
प्रश्न :
भगवान पूर्णकाम हैं अर्थात उनकी कोई इच्छा अपूर्ण नहीं है । बिना इच्छा के आश्चर्यचकित करने वाले कार्य वे कैसे कर सकते हैं यथा सृष्टि करना, उसका पालन करना एवं अंततः प्रलय करना? जब उनकी कोई इच्छा नहीं है तो वे जन्म क्यों लेते हैं, मैया की गोद में जाने के लिये भूमि पर क्यों लोटते हैं ? यदि आप कहें कि जीव को सुख देने के लिए ऐसा करते हैं तो उनको सुख देने की इच्छा हुई तभी तो भगवान् वह कार्य करने के लिये उद्यत हुये। जब उनको भी इच्छा उत्पन्न हुई तो वह पूर्णकाम हैं या नहीं ?
उत्तर :
भगवान निश्चित ही पूर्णकाम आत्माराम हैं क्योंकि वे आनंदकंद (आनंद का स्रोत), आत्माराम (स्वयं में तृप्त), आत्मक्रीड़ (स्वयं में रमण करने वाले) हैं। यह भी सत्य है कि वे निरंतर मायिक मन बुद्धि से अगम्य कर्म भी करते हैं।
हम अज्ञानी मायिक जीवों को अनंत नित्यानंद प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा होती है। अतः जीव का प्रत्येक संकल्प उस नित्यानंद को प्राप्त करने के लिए ही होता है।
यद्यपि बिना कामना के हम कभी भी कोई भी क्रिया नहीं करते तथापि बेमनी से प्रतिदिन बहुत सी क्रियाएँ भी करते हैं जैसे सुबह जल्दी उठना, स्कूल जाना, बॉस की आज्ञा का पालन करना, व्यायाम करना, पौष्टिक आहार लेना, औषधि खाना इत्यादि । कुछ क्रियाएँ अनैच्छिक होती हैं जैसे पलक झपकना, श्वास लेना । अनैच्छिक क्रियाओं को छोड़कर हम जो कुछ भी करते हैं उसके पीछे हमारा प्रच्छन्न उद्देश्य होता है जो हमें वह क्रिया करने को प्रेरित करता है,जैसे अपने व्यवहार से परिवार में सौहार्द पूर्ण वातावरण बनाए रखना, दंड का डर, पुरस्कार की इच्छा, सम्मान की चाहत, स्वस्थ शरीर की चाहत आदि । हमारे प्रतिक्षण कामनाओं से त्रस्त मन के विपरीत भगवान की कोई भी इच्छा अपूर्ण नहीं है। जब हम बिना इच्छा के कोई भी क्रिया नहीं कर सकते तो भगवान् बिना इच्छा के कोई क्रिया कैसे कर सकते हैं? फिर भी वे करते हैं। आश्चर्य है कि वे क्यों करते हैं?
भगवान पूर्णकाम हैं अर्थात उनकी कोई इच्छा अपूर्ण नहीं है । बिना इच्छा के आश्चर्यचकित करने वाले कार्य वे कैसे कर सकते हैं यथा सृष्टि करना, उसका पालन करना एवं अंततः प्रलय करना? जब उनकी कोई इच्छा नहीं है तो वे जन्म क्यों लेते हैं, मैया की गोद में जाने के लिये भूमि पर क्यों लोटते हैं ? यदि आप कहें कि जीव को सुख देने के लिए ऐसा करते हैं तो उनको सुख देने की इच्छा हुई तभी तो भगवान् वह कार्य करने के लिये उद्यत हुये। जब उनको भी इच्छा उत्पन्न हुई तो वह पूर्णकाम हैं या नहीं ?
उत्तर :
भगवान निश्चित ही पूर्णकाम आत्माराम हैं क्योंकि वे आनंदकंद (आनंद का स्रोत), आत्माराम (स्वयं में तृप्त), आत्मक्रीड़ (स्वयं में रमण करने वाले) हैं। यह भी सत्य है कि वे निरंतर मायिक मन बुद्धि से अगम्य कर्म भी करते हैं।
हम अज्ञानी मायिक जीवों को अनंत नित्यानंद प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा होती है। अतः जीव का प्रत्येक संकल्प उस नित्यानंद को प्राप्त करने के लिए ही होता है।
यद्यपि बिना कामना के हम कभी भी कोई भी क्रिया नहीं करते तथापि बेमनी से प्रतिदिन बहुत सी क्रियाएँ भी करते हैं जैसे सुबह जल्दी उठना, स्कूल जाना, बॉस की आज्ञा का पालन करना, व्यायाम करना, पौष्टिक आहार लेना, औषधि खाना इत्यादि । कुछ क्रियाएँ अनैच्छिक होती हैं जैसे पलक झपकना, श्वास लेना । अनैच्छिक क्रियाओं को छोड़कर हम जो कुछ भी करते हैं उसके पीछे हमारा प्रच्छन्न उद्देश्य होता है जो हमें वह क्रिया करने को प्रेरित करता है,जैसे अपने व्यवहार से परिवार में सौहार्द पूर्ण वातावरण बनाए रखना, दंड का डर, पुरस्कार की इच्छा, सम्मान की चाहत, स्वस्थ शरीर की चाहत आदि । हमारे प्रतिक्षण कामनाओं से त्रस्त मन के विपरीत भगवान की कोई भी इच्छा अपूर्ण नहीं है। जब हम बिना इच्छा के कोई भी क्रिया नहीं कर सकते तो भगवान् बिना इच्छा के कोई क्रिया कैसे कर सकते हैं? फिर भी वे करते हैं। आश्चर्य है कि वे क्यों करते हैं?
भगवान जीवों पर कृपा करने के लिए कर्म करते हैं । वे जीवों पर कृपा क्यों करते हैं ? क्योंकि उनका अहैतुकी कृपा करने का स्वभाव है। इसी स्वभाव के कारण वे अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए अनंत क्रियाएँ करते हैं। भगवान सदैव जीवों के कल्याण के लिए ही समस्त क्रियाएँ करते हैं जबकि बदले में उनको कुछ भी मिलने की आशा नहीं है। इस प्रकार की क्रियाओं को ऐच्छिक क्रियाएँ नहीं कहा जाता। ये कर्म केवल कृपा की श्रेणी में आती हैं ।
आत्मप्रयोजनाभावे परानुग्रह एव हि ।
लिंग पुराण
"चूँकि भगवान का कुछ भी प्राप्तव्य शेष नहीं है अतः उनकी सारी क्रियाएँ जीवों के कल्याण हेतु ही होती हैं"। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: | स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || 3.21||
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि || 3.22||
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 3.23||
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् | सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: || 3.24||
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि || 3.22||
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 3.23||
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् | सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: || 3.24||

“हे अर्जुन! , जनसाधारण महान व्यक्तियों को आदर्श मान कर उन्हीं के पद चिन्हों का अनुसरण करते हैं । लोग वही मानदंड अपनाते हैं जो यह महान लोग स्थापित करते हैं। (21)
ओ पार्थ! इस त्रैलोक्य में ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता हूँ । (22)
परंतु यदि मैं जन कल्याणकारी कर्म नहीं करूँगा तो यह संसार मेरा अनुसरण करके उच्श्रृंखल हो जायेगा । (23)
यदि मैं कर्म करना बंद कर दूँ तो मुझ पर संसार को भ्रमित करने का व सर्वनाश करने का आरोप लगेगा” । (24)”.
इसलिए संसार को सुचारू रूप से चलाने के लिए विरक्त तत्वज्ञ जन संसार में आदर्श स्थापन हेतु कर्म करते हैं जिससे उस आदर्श का अनुसरण आम जनता कर सके और भ्रमित ना हो। अज्ञानी जीव स्व-सुख के लिए ही अपने ज्ञान और मनोयोग का प्रयोग करते हैं। तत्वज्ञ जन उन संसारी जीवों को अपने कर्तव्य का पालन करते हुए भी उनमें आसक्त न होने की शिक्षा देते हैं तथा वैसा ही कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं (1)।
बिना भगवत प्रेम के वैदिक अनुष्ठान को करने मात्र से जीवन का परम चरम लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। फिर भी वेद प्रदत्त आचरण करने से वेदों एवं भगवान में निष्ठा उत्पन्न हो जाती है तदर्थ जीव अपनी इंद्रियों पर संयम रखकर शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोगों में दुराचार की प्रवृत्ति कम होती है। कालांतर में यही विश्वास भगवान में श्रद्धा एवं संसार से अरुचि पैदा करती है। तदर्थ जीव में आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा जागृत होती है।
भगवान श्री कृष्ण ने अपने अवतार काल में गीता का उपदेश दिया और उसी सिद्धांत का पूर्णतया पालन भी किया। बहुत से भोले लोग पूछते हैं कि उन्होंने माया के जगत को क्यों बनाया है जिसने हमारे अनंत जीवन बर्बाद कर दिए। इसका उत्तर है भगवान् ने कृपा वश संसार प्रकट किया फिर उस संसार में जीव को प्रकट किया। जीव तथा माया दोनों अनादि हैं। भगवान ने नव निर्माण नहीं किया। वेद कहता है -
ओ पार्थ! इस त्रैलोक्य में ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता हूँ । (22)
परंतु यदि मैं जन कल्याणकारी कर्म नहीं करूँगा तो यह संसार मेरा अनुसरण करके उच्श्रृंखल हो जायेगा । (23)
यदि मैं कर्म करना बंद कर दूँ तो मुझ पर संसार को भ्रमित करने का व सर्वनाश करने का आरोप लगेगा” । (24)”.
इसलिए संसार को सुचारू रूप से चलाने के लिए विरक्त तत्वज्ञ जन संसार में आदर्श स्थापन हेतु कर्म करते हैं जिससे उस आदर्श का अनुसरण आम जनता कर सके और भ्रमित ना हो। अज्ञानी जीव स्व-सुख के लिए ही अपने ज्ञान और मनोयोग का प्रयोग करते हैं। तत्वज्ञ जन उन संसारी जीवों को अपने कर्तव्य का पालन करते हुए भी उनमें आसक्त न होने की शिक्षा देते हैं तथा वैसा ही कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं (1)।
बिना भगवत प्रेम के वैदिक अनुष्ठान को करने मात्र से जीवन का परम चरम लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। फिर भी वेद प्रदत्त आचरण करने से वेदों एवं भगवान में निष्ठा उत्पन्न हो जाती है तदर्थ जीव अपनी इंद्रियों पर संयम रखकर शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोगों में दुराचार की प्रवृत्ति कम होती है। कालांतर में यही विश्वास भगवान में श्रद्धा एवं संसार से अरुचि पैदा करती है। तदर्थ जीव में आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा जागृत होती है।
भगवान श्री कृष्ण ने अपने अवतार काल में गीता का उपदेश दिया और उसी सिद्धांत का पूर्णतया पालन भी किया। बहुत से भोले लोग पूछते हैं कि उन्होंने माया के जगत को क्यों बनाया है जिसने हमारे अनंत जीवन बर्बाद कर दिए। इसका उत्तर है भगवान् ने कृपा वश संसार प्रकट किया फिर उस संसार में जीव को प्रकट किया। जीव तथा माया दोनों अनादि हैं। भगवान ने नव निर्माण नहीं किया। वेद कहता है -
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित् ।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् || श्वे० अ० १।१२
तीन तत्व अनादि अनंत शाश्वत हैं - भोक्ता ब्रह्म जिसे जीव भी कहते हैं, भोग्य ब्रह्म जिसे माया भी कहते हैं, और प्रेरक ब्रह्म यानी भगवान जो जीव तथा माया का शासक है। यह तीनों अनादि अनंत हैं इनमें से किसी ने किसी को बनाया नहीं है।
जीव भगवान की जीव शक्ति का अंश है अतः चेतन है । माया भगवान की जड़ शक्ति है । यह संसार माया से बना है अतः जड़ है। सृष्टि से पूर्व ब्रह्म के महोदर में, जिसे कार्णाणव कहते हैं, जीव सुषुप्त अवस्था में लीन था। इस अवस्था में जीव मन बुद्धि रहित होता है अतः कारणार्णनव में साधना कर के दिव्यानंद को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः भगवान ने जीव पर कृपा करके उसको मन बुद्धि देकर इस संसार में भेजा कि जाओ अपना परम चरम लक्ष्य प्राप्त कर लो। |

जीव के शरीर मन बुद्धि मायिक हैं और मन बुद्धि से ही कर्म होता है । अतः जीव के शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भगवान् ने माया का संसार बनाया । परंतु अज्ञानी जीव ने संसार का उपयोग करने के बजाए संसार का उपभोग करना प्रारंभ कर दिया और अपने परम चरम लक्ष्य को भुला दिया ।
भगवान ने जीव को भगवत प्राप्ति के लिए संसार में भेजा परंतु जीव ने संसार का प्रयोग अपनी इंद्रियों के सुख के लिए किया । इसकी तुलना उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसको उसके माँ-बाप ने उच्चतर शिक्षा के लिए किसी दूर देश में भेजा है । वहाँ जाकर वह छात्र पढ़ाई लिखाई भूलकर सारा पैसा व्यर्थ में खर्च कर देता है और अपने चरित्र को भी कलंकित कर लेता है । इसमें उसके माँ बाप का दोष है अथवा उन शिक्षकों का जिनकी बात वह छात्र सुनता ही नहीं है ? भगवान के भेजे हुए (शिक्षक) शास्त्र वेद व संत हैं । संत अहर्निश जीव हित अथक प्रयास करते हैं, शास्त्र वेद के अगम ज्ञान को सरल बना कर समझा देते हैं, हमारे कुकर्मों की अवहेलना कर लाड़ दुलार करते हैं और क्या नहीं करते । उनका हर प्रयास जीव को भगवान को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करने हेतु होता है । साथ ही साथ भगवान की दंडकारिणी माया विषयों में आसक्त होने पर प्रताड़ित करती है। फिर भी अधिकतर अज्ञानी जीव दोनों की अवहेलना करके माया के पदार्थों में ही लिप्त होने को लालायित रहता है ।
समय-समय पर (2) भगवान स्वयं अवतार लेकर लोकआदर्श की स्थापना करते हैं (3)। हम में से कुछ ही लोग उनके वचनों का पालन करते हैं। भगवान ने इस लोक और परलोक दोनों के कल्याण हेतु कर्मयोग (1) का सिद्धांत प्रतिपादित किया परंतु हमने उसका मखौल उड़ाया ।
भगवान ने जीव को भगवत प्राप्ति के लिए संसार में भेजा परंतु जीव ने संसार का प्रयोग अपनी इंद्रियों के सुख के लिए किया । इसकी तुलना उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसको उसके माँ-बाप ने उच्चतर शिक्षा के लिए किसी दूर देश में भेजा है । वहाँ जाकर वह छात्र पढ़ाई लिखाई भूलकर सारा पैसा व्यर्थ में खर्च कर देता है और अपने चरित्र को भी कलंकित कर लेता है । इसमें उसके माँ बाप का दोष है अथवा उन शिक्षकों का जिनकी बात वह छात्र सुनता ही नहीं है ? भगवान के भेजे हुए (शिक्षक) शास्त्र वेद व संत हैं । संत अहर्निश जीव हित अथक प्रयास करते हैं, शास्त्र वेद के अगम ज्ञान को सरल बना कर समझा देते हैं, हमारे कुकर्मों की अवहेलना कर लाड़ दुलार करते हैं और क्या नहीं करते । उनका हर प्रयास जीव को भगवान को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करने हेतु होता है । साथ ही साथ भगवान की दंडकारिणी माया विषयों में आसक्त होने पर प्रताड़ित करती है। फिर भी अधिकतर अज्ञानी जीव दोनों की अवहेलना करके माया के पदार्थों में ही लिप्त होने को लालायित रहता है ।
समय-समय पर (2) भगवान स्वयं अवतार लेकर लोकआदर्श की स्थापना करते हैं (3)। हम में से कुछ ही लोग उनके वचनों का पालन करते हैं। भगवान ने इस लोक और परलोक दोनों के कल्याण हेतु कर्मयोग (1) का सिद्धांत प्रतिपादित किया परंतु हमने उसका मखौल उड़ाया ।

भगवान ने अपने आप को राधा कृष्ण स्वरूपों में प्रकट करकेअपनी रसमई लीलाओं के माध्यम से प्रेम तत्व के व्यवहारिक स्वरूप को प्रदर्शित किया (4) परंतु हम अज्ञानियों ने उनकी आलोचना की और उनकी दिव्यता को नकार दिया।
भगवान हृदय में बैठकर सबके विचार नोट करते हैं (5) । जीव जिस क्षण शरणागत हो जाए उसी क्षण भगवान जीव को अनंत आनंद प्रदान कर देते हैं । साथ ही वे हमारी लापरवाही पर दंड देते हैं जिससे जीव अपने लक्ष्य की ओर तत्परता से बढ़े ।
भगवान योगारुढ़ संतों को सुख प्रदान करने हेतु अनंत रसमई लीलाएँ करते हैं (3)। वे लीलाएँ हम जैसे योगरुरुक्षु (योग की इच्छा करने वाले) जीवों को भगवान के शरणागत होने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करती हैं ।
पृथ्वी पर पाप का भार कम करने के लिए भगवान अवतार लेकर राक्षसों का वध करते हैं (3) साथ ही कृपानिधान ने कृपा से द्रविभूत हो उन राक्षसों को गोलोक भेज दिया ।
निष्कर्ष
भगवान जनसाधारण की भांति कर्म करते हैं और मायिक मन-बुद्धि से परे वाले कर्म भी करते हैं। इन सब कार्यों का एक और केवल एक मूल कारण है -
भगवान हृदय में बैठकर सबके विचार नोट करते हैं (5) । जीव जिस क्षण शरणागत हो जाए उसी क्षण भगवान जीव को अनंत आनंद प्रदान कर देते हैं । साथ ही वे हमारी लापरवाही पर दंड देते हैं जिससे जीव अपने लक्ष्य की ओर तत्परता से बढ़े ।
भगवान योगारुढ़ संतों को सुख प्रदान करने हेतु अनंत रसमई लीलाएँ करते हैं (3)। वे लीलाएँ हम जैसे योगरुरुक्षु (योग की इच्छा करने वाले) जीवों को भगवान के शरणागत होने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करती हैं ।
पृथ्वी पर पाप का भार कम करने के लिए भगवान अवतार लेकर राक्षसों का वध करते हैं (3) साथ ही कृपानिधान ने कृपा से द्रविभूत हो उन राक्षसों को गोलोक भेज दिया ।
निष्कर्ष
भगवान जनसाधारण की भांति कर्म करते हैं और मायिक मन-बुद्धि से परे वाले कर्म भी करते हैं। इन सब कार्यों का एक और केवल एक मूल कारण है -
मुख्यं तस्य हि कारुण्यं

“भगवान के प्रत्येक कार्य का प्रमुख कारण जीव का कल्याण ही है ”(3).
यद्यपि भगवान की कोई अपनी इच्छा नहीं है तथापि वे अपनी कृपा शक्ति के वशीभूत हो जीव कल्याण हेतु ही अनंत कर्म करते हैं । वे इतने कृपालु हैं कि संपूर्ण चराचर जगत के एकमात्र स्वामी होते हुए भी अपने शरणागत जीवों के क्रीत दास बन जाते हैं । अपने वचनानुसार जो जीव जिस भाव से जिस प्रकार जितनी मात्रा में भगवान का भजन करता है भगवान भी उस जीव का उसी भाव से उसी प्रकार उतनी ही मात्रा में भजन करते हैं।
आत्माराम पूर्णकाम प्रभु-स्व सुख की भावना से कोई भी कार्य नहीं करते । भगवान का प्रत्येक कर्म जीव के सुख अथवा उत्थान के लिए ही होता है। कभी भगवान अपनी लीलाओं द्वारा अपने भक्तों को सुख देने के लिए कर्म करते हैं यथा महारास और कभी लोक आदर्श स्थापना के लिए करते हैं यथा द्वारिका में प्रतिदिन 10,000 गायों का दान।
भगवान आत्माराम हैं और अकारण करुणावरूणालय भी हैं। आत्माराम हैं, अतः उन्हें कोई भी कार्य करने की आवश्यकता नहीं है । वे अकारण करुणावरूणालय भी हैं, अतः वे अपने भक्तों को सुख प्रदान करने हेतु एवं समस्त जीवों के कल्याण हेतु ही कार्य करते हैं । भगवान में दोनों विपरीत गुण साथ-साथ पाए जाते हैं।
यद्यपि भगवान की कोई अपनी इच्छा नहीं है तथापि वे अपनी कृपा शक्ति के वशीभूत हो जीव कल्याण हेतु ही अनंत कर्म करते हैं । वे इतने कृपालु हैं कि संपूर्ण चराचर जगत के एकमात्र स्वामी होते हुए भी अपने शरणागत जीवों के क्रीत दास बन जाते हैं । अपने वचनानुसार जो जीव जिस भाव से जिस प्रकार जितनी मात्रा में भगवान का भजन करता है भगवान भी उस जीव का उसी भाव से उसी प्रकार उतनी ही मात्रा में भजन करते हैं।
आत्माराम पूर्णकाम प्रभु-स्व सुख की भावना से कोई भी कार्य नहीं करते । भगवान का प्रत्येक कर्म जीव के सुख अथवा उत्थान के लिए ही होता है। कभी भगवान अपनी लीलाओं द्वारा अपने भक्तों को सुख देने के लिए कर्म करते हैं यथा महारास और कभी लोक आदर्श स्थापना के लिए करते हैं यथा द्वारिका में प्रतिदिन 10,000 गायों का दान।
भगवान आत्माराम हैं और अकारण करुणावरूणालय भी हैं। आत्माराम हैं, अतः उन्हें कोई भी कार्य करने की आवश्यकता नहीं है । वे अकारण करुणावरूणालय भी हैं, अतः वे अपने भक्तों को सुख प्रदान करने हेतु एवं समस्त जीवों के कल्याण हेतु ही कार्य करते हैं । भगवान में दोनों विपरीत गुण साथ-साथ पाए जाते हैं।