क्या कामना के दमन से आनंद प्राप्ति हो जाएगी? |
प्रश्न -
मन की एकमात्र कामना आनंद प्राप्ति ही है। जब हम आनंद को ढूंढने चले तो कुछ संत और शास्त्र यह कहते हैं कि पहले सांसारिक कामनाओं को त्याग दो, फिर भगवान की उपासना करो। लेकिन कोई अन्य संत और शास्त्र यह कहते हैं कि भगवान की उपासना करने से सांसारिक कामनायें स्वत: मिट जाएँगी इसलिए पहले भक्ति करो । यह दोनों तर्क परस्पर विरोधी प्रतीत होते हुए भी अपनी जगह सही लगते हैं। लेकिन ऐसे कैसे हो सकता है ?
यह समस्या और जटिल इसलिए है क्योंकि श्री महाराज जी के कथनानुसार सृष्टि कर्ता ब्रह्मा से लेकर नगण्य चींटी तक सब आनंद ही चाहते हैं। जब विधाता ब्रह्मा भी आनंद चाहते हैं तो हम आनंद की कामना कैसे छोड़ सकते हैं ? यह “पहले मुर्गी हुई या अंडा” वाली समस्या लगती है। तो फिर हमें आनंद कैसे मिलेगा ?
उत्तर -
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि आसक्ति के परिणाम भयावह होते हैं क्योंकि आसक्ति के कारण हमें दुःख मिलता है। इसलिये इच्छाओं को ही समाप्त कर दें तो समस्या स्वयं हल हो जाएगी। वाह ! क्या अविष्कार है ! वाकपटुता में निपुण कुछ लोगों ने "आसक्ति है तो जा भी सकती है” जैसे कथनों का आविष्कार किया है।
शास्त्र भी यही कहते हैं -
मन की एकमात्र कामना आनंद प्राप्ति ही है। जब हम आनंद को ढूंढने चले तो कुछ संत और शास्त्र यह कहते हैं कि पहले सांसारिक कामनाओं को त्याग दो, फिर भगवान की उपासना करो। लेकिन कोई अन्य संत और शास्त्र यह कहते हैं कि भगवान की उपासना करने से सांसारिक कामनायें स्वत: मिट जाएँगी इसलिए पहले भक्ति करो । यह दोनों तर्क परस्पर विरोधी प्रतीत होते हुए भी अपनी जगह सही लगते हैं। लेकिन ऐसे कैसे हो सकता है ?
यह समस्या और जटिल इसलिए है क्योंकि श्री महाराज जी के कथनानुसार सृष्टि कर्ता ब्रह्मा से लेकर नगण्य चींटी तक सब आनंद ही चाहते हैं। जब विधाता ब्रह्मा भी आनंद चाहते हैं तो हम आनंद की कामना कैसे छोड़ सकते हैं ? यह “पहले मुर्गी हुई या अंडा” वाली समस्या लगती है। तो फिर हमें आनंद कैसे मिलेगा ?
उत्तर -
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि आसक्ति के परिणाम भयावह होते हैं क्योंकि आसक्ति के कारण हमें दुःख मिलता है। इसलिये इच्छाओं को ही समाप्त कर दें तो समस्या स्वयं हल हो जाएगी। वाह ! क्या अविष्कार है ! वाकपटुता में निपुण कुछ लोगों ने "आसक्ति है तो जा भी सकती है” जैसे कथनों का आविष्कार किया है।
शास्त्र भी यही कहते हैं -
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥
कथोपनिषत् ३-२-३-१४
“सभी इच्छाओं का त्याग कर दो तो भगवान के समान हो जाओगे।”
उपासते पुरुषं ये ह्यकामास्ते शुक्रमेदति वर्तन्ति धीराः ।
मुण्डकोपनिषत् ३-२-१
यो न कामयते किञ्चित् ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
महाभारत
"जो कामनाओं का त्याग कर देता है वह ब्रह्म बन जाता है।"
जब नरसिंह भगवान ने प्रह्लाद से वर माँगने को कहा, तो प्रह्लाद ने उन्हें याद दिलाया - विमुञ्चति यदा कामान् मानवो मनसिस्थितान्।
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष! भगवत्त्वाय कल्पते ॥ भाग ७.१०.९
“हे मेरे स्वामी ! जब मनुष्य सभी कामनाओं का त्याग कर देता है, वह तत्क्षण भगवान के बराबर हो जाता है”।
प्रह्लाद ने नरसिंह भगवान से कहा कि जिसकी कोई कामना न हो, वह भगवान जैसा बन जाता है। |
ये सब शास्त्रोक्ति एक मत होकर यही कह रही हैं कि कामनाओं का परित्याग करने से मनुष्य भगवान का पद प्राप्त कर सकता है।
गीता भी यही कहती है -
गीता भी यही कहती है -
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
गीता २-७१
“जिस मुनष्य ने अपनी सभी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया हो और इन्द्रिय तृप्ति की लालसा, स्वामित्व के भाव और अंहकार से रहित हो गया हो, वह पूर्ण शांति प्राप्त करता है।”
गीता में श्रीकृष्ण के कथनानुसार - प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते || गीता २-५५
“हे पार्थ! जब कोई मनुष्य सुख की कामनाओं और इंद्रियों के विषयों की कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मज्ञान को अनुभव कर संतुष्ट हो जाता है तब ऐसे मानव को दिव्य चेतना में स्थित कहा जा सकता है।”
तुलसीदास जी भी कहते हैं कि - देह धरे कर यह फल भाई । भजिय राम सब काम बिदाई ॥
रा.च.मा
“भक्ति करने के लिए समस्त सांसारिक कामनाओं का त्याग करना अनिवार्य है।”
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अब एक प्रश्न पुनः समक्ष आता है कि दिव्यानंद प्राप्ति के पूर्व कामनाओं का परित्याग कैसे हो सकता है ? भगवत्प्राप्ति के पहले अज्ञान और आनंद की अभिलाषा खत्म नहीं हो सकती । लेकिन यह बात भी अन्तर्निहित है कि कामनाओं को विराम दिए बिना भगवत्प्राप्ति असंभव है। फिर इस समस्या का समाधान क्या है ?
विश्व के पंचम मूल जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विवेकपूर्वक इस पहेली को सुलझा दिया है । आपके अनुसार मायिक जीव अपनी कामनाओं को कभी छोड़ ही नहीं सकता। इसलिए कामनाओं को छोड़ने का प्रयत्न करना समय को व्यर्थ गंवाना है।
तो इसका अर्थ है कि कामनाएँ बनाते जाएँ ? हाँ रागानुगा भक्ति में ध्वंसात्मक क्रिया नहीं है सृजनात्मक क्रिया है । कामनाएँ बनाते जाइए और किस प्रकार की कामना बनाइए यह जानने के लिए आगे पढ़िए ।
समस्या का समाधान - कामनाओं की समाप्ति करने की चेष्टा ना करें । अपनी सारी कामनाओं और उनसे उत्पन्न माया के विकारों यथा काम, क्रोध, लोभ, घृणा आदि की दिशा को बदल दीजिये। सब इंद्रियों की कामनाओं को भगवान् की ओर घुमा दीजिये।
जैसे तुलसीदास जी कहते हैं -
विश्व के पंचम मूल जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विवेकपूर्वक इस पहेली को सुलझा दिया है । आपके अनुसार मायिक जीव अपनी कामनाओं को कभी छोड़ ही नहीं सकता। इसलिए कामनाओं को छोड़ने का प्रयत्न करना समय को व्यर्थ गंवाना है।
तो इसका अर्थ है कि कामनाएँ बनाते जाएँ ? हाँ रागानुगा भक्ति में ध्वंसात्मक क्रिया नहीं है सृजनात्मक क्रिया है । कामनाएँ बनाते जाइए और किस प्रकार की कामना बनाइए यह जानने के लिए आगे पढ़िए ।
समस्या का समाधान - कामनाओं की समाप्ति करने की चेष्टा ना करें । अपनी सारी कामनाओं और उनसे उत्पन्न माया के विकारों यथा काम, क्रोध, लोभ, घृणा आदि की दिशा को बदल दीजिये। सब इंद्रियों की कामनाओं को भगवान् की ओर घुमा दीजिये।
जैसे तुलसीदास जी कहते हैं -
बनै तो रघुबर ते बनै, बिगरै तो भरपूरि ।
“प्रेम हो तो श्रीराम से हो और बैर हो तो भी श्री राम से ही हो”। अपनी सब कामनाओं को दिन रात प्रभु के लिए बढ़ाते रहो
सीताराम चरन रति मोरे, अनुदिन बढ़ै अनुग्रह तोरे ॥
“हे मेरे स्वामी राम एवं मेरी माता सीता ! ऐसी कृपा कीजिये कि आपके चरण कमल के प्रति मेरा प्रेम प्रतिदिन बढ़ता रहे।”
क्रोध आये तो इस कारण से क्रोधित होइए -
क्रोध आये तो इस कारण से क्रोधित होइए -
हिय फाटहु फूटहु नयन, जरहु सो तनु केहि काम । द्रवइ स्रवइ पुलकइ नहिं तुलसी सुमिरत नाम ।
“श्री राम की याद में जो हृदय द्रवित नहीं होता वह हृदय फट जाये। जिन आँखों से भगवान् के लिए आँसू न निकलें, वे आँखें फूट जाएं । श्री राम का स्मरण करते हुए जिस शरीर में रोमाँच नहीं होता, वह शरीर भस्म हो जाये। “
श्री कृष्ण से लड़ने की इन भावनाओं को देखिये -
श्री कृष्ण से लड़ने की इन भावनाओं को देखिये -
कौन हरि हमरो तुमरो नात ।
तुम सोवत निज लोक चैन ते, हम रोवत दिन रात ।
हम पल छिन तुम बिनु नित तलफत, तुम नहिं पूछत बात।
नैन निगोरे बरजत मोरे, और-और अकुलात ।
रोम रोम नित याचत, सुन्दर श्यामल गात ।
जानि "कृपालु" कृपालु तोहिं हौं, प्रीति करी पछितात ॥
तुम सोवत निज लोक चैन ते, हम रोवत दिन रात ।
हम पल छिन तुम बिनु नित तलफत, तुम नहिं पूछत बात।
नैन निगोरे बरजत मोरे, और-और अकुलात ।
रोम रोम नित याचत, सुन्दर श्यामल गात ।
जानि "कृपालु" कृपालु तोहिं हौं, प्रीति करी पछितात ॥
प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी
“हे श्यामसुंदर ! हमारा-तुम्हारा नाता ही क्या समझा जाए, जबकि तुम अपने गोलोक में चैन से सो रहे हो और हम तुम्हारे लिए निरंतर रो रहे हैं। हम सदा एक-एक क्षण तुम्हारे मधुर-मिलन के लिए तड़पते रहते हैं फिर भी तुम हाल नहीं पूछते। इन हठीले नेत्रों को मैं जितना ही अधिक समझाता हूं उतना ही यह और व्याकुल होते हैं। कहाँ तक कहें रोम-रोम मुझसे सलोने श्यामसुंदर को माँगता है। “कृपालु” कहते हैं कि मैंने तुम्हें कृपा करने वाला समझ कर प्रेम किया था, किंतु अब तुम्हारी निष्ठुरता को देख कर मन ही मन पछता रहा हूँ।”
एक भक्त की अहंकार का यह एक उदहारण है -
एक भक्त की अहंकार का यह एक उदहारण है -
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
“मेरा मन से यह अभिमान भूलकर भी न जाए कि मैं सेवक हूँ और श्री राम मेरे स्वामी हैं। “
इसी तरह जब भी आप खाना बनायें, संसारी विषयों के बारें में न सोचकर, यह सोचिये कि मैं अपने प्रियतम श्यामसुंदर के लिए खाना बना रही हूँ। जब आपके घर कोई खास मेहमान आते हैं, तो आप उनकी पसंद का खाना बनाते हैं, और घर की सजावट भी उनकी पसंद के अनुसार करते हैं। श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं कि इसी प्रकार आप अपने गृहस्थ के सारे काम श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ कीजिये।
इसी तरह जब भी आप खाना बनायें, संसारी विषयों के बारें में न सोचकर, यह सोचिये कि मैं अपने प्रियतम श्यामसुंदर के लिए खाना बना रही हूँ। जब आपके घर कोई खास मेहमान आते हैं, तो आप उनकी पसंद का खाना बनाते हैं, और घर की सजावट भी उनकी पसंद के अनुसार करते हैं। श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं कि इसी प्रकार आप अपने गृहस्थ के सारे काम श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ कीजिये।
भक्ति की सर्वोत्कृष्ट आचार्याओं, गोपियों की दिनचर्या व उनकी विचारधारा का वर्णन सर्वोत्कृष्ट पुराण श्रीमद् भागवत में है -
या दोहने वहनने मथनोपलेप प्रेंखेंखनार्भ रुदितो क्षणमार्जनादौ ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोश्रुकंठ्यो, धन्या ब्रजस्त्रिय उरुक्रम चित्तायानाः ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोश्रुकंठ्यो, धन्या ब्रजस्त्रिय उरुक्रम चित्तायानाः ।
भा १०.४४.१५
"ब्रज की गोपियाँ घर में रहकर गृहस्थ के सब कार्य करते हुए निरंतर श्री कृष्ण का स्मरण करती थीं; गायों को दुहते हुए, दही मथकर मक्खन निकालते हुए, घर साफ करते हुए, अपने बच्चों का लाड़-दुलार करते हुए आदि अन्य गृहस्थ के कार्य करते हुए निरंतर आँसू बहाते हुए भगवान् श्री कृष्ण के नाम गुण लीला आदि का गान करती हैं”।
सारांश यह है कि जब तक हमें दिव्यानंद प्राप्त नहीं हो जाता, हम अपनी कामनाओं का परित्याग कर ही नहीं सकते। लेकिन संसारी कामना भक्ति के पथ पर प्रमुख बाधा है। इसलिए, अगर कामनाओं को भगवदीय क्षेत्र की तरफ मोड़ दें, तो वह शुद्ध हो जाएँगी और यह भक्ति मानी जाती है। सांसारिक कामनाओं का सांसारिक फल मिलता है जबकि भगवदीय कामनायें भगवान् के लिए प्यार बढ़ाती हैं। इसलिए अपनी कामनाओं को संसार में लगाने के बजाय, भगवान् और मोड़ दे और उनको बढ़ाते जाएँ।
सारांश यह है कि जब तक हमें दिव्यानंद प्राप्त नहीं हो जाता, हम अपनी कामनाओं का परित्याग कर ही नहीं सकते। लेकिन संसारी कामना भक्ति के पथ पर प्रमुख बाधा है। इसलिए, अगर कामनाओं को भगवदीय क्षेत्र की तरफ मोड़ दें, तो वह शुद्ध हो जाएँगी और यह भक्ति मानी जाती है। सांसारिक कामनाओं का सांसारिक फल मिलता है जबकि भगवदीय कामनायें भगवान् के लिए प्यार बढ़ाती हैं। इसलिए अपनी कामनाओं को संसार में लगाने के बजाय, भगवान् और मोड़ दे और उनको बढ़ाते जाएँ।
इच्छाओं को मारि जनि, गोविन्द राधे । हरि गुरु सेवा इच्छा और बढ़ा दे ।
राधा गोविंद गीत
“इच्छाओं का दमन करने का प्रयत्न न करिये। हरि गुरु की सेवा की इच्छा को और बढ़ाते जाइए”।
इस युग के सर्वोत्तम गुरु जगद्गुरुतम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज ने इसी आशय से यह पद लिखा है
इस युग के सर्वोत्तम गुरु जगद्गुरुतम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज ने इसी आशय से यह पद लिखा है
सुनो मन एक अनोखी बात ।
काम क्रोध मद लोभ तजहु जनि, भजहु तिनहिं दिन रात।
काम इहै पै कब मोहिं मिलिहहिं, सुंदर श्यामलगात।
क्रोध इहै घनश्याम मिलन बिनु,जीवन बीत्यो जात।
रहु येहि मद मदमत्त दास हौं, स्वामी मम बलभ्रात।
रह कृपालु यह लोभ छिनहि छिन,बढ़इ प्रेम पिय शांत।।
काम क्रोध मद लोभ तजहु जनि, भजहु तिनहिं दिन रात।
काम इहै पै कब मोहिं मिलिहहिं, सुंदर श्यामलगात।
क्रोध इहै घनश्याम मिलन बिनु,जीवन बीत्यो जात।
रहु येहि मद मदमत्त दास हौं, स्वामी मम बलभ्रात।
रह कृपालु यह लोभ छिनहि छिन,बढ़इ प्रेम पिय शांत।।
प्रे.र.म. (सि.मा.) 117
अरे मन ! एक अनोखी बात सुन | तू काम, क्रोध, मद, लोभ का परित्याग न कर वरन् इनका दिन रात सेवन कर | किन्तु कामना यह रहे कि श्यामसुन्दर कब मिलेंगे ? क्रोध यह हो कि श्यामसुन्दर के मिले बिना मानव-जीवन समाप्त हुआ जा रहा है | मद यह रहे कि मैं श्यामसुन्दर का दास हूँ एवं वे मेरे स्वामी हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि लोभ यह रहे कि श्यामसुन्दर के युगल चरणों में प्रत्येक क्षण प्रेम बढ़ता जाय |
काम क्रोध मद लोभ कहँ, मन मूरख! मत छोड़।
रसिक शिरोमणि श्याम ढ़िंग, दे इनको मुख मोड़॥ भक्ति शतक ३८.
हे मूर्ख मन! तू काम क्रोधादि को छोड़ने की मत सोच। वरन् इनको श्यामसुंदर संबंधी बना दे। अर्थात यदि चाह रखनी है तो कृष्ण के सुख की चाह रख, यदि क्रोध करना है तो अपनी कमियों पर कर जो तेरे और श्याम सुंदर के बीच में बाधा बन रही हैं, यदि मद करना है तो इस बात पर कर कि मैं श्याम सुंदर का हूँ इत्यादि ।
जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
भक्ति शतक ३८ |
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उल्लिखित कतिपय अन्य प्रकाशन आस्वादन के लिये प्रस्तुत हैं
सिद्धान्त, लीलादि |
सिद्धांत गर्भित लघु लेखप्रति माह आपके मेलबोक्स में भेजा जायेगा
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