प्रश्न
हमारे शास्त्र कहते हैं कि श्री राधा रानी श्री कृष्ण से माधुर्य भाव से प्रेम करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे प्रेमी व प्रेमिका । वही शास्त्र हमें इन्द्रियों पर नियंत्रण करने का उपदेश करते हैं ।
यह दोगलापन क्यों? यदि राधा-कृष्ण प्रिया-प्रियतम हो सकते हैं तो उनका अनुकरण करके उसी भाँति संसारी व्यक्तियों से प्रेम करने में क्या दोष है?
उत्तर
दो चीजों की तुलना करने के लिए उन दोनों की विशेषताओं को ठीक-ठीक जानना आवशयक है। हम सांसारिक "प्रेम" के बारे में पहले से ही जानते हैं। इसलिए, इससे पहले कि हम सांसारिक "प्रेम" की तुलना श्री राधा कृष्ण के प्रेम से करें, प्रेमरस दर्शन के बारे में कुछ मुख्य बिंदुओं को समझना आवश्यक है।
1. प्रेम क्या है?
2. श्री राधा रानी कौन है?
3. श्री राधा रानी के प्रेम का आदर्श क्या है?
सर्वप्रथम इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हैं।
हमारे शास्त्र कहते हैं कि श्री राधा रानी श्री कृष्ण से माधुर्य भाव से प्रेम करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे प्रेमी व प्रेमिका । वही शास्त्र हमें इन्द्रियों पर नियंत्रण करने का उपदेश करते हैं ।
यह दोगलापन क्यों? यदि राधा-कृष्ण प्रिया-प्रियतम हो सकते हैं तो उनका अनुकरण करके उसी भाँति संसारी व्यक्तियों से प्रेम करने में क्या दोष है?
उत्तर
दो चीजों की तुलना करने के लिए उन दोनों की विशेषताओं को ठीक-ठीक जानना आवशयक है। हम सांसारिक "प्रेम" के बारे में पहले से ही जानते हैं। इसलिए, इससे पहले कि हम सांसारिक "प्रेम" की तुलना श्री राधा कृष्ण के प्रेम से करें, प्रेमरस दर्शन के बारे में कुछ मुख्य बिंदुओं को समझना आवश्यक है।
1. प्रेम क्या है?
2. श्री राधा रानी कौन है?
3. श्री राधा रानी के प्रेम का आदर्श क्या है?
सर्वप्रथम इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हैं।
प्रेम एक दिव्य सत्व है। यह सर्वविदित है कि शेरनी का दूध स्वर्ण पात्र के अतिरिक्त किसी भी पात्र में रखने पर खट्टा हो जाता है । इसी प्रकार दिव्य प्रेम दिव्य अन्तःकरण में ही रह सकता है । दिव्य प्रेम में इतना ताप होता है कि मायिक मन तथा शरीर इसको सहन नहीं कर सकते। यदि दिव्य प्रेम मायिक मन बुद्धि (1) में दे दिया जाए तो मायिक शरीर चूर चूर हो जायेगा, भस्म हो जायेगा और राख तक नहीं मिलेगी।
अतः जो दिव्य प्रेम चाहते हैं उन्हें पहले अन्तःकरण रूपी पात्र तैयार करना होगा जिसमें दिव्य प्रेम दिया जा सके। ऐसा करने के लिए दिव्य प्रेमाकांक्षी को तीन कामनाओं का त्याग करना होगा। निम्नलिखित में से एक भी कामना यदि लेश मात्र भी मन में है, तो वह प्रेम के पथ का अधिकारी ही नहीं है।
साथ ही दिव्य प्रेमाकांक्षी को किसी ऐसे रसिक संत (2) का सत्संग करना होगा जिसे दिव्य प्रेम प्राप्त हो चुका हो ।
जब कोई साधक इस अटूट विश्वास के साथ साधना करता है कि भगवान ही वास्तविक आनंद हैं, तो उसकी संसारी (अधिक जानकारी के लिए संसार पढ़ें) कामनाऐं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं (3) और मुक्ति की कामना भी छूट जाती है । इस प्रकार उसका मन पूर्णतया शुद्ध हो जाता है | तब उसका आध्यात्मिक गुरु उसको -
और अब साधक परमानंद (भगवत् दर्शन) प्राप्त करता है तथा भगवत सेवा की भावना ही उसके मन में रहती है। यह दिव्य प्रेम की पहली सीढ़ी है।
यद्यपि साधक भुक्ति तथा मुक्ति की कामनाओं को त्याग कर ही दिव्य प्रेम प्राप्त करता है तथापि भगवत प्राप्ति के बाद भगवान का रसास्वादन पांचों इंद्रियों से करने की इच्छा रखता है। दूसरे शब्दों में कहें कि वह भगवान का स्पर्श, शब्द ,रूप, रस, गंध का आस्वादन अपने सुख के लिए करना चाहता है। राधा रानी के प्रेम के अनुसार यह भी निष्काम प्रेम नहीं है ।
दिव्य प्रेम के कुल 8 स्तर होते हैं (अधिक जानकारी के लिए Siddha Bhakti देखें)। प्रेम प्राप्ति के बाद प्रेम के 7 स्तर और होते हैं, जो कि रस एवं अंतरंगता में उत्तरोत्तर अधिक होते है।
क्रमशः प्रत्येक स्तर पर स्वसुख वासना कम होती जाती है तथा श्री कृष्ण को सुख देने की भावना प्रबल होती जाती है।
सेवा भावना तथा प्रेमास्द को सुख देने की तीव्र लालसा के आधार पर साधक उच्चतम स्तर का प्रेम प्राप्त कर सकता है।
प्रेम के सातवें स्तर भावावेश में ही साधक को श्री कृष्ण का अनंत आनंद एवं नित्य नवायमान आनंद प्राप्त होने लगता है। उनको श्री कृष्ण के लेश मात्र कष्ट से अपार कष्ट पहुंचता है तथा श्रीकृष्ण को थोड़ा सा सुख मिलने पर उन्हें अपार हर्ष होता है। इसके ऊपर महाभाव के स्तर पर यदि साधक के दारुण दुख से श्रीकृष्ण को सुख मिलता है तो साधक उसको अपने सुख का स्रोत मानता है। इसी प्रकार यदि साधक के सुख का स्रोत श्रीकृष्ण को सुख नहीं पहुंचाता है तो वह उसके असह्य दुख का कारण बन जाता है। गोपियों के श्री कृष्ण प्रेम की एक झलक श्रीमद् भागवत महापुराण में देखिए -
अतः जो दिव्य प्रेम चाहते हैं उन्हें पहले अन्तःकरण रूपी पात्र तैयार करना होगा जिसमें दिव्य प्रेम दिया जा सके। ऐसा करने के लिए दिव्य प्रेमाकांक्षी को तीन कामनाओं का त्याग करना होगा। निम्नलिखित में से एक भी कामना यदि लेश मात्र भी मन में है, तो वह प्रेम के पथ का अधिकारी ही नहीं है।
- मृत्युलोक के सुखों की कामना।
- स्वर्गादिक लोकों के सुखों की कामना।
- मोक्ष (अधिक जानकारी के लिए Mukti पढ़ें) की कामना।
साथ ही दिव्य प्रेमाकांक्षी को किसी ऐसे रसिक संत (2) का सत्संग करना होगा जिसे दिव्य प्रेम प्राप्त हो चुका हो ।
जब कोई साधक इस अटूट विश्वास के साथ साधना करता है कि भगवान ही वास्तविक आनंद हैं, तो उसकी संसारी (अधिक जानकारी के लिए संसार पढ़ें) कामनाऐं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं (3) और मुक्ति की कामना भी छूट जाती है । इस प्रकार उसका मन पूर्णतया शुद्ध हो जाता है | तब उसका आध्यात्मिक गुरु उसको -
- माया से छुटकारा दिला देते हैं ,
- मन बुद्धि तथा इंद्रियों को दिव्य बना देते हैं,
- दिव्य प्रेम दान करते हैं।
और अब साधक परमानंद (भगवत् दर्शन) प्राप्त करता है तथा भगवत सेवा की भावना ही उसके मन में रहती है। यह दिव्य प्रेम की पहली सीढ़ी है।
यद्यपि साधक भुक्ति तथा मुक्ति की कामनाओं को त्याग कर ही दिव्य प्रेम प्राप्त करता है तथापि भगवत प्राप्ति के बाद भगवान का रसास्वादन पांचों इंद्रियों से करने की इच्छा रखता है। दूसरे शब्दों में कहें कि वह भगवान का स्पर्श, शब्द ,रूप, रस, गंध का आस्वादन अपने सुख के लिए करना चाहता है। राधा रानी के प्रेम के अनुसार यह भी निष्काम प्रेम नहीं है ।
दिव्य प्रेम के कुल 8 स्तर होते हैं (अधिक जानकारी के लिए Siddha Bhakti देखें)। प्रेम प्राप्ति के बाद प्रेम के 7 स्तर और होते हैं, जो कि रस एवं अंतरंगता में उत्तरोत्तर अधिक होते है।
- प्रेम ,
- स्नेह,
- मान,
- प्रणय,
- राग ,
- अनुराग,
- भावावेश,
- महाभाव।
क्रमशः प्रत्येक स्तर पर स्वसुख वासना कम होती जाती है तथा श्री कृष्ण को सुख देने की भावना प्रबल होती जाती है।
- दास्य भाव (अधिक जानकारी के लिए Bhav देखें) के साधक प्रेमा भक्ति तक पहुंचते हैं।
- सख्य भाव के साधक स्नेह भक्ति तक।
- वात्सल्य भाव के साधक अनुराग भक्ति तक तथा
- माधुर्य भाव वाली गोपियाँ महाभाव तक पहुंचती हैं।
सेवा भावना तथा प्रेमास्द को सुख देने की तीव्र लालसा के आधार पर साधक उच्चतम स्तर का प्रेम प्राप्त कर सकता है।
प्रेम के सातवें स्तर भावावेश में ही साधक को श्री कृष्ण का अनंत आनंद एवं नित्य नवायमान आनंद प्राप्त होने लगता है। उनको श्री कृष्ण के लेश मात्र कष्ट से अपार कष्ट पहुंचता है तथा श्रीकृष्ण को थोड़ा सा सुख मिलने पर उन्हें अपार हर्ष होता है। इसके ऊपर महाभाव के स्तर पर यदि साधक के दारुण दुख से श्रीकृष्ण को सुख मिलता है तो साधक उसको अपने सुख का स्रोत मानता है। इसी प्रकार यदि साधक के सुख का स्रोत श्रीकृष्ण को सुख नहीं पहुंचाता है तो वह उसके असह्य दुख का कारण बन जाता है। गोपियों के श्री कृष्ण प्रेम की एक झलक श्रीमद् भागवत महापुराण में देखिए -
अटति यद् भवानह्नि कानने, त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिल कुन्तलं च श्रीमुखं च ते, जड़ उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्।
भाग १०.३१.१५
कुटिल कुन्तलं च श्रीमुखं च ते, जड़ उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्।
भाग १०.३१.१५
“ओ श्यामसुंदर ! जब तुम सुबह गायों को चराने जाते हो तो तुम्हारी दिव्य छवि को निहार कर तुम्हारे दर्शन की प्यास को शांत करते हैं। तुम्हारी उस अति सुंदर दिव्य छवि को मन में बसा कर किसी प्रकार दिन व्यतीत करते हैं । गौचारण के उपरांत तुम्हारे वन से लौटने वाली छवि के दर्शन की लालसा में एक-एक क्षण युग के समान व्यतीत होता है । जब तुम सयंकाल को वापस आते हो तो हम तुम्हारे अत्यंत मनोहर मुख कमल व घुँघराली अलकावली का रसपान करते नहीं अघाते । किंतु हमें ब्रह्मा पर क्रोध आता है । वह इतना मूर्ख है कि पूरे शरीर में केवल दो ही आंखें बनाई और उन आँखों पर पलक बना दी जो कि लगातार झपकती है । ब्रह्मा ने इस बात पर विचार ही नहीं किया कि ये पलकें तुम्हारे दर्शनों का सुख प्राप्त करने में बाधा हैं ।“ गोपियों के अतिशय प्रेम की इस अवस्था की कल्पना कौन कर सकता है ।
सातवें स्तर भावावेश व आठवें स्तर महाभाव तक केवल वे साधक पहुंच सकते हैं जो श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम और श्री राधा रानी को अपनी स्वामिनी मानते हैं । उन भक्तों को गोपी कहा जाता है । गोपीयों की समस्त क्रियाएं केवल अपने प्रिया-प्रियतम (अधिक जानकारी के लिए Radha Krishna - The Divine Couple पढ़ें) को सुख देने के लिए ही होती हैं। उनका प्रेम, भक्ति, ज्ञान, धर्म व सुख केवल श्री राधा कृष्ण को सुख पहुंचाने तक ही सीमित है। इसीलिए हजारों गोपियाँ श्री राधा सहित श्री कृष्ण को ही अपना प्रियतम मानती थी फिर भी उनमें कभी लोलुपता, ईर्ष्या, विवाद उत्पन्न नहीं हुआ।
जब गोपियों के प्रेम की यह अवस्था है तो श्री राधा रानी, जो प्रेम तत्व का सार हैं, के प्रेम का वर्णन कौन कर सकता है। प्रेम के उच्चतम स्तर महाभाव के भी दो प्रकार होते हैं--
सातवें स्तर भावावेश व आठवें स्तर महाभाव तक केवल वे साधक पहुंच सकते हैं जो श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम और श्री राधा रानी को अपनी स्वामिनी मानते हैं । उन भक्तों को गोपी कहा जाता है । गोपीयों की समस्त क्रियाएं केवल अपने प्रिया-प्रियतम (अधिक जानकारी के लिए Radha Krishna - The Divine Couple पढ़ें) को सुख देने के लिए ही होती हैं। उनका प्रेम, भक्ति, ज्ञान, धर्म व सुख केवल श्री राधा कृष्ण को सुख पहुंचाने तक ही सीमित है। इसीलिए हजारों गोपियाँ श्री राधा सहित श्री कृष्ण को ही अपना प्रियतम मानती थी फिर भी उनमें कभी लोलुपता, ईर्ष्या, विवाद उत्पन्न नहीं हुआ।
जब गोपियों के प्रेम की यह अवस्था है तो श्री राधा रानी, जो प्रेम तत्व का सार हैं, के प्रेम का वर्णन कौन कर सकता है। प्रेम के उच्चतम स्तर महाभाव के भी दो प्रकार होते हैं--
- रूढ़ महाभाव : केवल अंतरंग गोपी ही यहां तक पहुंच सकती है।
- अधिरुढ़ महाभाव : यहां तक केवल श्री कृष्ण ही पहुंच सकते हैं । अधिरूढ़ महाभाव के भी दो स्तर होते हैं; मोदन, मादन। जैसा कि श्री रूप गोस्वामी जी ने उज्जवल नीलमणि में कहा है
सर्व भावोद्गमोल्लासी मादनोऽयं परात्परः ।
राजते ह्लादिनी सारो राधायामेव यः सदा ॥
राजते ह्लादिनी सारो राधायामेव यः सदा ॥
"इनमें मादन उच्चतम है, जहां केवल श्री राधारानी ही पहुंच सकती हैं ।"
श्री राधा रानी का प्रेम इतना गूढ़ है कि इसकी निःस्वार्थता का अनुमान ब्रह्मा शंकर आदि भी नहीं लगा सकते। शंकर जी गोपी बनकर इस प्रेम को प्राप्त करने आए । ब्रह्मा जी ने कहा -
श्री राधा रानी का प्रेम इतना गूढ़ है कि इसकी निःस्वार्थता का अनुमान ब्रह्मा शंकर आदि भी नहीं लगा सकते। शंकर जी गोपी बनकर इस प्रेम को प्राप्त करने आए । ब्रह्मा जी ने कहा -
षष्ठिवर्ष सहस्त्राणि मया तप्तं तपः पुरा ।
नंदगोपब्रजस्त्रीणां पादरेणुपलब्धये ।
तथानि न मया प्राप्तास्तासां वै पादरेणवः ॥
नंदगोपब्रजस्त्रीणां पादरेणुपलब्धये ।
तथानि न मया प्राप्तास्तासां वै पादरेणवः ॥
“मैंने 60,000 वर्षों तक तपस्या गोपियों की चरण धूलि पाने के लिए की । तो भी गोपियों की चरण धूलि प्राप्त नहीं कर सका ।” गोपियाँ निष्काम प्रेम का प्रतीक हैं ।
प्रश्न का उत्तर देने से पहले आइए गोपियों के प्रेम को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं और उस प्रेम की तुलना अन्य स्तरों से करते हैं ।
प्रश्न का उत्तर देने से पहले आइए गोपियों के प्रेम को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं और उस प्रेम की तुलना अन्य स्तरों से करते हैं ।
एक बार श्री कृष्ण ने सिर में असहनीय पीड़ा का अभिनय किया। वे दर्द से कराहने और तड़पने लगे। कई उपचार के बाद भी आराम नहीं मिला। तभी वहां नारद जी पहुंच गए तथा दर्द की औषधि कहाँ मिलेगी इसकी जानकारी श्रीकृष्ण से ही प्राप्त की । श्री कृष्ण ने कहा कि जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता हो उसकी चरण धूलि ही इसकी औषधि है । मैं उसे सिर पर लगा लूंगा तो दर्द का निवारण होगा । नारद जी ने द्वारका में श्याम सुंदर की सभी 16,108 रानियों से उनकी चरण-धूलि माँगी परंतु सबने नरक के और बदनामी भय से अपने पति को चरण धूलि देने से मना कर दिया । संत शिरोमणि नारद जी ने भी चरण धूलि नहीं दी ।
नारद जी प्रभु के सभी लोकों (पढ़ें lok) में सभी भक्तों के पास गए परंतु सभी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हम अपना प्राण उनको दे सकते हैं परंतु उनके सर पर लगाने के लिए चरण धूलि कदापि नहीं दे सकते। अंततः श्रीकृष्ण ने उनको ब्रज में गोपियों के पास जाने की सलाह दी ।
नारद जी गोपियों के पास गए और सारा वृतांत सुनाया । सुनते ही गोपियों ने सारी गोपियों ने अपने चरण फैला दिये और बोलीं ," नारद जी! एक क्षण भी नष्ट मत करिये । जल्दी से हमारी चरण धूलि लेकर जाइये" । नारद जी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने गोपियों से पूछा कि तुम जानती नहीं श्री कृष्ण कौन हैं और उनको सिर पर लगाने के लिए चरण धूलि देने का परिणाम क्या होगा ? गोपियों ने कहा , "नारद जी यह प्रश्न आप बाद में पूछियेगा अभी आप तुरंत जाइये और हम सब के प्रियतम की पीड़ा का निवारण कीजिये । आप यही कहना चाहते हैं कि वे भगवान ((4) हैं और उन्हें चरण धूलि देने से हमें नरक (पढ़ें Narak) की प्राप्ति होगी। यदि अपने प्रेमास्पद के सुख के लिये हमें नरक की यातनायें भोगनी पड़े तो हम भोग लेंगे लेकिन प्रियतम तो स्वस्थ हो जायेंगे"।
नारद जी गोपी प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर नतमस्तक हो गये । गोपियां इतनी निष्काम हैं !! लोग नरक की यातनाओं से डरते हैं ,परंतु गोपियां तो श्रीकृष्ण के सुख के लिए नरक स्वीकार करने को तत्पर हैं। नारद जी ने पहले उनकी चरण रज अपने माथे पर लगाई फिर द्वारिका पहुंचे। जब रानियों ने गोपियों के निष्काम प्रेम की कथा सुनी तब उन्हें गोपियों के प्रति श्री कृष्ण के असीम अनुराग का रहस्य ज्ञात हुआ ।
जब श्री कृष्ण के लिए गोपियों का प्रेम ऐसा है तो श्री कृष्ण के प्रेति श्री राधा रानी के प्रेम का वर्णन करने के लिए कोई शब्द हो ही नहीं सकता है।
नारद जी प्रभु के सभी लोकों (पढ़ें lok) में सभी भक्तों के पास गए परंतु सभी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हम अपना प्राण उनको दे सकते हैं परंतु उनके सर पर लगाने के लिए चरण धूलि कदापि नहीं दे सकते। अंततः श्रीकृष्ण ने उनको ब्रज में गोपियों के पास जाने की सलाह दी ।
नारद जी गोपियों के पास गए और सारा वृतांत सुनाया । सुनते ही गोपियों ने सारी गोपियों ने अपने चरण फैला दिये और बोलीं ," नारद जी! एक क्षण भी नष्ट मत करिये । जल्दी से हमारी चरण धूलि लेकर जाइये" । नारद जी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने गोपियों से पूछा कि तुम जानती नहीं श्री कृष्ण कौन हैं और उनको सिर पर लगाने के लिए चरण धूलि देने का परिणाम क्या होगा ? गोपियों ने कहा , "नारद जी यह प्रश्न आप बाद में पूछियेगा अभी आप तुरंत जाइये और हम सब के प्रियतम की पीड़ा का निवारण कीजिये । आप यही कहना चाहते हैं कि वे भगवान ((4) हैं और उन्हें चरण धूलि देने से हमें नरक (पढ़ें Narak) की प्राप्ति होगी। यदि अपने प्रेमास्पद के सुख के लिये हमें नरक की यातनायें भोगनी पड़े तो हम भोग लेंगे लेकिन प्रियतम तो स्वस्थ हो जायेंगे"।
नारद जी गोपी प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर नतमस्तक हो गये । गोपियां इतनी निष्काम हैं !! लोग नरक की यातनाओं से डरते हैं ,परंतु गोपियां तो श्रीकृष्ण के सुख के लिए नरक स्वीकार करने को तत्पर हैं। नारद जी ने पहले उनकी चरण रज अपने माथे पर लगाई फिर द्वारिका पहुंचे। जब रानियों ने गोपियों के निष्काम प्रेम की कथा सुनी तब उन्हें गोपियों के प्रति श्री कृष्ण के असीम अनुराग का रहस्य ज्ञात हुआ ।
जब श्री कृष्ण के लिए गोपियों का प्रेम ऐसा है तो श्री कृष्ण के प्रेति श्री राधा रानी के प्रेम का वर्णन करने के लिए कोई शब्द हो ही नहीं सकता है।
एक बार श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ गंगा जी में स्नान करने सिद्धाश्रम गए। संयोगवश वहाँ श्री राधा रानी भी उसी समय अपनी हजारों सखियों के साथ गंगा स्नान करने पहुंची। रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी के अद्भुत सौंदर्य के बारे में सुना था। जब उन्हें यह पता चला तो वे राधा रानी से मिलने के लिए उत्सुक होने लगीं । उन्होंने श्री राधा रानी को अपने परिसर में आमंत्रित किया जिसे श्री राधा रानी ने स्वीकार कर लिया।
जैसे ही श्री राधा रानी ने रुक्मणी जी के परिसर में प्रवेश किया तो सभी रानियां उनके रूप माधुर्य तथा आभा को देखकर स्तब्ध रह गईं। उन्होंने सहर्ष श्री राधा रानी तथा सखियों का स्वागत किया । तब रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी से एक प्रश्न किया। " सभी रानियां तथा गोपियां श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर प्रेम करती हैं। क्या तुम्हें उनसे ईर्ष्या नहीं होती?” श्री राधारानी मुस्कुराई तथा बड़ा ही सुंदर उत्तर दिया । चन्द्रो यथैको बहवश्चकोराः, सूर्यो यथैको बहवः दृशस्युः ।
श्रीकृष्ण चन्द्रो भगवाँस्थैको, भक्ता भगिन्यो बहवो वयं च ॥ |
"मेरी प्यारी बहनों! चंद्रमा तो केवल एक ही है परंतु चकोर तो बहुत हैं। कल्पना कीजिए यदि एक चकोर चंद्रमा पर अपना अधिकार कर ले तो बाकी सभी चकोर तो मर जायेंगे । इसी प्रकार सूर्य एक है हम सभी उसी के प्रकाश से दृष्टि पाते हैं। यदि कोई एक सूर्य पर अधिकार कर ले तो बाकी सब नेत्रहीन हो जाएंगे। संक्षेप में कहें, श्री कृष्ण ही प्रेम तत्व हैं । यदि मैं उन पर अपना एकाधिकार कर लूंगी तो अन्य जीव उनके प्रेम से वंचित रह जायेंगे । दूसरी बात यह है कि मेरे श्याम सुंदर अन्य जीवों से प्रेम करके सुख प्राप्त करते हैं तो मुझे कोई आपत्ति क्यों होगी?"
इन उदाहरणों से अब आप यह समझ गए होंगे कि मायिक प्रेम की तुलना श्री राधा रानी व गोपियों के प्रेम से नहीं की जा सकती। यहां तक कि दोनों एक क्षेत्र के भी नहीं है तो तुलना करना नितांत मूर्खता का द्योतक है।
संसार में जीव स्वार्थ से ही प्रेम करता है । इसलिये प्रेम का भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक कामनाओं से परे होना जीव की कल्पना से परे है । हमारा अनुभव मायिक क्षेत्र तक सीमित है अतः हम दिव्य प्रेम को भी उसी पैमाने से नापते हैं। इसीलिए हम दोनों प्रेम की तुलना करने की चेष्टा करते हैं। मायिक प्रेम का आधार स्वसुख है जब कि राधा रानी के प्रेम में स्वसुख वासना की गंध भी नहीं होती। मायिक प्रेम को काम या राग कहते हैं जिसका आधार केवल और केवल स्वार्थ है। जबकि दिव्य प्रेम स्वार्थ रहित होता है जिसमें सिर्फ देना देना ही होता है।
दिव्य प्रेम का मुख्य मापदण्ड यह है कि -
संसार में जीव स्वार्थ से ही प्रेम करता है । इसलिये प्रेम का भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक कामनाओं से परे होना जीव की कल्पना से परे है । हमारा अनुभव मायिक क्षेत्र तक सीमित है अतः हम दिव्य प्रेम को भी उसी पैमाने से नापते हैं। इसीलिए हम दोनों प्रेम की तुलना करने की चेष्टा करते हैं। मायिक प्रेम का आधार स्वसुख है जब कि राधा रानी के प्रेम में स्वसुख वासना की गंध भी नहीं होती। मायिक प्रेम को काम या राग कहते हैं जिसका आधार केवल और केवल स्वार्थ है। जबकि दिव्य प्रेम स्वार्थ रहित होता है जिसमें सिर्फ देना देना ही होता है।
दिव्य प्रेम का मुख्य मापदण्ड यह है कि -
सर्वथा ध्वसरहितं सत्यपि ध्वसं कारणे ।
"प्रेम के समाप्त होने का कारण हो तो भी वह समाप्त नहीं हो तो वह प्रेम है।"
तस्सुखसुखित्वं
"अपने प्रेमास्पद के सुख में सुखी रहना।
हमें दिव्य प्रेम का कोई अनुमान नहीं है इसलिए हम अपने स्वार्थ सिद्धि के आधार पर हुए राग को ही प्रेम मान लेते हैं । आइए जानते हैं मायिक प्रेम (काम) तथा दिव्य प्रेम में अंतर क्या है ।
काम | प्रेम | |
---|---|---|
1. | काम सीमित मात्रा का होता है और सीमित काल के लिये होता है उस के बाद समाप्त हो जाता है । | प्रेम में हर क्षण प्रेम सुधा से भरा होता है तथा अनंत काल के लिये होता है । |
2. | काम की सफलता इंद्रियों के सुख पर निर्भर होती है । | प्रेम की सफलता प्रेमास्पद के सुखी होने पर निर्भर होती है । |
3. | काम से इंद्रियों की क्षणिक तृप्ति होती है और अंतिम परिणाम दुख ही होता है । | प्रेम में कभी तृप्ति नहीं होती फिर भी निरंतर आनंद मिलता है । |
4. | काम जड़ होता है । | प्रेम चेतन, दिव्य, और बढ़ता ही जाता है । |
5. | काम वियोग होने पर घटता जाता है और एक दिन समाप्त हो जाता है । | प्रेम वियोग होने पर भी दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाता है और कभी समाप्त नहीं होता । |
6. | काम की पराकाष्ठा आत्म तृप्ति है । | प्रेम की पराकाष्ठा में आत्म विस्मृति होती है । |
गौरांग महाप्रभु के शब्दों में
कामेर तात्पर्य निज संभोग केवल, कृष्ण सुख तात्पर्य, प्रेम तो प्रबल ।
लोक धर्म, वेद धर्म, कर्म, लज्जा, धैर्य, देह सुख, आत्मसुख मर्म ।
सर्व त्याग करये कृष्णेर भजन, कृष्ण सुख हेतु करे प्रेमेर सेवन ।
अतएव कामे प्रेमे बहुत अंतर, काम अंधतम प्रेम निर्मल भास्कर ॥
लोक धर्म, वेद धर्म, कर्म, लज्जा, धैर्य, देह सुख, आत्मसुख मर्म ।
सर्व त्याग करये कृष्णेर भजन, कृष्ण सुख हेतु करे प्रेमेर सेवन ।
अतएव कामे प्रेमे बहुत अंतर, काम अंधतम प्रेम निर्मल भास्कर ॥
"काम का उद्देश्य इन्द्रीय सुख है जबकि दिव्य प्रेम का उद्देश्य श्री कृष्ण का सुख। भक्त श्री कृष्ण प्रेम में समस्त सामाजिक व वैदिक बंधन, भौतिक सुखों, शिष्टाचार, धैर्य, स्वसुख का त्याग कर श्री कृष्ण भजन में निमज्जित रहता है। अतः काम और प्रेम में बहुत बड़ा अंतर है। काम घोर अंधकार है तथा प्रेम निर्मल प्रकाश है।"
श्री राधा रानी के प्रेम का अनुमान ब्रह्मा शंकर तक नहीं लगा सकते। अतः काम की तुलना राधा रानी के शुद्ध प्रेम से करना हास्यास्पद है।
हम रातों-रात गोपी के प्रेम के इस स्तर तक नहीं पहुँच सकते। जैसे एक बच्चा रातों-रात विद्वान नहीं बन जाता। फिर भी बहुतों ने गोपी प्रेम प्राप्त किया है। हम भी (5)(6)(7) किसी रसिक संत के शरणागत होकर और उनके निर्देशों का पालन करके इसे प्राप्त कर सकते हैं। साधना से भक्ति आरंभ करें, शनैः-शनैः भाव भक्ति पर पहुँचेंगे, भाव भक्ति की पराकाष्ठा पर मन शुद्ध हो जाएगा, प्रेम निःस्वार्थ होता जाएगा। अंत में, गुरु जीव पर कृपा करके सिद्धा भक्ति प्रदान करेंगे। सिद्धा भक्ति के भी अनेक स्तर होते हैं । प्रेम पाने की लालसा की तीव्रता, और भाव की निःस्वार्थता के आधार पर सिद्धा भक्ति के उच्च स्तर को प्राप्त करेंगे।
अब आपके प्रश्न का उत्तर देते हैं
हमारे शास्त्र वेद संसारी दुखों (3) से छुटकारा दिलाने के लिये इंद्रियों को वश में रखने का निर्देश करते हैं। संसार में परमानंद का लवलेश भी नहीं है (8) । हम सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से संसारी व्यक्तियों एवं वस्तुओं से राग करते हैं । जब हमें वहाँ सुख नहीं प्राप्त होता तो हम दुखी होते हैं। उस दुख को हम क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि के रूप में व्यक्त करते हैं जिससे दुख और बढ़ जाता है (9)(10)(11)।
अतः बुद्धिमत्ता इसी में है कि अपने मन को भगवान में लगा दें और शांति व अनंत आनंद को प्राप्त कर लें।
श्री राधा रानी के प्रेम का अनुमान ब्रह्मा शंकर तक नहीं लगा सकते। अतः काम की तुलना राधा रानी के शुद्ध प्रेम से करना हास्यास्पद है।
हम रातों-रात गोपी के प्रेम के इस स्तर तक नहीं पहुँच सकते। जैसे एक बच्चा रातों-रात विद्वान नहीं बन जाता। फिर भी बहुतों ने गोपी प्रेम प्राप्त किया है। हम भी (5)(6)(7) किसी रसिक संत के शरणागत होकर और उनके निर्देशों का पालन करके इसे प्राप्त कर सकते हैं। साधना से भक्ति आरंभ करें, शनैः-शनैः भाव भक्ति पर पहुँचेंगे, भाव भक्ति की पराकाष्ठा पर मन शुद्ध हो जाएगा, प्रेम निःस्वार्थ होता जाएगा। अंत में, गुरु जीव पर कृपा करके सिद्धा भक्ति प्रदान करेंगे। सिद्धा भक्ति के भी अनेक स्तर होते हैं । प्रेम पाने की लालसा की तीव्रता, और भाव की निःस्वार्थता के आधार पर सिद्धा भक्ति के उच्च स्तर को प्राप्त करेंगे।
अब आपके प्रश्न का उत्तर देते हैं
हमारे शास्त्र वेद संसारी दुखों (3) से छुटकारा दिलाने के लिये इंद्रियों को वश में रखने का निर्देश करते हैं। संसार में परमानंद का लवलेश भी नहीं है (8) । हम सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से संसारी व्यक्तियों एवं वस्तुओं से राग करते हैं । जब हमें वहाँ सुख नहीं प्राप्त होता तो हम दुखी होते हैं। उस दुख को हम क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि के रूप में व्यक्त करते हैं जिससे दुख और बढ़ जाता है (9)(10)(11)।
अतः बुद्धिमत्ता इसी में है कि अपने मन को भगवान में लगा दें और शांति व अनंत आनंद को प्राप्त कर लें।