अनादिकाल से प्रचलित, संसार के समस्त दर्शनों को दो सिद्धान्तों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है- एक भौतिकवाद एवं दूसरा अध्यात्मवाद। अनेकानेक वैज्ञानिक एवं समाजिक उन्नति के उपरांत भी यह व्यापक वर्गीकरण, आज भी सर्वथा मान्य है । इसका कारण तर्क सम्मत है क्योंकि समस्त प्राणीमात्र दो वस्तुओं से ही निर्मित है - एक पंचमहाभूत का बना हुआ शरीर तथा दूसरा दिव्य, शाश्वत, चिन्मय ईश्वर का अंश-आत्मा । अतः हमारे उत्थान के लिये, भूत, वर्तमान, एवं भविष्य काल के समस्त दर्शन इन दो सिद्धान्तों के अंतर्गत थे, हैं और आगे भी होंगे ।
प्रचलित समस्त आस्थाओं, धर्मों, एवं सारे दर्शनों का एक ही लक्ष्य है "आनंद की प्राप्ति"। भगवान ही आनंद है और प्रत्येक जीव भगवान का अभिन्न अंश है । प्रत्येक अंश अपने अंशी को प्राप्त करने को लालायित है यह शाश्वत सिद्धांत है । अतः सभी जीवों में अपने अंशी भगवान् व भगवदानंद को प्राप्त करने की स्वभाविक पिपासा है ।
जो व्यक्ति अपने को शरीर मानता है वह मायिक पदार्थों में आनंद को खोजता है तथा जो अपने को आत्मा मानता है वह भगवान में आनंद को खोजता है। कुछ लोग पूर्णतया अध्यात्मवाद को महत्व देते हैं, तथा कुछ लोग पूर्णतया भौतिकवाद को महत्व देते हैं । दोनों वाद-वादी अपने सिद्धान्त को ही सत्य मानते हैं, अतः अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद में अनादिकाल से विवाद चला आ रहा है। परंतु वास्तव में दोनों ही भोले हैं, क्योंकि भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
भौतिकवादी के अनुसार भौतिकता का उत्थान संस्कृति एवं सभ्यता के उत्थान का द्योतक है । प्राचीनकाल में लोगों का पहनावा, रहन-सहन, खानपान, शिक्षा एवं सभ्यता से रहित, जंगली जानवरों के समान था । अब ऊंची इमारतें, विभिन्न प्रकार के सूती, ऊनी, रेशमी तथा नाना प्रकार के वस्त्र, अत्याधुनिक आवागमन, दूरसंचार एवं मनोरंजन के साधनों के आविष्कार, सब भौतिकता के उत्थान का प्रमाण है।
प्रचलित समस्त आस्थाओं, धर्मों, एवं सारे दर्शनों का एक ही लक्ष्य है "आनंद की प्राप्ति"। भगवान ही आनंद है और प्रत्येक जीव भगवान का अभिन्न अंश है । प्रत्येक अंश अपने अंशी को प्राप्त करने को लालायित है यह शाश्वत सिद्धांत है । अतः सभी जीवों में अपने अंशी भगवान् व भगवदानंद को प्राप्त करने की स्वभाविक पिपासा है ।
जो व्यक्ति अपने को शरीर मानता है वह मायिक पदार्थों में आनंद को खोजता है तथा जो अपने को आत्मा मानता है वह भगवान में आनंद को खोजता है। कुछ लोग पूर्णतया अध्यात्मवाद को महत्व देते हैं, तथा कुछ लोग पूर्णतया भौतिकवाद को महत्व देते हैं । दोनों वाद-वादी अपने सिद्धान्त को ही सत्य मानते हैं, अतः अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद में अनादिकाल से विवाद चला आ रहा है। परंतु वास्तव में दोनों ही भोले हैं, क्योंकि भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
भौतिकवादी के अनुसार भौतिकता का उत्थान संस्कृति एवं सभ्यता के उत्थान का द्योतक है । प्राचीनकाल में लोगों का पहनावा, रहन-सहन, खानपान, शिक्षा एवं सभ्यता से रहित, जंगली जानवरों के समान था । अब ऊंची इमारतें, विभिन्न प्रकार के सूती, ऊनी, रेशमी तथा नाना प्रकार के वस्त्र, अत्याधुनिक आवागमन, दूरसंचार एवं मनोरंजन के साधनों के आविष्कार, सब भौतिकता के उत्थान का प्रमाण है।
दूसरी ओर अध्यात्मवादी यह बात स्वीकार करते हैं कि भौतिकवाद ने अद्भुत भौतिक विकास किया है और भौतिक विकास ने हमारे जीवन को समृद्ध बना दिया है परंतु अध्यात्मवाद उसी अनुपात में अदृश्य हो गया है। सत्यवादी हरिश्चंद्र ,भीष्म पितामह जैसे दृढ़ प्रतिज्ञ, दधीचि जैसे त्यागी, युधिष्ठिर जैसे धर्मराज, अर्जुन जैसा शूरवीर आज पृथ्वी पर देखने को नहीं मिलते हैं। हिंसा, बेईमानी, असन्तुष्टि, ईर्ष्या, द्वेष आदि पाप इतने बढ़ गए हैं कि मानव ने मानवता को भुला दिया है । पापों के बढ़ने का मूल कारण भौतिक पदार्थों को सुख का आधार मानकर उनका संग्रह करना तथा एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा है । यद्यपि प्रत्येक मनुष्य का अनुभव है कि अधिक संग्रह से चिंता एवं वासना में और वृद्धि होती हैं । परन्तु इस अनुभव से सीख लेकर सुधार करने के विपरीत लोग संसारी वैभव के पीछे अनवरत् दौड़े चले जा रहे हैं ।
उस मानसिक शांति को याद करिए जब लोग संयुक्त परिवार में एक ही छत के नीचे सौहार्दपूर्ण वातावरण में रहते थे । सभी परिवार के सदस्य मिल बाँट कर खाना खाते थे, शाम को हंसी मजाक करते थे, एक दूसरे के साथ समय बिताते थे, एवं कठिनाईयों में भी एक दूसरे के सहायतार्थ उद्यत रहते थे। अपने अतिथि को अपना बिस्तर देकर स्वयं सपरिवार भूमि पर एक दरी बिछाकर सोते थे तथा प्रसन्न रहते थे। एक दूसरे के प्रति सहानुभूति रखना तथा परस्पर उत्थान में सहायक होना सामान्य बात थी। ऐसा तब हुआ करता था जब मनोरंजन के अधिक साधन नहीं हुआ करते थे ,अधिक संग्रह का लालच नहीं होता था तथा सुविधाओं के उपकरणों की खोज नहीं हुई थी। अध्यात्मवादी कहते हैं कि हमें अध्यात्मवाद पर इसलिए ध्यान देना चाहिए क्योंकि इससे व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक शांति मिलती है, एवं समाज में अच्छे गुणों के विकास की स्थापना होती है ।
यद्यपि प्रत्येक जीव अनादिकाल से आनंद प्राप्ति हेतु अथक परिश्रम कर रहा है, पर उसे आनंद का लवलेश भी प्राप्त नहीं हुआ है। आत्मा दिव्यानंद चाहती है जो भौतिक पदार्थ नहीं दे सकते हैं। आनंद भगवान का पर्यायवाची शब्द है; आनंद ही भगवान हैं और भगवान ही आनंद हैं । अतः भगवान को प्राप्त करके ही आनंद की प्राप्ति संभव है । भगवान स्वयं उद्घोषित करते हैं- "मुझे वेदों के ज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है ।" वे पुनः कहते हैं कि- "उस ज्ञान के लिए जीव को भगवत् प्राप्त संत की शरण में जाना होगा"। वेद कहते हैं -
उस मानसिक शांति को याद करिए जब लोग संयुक्त परिवार में एक ही छत के नीचे सौहार्दपूर्ण वातावरण में रहते थे । सभी परिवार के सदस्य मिल बाँट कर खाना खाते थे, शाम को हंसी मजाक करते थे, एक दूसरे के साथ समय बिताते थे, एवं कठिनाईयों में भी एक दूसरे के सहायतार्थ उद्यत रहते थे। अपने अतिथि को अपना बिस्तर देकर स्वयं सपरिवार भूमि पर एक दरी बिछाकर सोते थे तथा प्रसन्न रहते थे। एक दूसरे के प्रति सहानुभूति रखना तथा परस्पर उत्थान में सहायक होना सामान्य बात थी। ऐसा तब हुआ करता था जब मनोरंजन के अधिक साधन नहीं हुआ करते थे ,अधिक संग्रह का लालच नहीं होता था तथा सुविधाओं के उपकरणों की खोज नहीं हुई थी। अध्यात्मवादी कहते हैं कि हमें अध्यात्मवाद पर इसलिए ध्यान देना चाहिए क्योंकि इससे व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक शांति मिलती है, एवं समाज में अच्छे गुणों के विकास की स्थापना होती है ।
यद्यपि प्रत्येक जीव अनादिकाल से आनंद प्राप्ति हेतु अथक परिश्रम कर रहा है, पर उसे आनंद का लवलेश भी प्राप्त नहीं हुआ है। आत्मा दिव्यानंद चाहती है जो भौतिक पदार्थ नहीं दे सकते हैं। आनंद भगवान का पर्यायवाची शब्द है; आनंद ही भगवान हैं और भगवान ही आनंद हैं । अतः भगवान को प्राप्त करके ही आनंद की प्राप्ति संभव है । भगवान स्वयं उद्घोषित करते हैं- "मुझे वेदों के ज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है ।" वे पुनः कहते हैं कि- "उस ज्ञान के लिए जीव को भगवत् प्राप्त संत की शरण में जाना होगा"। वेद कहते हैं -
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्य कृतः कृतेन ।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समितपाणिः क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥ मुंड.१ मुं.२ खंड. १२ मंत्र
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समितपाणिः क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥ मुंड.१ मुं.२ खंड. १२ मंत्र
"वेदों को मथने (अर्थात वेदों में लिखित क्रियाओं का प्रयोगात्मक रूप से अवलोकन करने) के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें ऐसे संत को पूर्ण समर्पण करना पड़ेगा, जिसे समस्त शास्त्रों वेदों का ज्ञान हो तथा जो भगवान् के दर्शन भी कर चुका हो "।
शास्त्र वेद हमें सैद्धांतिक ज्ञान देते हैं और संत उस सैद्धांतिक ज्ञान का विस्तार कर उसे क्रियात्मक रूप में ढालने में हमारी सहायता करते हैं। अतः सभी जीवों का परम चरम लक्ष्य, आनंद प्राप्ति, वास्तव में आध्यात्मवाद के बिना संभव ही नहीं है। विचारणीय है कि भौतिकवाद का त्याग नहीं किया जा सकता। सोचिये अध्यात्मवादी साधना कहाँ करेगा? स्पष्ट है कि वह इसी संसार में रहकर, इस शरीर द्वारा ही सम्भव है। शरीर को पुष्ट रखने के लिए उसे भोजन ,जल, वायु, आकाश सभी भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होगी । योगी अपनी यौगिक शक्तियों से भोजन, जल, पृथ्वी का त्याग कर सकता है, फिर भी उसको आकाश चाहिए होगा । ज्ञात रहे, साधना बिना शरीर और मन के नहीं हो सकती और यह दोनों ही भौतिक हैं । भौतिकवादी शरीर को ही आराम देना चाहते हैं और आत्मा के सुख के लिये कोई विचार नहीं करते । आत्मा का सुख अध्यात्मवाद से ही संभव है । अतः भौतिकवादी का अध्यात्मवाद की अवहेलना करना बालवत आचरण ही है। 'मैं' के वास्तविक रूप से अनभिज्ञ हम अपने शरीर को सभी भौतिक पदार्थों से सुख देने का प्रयास करते हैं । यह प्रयास मृग मरीचिका की भांति कुछ समय के लिए सुख का झूठा सपना दिखा सकता है सुख दे नहीं सकता है । हमारी भौतिक पदार्थों से बनी इंद्रियों ने अनंत बार ब्रह्म लोक तक के सुखों को भोगा है फिर भी आत्मा को आनंद की प्राप्ति नहीं हुई । गरुण पुराण कहता है - |
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वं ।
भवितुं सुरपतिरूर्ध्व गतित्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा ॥ ग. पु.
भवितुं सुरपतिरूर्ध्व गतित्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा ॥ ग. पु.
"संपूर्ण पृथ्वी का राजा, देवता का पद चाहता है । देवता, स्वर्ग के राजा इंद्र का पद चाहते हैं । इंद्र भी ब्रह्मा का पद प्राप्त कर ब्रह्मलोक का स्वामी बनना चाहता है । अतः कामनाओं का कोई अंत नही।"
इस असंतुष्टि का केवल एक ही कारण है कि हम आत्मा का आनंद मायिक संसार में ढ़ूढ़ रहे हैं । मायिक पदार्थ तो मायिक इंद्रियों के विषय भोग के साघन हैं। अतः हमारी इंद्रियाँँ कुछ समय के लिए संतुष्ट हो जाती हैं परंतु आत्मा का अर्थ अभी भी पूरा नहीं हुआ है क्योंकि मायिक पदार्थ आत्मा का विषय नहीं है। इस असंतुष्टि का केवल एक ही कारण है कि हम दिव्य आत्मा का आनंद मायिक संसार में ढ़ूढ़ रहे है, परन्तु मायिक पदार्थ दिव्यानंद देने में सर्वथा असमर्थ हैं ।
अतएव निष्कर्ष यह निकला कि अध्यात्मवाद और भौतिकवाद में समन्वय परमावश्यक है । आनंद की प्राप्ति करना ही हमारा वास्तविक लक्ष्य है जोकि आध्यात्मिक पथ पर चलने से ही प्राप्त हो सकेगा जिसके लिए प्रमुख साधन हमारा शरीर है । तुलसीदास जी ने भी कहा है - तन बिनु भजन वेद नहिं बरना ॥
शरीर माया का बना है और संसार भी माया का बना है । अतः शरीर को स्वस्थ रखने के लिये संसार आवश्यक हैं । इसलिये संसारिक पदार्थों का सही मात्रा में सेवन करना, आत्मा के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक होगा । निःसंदेह हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उचित मात्रा में पौष्टिक भोजन, तन ढकने के लिए उचित वस्त्र एवं रहने के लिये एक घर की आवश्यकता होती है। परंतु समस्या तब जन्म लेती है जब हम आवश्यकता से अधिक अर्जित करने की चेष्टा करने लगते हैं। और फिर दूसरों से आगे निकलने की होड़ में अपने वास्तविक लक्ष्य आनंद से च्युत रह जाते हैं ।
अतः बुद्धिमान व्यक्ति दिव्यानंद प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक पथ को अपना कर, मायिक पदार्थों का आवश्यकता अनुसार ही सेवन करते हैं । वैसे ही जैसे एक योद्धा युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अपनी तलवार को चमकाता है तथा एक संगीतज्ञ संगीत में सहायक वाद्य यंत्रों की देखरेख लगन से करता है । निष्कर्ष मानव जीवन का परम चरम लक्ष्य भगवत प्राप्ति (ऊपर के नीले डिब्बे में लिखित) है तथा मायिक संसार (मनुष्यों के लिये मृत्यु लोक) ध्येय को प्राप्त करने का साधन मात्र है । मायिक पदार्थ केवल शरीर के उपयोग के लिए हैं, उपभोग के लिए नहीं । इस ज्ञान से अवगत कराने के लिये जीव को आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता होती है । गुरु अपने शरणागत जीव का मार्गदर्शन कर उसे परम चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सदा सहायता करते हैं । |
संक्षेप में कह सकते हैं कि दिव्यानंद प्राप्त करने का साधन हमारा मायिक शरीर है । अतः हम अध्यात्मवाद और भौतिकवाद दोनों को नहीं छोड़ सकते । परंतु भौतिकवाद को अधिक महत्व देना हमारे लिए हानिकारक है । गीता कहती है -
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य, जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ गीता "भगवत प्राप्ति हेतु अधिक भोजन या कम भोजन करना दोनों ही स्वस्थ शरीर के लिये हानिकारक है । इसी प्रकार आवश्यकता से अधिक सोना या जागना भी हमारे शरीर के लिए हानिकारक होता है। “
अतः भगवत प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले आवश्यक मायिक वस्तुओं को संतुलित मात्रा में ग्रहण कर बुद्धिमत्ता पूर्वक अपने पथ पर अग्रसर होते है । |