह लेख लाभप्रद लगा तो संभवतः निम्नलिखित लेख भी लाभप्रद लगेगें
यह लेख पसंद आया !
उल्लिखित कतिपय अन्य प्रकाशन आस्वादन के लिये प्रस्तुत हैं
सिद्धान्त, लीलादि |
सिद्धांत गर्भित लघु लेखप्रति माह आपके मेलबोक्स में भेजा जायेगा
|
सिद्धांत को गहराई से समझने हेतु पढ़ेवेद-शास्त्रों के शब्दों का सही अर्थ जानिये
|
हम आपकी प्रतिक्रिया जानने के इच्छुक हैं । कृप्या contact us द्वारा
|
नये संस्करण की सूचना प्राप्त करने हेतु subscribe करें
|