
प्रश्न:
विभिन्न राष्ट्रीयता, धर्म, आयु के लोग निराशा, अकेलापन, प्रेम का अभाव, उपेक्षा, चिंता, उदासी, असुरक्षा आदि से ग्रस्त हैं। कभी-कभी तो लोग परिवार में रह करके भी और जीविकोपार्जन करते हुए भी ऐसा महसूस करते हैं । युवावस्था में भले ही व्यस्त रहने के कारण यह भावनाएं अदृष्ट रहें परन्तु वृद्धावस्था में ये भावनाएं अत्यधिक पीड़ा प्रदान करती हैं । वेद-शास्त्र सम्मत इनका प्रयोगात्मक समाधान क्या है ?
उत्तर :
यह एक सर्वविदित एवं मान्य तथ्य है कि यदि समस्या की जड़ ज्ञात हो जाए तो समस्या का समाधान सरल हो जाता है। अतः पहले उदासी, अकेलापन, चिंता आदि का मूल कारण ज्ञात करें ।
लोगों की प्रायः यह मान्यता है कि स्वास्थ्य, परिवार ,धन दौलत आदि सुख के मुख्य स्रोत हैं और इनकी अनुपस्थिति अवांछित है । अतः उदासी, चिंता आदि इनकी अनुपस्थिति में आते हैं ।
विभिन्न राष्ट्रीयता, धर्म, आयु के लोग निराशा, अकेलापन, प्रेम का अभाव, उपेक्षा, चिंता, उदासी, असुरक्षा आदि से ग्रस्त हैं। कभी-कभी तो लोग परिवार में रह करके भी और जीविकोपार्जन करते हुए भी ऐसा महसूस करते हैं । युवावस्था में भले ही व्यस्त रहने के कारण यह भावनाएं अदृष्ट रहें परन्तु वृद्धावस्था में ये भावनाएं अत्यधिक पीड़ा प्रदान करती हैं । वेद-शास्त्र सम्मत इनका प्रयोगात्मक समाधान क्या है ?
उत्तर :
यह एक सर्वविदित एवं मान्य तथ्य है कि यदि समस्या की जड़ ज्ञात हो जाए तो समस्या का समाधान सरल हो जाता है। अतः पहले उदासी, अकेलापन, चिंता आदि का मूल कारण ज्ञात करें ।
लोगों की प्रायः यह मान्यता है कि स्वास्थ्य, परिवार ,धन दौलत आदि सुख के मुख्य स्रोत हैं और इनकी अनुपस्थिति अवांछित है । अतः उदासी, चिंता आदि इनकी अनुपस्थिति में आते हैं ।

परंतु विश्लेषण करने पर यह दृष्टिगोचर होता है कि कुछ लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं परंतु कुछ लोग धन-धान्य, परिवार, आदि होते हुए भी चिंतित, उदास, असुरक्षित महसूस करते हैं।
मनुष्य योनि बुद्धि प्रधान योनि है अतः बुद्धिमत्ता पूर्वक विचार करना चाहिए कि ऐसा क्यों है ?
इस उदासी का कारण हमारी नकारात्मक सोच है । जिस व्यक्ति का ध्यान पानी के आधे भरे गिलास पर केन्द्रित होता है वह प्रसन्नचित्त रहता है तथा जो व्यक्ति पानी के गिलास को आधा खाली देखता है, दुखी रहता है। अधिकांश अभिभावक अपनी आवश्यक्ताओं की अवहेलना कर अपना अधिकतम समय, साधन तथा धन अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने में व्यतीत करते हैं । परंतु यदि बच्चा उनके त्याग व बलिदान का अनादर कर और अधिक की आशा करता है तो वह कृतघ्नी बालक निश्चित रूप से सदा दुखी रहेगा ।
मनुष्य योनि बुद्धि प्रधान योनि है अतः बुद्धिमत्ता पूर्वक विचार करना चाहिए कि ऐसा क्यों है ?
इस उदासी का कारण हमारी नकारात्मक सोच है । जिस व्यक्ति का ध्यान पानी के आधे भरे गिलास पर केन्द्रित होता है वह प्रसन्नचित्त रहता है तथा जो व्यक्ति पानी के गिलास को आधा खाली देखता है, दुखी रहता है। अधिकांश अभिभावक अपनी आवश्यक्ताओं की अवहेलना कर अपना अधिकतम समय, साधन तथा धन अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने में व्यतीत करते हैं । परंतु यदि बच्चा उनके त्याग व बलिदान का अनादर कर और अधिक की आशा करता है तो वह कृतघ्नी बालक निश्चित रूप से सदा दुखी रहेगा ।

यह हृदय विदारक है कि बच्चे बड़े होकर अभिभावकों की उपेक्षा करते हैं । कुछ अपने अभिभावकों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति, कुछ मधुर बोल, उनकी देखभाल करने आदि के बजाय उनको अपमानजनक कटु वचनों से दुख देते हैं, संपत्ति छीन कर बेघर कर देते हैं । आपने अपने आसपास ऐसा होते देखा होगा या समाचार पत्रों में पढ़ा होगा । सन्तान द्वारा उपेक्षा, धोखा खाना, तथा बोझ समझा जाना अत्यधिक दुखद होता है क्योंकि अभिभावकों को आशा थी कि सन्तान आदर करेगी, वृद्धावस्था में सहायक होगी ।
अपूर्ण कामनायें नकारात्मक भावनाओं (उपेक्षा, उदासी ,चिंता आदि) की जननी हैं। हम समाज में रहते हैं तथा समाज के उत्थान के लिए कुछ दिशा-निर्देश होते हैं ।अभिभावकों का यह दायित्व है कि वे अपने बच्चों को आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से जिम्मेदार नागरिक बनने की शिक्षा दें । बच्चों का दायित्व है कि वे अपने माता-पिता का आभार मानें, उनकी भौतिक देखभाल करें तथा उनका सम्मान करें । परन्तु अभिभावक अथवा संतान यदि अधिक की अपेक्षा करते हैं तो चिंता, उदासी, असुरक्षा आदि भवानाएँ घर कर लेती हैं ।
सभी जीव अनंत सुख की कामना रखते हैं परंतु अज्ञानवश वे मायिक व्यक्तियों एवं वस्तुओं में सुख ढूंढ़ते है । इसके कारण दो विपरीत परिणाम प्राप्त होते हैं:
1: सभी मायिक वस्तुओं का नाश निश्चित है - मायिक वस्तुओं का अस्तित्व क्षणिक होता है इसलिये उन से प्राप्त सुख का नष्ट होना स्वभाविक है। अन्तोगत्वा मायिक वस्तुएँ दुःख का कारण बनती ही हैं ।
अपूर्ण कामनायें नकारात्मक भावनाओं (उपेक्षा, उदासी ,चिंता आदि) की जननी हैं। हम समाज में रहते हैं तथा समाज के उत्थान के लिए कुछ दिशा-निर्देश होते हैं ।अभिभावकों का यह दायित्व है कि वे अपने बच्चों को आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से जिम्मेदार नागरिक बनने की शिक्षा दें । बच्चों का दायित्व है कि वे अपने माता-पिता का आभार मानें, उनकी भौतिक देखभाल करें तथा उनका सम्मान करें । परन्तु अभिभावक अथवा संतान यदि अधिक की अपेक्षा करते हैं तो चिंता, उदासी, असुरक्षा आदि भवानाएँ घर कर लेती हैं ।
सभी जीव अनंत सुख की कामना रखते हैं परंतु अज्ञानवश वे मायिक व्यक्तियों एवं वस्तुओं में सुख ढूंढ़ते है । इसके कारण दो विपरीत परिणाम प्राप्त होते हैं:
1: सभी मायिक वस्तुओं का नाश निश्चित है - मायिक वस्तुओं का अस्तित्व क्षणिक होता है इसलिये उन से प्राप्त सुख का नष्ट होना स्वभाविक है। अन्तोगत्वा मायिक वस्तुएँ दुःख का कारण बनती ही हैं ।
जनयत्यर्जने दुखं तापयन्ति विपत्तिषु । मोहयन्ति च सम्पत्तौ कथमर्था सुखावहाः ॥
"मायिक सुख के साधनों को जुटाने के प्रयास में कष्ट होता है । उनकी प्राप्ति के उपरांत उनके अभाव का भय और पुनः उनके नष्ट होने पर और दुःख मिलता है । जब मायिक वस्तुओं की प्राप्ति के पूर्व, उपभोग के समय और नष्ट होने के उपरांत कष्ट ही कष्ट है तो वे सुख कब प्रदान करती हैं ?"
2: मायिक क्षेत्र में कहीं भी सुख नहीं है - यह विश्व माया की अभिव्यक्ति है और आनंद भगवान का पर्यायवाची है। ब्रह्म लोक का सुख मायिक जगत का सर्वोच्च सुख है । वह भी अंततः दुखदाई है क्योंकि उस सुख भोग के बाद जीव को चौरासी लाख में चक्कर लगाना पड़ता है ।
सारांश यह है कि हम विश्व के समस्त पदार्थों की इच्छा इसलिए करते हैं क्योंकि हमारी धारणा यह है कि इनसे हमें अनंत आनंद प्राप्त होगा । परंतु हमारा वास्तविक अनुभव इसके विपरीत है। अतः संसार की प्राप्ति की योजना बनाने में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहिये । एक दूसरे से सुख की आशा करना ठीक वैसा ही है जैसे चूने के पानी को मथ कर मक्खन प्राप्त करने की आशा करना ।
अतः यह जानना व मानना, कि भगवान ही आनंद है (देखें Bliss), अपरिहार्य है ।
अकेलेपन का अनुभव तब होता है जब वह सबके मध्य रहता हुआ भी यह सोचता है कि ये मुझसे प्रेम नहीं करतेे, ये मेरे हित में नहीं सोचते, मेरे बुरे समय में ये सब अपने स्वार्थ के लिये मेरा साथ छोड़ देंगे ।
तो चलिये इस पर विचार करते हैं कि वह कौन हो सकता है जो कि--
आप सोच रहे होंगें कि यह तो उत्तम होगा परंतु ऐसा होना असंभव है कि उपरोक्त समस्त इच्छित फल एक ही माध्यम से प्राप्त हो जाँय | हमारे धर्म ग्रंथों में सभी की वांछित वस्तु उपलब्ध है । वेद शास्त्र के अनुसार भगवान और गुरु ही आपके सनातन अभिभावक हैं , सम्बंधी हैं , मित्र हैं ।आत्मा के सभी संबंध हरि और गुरु से ही हैं। वे इतने निष्कपट हैं कि वे हर जगह, हर समय, हमारी रक्षा करते हैं। वे हमसे एक क्षण के लिए भी दूर नहीं होते। यद्यपि, हम (जीव) अनंत काल से उनको अनदेखा करते रहे हैं फिर भी वे हमें अकेला नहीं छोड़ते हैं।
2: मायिक क्षेत्र में कहीं भी सुख नहीं है - यह विश्व माया की अभिव्यक्ति है और आनंद भगवान का पर्यायवाची है। ब्रह्म लोक का सुख मायिक जगत का सर्वोच्च सुख है । वह भी अंततः दुखदाई है क्योंकि उस सुख भोग के बाद जीव को चौरासी लाख में चक्कर लगाना पड़ता है ।
सारांश यह है कि हम विश्व के समस्त पदार्थों की इच्छा इसलिए करते हैं क्योंकि हमारी धारणा यह है कि इनसे हमें अनंत आनंद प्राप्त होगा । परंतु हमारा वास्तविक अनुभव इसके विपरीत है। अतः संसार की प्राप्ति की योजना बनाने में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहिये । एक दूसरे से सुख की आशा करना ठीक वैसा ही है जैसे चूने के पानी को मथ कर मक्खन प्राप्त करने की आशा करना ।
अतः यह जानना व मानना, कि भगवान ही आनंद है (देखें Bliss), अपरिहार्य है ।
अकेलेपन का अनुभव तब होता है जब वह सबके मध्य रहता हुआ भी यह सोचता है कि ये मुझसे प्रेम नहीं करतेे, ये मेरे हित में नहीं सोचते, मेरे बुरे समय में ये सब अपने स्वार्थ के लिये मेरा साथ छोड़ देंगे ।
तो चलिये इस पर विचार करते हैं कि वह कौन हो सकता है जो कि--
- आप से निःस्वार्थ प्रेम करे तथा सहृदय आपके हित को चाहे ।
- प्रत्येक अवस्था में आपका साथ दे ।
- आप से कभी कुछ ना चाहे और आपके द्वारा प्रेम से दी हुई प्रत्येक वस्तु को सहर्ष स्वीकार करे ।
- पिछले समस्त दुर्व्यवहारों की सदा उपेक्षा कर आपको क्षमा कर दे ।
आप सोच रहे होंगें कि यह तो उत्तम होगा परंतु ऐसा होना असंभव है कि उपरोक्त समस्त इच्छित फल एक ही माध्यम से प्राप्त हो जाँय | हमारे धर्म ग्रंथों में सभी की वांछित वस्तु उपलब्ध है । वेद शास्त्र के अनुसार भगवान और गुरु ही आपके सनातन अभिभावक हैं , सम्बंधी हैं , मित्र हैं ।आत्मा के सभी संबंध हरि और गुरु से ही हैं। वे इतने निष्कपट हैं कि वे हर जगह, हर समय, हमारी रक्षा करते हैं। वे हमसे एक क्षण के लिए भी दूर नहीं होते। यद्यपि, हम (जीव) अनंत काल से उनको अनदेखा करते रहे हैं फिर भी वे हमें अकेला नहीं छोड़ते हैं।
ऐसे दुर्लभ मित्र (हरि) पर विचार कीजिए जो --
1. अपने तथा अपने परम प्रिय संतों के प्रति किये हुये अपराधों की उपेक्षा कर वह हर क्षण जीव का साथ देते हैं ।
2. वे हर स्थान पर जीव के साथ रहते हैं चाहे वह स्थान पवित्र हो या अपवित्र, स्वर्ग हो या नर्क, मंदिर हो या मयखाना, भगवान सर्वव्यापक हैं तथा हमारे वास्तविक हितैषी हैं । गुरु भी शरणागत जीवों के सदा साथ रहकर उनका योगक्षेम वहन करते हैं।
3. सर्वशक्तिमान होते हुए भी वे कभी भी अपनी उपासना नहीं करवाते हैं । हम उनके अस्तित्व को स्वीकार करें या ना करें, उनसे प्यार करें या गाली दें ,वे सब पर अनवरत कृपा बरसाते हैं। वे एक क्षण में नास्तिकों के लिए जल, वायु तथा आकाश को विष युक्त कर सकते हैं । वे अकारण-करुण हैं अतः किसी राक्षस या नास्तिक के लिए भी कभी ऐसा नहीं करते ।
4. वे आत्मराम है अतः उन्हें कुछ नहीं चाहिए, और वे अपने भक्तों को भी आत्माराम बना देते हैं । श्री कृष्ण ने कहा है -
1. अपने तथा अपने परम प्रिय संतों के प्रति किये हुये अपराधों की उपेक्षा कर वह हर क्षण जीव का साथ देते हैं ।
2. वे हर स्थान पर जीव के साथ रहते हैं चाहे वह स्थान पवित्र हो या अपवित्र, स्वर्ग हो या नर्क, मंदिर हो या मयखाना, भगवान सर्वव्यापक हैं तथा हमारे वास्तविक हितैषी हैं । गुरु भी शरणागत जीवों के सदा साथ रहकर उनका योगक्षेम वहन करते हैं।
3. सर्वशक्तिमान होते हुए भी वे कभी भी अपनी उपासना नहीं करवाते हैं । हम उनके अस्तित्व को स्वीकार करें या ना करें, उनसे प्यार करें या गाली दें ,वे सब पर अनवरत कृपा बरसाते हैं। वे एक क्षण में नास्तिकों के लिए जल, वायु तथा आकाश को विष युक्त कर सकते हैं । वे अकारण-करुण हैं अतः किसी राक्षस या नास्तिक के लिए भी कभी ऐसा नहीं करते ।
4. वे आत्मराम है अतः उन्हें कुछ नहीं चाहिए, और वे अपने भक्तों को भी आत्माराम बना देते हैं । श्री कृष्ण ने कहा है -
यत्कर्मभिर्यात्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् । योगेनदानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि ॥
भा. ११.२०.३२ एवं भ.र.सिं.
" जो कुछ भी अनुष्ठान, तपस्या, ज्ञान, त्याग, योग ,भिक्षा से प्राप्तव्य हैं, वे सब बिना माँगे ही मैं अपने भक्तों को दे देता हूँ ” । दूसरे शब्दों में वे अपने शरणागत जीव की भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं ।"
5. वे इतने दयालु है कि यद्यपि उन्हें किसी से कुछ नहीं चाहिये फिर भी वे गीता में कहते है --
5. वे इतने दयालु है कि यद्यपि उन्हें किसी से कुछ नहीं चाहिये फिर भी वे गीता में कहते है --
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ गीता ॥९।२६॥
"प्रेम से अर्पित किए हुए तुच्छ पत्ते ,फूल ,फल, जल आदि मैं ग्रहण कर लेता हूं “। कौन इतना उदार होगा जो जल और पत्ते को उपहार के रूप में सहर्ष स्वीकार कर ले ।
कल्पना कीजिए कि इस ब्रह्मांड के पालक भगवान को हम क्या दे सकते हैं? जो कुछ है भी हमारे पास वह सब मायिक है और वह भी उसके द्वारा ही दिया गया है। परंतु वह हमारी भावनाओं का सम्मान करने के लिए प्रेम से अर्पित तुच्छ वस्तुएँ भी स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए उन्होंने विदुरानी के द्वारा दिए गए केले के छिलके ग्रहण किए जबकि दुर्योधन के द्वारा दिए गए छप्पन भोग को अस्वीकार कर दिया । 6. उनकी क्षमा की कोई सीमा नहीं है। जिस क्षण जीव भगवान को समर्पण करता है,उसी क्षण भगवान उसको भगवत कृपा से मालामाल कर देते हैं । उस जीव के द्वारा भगवान तथा उसके संतों के प्रति, पूर्व काल में किए गए, अनंत अपराधों का बहीखाता सदा के लिये जला देते हैं । विचार कीजिए कि इतने दयालु हरि गुरु को छोड़कर हम विपरीत दिशा में भौतिकवाद की ओर चलेंगे तो हम सुखी कैसे रह सकते हैं। अतः स्वयं भगवान श्री कृष्ण के द्वारा उदघोषित समाधान यह है -- |
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ २७

" हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान करता है और जो तप करता है, वह सब मुझे अर्पण कर ।" समस्त संसारी कर्म करते हुए सदैव श्री कृष्ण को निरीक्षक रूप में अपने साथ रखने का अभ्यास करिए। इससे आप संसारी गंदे चिंतन से बच जाएंगे । श्री कृष्ण ही आनंद हैं और उनके साथ रहने से आपको आनंद मिलेगा ।
यह विश्व माया का बना है, माया के गुण दुखदाई हैं अतः स्पष्ट है कि आपको संसारी पदर्थों से दुख ही मिलेगा । धन दौलत, यश ,अभिभावक ,पति पत्नी ,बच्चे मित्रादि मायिक होने के कारण आप को आनंद नहीं दे सकते । उनसे आनंद की अपेक्षा करने से आपको निराशा ही मिलेगी । प्रत्येक कर्म हरि गुरु को समर्पित करने का अभ्यास कीजिये । उदाहरणार्थ -
कहीं भी जाइये, कुछ भी करिये तो यह महसूस कीजिये कि वे आपके सदा साथ हैं । श्री कृष्ण को ही समस्त क्रियाओं का केंद्र बनाइये। इस प्रकार का अभ्यास करने से आपका मन, बुद्धि श्री कृष्ण में संलग्न रहेगी। वे आनंद का सागर हैं; उनके संग से आपको आनंद का अनुभव ही होगा । अतः अभी से उनकी उपासना अभ्यास प्रारंभ कर दीजिए । कुछ दिनों के अभ्यास के बाद आपके पास यह सोचने का समय भी नहीं होगा कि कौन आपको प्यार करता है और कौन नहीं, कौन आपसे बात करता है कौन नहीं । आपको आपका सनातन साथी मिल जाएगा तब अकेलापन स्वतः समाप्त हो जाएगा ।
उस आनंद की कल्पना कीजिए ।
इसका अर्थ है मूलत:आपको दो चीजों से सावधान रहना है तथा अभ्यास करना है --
इस अभियान में सफलता प्राप्त होने से आपके हृदय में पूरे ब्रह्मांड की खुशी आ जाएगी । अन्यथा आप चाहें किसी भी कार्य में संलग्न हों, किसी भी उच्च स्तर की सांसारिक वस्तु का उपभोग कर रहे हों, आप सदा अपने को अकेला, अतृप्त, अपूर्ण और असंतुष्ट ही पायेंगे।
अब निर्णय आपका है।
यह विश्व माया का बना है, माया के गुण दुखदाई हैं अतः स्पष्ट है कि आपको संसारी पदर्थों से दुख ही मिलेगा । धन दौलत, यश ,अभिभावक ,पति पत्नी ,बच्चे मित्रादि मायिक होने के कारण आप को आनंद नहीं दे सकते । उनसे आनंद की अपेक्षा करने से आपको निराशा ही मिलेगी । प्रत्येक कर्म हरि गुरु को समर्पित करने का अभ्यास कीजिये । उदाहरणार्थ -
- भोजन को भगवान श्री कृष्ण का प्रसाद समझकर खाइये
- घर की सफाई यह सोचकर कीजिये कि यह श्री कृष्ण का घर है इसे साफ रखना है क्योंकि वे कभी भी आ सकते हैं ।
- उनकी सेवा स्वच्छ शरीर से कीजिये ।
- उनकी सेवा हेतु शरीर को विश्राम दीजिये ।
- धनार्जन, अपने शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा गुरु के द्वारा प्रायोजित कार्यों के लिए कीजिये ।
- गुरु के साथ विभिन्न स्थानों पर यात्रा कीजिये ।
कहीं भी जाइये, कुछ भी करिये तो यह महसूस कीजिये कि वे आपके सदा साथ हैं । श्री कृष्ण को ही समस्त क्रियाओं का केंद्र बनाइये। इस प्रकार का अभ्यास करने से आपका मन, बुद्धि श्री कृष्ण में संलग्न रहेगी। वे आनंद का सागर हैं; उनके संग से आपको आनंद का अनुभव ही होगा । अतः अभी से उनकी उपासना अभ्यास प्रारंभ कर दीजिए । कुछ दिनों के अभ्यास के बाद आपके पास यह सोचने का समय भी नहीं होगा कि कौन आपको प्यार करता है और कौन नहीं, कौन आपसे बात करता है कौन नहीं । आपको आपका सनातन साथी मिल जाएगा तब अकेलापन स्वतः समाप्त हो जाएगा ।
उस आनंद की कल्पना कीजिए ।
इसका अर्थ है मूलत:आपको दो चीजों से सावधान रहना है तथा अभ्यास करना है --
- किसी भी मायिक पदार्थ से वास्तविक आनंद की आशा न करिये । इससे आप अपने आपको निराशा से बचा लेंगे और आप सकारात्मकता की ओर अग्रसर होंगे ।
- भगवान श्री कृष्ण ही आपके हैं, इस विश्वास को बढ़ाइए । वे आनंद का सागर हैं । वे ही मेरे सच्चे हितैषी हैं । वे हमेशा मेरे साथ हैं, मैं चाहे कहीं भी जाऊं कुछ भी करूं । वे ही मेरे हैं, मुझे उनकी कृपा चाहिये अतः वह करना है जो उनको सुख प्रदान करे ।
इस अभियान में सफलता प्राप्त होने से आपके हृदय में पूरे ब्रह्मांड की खुशी आ जाएगी । अन्यथा आप चाहें किसी भी कार्य में संलग्न हों, किसी भी उच्च स्तर की सांसारिक वस्तु का उपभोग कर रहे हों, आप सदा अपने को अकेला, अतृप्त, अपूर्ण और असंतुष्ट ही पायेंगे।
अब निर्णय आपका है।