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वर्ण व्यवस्था

यह अंक हिन्दी में पढ़ें
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सतयुग में मनुष्य आध्यात्मिक, विनम्र, सहयोगी और जीवन से संतुष्ट थे । लेकिन त्रेतायुग में ये गुण धीरे-धीरे क्षीण होने लगे। प्रत्येक व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व को निष्ठा से निभाए तो समाज सुचारु रूपा से चलेगा । इस दृष्टिकोण से वेदों ने  मानवों को उनकी योग्यता के अनुसार चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जिन्हें वर्ण कहा जाता है । प्रत्येक मनुष्य से अपने उत्तरदायित्व को निष्ठा से निभाने कि अपेक्षा की जाती है । ये चार वर्ण हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ।

इस संसार की सृष्टि से पहले, केवल परात्पर ब्रह्म भगवान श्री कृष्ण ही थे और कोई नहीं। सृष्टि के समय, उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और अपनी एक कला को कर्णावशायी महाविष्णु के रूप में प्रकट किया। कर्णावशायी महाविष्णु ने बस माया को देखा और जड़ माया चैतनवत कर्म करने लगी । कर्णावशायी महाविष्णु ने स्वयं को असंख्य गर्भोदशायी विष्णु या द्वितीय पुरुष के रूप में प्रकट किया। फिर प्रत्येक​ गर्भोदशायी विष्णु ने एक​ ब्रह्माण्ड की रचना की और उस​में एक ब्रह्मा, एक विष्णु और एक शंकर को प्रकट किया। प्रत्येक ब्रह्मण्ड में कई लोक हैं।

तब भगवान​ ने मनुष्यों को संसार में प्रकट किया -
  • उनके ललाट​ से ब्राह्मण निकले,
  • क्षत्रिय उनकी भुजा से,
  • वैश्य उनकी जंघा से वैश्य और
  • शूद्र उनके चरणों से।

ब्रह्मणोऽस्य मुखमासीत् राजन्यः कृतः ।ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः ॥
​
 ऋग्वेद पुरुष सूक्त​ 10.90.11–12

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कौशल के आधार पर इन चार श्रेणियों के अपने-अपने नियम हैं । उन नियमों का ज्ञान व पालन​ करने को वर्णाश्रम धर्म कहा जाता है । इस वर्गीकरण का उद्देश्य मानव समाज को सुचारू रूप से चलने योग्य​ बनाना था ।
  • ब्राह्मण - बुद्धिजीवी, जो शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन में सक्षम थे
  • क्षत्रिय - विशेष प्रशासनिक और युद्ध में कौशल व्यक्ति थे
  • वैश्य - खेती और व्यापार में विशेषज्ञता वाले व्यक्ति थे
  • शूद्र - शेष व्यक्ति जिनमें कोई विशिष्ट विशेषज्ञता नहीं थी, उन्हें अन्य तीन समूहों की सहायता के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था।

जैसे - जैसे समय बीतता गया, अपनी स्वार्थ पूर्ति की इच्छा से प्रेरित पहले तीन वर्गों ने, विशेष रूप से ब्राह्मणों ने, जाति व्यवस्था के वास्तविक उद्देश्य को विकृत कर दिया और वर्ण व्यवस्था वंश के अनुगत हो गई । यानी ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण हो गया ; वेद-शास्त्र आदि का ज्ञान, वेद-शास्त्र को पढ़ने और पढ़ाने में निपुणता हो चहे न हो । इस वर्गीकरण के साथ, पहले तीन वर्गों ने शूद्र को सबसे निचला वर्ग माना और हेय दृष्टि से देखने लगे ।

अब निम्न बिन्दुओं पर थोड़ा विचार करें:
  • यदि प्रत्येक व्यक्ति के वंश का पता लगाया जाय​ तो यह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा (ब्रह्मा) और फिर श्री कृष्ण तक जाएगा । चूंकि सभी श्री कृष्ण की संतान हैं, इसलिए सभी भाई-भाई हैं। तो एक भाई दूसरे से बड़ा कैसे हो सकता है?
  • यदि आप कहते हैं कि चूंकि शूद्र भगवान के चरणों से निकले हैं, वे नीच हैं, तो इस तथ्य पर विचार करें -
    • भगवान के चरणों की सेवा धन वैभव की देवी महालक्ष्मी द्वारा की जाती है ।
    • इसके अलावा, भगवान के शरीर का रोम-रोम स्वयं भगवान है।
    • साथ ही बड़े बड़े ज्ञानी योगी तवस्वी भगवान के चरण कमलों की पूजा करने के लिए झुकते हैं । ऐसे चरणों से निकला हुआ कोई नीचा कैसे हो सकता है?
  • ईश्वर आनंद है। परमानंद उनके हर रोम​ से और सबसे अधिक​ उनके चरण कमलों से निकलता है। भागवत में गंगा नदी को सबसे पवित्र नदी माना जाता है, क्योंकि गंगा ने श्री कृष्ण के चरण कमलों को नित्य धोया है। उन चरणों को धोने वाली गंगा पवित्र और उन से निकले शूद्र नीच ! ऐसा कैसे ?
​
वास्तव में, आजकल वर्ण का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि कोई भी अपनी वर्ण के निर्धारित वैदिक नियमों का पालन नहीं करता है । यह अत्यंत दुर्लभ है कि ब्राह्मण वेदों को जानते हैं और वैदिक जीवन जीते हैं। इसी प्रकार अन्य वर्णों के लोग भी अपने-अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते।

भागवत महापुराण का दावा है
अहो बात श्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्। तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्त्ररार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते।। भा ३.३३.७
"ओह, वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्वा भगवान कृष्ण के पवित्र नाम का जाप कर रही है! भले ही वे घोर नीच परिवार में पैदा हुए हों, फिर भी ऐसे व्यक्ति पूजनीय हैं।" आगे कहा गया है, "ब्राह्मण जो भगवान का भक्त नहीं है, वह शूद्र से भी निम्न दर्जे का मना जाएगा।"

साथ ही वर्णाश्रम धर्म शरीर का धर्म है, जीव का नहीं। जीव नित्य दिव्य है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है।​
Pictureसदा आनंदमय रहने के लिये आध्यात्मिक पूँजी बढ़ाइये । सांसारिक सुखों को प्राप्त करने की आपाधापि में शामिल न हों।
निष्कर्ष:
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप निचली जाति में पैदा हुए हैं या ऊँची जाति में। सभी जो भगवान की उपासना नहीं करते हैं, वे नीच हैं। ये सभी माया के सब​ क्लेशों (1)(2)(3) से पीड़ित हैं। जब सब एक ही नाव में सवार हैं तो नीची या ऊँची जाति में पैदा होने से क्या फर्क पड़ता है? दूसरों को नीचा दिखाने की होड़ में क्षुद्रता, श्रेष्ठता, घृणा और प्रतिस्पर्धा की सभी नकारात्मक भावनाओं को त्यागिये । इसके बजाय, रैदास, कबीर, शबरी, नानक, तुकाराम आदि की भांति भगवान के सनातन दास (4) बनने के लिए उच्चतम स्तर तक उठने के लिये साधना करिये।

ईश्वर दीन के सखा है। अपनी उच्च जाति पर गर्व करना और अन्य जातियों के लोगों को हेय दृष्टि से देखना, आपके अहंकार को बढ़ाएगा और ईश्वर के प्रति आपके प्रेम को कम करेगा। आप धीरे-धीरे प्रेम, सहानुभूति, दया, सहनशीलता आदि दैवीय गुणों (5) को खोने लगेंगे और माया के विकार जैसे काम, क्रोध, लोभ, घृणा आदि को प्राप्त करने लगेंगे।

दिव्य प्रेम के लिए लालायित मनुष्यों को सलाह दी जाती है कि वे सभी अभिमानों से दूर रहें। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं:

तृणादपि सुनीचेन​, तरोरपि सहिष्णुना, अमानिना मानदेन​, कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
"घास के तिनके से भी अधिक विनम्र बनो, वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु बनो, सभी को सम्मान दो और कभी भी अपने लिए सम्मान की इच्छा मत रखो।"

विनम्रता भक्ति मार्ग की सीढ़ी है। पद, धन, शिक्षा, प्रतिभा, जाति आदि सहित किसी भी प्रकार का अभिमान इस मार्ग पर प्रमुख बाधा है। सभी अभिमानों से दूर रहें।
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