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आखिर भगवान ने संसार की रचना की क्यों ?​

Read this article in English
क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है कि भगवान ने संसार की रचना क्यों की?​
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यद्यपि सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान भगवान के किसी भी कार्य  का कारण ज्ञात करना असंभव है तथापि शास्त्र कहते हैं –
मुख्यं तस्य हि कारुण्यम ॥
"अपनी दयालुता के स्वभाव के कारण ही उसने संसार प्रकट किया।"
आत्मप्रयोजनाभावे परानुग्रह एव हि ।
"भगवान का स्वयं कोई प्राप्तव्य नहीं है । अतः असके प्रत्येक कर्म का एक ही कारण है -​​ जीवात्माओं का कल्याण।" वह पूर्णकाम आत्माराम अनंत आनंद का अगाध समुद्र है। उसे कहीं से भी कुछ भी नहीं चाहिए। उसके समस्त कार्य एकमात्र जीवों के कल्याण के लिए ही होते हैं। (1)
भगवान ने संसार की रचना क्यों की
भगवान ने संसार की रचना क्यों की?
कुछ भोले लोग यह कह सकते हैं कि हम इस संसार में दुख भोग रहे हैं तो इसको हम भगवान की दया कैसे माने?

​इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें दिव्य ज्ञान के इस तथ्य को जानना होगा – 
  1. हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड में केवल तीन ही तत्व हैं - ब्रह्म, जीव एवं माया। तीनों अनादि हैं अनंत हैं। किसी ने किसी को नहीं बनाया।
  2. जीव अनादि है तथा भगवान का अभिन्न अंश है। भगवान आनंद है अतः उसका अंश होने के कारण हम स्वभाविक रूप से उसको चाहते हैं। महाप्रलय के समय जीव तथा माया भगवान के महोदर में सुषुप्ति अवस्था में थे। ऐसी अकर्मण्य अवस्था में जीवित होने का कोई लाभ नहीं जिसमें हमें अपने अस्तित्व​ का ही भान नहीं था । यदि हम उसी सुषुप्ति अवस्था में रहते तो हम अपने परम चरम लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकते?
इसीलिए उसने दया करके हम सभी जीवों को संसार में प्रकट किया जिससे कि हम उसकी भक्ति करके उसको प्राप्त कर सकें - जो कि हमारा परम चरम लक्ष्य है । कर्म करने के लिए शरीर की आवश्यकता होती है और शरीर को पोषण देने के लिए संसार की आवश्यकता होती है, इसीलिए उसने हमारे शरीर तथा अन्य सभी वस्तुओं की स्रोत माया को भी प्रकट किया।

श्रीमद्भागवत महापुराण कहती है कि महाप्रलय के समय सभी जीव तथा माया सुषुप्ति अवस्था में श्री भगवान के महोदर में लीन​ रहते हैं । यद्यपि माया जड़ है परंतु भगवान की शक्ति है और उनकी चित् शक्ति के द्वारा ही यह कार्य करती है और तभी पूरा संसार माया के द्वारा प्रकट होता है।
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ पर: पुमान् । 
आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥ 

भागवतम ३.२.१९ ॥
"यह इंगित करता है कि दया के अतिरिक्त सृष्टि रचना का और कोई कारण नहीं है, जिससे कि सभी जीव अपने परम चरम लक्ष्य दिव्यानंद को प्राप्त कर सकें।"
जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई ॥
 "जो भगवान को जान लेता है वह भगवत स्वरूप हो जाता है।"
माया शक्ति
भगवान की शक्ति - माया
वो केवल संसार प्रकट ही नहीं करता वरन अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त करने का सरलतम मार्ग भी प्रशस्त करता है। ​परंतु हम संसार की चकाचौंध में इतना मंत्रमुग्ध हैं कि उसके शब्दों पर ध्यान नहीं देते कि उसने यह संसार हमें भगवत प्राप्ति के लिए दिया है। 

​भगवान शास्त्रों, पुराणों और संतों के माध्यम से हमें समझाता-बुझाता है । परंतु हम शिक्षा को नकार देते हैं । संसार का सही उपयोग न करके हम अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करने के लिए संसार का उपभोग करने लगे ।

यही हमारी सबसे बड़ी अज्ञानता है और इसी के कारण हम आज तक दुखी हैं, जिसके लिए भगवान को दोष देते हैं। परंतु वह हमारे दुखों का कारण नहीं है, एक उदाहरण के साथ इसे समझते हैं। बिजलीघर हमको बिजली देता है। यह हम तय करते हैं कि उस बिजली का प्रयोग हम रोशनी, मशीनी उपकरणों आदि के लिए करें या फिर उसके तारों को पकड़ कर आत्महत्या कर ले। इसमें बिजली घर का कोई दोष नहीं।

भगवान कृपा करके हमको कर्म करने की शक्ति देता है। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हमें मानव देह के महत्व तथा इस संसार के उपयोग को समझें । शरीर और संसार दोनों माया के बने हैं और दिव्यानंद की प्राप्ति हेतु दोनों आवश्यक है। 

अतः निष्कर्ष यह निकला कि संसार तथा जीव का प्राकट्य इसलिए हुआ कि जीव अपने परम चरम लक्ष्य नित्य नवायमान उत्तरोत्तर वर्धमान दिव्यानंद की प्राप्ति कर सकें जिस पर कभी दुख का अधिकार न हो सके।
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नव​ सृष्टि में यह कैसे निर्धारित होता है कि कौन सा जीव किस लोक में किस योनि में जाएगा?

प्रत्येक ब्रह्माण्ड में जीव बहुत से लोकों में रहते हैं । उदाहरण उर्ध्व लोक, मध्यलोक, अधोलोक, नरक। इन सभी लोकों में भौतिक ऐश्वर्य की मात्रा अलग-अलग होती है । प्रलय से पहले प्रत्येक जीव जिस शरीर में जिस लोक में निवास कर रहा था संसार के प्रकट होने पर उस जीव को उसी शरीर में उसी लोक में भगवान निवास देते हैं। 
प्रलय पूर्व जैसी गोविंद राधे। सृष्टि थी वैसी ही पुनः बता दे।। राधा गोविन्द गीत १४०२​
सृष्टि प्रलय की प्रक्रियासृष्टि प्रलय की प्रक्रिया
जीव केवल मानव देह में ही कर्म कर सकता है अन्य सभी शरीरों में अपने पूर्व  मानव जन्मों में किए हुए कर्मों  के फलों को भोगता है । महाप्रलय के समय कार्णार्णव​ में जीव अपने कर्मों के साथ लीन रहता है।  सृष्टि होने पर उन्हीं कर्मों के अनुसार जीव के संस्कार तथा प्रवृत्तियां हो जाती हैं। 

मानव मन, बुद्धि, ज्ञानेंद्रियों के द्वारा पंचतनमात्रा का अनुभव करता है। इसी शरीर में उसको कर्मेंद्रियाँ भी दी गई हैं जिनके सहयोग से  मनुष्य पुरुषार्थ करके अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसी तरह अन्य योनियों में भी योनि के अनुरूप पूर्व जन्मों के कर्मों के भोग के लिए कर्मेंद्रियाँ दी जाती हैं तथा ज्ञानेंद्रियों में विशेष शक्ति दी जाती है ।
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सृष्टि काल में जीव कर्म करते हैं अथवा कर्म फलों का भोग करते हैं । तत्पश्चात प्रलय के समय  एक-एक करके प्रत्येक कार्य अपने कारण में लीन होता जाता है। अर्थात पंचमहाभूत पंचतन्मात्रा में, पंचतन्मात्रा अहंकार में, अहंकार महान में, महान माया में, तथा माया श्री कृष्ण के महोदर में लीन हो जाती है । समस्त जीव भी अकर्मण्य अवस्था में श्री कृष्ण के महोदर में लीन हो जाते हैं। अंततः केवल श्री कृष्ण ही शेष रहते हैं। यही सृष्टि प्रलय की प्रक्रिया का चक्र अनादि अनंत है ।

नव​ सृष्टि में जीव को लक्ष्य का ज्ञान कैसे होता है​?

जीव को प्रकट करने से पहले भगवान ने सृष्टि रचना के समय पुराण, इतिहास और अंततः वेदों को प्रकट किया। फिर पृथ्वी पर भगवत प्राप्त संतों को प्रकट किया। उन्होंने पुराणों वेदों में भगवान के इस संदेश को लोगों तक पहुँचाया। अतः ऐसा कोई एक क्षण भी नहीं रहा जब जीव बिना किसी दिशा-निर्देश के असहाय रहा हो ।

वेदों का प्राकट्य कब हुआ?

विकीपीडिया में वेदों की रचना का समय 1500 से 1200 ईसा पूर्व है । विकिपीडिया के अनुसार ईसापूर्व दूसरी शताब्दी तक वेदों को मौखिक रूप से प्रेषित किया गया । ऋग्वेद वेदों प्राचीनतम वेद है जिसकी उत्तर-पश्चिम भारत के पंजाब  प्रांत में 1500 से 1200 ईसापूर्व में मौखिक रूप से कृति हुई ।
यह सभी तिथियाँ पुरातत्व वेत्ताओं के द्वारा भौतिक सबूत के बिना पर प्रतिपादित  किए जाते हैं।  जैसे-जैसे सबूत बदलते रहते हैं वैसे वैसे यह तिथियाँ भी बदलती रहती हैं । यह जाहिर है कि यह सब  तिथियाँ तीर-तुक्का हैं।
वेदों का प्राकट्यवेदों का प्राकट्य
जब भी किसी विषय विशेष  की जानकारी चाहिए तो उस विषय के विशेषज्ञ  की बात को अथॉरिटी माना जाता है। अतः आपके प्रश्न  के उत्तर में मैं जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालुजी महाराज के वचनों को उद्धरण के रूप में प्रस्तुत करूँगी । यह तो आपको ज्ञात ही होगा श्री महाराज जी को काशी विद्वत परिषद के 500 शीर्षस्थ​ विद्वानों ने श्रीमद्पद-वाक्य-प्रमाण-पारावारीण उपाधि से अलंकृत किया अतः आपकी वाणी प्रामाणिक है तथा वेदों में लिखी गई ॠचाओं का सारांश है। 
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श्री महाराज जी  के अनुसार वेदों का कभी भी नवनिर्माण नहीं हुआ ।

​वेद कारणार्णवशायी महाविष्णु की श्वास से प्रकट हुए। सृष्टि से पूर्व प्रत्येक ब्रह्मा के हृदय में बैठकर श्री कृष्ण ने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान कराया अर्थात प्रत्येक ब्रह्माण्ड में वेदों का प्राकट्य किया । वर्तमान में वेद के एक लाख​ मंत्र उपलब्ध​ हैं। प्रलय के समय यह सभी सर्वशक्तिमान भगवान के महोदर में लीन हो जाते हैं।

जिस ब्रह्माण्ड में हम बैठे हैं, यह चतुर्मुखी ब्रह्मा के द्वारा 1500 खरब वर्ष पहले प्रकट किया गया था ।

इस ब्रह्माण्ड में वेदों का प्राकट्य 1500 खरब वर्ष पहले हुआ और प्रत्येक चतुर्युग के प्रथम तीन युगों तक यह मौखिक रूप से प्रेषित किया जाता रहा। चूंकि कलियुग में मनुष्यों की बुद्धि अत्यंत क्षीण हो जाती है अतः कलियुग से ठीक पहले, अब से लगभग 5000 वर्ष पूर्व (अर्थात 3000 ईसा पूर्व वर्ष) में वेदव्यास जी ने वेदों के मात्र एक लाख श्लोकों को चार भागों में विभाजित करके यथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद के नाम से लिपिबद्ध किया ।

​यदि सृष्टि काल में कदाचित वेद लुप्त हो जाएँ तो भगवान अपनी योगमाया शक्ति से उनको पुनः प्रकट कर देते हैं । 

कृपा करु कृपा करु कृपा करु राधे ।  
कृपा ते ही जग रचें,कृपा करु राधे । कृपा ते ही जग पालें, कृपा करु राधे । 
कृपा ते प्रलय करें, कृपा करु राधे । तू ही है “कृपालु” इक,  कृपा करु राधे ।
- जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज​
युगल माधुरी
Jagadguruttam Swami Shri Kripalu Ji Maharaj
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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