यद्यपि सभी जीव भगवान के नित्य दास हैं, फिर भी भगवान ने जीवों को निम्नलिखित भाव से श्री कृष्ण से संबन्ध स्थापित करने की अनुमति दी है। इन संबन्धों को भाव कहा जाता है। श्री कृष्ण का वचन है कि जो जीव जिस भाव से जिस मात्रा में शरणागत होगा वे भी उस जीव से उसी प्रकार उसी भाव से उतनी ही मात्रा में भजन करेंगे ।
पाँच भावों से श्री कृष्ण की उपासना की जा सकती है ।
पाँच भावों से श्री कृष्ण की उपासना की जा सकती है ।
शान्त भाव में ईश्वर राजा है और जीव प्रजा है। शांत भाव के भक्त वैकुंठ लोक में जाते हैं और सदैव परमात्मा महाविष्णु के सानिध्य में रहते हैं। उनकी चार भुजाएँ, चक्र और गदा उनकी दिव्य ऐश्वर्य की निरंतर याद दिलाते रहते हैं ।
वैकुंठ में भक्त का कभी भी परमात्मा महाविष्णु के साथ कोई घनिष्ठ संबंध नहीं हो सकता। वैकुण्ठवासी महाविष्णु की स्तुति करते हैं और उनका सम्मान करते हैं लेकिन दूर से।
शांत भाव निष्ठायुत गोविंद राधे। मिले बैकुंठ धाम सुख ही बता दे॥ राधा गोविंद गीत 5603
इस भाव में प्रमुख मनोभाव "निष्ठा" होता है ।
वैकुंठ में भक्त का कभी भी परमात्मा महाविष्णु के साथ कोई घनिष्ठ संबंध नहीं हो सकता। वैकुण्ठवासी महाविष्णु की स्तुति करते हैं और उनका सम्मान करते हैं लेकिन दूर से।
शांत भाव निष्ठायुत गोविंद राधे। मिले बैकुंठ धाम सुख ही बता दे॥ राधा गोविंद गीत 5603
इस भाव में प्रमुख मनोभाव "निष्ठा" होता है ।
शान्त भाव वालों को गोविंद राधे। भक्ति प्रेमा भक्ति तक ही पहुँचा दे ॥ राधा गोविंद गीत 5615
"ये भक्त प्रेमा भक्ति तक जा सकते हैं ।"
वैकुण्ठवासी महाविष्णु के दिव्य रूप और सानिध्य का असीमित दिव्य आनन्द निरन्तर भोगते रहते हैं । फिर भी कोई परिकर या लीला नहीं हैं। इसलिए भक्त और भगवान के बीच हमेशा दूरी रहती है। इसीलिए रसिक संत शान्त भाव को "ब्रज रस" के क्षेत्र में नहीं गिनते। रस का क्षेत्र दास्य भाव से प्रारंभ होता है।
श्री कृष्ण के साथ संबन्ध स्थापित करने के चार भाव नीचे सूचीबद्ध हैं -
वैकुण्ठवासी महाविष्णु के दिव्य रूप और सानिध्य का असीमित दिव्य आनन्द निरन्तर भोगते रहते हैं । फिर भी कोई परिकर या लीला नहीं हैं। इसलिए भक्त और भगवान के बीच हमेशा दूरी रहती है। इसीलिए रसिक संत शान्त भाव को "ब्रज रस" के क्षेत्र में नहीं गिनते। रस का क्षेत्र दास्य भाव से प्रारंभ होता है।
श्री कृष्ण के साथ संबन्ध स्थापित करने के चार भाव नीचे सूचीबद्ध हैं -
दास्य भाव में श्री कृष्ण स्वामी हैं और जीव एक सेवक है। सेवक को केवल स्वामी श्रीकृष्ण की निष्ठायुक्त सेवा पर ही ध्यान केंद्रित रहता है। ऐसा सेवक अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए उसकी सेवा में सदैव रत और उत्सुक रहता है।
लेकिन सेवक और स्वामी के बीच कोई समानता नहीं है; एक सेवक स्वामी के पास नहीं बैठ सकता, स्वामी का स्वेच्छा से आलिंगन नहीं कर सकता। सेवक को दर्शन, उनके दिव्य शरीर को छूने और उनकी दिव्य सुगंध को सूंघने का आनंद, उनके दिव्य शब्दों को सुनने का आनंद और उनकी दिव्य लीला को देखने का आनंद मिलता है।
सबसे बढ़कर, सेवक को श्री कृष्ण का प्रेम और अनुग्रह प्राप्त होता है। उनका मन दासत्व में इतना लीन रहता है कि वह सबके हृदय में भी अपने स्वामी को बैठा हुआ देखकर पूरे मनोयोग से उनकी सेवा करता है ।
दास्य भाव मैं सदा गोविंद राधे । निष्ठा और सेवा दोनों बता दे ॥ राधा गोविंद गीत 5604
"दास्य भाव में सेवा की इच्छा और निष्ठा मुख्य गुण हैं।"
सेवक केवल इस सीमा तक ही संग कर सकता है-
लेकिन सेवक और स्वामी के बीच कोई समानता नहीं है; एक सेवक स्वामी के पास नहीं बैठ सकता, स्वामी का स्वेच्छा से आलिंगन नहीं कर सकता। सेवक को दर्शन, उनके दिव्य शरीर को छूने और उनकी दिव्य सुगंध को सूंघने का आनंद, उनके दिव्य शब्दों को सुनने का आनंद और उनकी दिव्य लीला को देखने का आनंद मिलता है।
सबसे बढ़कर, सेवक को श्री कृष्ण का प्रेम और अनुग्रह प्राप्त होता है। उनका मन दासत्व में इतना लीन रहता है कि वह सबके हृदय में भी अपने स्वामी को बैठा हुआ देखकर पूरे मनोयोग से उनकी सेवा करता है ।
दास्य भाव मैं सदा गोविंद राधे । निष्ठा और सेवा दोनों बता दे ॥ राधा गोविंद गीत 5604
"दास्य भाव में सेवा की इच्छा और निष्ठा मुख्य गुण हैं।"
सेवक केवल इस सीमा तक ही संग कर सकता है-
पंचत्वं तनुरेति भूत निवाहाः स्वांशे विशन्तु स्फुटम्, धातारं प्रणिपत्य हन्त शिरसा तत्रापि याचे वरम्।
तद्वापीषु पयस्तदीय मुकुरे ज्योतिस्तदीयाङ्गन व्योम्निव्योम तदीय वर्त्मनि धरा तत्तालवृन्तेऽनिलः ॥
तद्वापीषु पयस्तदीय मुकुरे ज्योतिस्तदीयाङ्गन व्योम्निव्योम तदीय वर्त्मनि धरा तत्तालवृन्तेऽनिलः ॥
"हे मेरे स्वामी! मैं अनंत काल तक आपकी सेवा करना चाहता हूँ । इसलिए जब मैं मरूँ, तो मेरी इच्छा है कि मेरे शरीर का जल तत्व उस पोखर (तालाब) में मिल जाए जिसमें आप स्नान करते हैं, तेज तत्व उस दर्पण में विलीन हो जाए जिसमें आप अपना कमल मुख देखते हैं, आकाश तत्व उस स्थान के वातावरण में विलीन हो जाए, जहाँ आप प्रसन्नचित्त से खेलते हैं, वायु तत्व चंवर की हवा में विलीन हो जाए जिसका उपयोग गोपियाँ आपकी सेवा के लिए करती हैं । पृथ्वी तत्व आपके चरणों के नीचे की धरती में विलीन हो जाए।
सख्य भाव में श्री कृष्ण सखा हैं - सख्य भाव में उनके साथ साम्य है, कोई औपचारिकता नहीं। जो भक्त श्री कृष्ण को अपने मित्र के रूप में प्रेम करते हैं, वे आत्मीयता का आनंद लेते हैं। इसलिए
सख्य भाव में तो है गोविंद राधे। निष्ठा सेवा विश्रम्भ तीनों बता दे ॥ राधा गोविंद गीत 5605
प्रेमपूर्ण आदर, प्रेम, अनौपचारिकता और दासता इस भाव की मुख्य विशेषताएँ हैं
श्री कृष्ण के मित्र दो प्रकार के हैं -
1. जो श्रीकृष्ण को भगवान जानकर सखा के रूप में प्रेम करते हैं - इस के उदाहरण अर्जुन और उद्धव हैं
2. जो श्रीकृष्ण को भगवान न जानकर केवल सखा के रूप में ही प्रेम करते हैं - ऐसी मित्रता का उदाहरण हैं ब्रज के ग्वाल-बाल। वे श्री कृष्ण को भगवान माने बिना केवल अपने मित्र के रूप में प्यार करते हैं। कभी वे श्रीकृष्ण के कंधों पर बैठते हैं तो कभी श्रीकृष्ण उनके कंधों पर बैठते हैं। वे एक साथ खेलते हैं और अपने बराबर ग्वाल मानते हैं। कभी-कभी वे नाराज हो जाते हैं और श्री कृष्ण उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं और कभी-कभी श्री कृष्ण को मनाते हैं । यदि कभी श्री कृष्ण के ये सखा उन्हें उदास देखते, तो वे स्वेच्छा से और तुरंत उन्हें प्रसन्न करने के लिए अपने जीवन सहित अपना सब कुछ अर्पित कर देते।
निम्नलिखित श्लोक श्री कृष्ण के प्रति उनके अपार प्रेम को दर्शाता है। उन्हें इस बात का तनिक भी आभास नहीं था कि वह ईश्वर है [1] ।
श्री कृष्ण के मित्र दो प्रकार के हैं -
1. जो श्रीकृष्ण को भगवान जानकर सखा के रूप में प्रेम करते हैं - इस के उदाहरण अर्जुन और उद्धव हैं
2. जो श्रीकृष्ण को भगवान न जानकर केवल सखा के रूप में ही प्रेम करते हैं - ऐसी मित्रता का उदाहरण हैं ब्रज के ग्वाल-बाल। वे श्री कृष्ण को भगवान माने बिना केवल अपने मित्र के रूप में प्यार करते हैं। कभी वे श्रीकृष्ण के कंधों पर बैठते हैं तो कभी श्रीकृष्ण उनके कंधों पर बैठते हैं। वे एक साथ खेलते हैं और अपने बराबर ग्वाल मानते हैं। कभी-कभी वे नाराज हो जाते हैं और श्री कृष्ण उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं और कभी-कभी श्री कृष्ण को मनाते हैं । यदि कभी श्री कृष्ण के ये सखा उन्हें उदास देखते, तो वे स्वेच्छा से और तुरंत उन्हें प्रसन्न करने के लिए अपने जीवन सहित अपना सब कुछ अर्पित कर देते।
निम्नलिखित श्लोक श्री कृष्ण के प्रति उनके अपार प्रेम को दर्शाता है। उन्हें इस बात का तनिक भी आभास नहीं था कि वह ईश्वर है [1] ।
उन्निद्रस्य ययुस्तवात्रविरतिं सप्तक्षपास्तिष्ठतो, हंत श्रान्त इवासि निक्षिप सखे! श्रीदामापाणौ गिरिः ।
आधिर्विध्यति नस्त्वमर्पयकरे मिं वा क्षणे दक्षिणे, दोष्णस्ते करवाम काममधुना सव्यास्या संवाहनम्।
आधिर्विध्यति नस्त्वमर्पयकरे मिं वा क्षणे दक्षिणे, दोष्णस्ते करवाम काममधुना सव्यास्या संवाहनम्।
"हे कान्हा! तुमने इस पर्वत को अपने बाएँ हाथ की छोटी उंगली पर उठा रखा है । हमें यह देखकर बहुत दुख हो रहा है कि तुम लगातार सात दिनों तक एक ही मुद्रा में खड़े रहे और कुछ भी नहीं खाया या पीया। कृपया इसे थोड़ी देर के लिए श्रीदामा को सौंप दो । या ऐसा न करना चाहो तो कृपया इसे दाहिने हाथ की उंगली पर उठा लो । जिससे हम तुम्हारे बाएँ हाथ को दबा दें । हम तुमको और इस तरह नहीं देख सकते।"
एक बार सखाओं ने शर्त लगाई थी कि हारने वाला घोड़ा बनेगा और जीतने वाला हारे की पीठ पर सवार होगा। श्री कृष्ण जानबूझ कर हार गए तो सखाओं ने उन्हें घोड़ा बनआकर उनकी पीठ पर सवार हो गए। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने यह अद्भुत दृश्य देखकर कहा
एक बार सखाओं ने शर्त लगाई थी कि हारने वाला घोड़ा बनेगा और जीतने वाला हारे की पीठ पर सवार होगा। श्री कृष्ण जानबूझ कर हार गए तो सखाओं ने उन्हें घोड़ा बनआकर उनकी पीठ पर सवार हो गए। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने यह अद्भुत दृश्य देखकर कहा
अहोभाग्यमहोभाग्यमं नंदगोपब्रजौकसाम्। यन्मित्रं परमानंदं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।
भा १०.१४.३२
"इन अनपढ़ ग्वालों पर कैसी कृपा है! आनंद वरुणालय, पूर्णतम पुरुषोत्तम परात्पर ब्रह्म उनके सनातन सखा हैं!!"
"इस भाव से श्रीकृष्ण से सम्बन्ध स्थापित करने वालों को भक्ति अनुराग भक्ति के प्रारंभिक स्तर तक पहुँचा देती हैं "।
सख्य भाव की गति उससे उच्च कक्षा का प्रेम नहीं प्राप्त कर सकते।
सख्य भाव की गति उससे उच्च कक्षा का प्रेम नहीं प्राप्त कर सकते।
श्रीकृष्ण को पुत्रवत प्रेम करना वात्सल्य भाव है। माता-पिता का बाल श्रीकृष्ण को अत्यधिक प्रेम से लाड़-दुलार करना वात्सल्य भाव का प्रमुख लक्षण है।
वात्सल्य में है निष्ठा गोविंद राधे। सेवा विश्रम्भ ममता बता दे ॥ राधा गोविंद गीत 5606
"इस भाव में निष्ठा, सेवा,आत्मीयता के साथ-साथ प्रेमास्पद से ममता भी होती है ।"
जब श्री कृष्ण उनकी गोद में बैठते हैं तो नंद बाबा को जो आनंद मिलता है, वह शब्दों से परे है। जब भगवान माता यशोदा का दूध पीते हैं तो उन की स्थिति अवर्णनीय होती है। यह आनंद इतना मधुर है कि वात्सल्य भाव के भक्त कभी जानना ही नहीं चाहते कि उनका पुत्र भगवान है। वे अपने पुत्र का भरपूर-आनंद लेना चाहते हैं। एक बार यशोदा ने अपने नन्हें कान्हा को सुंदर वस्त्रों और छोटे-छोटे आभूषणों से सजाया । कुछ देर बाद वह थोड़ा दूर चली गईं । जब वे वापस लौटी तो उसने उसे कीचड़ में खेलते देखा।
क्रोध में अपने पुत्र को डाँटते हुए बोलीं,
जब श्री कृष्ण उनकी गोद में बैठते हैं तो नंद बाबा को जो आनंद मिलता है, वह शब्दों से परे है। जब भगवान माता यशोदा का दूध पीते हैं तो उन की स्थिति अवर्णनीय होती है। यह आनंद इतना मधुर है कि वात्सल्य भाव के भक्त कभी जानना ही नहीं चाहते कि उनका पुत्र भगवान है। वे अपने पुत्र का भरपूर-आनंद लेना चाहते हैं। एक बार यशोदा ने अपने नन्हें कान्हा को सुंदर वस्त्रों और छोटे-छोटे आभूषणों से सजाया । कुछ देर बाद वह थोड़ा दूर चली गईं । जब वे वापस लौटी तो उसने उसे कीचड़ में खेलते देखा।
क्रोध में अपने पुत्र को डाँटते हुए बोलीं,
पंकाभिषिक्तसकलावयवं विलोक्य, दामोदरं वदति कोपवशाद्यशोदा ।
त्वं शूकरोऽसि गतजन्मनि पूतनारे रित्युक्तिसस्मितमुखोऽवतु नो मुरारिः .. कृ. कर्णामृत "कन्हैया ! मैंने तुम्हें नहलाया और अच्छे कपड़े पहनाए और कुछ ही समय में तुम फिर से कीचड़ में खेलते-खेलते गंदे हो गए। ऐसा लगता है कि तुम पिछले जन्म में सुअर थे।" माता यशोदा की इस टिप्पणी पर श्री कृष्ण यह सोचकर मुस्कुराए, 'हाँ, मैया तू सही कह रही हैं। इससे पहले मेरा शूकरावतार हो चुका है।''
ऐसे भक्तों के भाग्य का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। मैया यशोदा गोपियों के उलाहने सुन-सुन कर खीज गई थी। एक बार उन्होंने ठाकुरजी को ऊखल से बाँध दिया। आँसू बहाते हुए ठाकुरजी मैया से छोड़ देने की विनती कर रहे थे । अपने प्रभु को ऐसी दयनीय स्थिति में देखकर नारद जी माता यशोदा के भाग्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- यशोदा समा कापि महात्मा नास्ति भूतले ।
उलूखले यया बद्धो म्य्क्तिदो मुक्तिमिच्छति ॥ |
शुकदेव परमहंस भी कहते हैं-
नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यङ्गसंश्रया ॥ प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत् प्राप विमुक्तिदात॥
भा 10.9.20
"यशोदा द्वारा प्राप्त कृपा श्रीकृष्ण के पुत्र - ब्रह्मा, सबसे प्रिय शंकर और सनातन पत्नी महालक्ष्मी, जो हमेशा उनकी छाती (श्री वत्स चिन्ह) पर निवास करती हैं, के लिए भी सुलभ नहीं है"।
"इस भाव से श्रीकृष्ण से सम्बन्ध स्थापित करने वालों को भक्ति अनुराग भक्ति के अंतिम स्तर तक पहुँचा देती है "।
श्रीकृष्ण को प्रियतम मानकर प्रेम करना माधुर्य भाव कहलाता है। यह उनके साथ सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
माधुर्य में हैं चारों गोविंद राधे। पाँचवा है आत्मसमर्पण बता दे ॥ राधा गोविंद गीत 5607
इस भाव में उपरोक्त भावों में बताए गए 5 लक्षणों के साथ आत्म समर्पण भी होता है।
इस सम्बन्ध में तीन स्तर होते हैं
इस सम्बन्ध में तीन स्तर होते हैं
"सम्बन्ध की निःस्वार्थता और आत्म-समर्पण के स्तर के आधार पर, भक्ति महाभाव भक्ति तक पहुँचा देती हैं।"
भक्ति रस के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ उज्ज्वल नीलमणि में रूप गोस्वामी ने इन स्तरों की व्याख्या इस प्रकार की है
भक्ति रस के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ उज्ज्वल नीलमणि में रूप गोस्वामी ने इन स्तरों की व्याख्या इस प्रकार की है
साधारणी निगदिता समंजसाऽसौ समर्था च । कुब्जादिषु महीषीषु गोकुलदेवीषु क्रमतः ॥
"साधारणी रति मणि के समान दुर्लभ है जो कुब्जा जैसे महान भक्तों में ही पाई जाती है। यद्यपि इस प्रकार का प्रेम निःस्वार्थ नहीं है, अत: निन्दनीय न होते हुए भी प्रशंसनीय नहीं है"। यह प्रिय के सानिध्य में बढ़ता है । अपनी इन्द्रियों की कामनाओं को पूरा करना ही साधारण रति का आधार है।
उज्ज्वल नीलमणि में माधुर्य भाव में इस प्रेम को निम्नतम बताया है -
उज्ज्वल नीलमणि में माधुर्य भाव में इस प्रेम को निम्नतम बताया है -
असांद्रत्वाद्रेतेरस्या समंभोगेच्छा विभिद्यते । एतस्या ह्रासतोह्रासस्तद्हेतुत्वाद्रतेरपि ॥
"फिर भी, अन्य सभी देवताओं और सभी प्रकार के प्रलोभनों को अस्वीकार करके परम ब्रह्म श्री कृष्ण से ही इन्द्रियों का सुख चाहना कोई मूर्खता का कार्य नहीं है"।
इसीलिए भागवत कहती हैं -
इसीलिए भागवत कहती हैं -
कृष्णभक्तः सकामोऽपि वरान्यखलु सेवकात् । निष्कामादपि तत्कामो यतो मोक्षाय कल्पते ॥
"भगवान के सभी रूपों के भक्तों में से, श्री कृष्ण के भक्त महान हैं क्योंकि श्री कृष्ण का एक सकाम भक्त भी वह प्राप्त कर सकता है जो अन्य देवताओं के निष्काम भक्त प्राप्त नहीं कर सकते। श्री कृष्ण के भक्त प्रेमानंद में मुक्ति को त्याग देते हैं"।
इसीलिए शुकदेव जी ने भी भागवत में कुब्जा के प्रेम की अत्यधिक प्रशंसा की - दुराराध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम् । यो वृणीते मनोग्रामसत्त्वात् कुमनीष्यसौ ॥
भा १०.१८.११ "कुब्जा उन श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी, जो महान परमहंसों और यहाँ तक कि ब्रह्मा, शंकर और संत नारद आदि के लिए भी सुलभ नहीं है !! केवल श्री कृष्ण को प्रसन्न करना और उनसे मायिक इच्छाओं की पूर्ती करवाना निंदनीय है। कुब्जा मूर्ख नहीं है। वह श्री कृष्ण से प्रेम करती थी और उसकी कामना थी कि श्रीकृष्ण ही उसके प्रियतम बनें"।
ये माधुर्य-भाव के भक्त होते हुए भी अपनी इन्द्रियों के सुख की कामना के कारण प्रेमा भक्ति के आगे नहीं जा सकते हैं । |
"स्व-सुख की इच्छा के कारण वे प्रेम के उच्च स्तर को प्राप्त नहीं कर पाते हैं"। वे द्वारका में रानी रुक्मणी के सेवक बन जाते हैं।
पत्निभावाभिमानित्वाद् गुणादिश्रवणादिजः । क्वचिद्भेदित् संभोगतृष्णा सान्द्रा समञ्जसा ॥
"यह चिंतामणि (इच्छा पूर्ण करने वाली मणि) के समान है, जो ब्रह्मांड में अत्यंत दुर्लभ है। ऐसा प्रेम केवल श्रीकृष्ण की रानियों में ही पाया जाता है। उनकी पत्नियों को इस बात पर गर्व है कि 'मैं उनकी पत्नी हूं'"।
कभी-कभी, इन भक्तों में स्वयं को प्रसन्न करने के लिए इन्द्रियों के सुख की प्रबल इच्छा होती है। प्रियतम के गुण, चरित्र और सौन्दर्य आदि के बारे में सुनने से यह प्रेम और भी बढ़ जाता है, फिर भी गहन है। |
समर्था रति कौस्तुभ मणि के समान है, जो श्रीकृष्ण के अतिरिक्त समस्त ब्रह्माण्डों में कहीं और नहीं पाई जाती है। उसी प्रकार समर्था रति गोपियों में ही पाई जाती है।
क्वचिद्विषेमायान्त्या संभोगेच्छा ययाऽभितः । रत्या तदात्मापन्ना सा समर्थेति भण्यते ।
स्वस्वरूपात्तदियाद्वा जातो यत्किञ्चदन्वयात् । समर्था सर्वविस्मारिगन्धा सान्द्रतमा मता ।
स्वस्वरूपात्तदियाद्वा जातो यत्किञ्चदन्वयात् । समर्था सर्वविस्मारिगन्धा सान्द्रतमा मता ।
उ. नी
"समर्था रति प्रेम के अनूठे स्वरूप से युक्त है, जो सहज ही श्याम सुन्दर को मोहित कर लेती है। इस प्रेम का लवलेश ही लज्जा, धैर्य, शील और अन्य सभी प्रकार की बाधाओं को तुरंत समाप्त कर देता है"।
समर्था रति की गोपी घोषणा करती है -
समर्था रति की गोपी घोषणा करती है -
कोउ कहौ कुलटा कुलीन अकुलीन कहौ,
कोउ कहौ रंकिनी कलंकिनी कुनारी हौं । कैसो नरलोक परलोक बर लोकन में, लीनी मैं अलीक लीक लोकन ते न्यारी हौं । तन जाहु मन जाहु देव गुरुजन जाहु, प्रान किन न जाहु टेक टरति न टारी हौं । वृदाबन वारी बनवारी की मुकुट वारी, पीतपट वारी वही सुरति पै वारी हौं ॥ |
''कोई दुष्चरित्र, उच्च कुल, नीच कुल, आदि कह करहमें बदनाम करे, हमें इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं है। चाहे पूरी दुनिया हमें अस्वीकार कर दे, हमें इसकी परवाह नहीं है। हमें मृत्यु लोक, परलोक की परवाह नहीं है। चाहें तन नष्ट हो जाये, चाहें मन को कष्ट मिले, चाहें पूज्य लोग बुरा कहें, चाहें प्राण ही क्यों न चले जाएँ । हमने प्रेम का अनोखा रास्ता चुना है और हमारा जीवन पूरी तरह से केवल श्याम सुंदर के लिए अर्पित है।"
गोपी के प्रेम को मधु स्नेह कहा जाता है जिसमें भक्त के मन में "वे मेरे हैं" इसलिए मैं उससे प्रेम करती हूँ। यही वजह है कि कितनी भी विपरीत परिस्थिती क्यों न हो , इनके प्रेम में न्यूनता भी नहीं आती, नष्ट होने की तो बात ही नहीं है ।
भाव और निःस्वार्थता के आधार पर, दिव्य प्रेमानंद को 8 स्तरों में वर्गीकृत किया जा सकता है, उनमें से महाभाव उच्चतम स्तर है। रूढ़ महाभव तक केवल गोपियाँ ही जा सकती हैं।
इस रचना में एक रसिक संत ने उनके प्रेम का सुन्दर चित्रण किया है।
गोपी के प्रेम को मधु स्नेह कहा जाता है जिसमें भक्त के मन में "वे मेरे हैं" इसलिए मैं उससे प्रेम करती हूँ। यही वजह है कि कितनी भी विपरीत परिस्थिती क्यों न हो , इनके प्रेम में न्यूनता भी नहीं आती, नष्ट होने की तो बात ही नहीं है ।
भाव और निःस्वार्थता के आधार पर, दिव्य प्रेमानंद को 8 स्तरों में वर्गीकृत किया जा सकता है, उनमें से महाभाव उच्चतम स्तर है। रूढ़ महाभव तक केवल गोपियाँ ही जा सकती हैं।
इस रचना में एक रसिक संत ने उनके प्रेम का सुन्दर चित्रण किया है।
द्वापर युग के अग्रगण्य ज्ञानी उद्धव श्री कृष्ण के अंतरंग मित्र थे। श्रीकृष्ण चाहते थे कि उद्धव ब्रह्म के निर्विशेष रूप का ज्ञान त्याग कर प्रेम की मधिरिमा का आस्वादन करें । लेकिन उद्धव को अपने ज्ञान पर बहुत अहंकार था। साथ ही मित्र होने के नाते वे श्रीकृष्ण की सुझाव को अनसुना भी कर सकते थे। इसलिए, श्री कृष्ण ने उद्धव को गोपियों कि पास भएजने हेतु एक चतुर योजना बनाई। उन्होंने कहा, ऽऽगोपियाँ मुझसे बहुत प्रेम करती थीं। अब जब मैंने ब्रज छोड़ दिया है तो वे शोकमग्न हैं। जाओ उन्हें अपना ज्ञान दो, ताकि वे अपना दुःख भूल जाएँ"।
गोपियाँ प्रेम की पाठशाला में प्रोफेसर हैं। श्रीकृष्ण को विश्वास था कि गोपियों के अनन्य प्रेम को देखकर उद्धव अवश्य ही अपने ज्ञान का अभिमान त्याग देंगे और ज्ञान के वास्तविक अर्थ अर्थात "भगवान से घनिष्ठ प्रेम" को आत्मसात कर लेंगे। प्रेम के बिना ज्ञान सरासर अज्ञान ही है।
इसलिए, उद्धव गोपियों को वेदांत का गूढ़ ज्ञान देने गए ताकि वे श्री कृष्ण को भूल जाएँ। उन्होंने उनसे कहा, “श्री कृष्ण अब तुम से प्रेम नहीं करते। वेदांत का ज्ञान तुम सभी को सभी आसक्तियों को त्यागने में सहायक होगा जिसके परिणामस्वरूप तुम्हारा मन शांत होगा और तुम्हें मुक्ति मिलेगी" ।
यह सुनकर गोपियों ने उद्धव के ज्ञान का भरसक मखौल उड़ाया और कहा -
गोपियाँ प्रेम की पाठशाला में प्रोफेसर हैं। श्रीकृष्ण को विश्वास था कि गोपियों के अनन्य प्रेम को देखकर उद्धव अवश्य ही अपने ज्ञान का अभिमान त्याग देंगे और ज्ञान के वास्तविक अर्थ अर्थात "भगवान से घनिष्ठ प्रेम" को आत्मसात कर लेंगे। प्रेम के बिना ज्ञान सरासर अज्ञान ही है।
इसलिए, उद्धव गोपियों को वेदांत का गूढ़ ज्ञान देने गए ताकि वे श्री कृष्ण को भूल जाएँ। उन्होंने उनसे कहा, “श्री कृष्ण अब तुम से प्रेम नहीं करते। वेदांत का ज्ञान तुम सभी को सभी आसक्तियों को त्यागने में सहायक होगा जिसके परिणामस्वरूप तुम्हारा मन शांत होगा और तुम्हें मुक्ति मिलेगी" ।
यह सुनकर गोपियों ने उद्धव के ज्ञान का भरसक मखौल उड़ाया और कहा -
उधो! कहियो हरि समुझाय ।
हम सब उनहिं न कबहुँ बिसरिहैं, वे चाहे बिसराय । वे मेरे प्रियतम प्राणेश्वर, हम अबला असहाय । हम सब भईं सनातन चेरी, वे चाहे ठुकराय । चितवत पंथ रैन दिन दैहौं, अगनित जनम बिताय । पै 'कृपालु' को भय पिय जग सों, तव परतीति न जाय । प्रेम रस मदिरा
|
“O Uddhav! Convey this message to your friend as it is. He should not try to be-fool us. We have accepted Him as our beloved. In other words we have solely surrendered our life to Him. Now we cannot even die unless it is His wish. He might not have submitted His life to us but we have. So, we will wait for Him for millions of lives until He decides to come back. We, however, do fear that the world will lose faith in His graciousness”.
समर्था रति वाले भक्त महाभाव भक्ति के स्तर तक जाते हैं।
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