प्रश्न :
श्री महाराज जी ने कहा है कि संत और भगवान एक होते हैं अतः संत के वाक्य भगवान के वाक्य होते हैं। संत कबीर ने कहा है - जो करै सो हरि करै, होत कबीर कबीर ।
"जो कुछ भी होता है वह भगवान ही करता है।"
जब भगवान ही कर्ता है अर्थात मैं कर्ता नहीं हूँ । तो फिर शास्त्र वेद के वाक्य “मुझे मेरे कर्मों का फल भोगना होगा” निरर्थक है । तो यह उपदेश क्यों देते हैं और किसके लिये है? |
उत्तर :
यह वाक्य संत कबीर ने संतों के लिए कहा है, साधारण जीवों के लिए नहीं। संत कबीर जी के इस वचन का उपयोग हम गलत प्रसंग में कर लेते हैं मुख्यतः तब जब हमें अपने को सही सिद्ध करने की प्रबल इच्छा होती है । परंतु ऐसी सोच हमारा आध्यात्मिक पतन करा सकती है अतः हमें गहराई से इस पर विचार करना होगा । जिनकी मन व बुद्धि पूर्णतया भगवान के शरणागत हो जाती है उन्हें संत कहते हैं । प्रत्येक कर्म का कर्ता मन है। मन-बुद्धि के समर्पण के उपरांत संत कुछ भी नहीं कर सकते हैं । भगवान ही उनके समस्त कर्मों का कर्ता हो जाता है इस सिद्धांत को संत कबीर ने अपने इस काव्य में कहा है। होत कबीर कबीर - यहाँ कबीरदास जी कह रहे हैं कि, "भगवान उनके समस्त कर्मों का कर्ता हो जाता है जो कबीर (अर्थात भगवत प्राप्त जीव) बन जाते हैं ।" जो करै सो हरि करै, होत कबीर कबीर ।
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“जो कुछ भी होता है वह भगवान करता है।”
यदि यह कथन मायिक जीवों के लिये उपयुक्त होता तो उसके परिणाम पर विचार कीजिये।
1. भगवान सर्वज्ञ है या अल्पज्ञ है? इसका उत्तर वेद देते हैं
यदि यह कथन मायिक जीवों के लिये उपयुक्त होता तो उसके परिणाम पर विचार कीजिये।
1. भगवान सर्वज्ञ है या अल्पज्ञ है? इसका उत्तर वेद देते हैं
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः ।
“भगवान सर्वज्ञ है ।” जब भगवान सब कुछ जानता है और वही हम से कर्म करवाता है तो फिर हम से अज्ञानता पूर्ण कार्य क्यों होते हैं?
2. यदि भगवान ही कर्ता है तो हमें कर्तापन का अनुभव क्यों होता है। इसी प्रकार यदि हमारी क्रियाओं का कर्ता भगवान है तो हमें असफलता पर दुःख क्यों होता है और सफलता पर सुख क्यों होता है ?
3. यदि भगवान ही कर्ता है तो हम अनेक योजनाएँ बनाकर उनको क्रियान्वित क्यों करते हैं? हमें कदापि किसी भी योजना को बनाकर उस पर कार्य नहीं करना चाहिए।
4. यदि भगवान ही हमारे समस्त कर्मों का कर्ता है तो उन कर्मों के फलों को भी उसे ही भोगना चाहिए या स्वयं को क्षमा कर लेना चाहिए । परंतु हमको उन कर्मों के दण्ड या पुरस्कार का भागी नहीं बनाना चाहिए। संसार में भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जो यह चाहे कि कर्म वह स्वयं करें और उसका फल दूसरा व्यक्ति भोगे। ऐसा कैसे संभव है कि खाना रामदत्त खाए और पेट दर्द शिवदत्त का हो।
2. यदि भगवान ही कर्ता है तो हमें कर्तापन का अनुभव क्यों होता है। इसी प्रकार यदि हमारी क्रियाओं का कर्ता भगवान है तो हमें असफलता पर दुःख क्यों होता है और सफलता पर सुख क्यों होता है ?
3. यदि भगवान ही कर्ता है तो हम अनेक योजनाएँ बनाकर उनको क्रियान्वित क्यों करते हैं? हमें कदापि किसी भी योजना को बनाकर उस पर कार्य नहीं करना चाहिए।
4. यदि भगवान ही हमारे समस्त कर्मों का कर्ता है तो उन कर्मों के फलों को भी उसे ही भोगना चाहिए या स्वयं को क्षमा कर लेना चाहिए । परंतु हमको उन कर्मों के दण्ड या पुरस्कार का भागी नहीं बनाना चाहिए। संसार में भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जो यह चाहे कि कर्म वह स्वयं करें और उसका फल दूसरा व्यक्ति भोगे। ऐसा कैसे संभव है कि खाना रामदत्त खाए और पेट दर्द शिवदत्त का हो।
5. यदि वही सभी कर्मों का कर्ता है तो फिर उसने वेदों शास्त्रों में सत्कर्म व कुकर्म का निरूपण ही क्यों किया? जब भगवान ही हमारे सभी कर्मों का करता है तो उसे कह देना चाहिए कि जीव कुछ भी नहीं करेगा, मैं अपनी इच्छानुसार जीव से कर्म करा लूँगा । ज्ञात रहे - वेदों में छोटा-मोटा ज्ञान नहीं है अपितु एक लाख ऋचाओं में से 80,000 ऋचाएँ अच्छे और बुरे कर्मों का बोध कराती हैं । तो इस ज्ञान के भंडार को प्रकट करने का आशय क्या है ?
6. यदि वही कर्ता है तो कुछ जीवों को दिव्यानंद क्यों दे दिया जैसे ध्रुव, प्रह्लाद, सूरदास, तुलसीदास, नानक आदि जबकि शेष सभी प्रचंड दुखों को भोग रहे हैं। तो उसने 84 लाख प्रकार के शरीर क्यों बनाए ?
7. यदि यह कहा जाए कि भगवान ने यह सब विनोद के लिए किया। जीवों को इससे कोई सुख-दुःख नहीं मिलेगा तो फिर हमें दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं ।
8. इसके अतिरिक्त हम यह भी जानते हैं कि कुछ जीवों ने शास्त्रों वेदों का अध्ययन करके अच्छे बुरे का सिद्धांत जानकर साधना करके भगवत प्राप्ति कर ली और इस संसार में भी शांति पूर्वक अपने जीवन को बिताया ।
6. यदि वही कर्ता है तो कुछ जीवों को दिव्यानंद क्यों दे दिया जैसे ध्रुव, प्रह्लाद, सूरदास, तुलसीदास, नानक आदि जबकि शेष सभी प्रचंड दुखों को भोग रहे हैं। तो उसने 84 लाख प्रकार के शरीर क्यों बनाए ?
7. यदि यह कहा जाए कि भगवान ने यह सब विनोद के लिए किया। जीवों को इससे कोई सुख-दुःख नहीं मिलेगा तो फिर हमें दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं ।
8. इसके अतिरिक्त हम यह भी जानते हैं कि कुछ जीवों ने शास्त्रों वेदों का अध्ययन करके अच्छे बुरे का सिद्धांत जानकर साधना करके भगवत प्राप्ति कर ली और इस संसार में भी शांति पूर्वक अपने जीवन को बिताया ।
उपर्युक्त तर्कों से यह सिद्ध होता है कि यदि भगवान ही हमारे कर्मों का कर्ता है तब तो भगवान अन्यायी है तथा वह क्रूर है । इसके अतिरिक्त यदि हम यह सिद्धांत मान लेंगे तो हम लापरवाह हो जाएँगे और अपने कर्मों को मनमाने ढंग से करेंगे और यह कह देंगे कि भगवान ही करवा रहा है। हम पहले से ही उच्श्रृंखल हैं और अपने कर्मों का कर्ता भगवान को मानकर और भी अधिक उच्श्रृंखल होकर अपना पतन कर लेंगे।
परंतु गीता के कुछ श्लोक तथा रामचरितमानस के कुछ उद्धरण ऐसे हैं जिसमें यह कहा गया है कि भगवान ही कर्ता है।
परंतु गीता के कुछ श्लोक तथा रामचरितमानस के कुछ उद्धरण ऐसे हैं जिसमें यह कहा गया है कि भगवान ही कर्ता है।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति । भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया ॥
गीता 18.61
"अरे अर्जुन! सर्वशक्तिमान भगवान सभी जीवों के हृदय में उनके कर्मों के अनुसार उनको भिन्न-भिन्न योनियों में माया के संसार में विचरण करवाता है"।
इसी आशय से संत तुलसीदास ने कहा है -
उमा दारु योषित की नाईं । सबहिं नचावत राम गोसाईं ॥
"ओ पार्वती ! हम सभी भगवान राम के हाथों की कठपुतली हैं"।
उपर्युक्त गीता एवं रामचरितमानस के दोनों उद्धरण में हम लोगों को एक मदारी के हाथ की असहाय कठपुतली के रूप में प्रदर्शित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारे सभी कर्मों को भगवान अपनी इच्छा से करवाता है। हमारी अपनी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है। आइए इन दोनों उद्धरण के वास्तविक अर्थ की विवेचना करें। जो आँख नाक कान आदि स्थूल रूप से दृष्टिगत होने वाली ज्ञानेन्द्रियाँ हैं वह वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियाँ नहीं, प्रत्युत् तत्तत् इन्द्रियों के घर हैं । वेदों में कहा गया है - |
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतं तदेव ब्रह्म नं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षुँषि पश्यति तदेव ब्रह्म त्व विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।
यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिदँ श्रृणोति तदेव ब्रह्म विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षुँषि पश्यति तदेव ब्रह्म त्व विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।
यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिदँ श्रृणोति तदेव ब्रह्म विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।
केनोपनिषद्
"हमारा मस्तिष्क नहीं सोचता है । उसमें भगवान के द्वारा प्रदत्त शक्ति सोचने का काम करती है। हमारी यह आंखें नहीं देखती है । भगवान के द्वारा दी गई दृष्टि देखती है। जो कान हम लोग देखते हैं वह नहीं सुनते हैं। वह तो एक यंत्र का कार्य करते हैं । सुनने का कार्य तो कर्ण रंध्रों के अंदर भगवान के द्वारा प्रदत्त शक्ति करती है"। इसी प्रकार अन्य सभी इंद्रियाँ तभी कार्य करती हैं जब भगवान उसमें शक्ति देते हैं यदि भगवान अपनी शक्ति सभी ज्ञानेंद्रियों से वापस ले ले तो वे सब जड़ हो जाएँगी और कोई कार्य नहीं कर पाएँगी।
इस संबंध में विचार कीजिये कि मृत शरीर में भी कान हैं परंतु वे सुनने का कार्य नहीं कर पाते हैं ? क्योंकि भगवान के द्वारा प्रदत्त शक्ति अब उस शरीर में नहीं है। भगवान एक विद्युत केंद्र (powerhouse) के समान हैं यानी प्रयोज्य कर्ता हैं और सभी घरों (जीवों) को विद्युत ऊर्जा (चेतनता) देते हैं । अब यह गृह के स्वामी (जीव) पर निर्भर करता है कि वह उस विद्युत ऊर्जा से अपने घर में प्रकाश करे, अंधेरे में ही बैठा रहे, घर में वातानुकूलित यंत्र लगाए या उसी विद्युत तार को छूकर आत्महत्या कर ले। उसी प्रकार भगवान प्रयोज्य कर्ता है और जीव का प्रयोजन आनंद प्राप्ति है इसलिये जीव प्रयोजक कर्ता है ।
अतः बुद्धिमत्ता पूर्वक सोचें - हम सभी क्रियाएं अपनी बुद्धि एवं विवेक से परिस्थितियों के अनुसार करते हैं । कभी परिणाम हमारे पक्ष में होते हैं और कभी नहीं होते हैं। अपनी असफलता के लिए भगवान को दोषी ठहराना उचित नहीं है । पहले ही इस संसार में दैवीय गुणों (सहनशीलता, दया आदि ) का अभाव है । सोचिये - यदि रहा-सहा विश्वास भी भगवान से उठ गया तो संसार की क्या दशा होगी ?
अतएव हमें भगवान, समय, भाग्य आदि को दोषी ठहराने के बजाय देव-दुर्लभ मनुष्य योनि का सदुपयोग परम - चरम लक्ष्य पाने के लिए करना चाहिए। मनुष्य देह ही ऐसा देह है जिसमें हम पुरुषार्थ करके अपने भविष्य को बना सकते हैं इसलिए इसे कर्म योनि कहा गया है । इसे छोड़कर अन्य सभी योनियाँ भोग योनियाँ हैं अर्थात उनमें हम पूर्व मानव जन्मों में किये सत्कर्मों व दुष्कर्मों के फल भोगते हैं।
अतः बुद्धिमत्ता पूर्वक सोचें - हम सभी क्रियाएं अपनी बुद्धि एवं विवेक से परिस्थितियों के अनुसार करते हैं । कभी परिणाम हमारे पक्ष में होते हैं और कभी नहीं होते हैं। अपनी असफलता के लिए भगवान को दोषी ठहराना उचित नहीं है । पहले ही इस संसार में दैवीय गुणों (सहनशीलता, दया आदि ) का अभाव है । सोचिये - यदि रहा-सहा विश्वास भी भगवान से उठ गया तो संसार की क्या दशा होगी ?
अतएव हमें भगवान, समय, भाग्य आदि को दोषी ठहराने के बजाय देव-दुर्लभ मनुष्य योनि का सदुपयोग परम - चरम लक्ष्य पाने के लिए करना चाहिए। मनुष्य देह ही ऐसा देह है जिसमें हम पुरुषार्थ करके अपने भविष्य को बना सकते हैं इसलिए इसे कर्म योनि कहा गया है । इसे छोड़कर अन्य सभी योनियाँ भोग योनियाँ हैं अर्थात उनमें हम पूर्व मानव जन्मों में किये सत्कर्मों व दुष्कर्मों के फल भोगते हैं।
इसी आशय से संत तुलसीदास ने कहा -
बड़े भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद्ग्रथन गावा ।
राम चरित मानस
“अनन्त पुण्य पुंज के फल स्वरूप मानव शरीर मिलता है। यह शरीर देवता भी चाहते हैं।”
क्यों चाहते हैं ? देवताओं में मनुष्यों से हजारों गुना अधिक शक्ति एवं ज्ञान है ? हाँ है, परंतु उनके कर्म फलदाई नहीं होते अतः वे अपने परम चरम लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकते। सोचिये कितना मूल्यवान शरीर आपको मिला है ! अतः इन संत कबीर के शब्द-जाल में फंसकर मनमाना अर्थ न लगाइये। भगवत् प्राप्त संत के शब्दों को समझने के लिए किसी भगवत-प्राप्त संत की शरणागति एवं उनके मार्गदर्शन को स्वीकार करिए। वे कृपा कर के वेद-शास्त्रों का सही अर्थ बताएँगे। अंततः, जीव कर्म करने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र हैं। जब जीव अपनी इच्छाओं को पूर्णतः भगवान की इच्छा के अनुरूप कर देगा तब से भगवान ही जीव के कर्मों के कर्ता हो जायेंगे। भगवत् प्राप्ति से पूर्व जीव ही कर्मों का कर्ता है। |
हरि ही करावें कर्म गोविंद राधे । तो वेद व्यर्थ सिद्ध होंगे बता दे ॥ 1156
हरि ही करावें कर्म गोविंद राधे । तो जीव फल काहे भोगे बता दे ॥ 1157 हरि ही करावें कर्म गोविंद राधे । वह कर्म सिद्ध भक्तों का बता दे ॥ 1158 - राधा गोविंद गीत
- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज यदि भगवान ही हमसे कर्म करवाते हैं तो फिर वेदों में सत्कर्म या दुष्कर्म के बारे में क्यों बताया गया है ?
यदि भगवान ही कर्म करवाते हैं तो फिर जीव फल क्यों भोगता है ? भगवान ही कर्म करवाते हैं - यह वाक्य संतों के संबंध में कहा गया था। |