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Divya Ras Bindu

ज्ञानी मायिक बुद्धि से दिव्य आत्मा को कैसे जान लेता है ?

Read this article in English
ज्ञानीब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व ज्ञानी का मन मायिक होता है। उस मायिक मन बुद्धि से ज्ञानी को आत्मा का ज्ञान किस प्रकार होता है?
प्रश्न 

मन-बुद्धि पंचमहाभूत के होने के कारण​ मायिक हैं और मायिक बुद्धि से दिव्य आत्मा को कदापि नहीं जाना जा सकता। आत्मा बुद्धि की प्रकाशिका है अतः बुद्धि अपने प्रकाशक की प्रकाशिका नहीं हो सकती । तो फिर​ ज्ञानी किस प्रकार दिव्य आत्मा को मायिक बुद्धि से जान सकते हैं ?
​
उत्तर 

भगवद्प्राप्ति के लिये जो ज्ञान मार्ग का अवलंब लेते हैं वे ज्ञानी कहलाते हैं। वे ज्ञानी भगवद्प्राप्ति के पूर्व​ एक मध्यावस्था को प्राप्त होते हैं जहाँ वे आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । निःसन्देह​ आत्मा दिव्य है अतः मायिक मन बुद्धि उसे नहीं समझ सकते तो फिर ज्ञानी कैसे जान लेता है कि "मैं आत्मा हूँ"?

शास्त्र कहते हैं 'मैं ' आत्मा है जो कि अनादि है, अविनाशी है, दिव्य है। यह सर्वशक्तिमान भगवान का अंश है, जो कि आनंद के अगाध सागर हैं।  हमने सुना है कि शरीर ' मेरा ' है यह ' मैं ' नहीं है, तो भी हम यही सोचते हैं कि "मैं" शरीर हूँ ।

इस अज्ञान की जननी माया है। यदि माया चली जाएगी तो अज्ञान भी तुरंत चला जाएगा । इसलिए ज्ञानी माया से मुक्ति का लक्ष्य लेकर चलते हैं ।

ज्ञान मार्ग की सर्व प्रथम सीढ़ी साधन-चतुष्टय सम्पन्नता है । साधन-चतुष्टय सम्पन्नता अर्थात चार साधनों से युक्त होता है यथा
  • नित्यानित्य वस्तु विवेक: - नित्य तथा अनित्य वस्तुओं का ज्ञान ।
  • इहामुत्रफल भोग परित्यागः - मृत्युलोक तथा स्वर्गादिक लोकों के सुखों का परित्याग ।
  • शमादि षट् संपत्ति - शमदमादि मन की छह सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं अर्थात मन व इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है ।
  • मोक्ष - मोक्ष प्राप्ति की इतनी तीव्र इच्छा कि भौतिक आवश्यक्ताँ तथा खतरे तुच्छ लगते हैं ।

इन चार साधनों से युक्त होने के पश्चात ज्ञानी लगातार

तत्त्वम्असि
 वेद मंत्र का जाप करते हैं।

अर्थात "तू वह है", इस मंत्र का लगातार जाप करने से ज्ञानियों को यह आभास होता है कि आत्मा और ब्रह्म समान हैं। कई जन्मों तक इसके लगातार अभ्यास करने से ज्ञानियों की बुद्धि में यह बैठ जाता है कि आत्मा (जिसको 'तू ' कहा गया) और भगवान (जिसको उपर्युक्त मंत्र में 'वह' कहा गया था ) में कोई अंतर नहीं है। लेकिन यह मंत्र 'वो' (भगवान) और 'तू' (आत्मा) में भिन्नता रखता है। अतः ज्ञानियों की बुद्धि 'तू ' और 'वह' के एकत्व से पूर्णतया संतुष्ट नहीं होती।

अतः इस भिन्नता को भी हटाने के लिए ज्ञानी
अहंब्रह्मास्मि
अर्थात  “मैं ब्रह्म हूँ”  का अभ्यास करते हैं। अर्थात सर्वशक्तिमान भगवान मुझ से भिन्न नहीं है । ज्ञानियों के सिधान्तानुसार "मैं भगवान का अंश हूँ" एक भ्रम है। वे मानते हैं कि केवल एक तत्व है जिसे 'ब्रह्म' कहते हैं । वे कहते हैं
एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति
अर्थात "जो कुछ भी विद्यमान है वह ब्रह्म है "। उनके अनुसार जीव और माया भिन्न तत्व नहीं हैं । ज्ञानी कई जन्मों के अभ्यास के बाद इस सिद्धांत से संतुष्ट हो जाते हैं ।

इस सिद्धांत के दृढ़ होने के बाद वे समाधि की अवस्था में पहुँच जाते हैं जहां ध्यान इतना गहरा हो जाता है कि वे अपने आप को भूल जाते हैं ।अतः वे "अहम् ब्रह्मास्मि" कहने के बजाय ब्रह्म, ब्रह्म, ब्रह्म का अनुभव करते हैं। इसलिए वे त्रिपुटी के तीनों तत्वों को भूल जाते हैं :
  • ज्ञाता - जानने वाला
  • ज्ञान - जानना
  • ज्ञेय - जानने योग्य​
 
ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय स्वयं में विलीन हो जाते हैं । इसे निरंजन ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान की बहुत ऊंची अवस्था है जहां आकांक्षी राजसी तथा तामसी गुणों को जीत लेता है । माया के इन दोनों गुणों को स्वरूपावरिका माया भी कहते हैं। स्वरूपावरिका माया जीव के वास्तविक स्वरूप को छिपा देती है। जीव के वास्तविक स्वरूप के छिप जाने से भ्रमित अवस्था में वह अपने आपको शरीर मान लेता है। जीव की यह अवस्था अनादिकाल से है ।

जब स्वरूपावरिका माया चली जाती है तो यह भ्रम (कि मैं शरीर हूँ) समाप्त हो जाता है और वह ज्ञानी स्वयम् को आत्मा मान लेता है । इसको आत्मज्ञान भी कहा जाता है। इस अवस्था को ब्रह्मभूतावस्था कहते हैं तथा इस अवस्था में आकांक्षी भौतिक वेदनाओं से मुक्त हो जाता है । ज्ञानी अब आत्मज्ञानी कहलाता है।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ।
समः सर्वेषुभूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥ गीता १८ ५४
"ज्ञानी सदैव प्रसन्न रहता है तथा कोई विपत्ति उसे दुखी नहीं कर सकती है । और उसकी कोई इच्छा भी नहीं होती है । वह निरंतर स्वयं में आनंदित रहता है। वह जीवों में कोई भेद नहीं देखता है । इस अवस्था पर पहुँच कर​ ज्ञानी मेरी भक्ति करेगा। "

अब प्रश्न उठता है कि वह इस अवस्था में नित्य सुखी है तो उसे भक्ति करने की क्या आवश्यकता है?

ऐसा इसलिए क्योंकि, जैसा मैंने पहले बताया था, ज्ञानी 2/3 माया से मुक्त हो चुका है (राजसी तथा तामसी गुणों से) परंतु वह अभी भी सात्विक गुण के आधीन है क्योंकि
सत्वाद् संजायते ज्ञानम्
Self-Realization vs God-Realizationआत्मक्ज्ञान होने पर भी ज्ञानी सात्विक माया के प्रभाव में है
अर्थात "सत्वगुण से ज्ञान का उदय होता है"। अभी तक ज्ञान के अभाव में ज्ञानी अपने शरीर को ही "मैं" मानता है लेकिन ज्ञान के उदय​ के बाद भ्रम के बादलों का विलय हो जाता है तथा ज्ञानी स्वयं को जान लेता है। अतः आत्मज्ञान का तात्पर्य स्वयं को जान लेने से है।

अब यह आभासित हुआ कि मायिक बुद्धि से आत्मा को नहीं जाना जा सकता। मन-बुद्धि (जो ज्ञाता कहलाते हैं) के लय हो जाने से आत्मज्ञान होता है। ​

आत्म ज्ञान बनाम ब्रह्म ज्ञान

कृपया ध्यान दें :

आत्म ज्ञान ब्रह्म ज्ञान से भिन्न​ है । जब ज्ञानी सत्वगुणी माया(गुणावरिका माया) को जीत लेता है तब उसे ब्रह्म ज्ञान होता है । सगुण साकार ब्रह्म की कृपा से ही सत्वगुणी माया पर विजय सम्भव है । अतः निराकार ब्रह्म में विलीन होने हेतु ज्ञानी सगुण साकार ब्रह्म की उपासना करनी होगी।

निराकार ब्रह्म में केवल दो गुण प्रकट होते हैं
  • नित्य सत्ता तथा
  • नित्यानंद

जबकि सगुण साकार ब्रह्म सुनता है, देखता है, कृपा करता है इत्यादि। अतः सगुण साकार रूप ज्ञानी की उपासना से प्रसन्न हो कर ज्ञानी पर कृपा कर उसकी माया को समाप्त करता है । तब उस ज्ञानी को निराकार ब्रह्म की प्राप्ति होती है। अब वह ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी कहलाता है ।

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काऊ बल कर्म ज्ञान को राधे, मम निर्बल बल राधे ॥
Some people find their strength in performing virtuous karm and others in gyan. I seek helplessness for then my strength is Shri Radha Rani.
 - Yugal Shatak
Jagadguruttam Shri Kripalu Ji Maharaj
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