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2022 जगद्गुरुत्तम दिवस अंक

विभिन्न ग्रंथों से उद्धरण क्यों दिए जाते हैं?

Read this article in English
श्री महाराज जीचित्र​ 1: श्री महाराज जी
प्रश्न 

रामचरितमानस जैसे हिंदी के ग्रंथों का भावार्थ भी हम पूर्णतया नहीं समझ पाते। और श्री महाराज जी अपने प्रवचनों में क्लिष्ट​ संस्कृत में लिपिबद्ध ग्रन्थों यथा वेद, पुराण, गीता, भागवत् आदि के मंत्र, श्लोकों के अनेक उद्धरण देते हैं। जिनकी अधिकता से बुद्धि विह्वल हो जाती है। इतने सारे ग्रंथों से उद्धरणों का क्या लाभ ?

उत्तर

वर्तमान काल में परिस्थितियों को समझने के लिए लोग अपने अनुभवों पर निर्भर करते हैं तथा प्रत्येक क्रिया को तार्किक विचारों के आधार पर ही मानते हैं। जब किसी व्यक्ति को किसी भी विषय विशेष को जानने की जिज्ञासा होती है तब वे इंटरनेट अथवा सोशल मीडिया के माध्यम से शोध करते हैं। सदृश परिस्थितियों से गुजरे लोगों के अनुभवों को प्रामाणिक मानते हैं।

​श्री महाराज जी आध्यात्मिक क्षेत्र के मात्र प्रखर वक्ता ही नहीं थे। वरन आपके मृत्युलोक में अवतरण​ का कारण आध्यात्मिक क्रांति लाना था। श्री महाराज जी यह भली-भाँति जानते हैं कि विभिन्न कक्षा के श्रोता भिन्न भिन्न प्रकार से ज्ञानार्जन करते हैं तथा लाभान्वित होते हैं । शास्त्रों वेदों में वर्णित आध्यात्मिक तथ्यों को हमारे मानस पटल पर दृढ़ रूप से अंकित करने के लिए उन्होंने पूर्व लिखित तीनों प्रमाणों का प्रयोग अपने प्रवचनों में किया। आइए इन तीनों प्रमाणों की विवेचना करते हैं । और अवलोकन करते हैं कि किस प्रकार श्री महाराज जी ने वेद शास्त्र के सिद्धांत को आम जनता के लिए प्रासंगिक बनाने के लिए इनका उपयोग किया।

तत्व सिद्ध करने का विज्ञान

प्रत्यक्ष प्रमाण

स्वयं की इंद्रियों द्वारा विषय को ग्रहण करने की क्रिया को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। परंतु कुछ क्रियाओं का साक्षात्कार इंद्रियों द्वारा नहीं हो सकता। मैं एक विवादास्पद मत प्रस्तुत कर रही हूँ। “साक्षात प्रमाण सबसे निर्बल प्रमाण है” परन्तु फिर भी मनुष्य इसी को सबसे प्रबल प्रमाण मानते हैं। क्षुब्ध न होइये, थोड़ा निम्नलिखित बातों पर विचार कीजिए तत्पश्चात कोई धारणा बनाइये -

1.    प्रत्येक वस्तु इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं होती  है, जैसे भावनाएँ। इंद्रियों से हम प्रेम को, घृणा को, ईर्ष्या को कैसे प्रमाणित कर सकते हैं?

​2.    इंद्रियों की ग्रहण शक्ति त्रुटिपूर्ण हो सकती है। मनुष्य की आँख से आकाश नीला दिखता है परंतु उसका कोई रंग नहीं होता। खाली स्थान को आकाश कहते हैं।
Pictureचित्र​ 2
3.    इंद्रियाँ मन और बुद्धि के संयोग से ही कोई कार्य संपादित करती हैं। यदि मन पूर्वाग्रह से युक्त है तो मन परिस्थिति का सही सही आंकलन​ नहीं कर पाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे संपुष्टि पक्षपात कहते हैं। घर का नौकर यदि एक बार चोरी में पकड़ा जाए तो पुनः किसी वस्तु के न मिलने पर उस नौकर को ही दोषी समझते हैं। मन के साथ-साथ हमारी इंद्रियों की क्षमताएँ भी सीमित। उदाहरण के लिए आंखें अल्ट्रावायोलेट तथा अवरक्त किरणें नहीं देख सकतीं। कान एक सीमित आवृत्ति की तरंगों को ही सुन पाते हैं।

4.    यद्यपि इंद्रियाँ  बाह्यमुखी  हैं तथापि यदि मन किसी कार्य में एकाग्र है तो इंद्रियाँ अन्य बाह्य परिस्थिति को ग्रहण नहीं कर सकतीं। आपने अनुभव किया होगा कि जब बच्चा खेलने में व्यस्त हो तो भोजन के लिए माँ की पुकार बच्चे को नहीं सुनाई देती। दो शतक पूर्व जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा के समय की घटना है ।

एक चित्रकार अपनी दुकान में चित्र बना रहा था । उसी की दुकान के सामने से भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा में हजारों लोग ढोल नगाड़े बजाते हुए गुजर गए परंतु उस चित्रकार के कानों ने उस कोलाहल को ग्रहण नहीं किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस उस रथ यात्रा में शामिल होना चाहते थे परंतु उन्हें कुछ देर हो गई। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस चित्रकार से पूछा, "क्या यहाँ से रथयात्रा गुजरी चुकी है?" तो उसने कहा नहीं । उस के पड़ोसी दुकानदार ने  कहा,”इतने बड़े संत से झूठ बोलता है। अभी अभी तो यहाँ से रथ यात्रा गुजरी है”। उस दुकानदार ने कहा मुझे नहीं मालूम कि यहाँ से रथयात्रा  गुजरी है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने समाधि लगा कर देखा कि वह चित्रकार सच बोल रहा था। उसका मन चित्र बनाने में इतना एकाग्र था कि उसकी इंद्रियों ने कुछ ग्रहण ही नहीं किया। क्योंकि मन के सहयोग बिना इंद्रियाँ कुछ भी नहीं कर सकतीं।

अनुमान प्रमाण

दूसरा है अनुमान प्रमाण । यह प्रमाण तो तब सफल हो सकता है जब दो पदार्थों में परस्पर नियत संबंध पूर्व में ज्ञात हो उनमें एक के ज्ञान से दूसरे का ज्ञान हो सकता हो । धुएं एवं अग्नि का संबंध पूर्व में ज्ञात है ​ 
यत्र यत्र धूमस्तत्रतत्राग्निः |
"जहाँ धुआँ होगा वहाँ अग्नि अवश्य होगी।"

अतएव किसी पहाड़ पर धुएँ को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ पर अग्नि अवश्य होगी यद्यपि ज्वाला इंद्रियों से ग्राह्य नहीं है।

श्री महाराज जी अक्सर अनुमान प्रमाण का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए वे कहते हैं 3 तत्व अनादि हैं - ब्रह्म, जीव, माया। जीव अनादि काल से सुख खोज रहा है। जीव के अतिरिक्त दो क्षेत्र शेष हैं। माया और ब्रह्म। अब यदि माया के क्षेत्र से सुख प्राप्त नहीं हुआ तो यह सिद्ध है कि सुख ब्रह्म में ही होगा ​।

कुल 6 में से 2 दर्शन शास्त्रों यथा न्याय एवं वैशेषिक ने अनुमान प्रमाण से भगवान के अस्तित्व को सिद्ध किया। श्री महाराज जी ने भी समस्त दर्शन शास्त्रों का प्रयोग आध्यात्मिक सत्य को प्रमाणित करने हेतु किया।

​प्रत्यक्ष प्रमाण की अपेक्षा आनुमान प्रमाणों को समझने के लिए अधिक संज्ञानात्मक शक्ति की आवश्यकता होती है।
पहाड़ पर धुएँ को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ पर अग्नि अवश्य होगी।
चित्र​ 3: पहाड़ पर धुएँ को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ पर अग्नि अवश्य होगी ।

शब्द प्रमाण

Pictureचित्र​ 4: आनन्द के स्तर​
अनुमान प्रमाण तथा प्रत्यक्ष प्रमाण किसी सीमा तक तत्वों को सिद्ध करने में सक्षम हैं। जिन तत्वों की सिद्धि प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण से नहीं हो सकती उनकी सिद्धि शब्द प्रमाण द्वारा होती है। संसार में भी सरकार लोगों के शब्दों को प्रमाण मानती है। उदाहरणार्थ राष्ट्रपति स्वयं सारी जांच पड़ताल नहीं करता वरन् अपने सलाहकारों के द्वारा किए गए अनुसंधान के आधार पर उनके साथ मंत्रणा कर अगला राजनैतिक दाँव​ तय करता है । पब्लिक मीडिया भी इसी प्रमाण का उपयोग कर रिपोर्टर के द्वारा लोगों तक सूचना को पहुँचाता है।

हमारे शास्त्र वेद पुराण आध्यात्मिक सत्यता का निर्विवाद प्रमाण हैं। चूंकि सभी वेद शास्त्र त्रिकालदर्शी भगवत प्राप्त संतों के द्वारा प्रदत्त हैं। त्रिकालदर्शी का अर्थ है जो भूत, वर्तमान एवं भविष्य को देख सके। ये सभी शास्त्र उनके ठोस शोध व निज-अनुभव का संग्रह हैं अतः अखंडनीय हैं। जिसको संशय हो वह इन शास्त्रों वेदों में प्रदत मार्ग पर चल कर स्वयं ही निर्णय करें कि यह सही है अथवा नहीं। 
​ 
लोगों की चित्तवृत्ति अलग-अलग होती है अतः उनके लक्ष्य भी अलग-अलग होते हैं। वेद शास्त्र में सभी याचकों के लिए लक्ष्य लिखे गए हैं (देखें चित्र 4)। श्री महाराज जी शास्त्र वेद के आधार पर उन सब लक्ष्यों में से मधुरतम व सर्वोच्च लक्ष्य गोपी प्रेम को बताते हैं और उसी को लक्ष्य बनाने हेतु प्रेरित करते हैं । वेद शास्त्र के श्लोकों द्वारा उस लक्ष्य को सर्वोत्कृष्ट सिद्ध भी करते हैं।  पुनः उस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु साधना भी बताते हैं और वेद शास्त्रों द्वारा उस साधना से लक्ष्य प्राप्त होगा यह सिद्ध भी करते हैं ।

​श्री महाराज जी के प्रत्येक कार्य का लक्ष्य परार्थ ही होता है । आप जिज्ञासा कर सकते हैं कि इसमें क्या परार्थ है। जानने के लिए अगला सेक्शन पढ़ें।

श्री महाराज जी विभिन्न शास्त्रों से उद्धरण क्यों दिया करते थे?

श्री महाराज जी कोई साधारण विद्वान नहीं थे। वे जगद्गुरूत्तम थे। पूर्व​ युगों में भगवान के प्रति लोगों की श्रद्धा अधिक​ होती थी । श्री महाराज जी यह भली-भाँति जानते थे कि कलियुग में मनुष्यों में शास्त्रादि का ज्ञान अत्यंत सीमित​ होता है साथ ही वेदादि ग्रंथों में लोगों की आस्था भी कम होती है। जन साधारण जब ग्रंथों के नाम भी नहीं जानते तो तो उनमें निहित​ ज्ञान होना तथा उसका पालन करना तो बहुत दूर के ढोल हैं । साधारण लोगों की क्या बिसात जब विद्वत जन​ ने भी बहुत से ग्रंथों के नाम भी नहीं सुने थे जिनमें से श्री महाराज जी उद्धरण देते थे । फिर भी श्री महाराज जी उन ग्रंथों से उद्धरण दिया करते थे (2)। ऐसा करने का लक्ष्य​ अपनी विद्वता सिद्ध करना नहीं था वरन् यह लोकहिताय था । कैसे? जानने कि लिए आगे पढ़िए ।
जगद्गुरु कृपालुजी महाराजचित्र​ 5: जगद्गुरु कृपालुजी महाराज
  1. श्री महाराज जी के सभी प्रवचन तर्कसंगत होने के साथ-साथ क्रांतिकारक भी होते थे। आप​ने अपने प्रवचनों में खुल्लम-खुल्ला  दंभी-गुरुओं का विरोध किया जो दीक्षा के नाम पर कान में मंत्र फूँक कर चेला बना कर भोली-भाली जनता को ठगते हैं। आप​ने वेद शास्त्र के प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया कि उपासना की सभी विधियों का प्राण भक्ति ही है। उपासना की सभी पद्धतियाँ जैसे ज्ञान, योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत आदि करते समय यदि मन भक्ति रहित है तो वह पद्धति भगवत प्राप्ति कदापि नहीं करा सकती। कुछ नकली संतों एवं विद्वानों ने श्री महाराज जी के प्रवचनों  के कुछ बिंदुओं का स्वार्थवश विरोध करना चाहा । यदि इन दंभी बाबा  लोगों की  साज़िश​ सफल हो जाती तो वे भोली भाली जनता को उल्टी पट्टी पढ़ा कर गुमराह कर देते हैं। धार्मिक नेता श्री महाराज जी का विरोध न कर सके क्योंकि श्री महाराज जी ने समस्त  प्रामाणिक ग्रंथों यथा शास्त्रों, वेदों, पुराणों, दर्शन शास्त्रों, रामायण, श्रीरामचरितमानस आदि ग्रंथों के उद्धरण देकर अपने मत​ को सिद्ध किया। आप​ स्कंध, अध्याय एवं श्लोक संख्या भी बता देते थे जिससे कि संशयवादी श्रोता स्वयं उस धर्म ग्रंथ में देखकर उस तथ्य​ की पुष्टि कर लें। इसका परिणाम यह हुआ कि कोई भी धार्मिक नेता श्री महाराज जी का विरोध करने को प्रस्तुत न हो सका वरन सहर्ष या खिन्न होकर आपके द्वारा प्रदत्त​ सिद्धांत के विरुद्ध बोलने में असमर्थ हो गए।  इससे आम जनता का बड़ा भारी लाभ हुआ (1)।
  2. संत के द्वारा दिए गए उपदेशों की पुष्टि धर्म ग्रंथों द्वारा हो तब साधारण जनता उन पर विश्वास करती है। इससे श्रोता आश्वस्त हो जाते हैं कि यह उपदेश अपनी स्वार्थ पूर्ति से प्रेरित नहीं है वरन प्रामाणिक है।

विचार कीजिए कि जब आप किसी सुपर मार्केट में जाते हैं तो न ही आप सब कुछ खरीद लेते हैं और न ही किसी उपयोगी वस्तु से मुँह मोड़ लेते हैं, यद्यपि आप उसे खरीदने के विचार से नहीं गए हैं। आप अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए वस्तुओं को खरीदते हैं । विभिन्न ग्राहकों की आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं अतः वे अन्य वस्तुएँ भी खरीदते हैं । इसी कारणवश उस  सुपर मार्केट में सभी वस्तुएँ बिकती हैं।

श्री महाराज जी के श्री मुख से निःसृत​ वाणी विभिन्न श्रेणी के श्रोताओं के लिए होती है । यदि प्रवचन सुनते समय आपको उद्धरण अच्छे नहीं लगते तो आप उस पर ध्यान केंद्रित न कीजिए । अनेक विद्वतगण भी श्री महाराज जी के प्रवचनों का श्रवण करते हैं संभवतः वे लोग इन उद्धरणों से लाभान्वित होंगे । इन प्रवचनों में से जो आपको चिताकर्षक लगे आप उतना ही ग्रहण कर लीजिए । संत के सभी शब्द एवं उपदेश मानव जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी होते हैं और वह तर्कसंगत तथा प्रायोगिक होते हैं। अतः उनका श्रवण, मनन, तत्पश्चात इसका अभ्यास करने से ज्ञान दृढ़ होगा । जिसके फलस्वरूप हम अपने परम चरम लक्ष्य की ओर तीव्र गति से अग्रसर हो उसको शीघ्र प्राप्त कर लेंगे ।

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