श्री महाराज जी ने “वैलेंटाइन डे” को "गोपी प्रेम दिवस" नाम देकर दिव्यता प्रदान की है । सांसारिक प्रेम पूर्णतया स्वार्थ-पूर्ति पर ही आधारित होता है। जितनी मात्रा में स्वार्थ-सिद्धि हुई उतनी मात्रा में प्रेम बढ़ गया और जितनी मात्रा में स्वार्थ-हानि हुई तो ठीक उसी मात्रा में प्रेम घट गया । प्रेम की परिभाषा है "ध्वंस का कारण हो फिर भी प्रेम बढ़ता रहे" । ऐसा प्रेम तो संसार में असंभव है । यह तो केवल भगवत प्राप्त संतो के हृदयों में ही हिलोरे लेता है ।
प्रेम को प्रज्जवलित करने वाली ऋतु श्रेष्ठ फाल्गुन में हम वृन्दावन के कुछ रसिक सन्तों एवं उनकी भक्ति प्रणाली के विषय में चर्चा करेंगे । उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं कुछ रसिक संत एवं युगलसरकार(श्री राधा एवं श्री कृष्ण) के प्रति उनके विशिष्ट दिव्य प्रेम की अनुपम झलक।
प्रेम को प्रज्जवलित करने वाली ऋतु श्रेष्ठ फाल्गुन में हम वृन्दावन के कुछ रसिक सन्तों एवं उनकी भक्ति प्रणाली के विषय में चर्चा करेंगे । उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं कुछ रसिक संत एवं युगलसरकार(श्री राधा एवं श्री कृष्ण) के प्रति उनके विशिष्ट दिव्य प्रेम की अनुपम झलक।
श्री हित हरिवंश
ब्रज के रसिक वर्धमान चंद्र श्री हित हरिवंश श्री कृष्ण की मुरली के अवतार थे । आपका श्री राधा रानी के चरण कमलों में विशेषानुराग था । आपने श्री राधा रानी को अकारण कृपा का अपरिमेय अगाध सागर माना और श्री कृष्ण को प्रियतम मानकर प्रेम किया । युगल सरकार के प्रति आपका सहचरी भाव था।
उन्होंने अपने सर्वोत्तम ग्रंथ राधा सुधा निधि में श्री राधा रानी के प्रति अपने प्रेम की एक झलक दिखलाई है-- राधाकरावचितपल्लववल्लरीके,
राधापदाङ्कविलसन्। मधुरस्थलीके । राधा यशोमुखरमत्तखगावलीके, राधाविहारविपिने रमतां मनो मे ॥१३॥ राधा सुधा निधि
"मेरा मन उन पवित्र स्थानों में रहे जहाँ की लता पताओं को श्री राधा रानी के पावन कर कमलों का स्पर्श मिलता हो, जहाँ की भूमि पर उनके पावन चरण कमलों के चिन्ह हों, जहाँ के प्रेम आसक्त पक्षी श्री राधा रानी के गुणों का गान करते हों।"
रसना कटौ जो अन रटौ, निरखि अन फुटौ नैन
श्री हित हरिवंश महाप्रभु, स्फुट वाणी (24)
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"मेरी जीभ कट जाए यदि मैं श्री राधा रानी के नाम का उच्चारण ना करूं, मेरी दृष्टि चली जाए यदि मैं श्री राधा रानी के अतिरिक्त और कुछ देखूँ, मेरी श्रवण शक्ति समाप्त हो जाए यदि मेरे कान श्री राधा रानी के गुणों के अतिरिक्त कुछ भी सुने " ।
संत हरिदासकवि श्रेष्ठ संत हरिदास जी महाराज एक रसिक संत हुए जो दार्शनिक भी थे । वे महान संगीतज्ञ श्री बैजू बावरा एवं तानसेन के गुरु थे। आपको ललिता सखी का अवतार माना जाता है । आपका प्रेम सखी भाव का था।
श्री हरिदास जी महाराज ने श्री कृष्ण एवं श्री राधा रानी के परस्पर प्रेम के वर्णन के साथ-साथ उस प्रेम के अनुभव का भी वर्णन किया। इस अवस्था का नाम "रस" है । वे परमानंद की समाधि में श्री कृष्ण की लीलाओं को वृंदावन के कुंजों में गाया करते थे । आपके सभी काव्यों के मूल में, श्री कृष्ण से भी अधिक, श्री राधा रानी ही हुआ करती थीं । |
संत व्याससंत व्यास जी एक महान रसिक संत हुए हैं जिनको विशाखा सखी का अवतार माना जाता है । आपका विशेष अनुराग अष्ट महासखियों के समक्ष निकुंज लीलाओं में था । आपका प्रेम सखी भाव श्रेणी का था।
इस प्रकार बहुत से संत महात्मा धराधाम पर अवतरित हुए जिनको रसिक की उपमा दी गई । उदाहरण के लिए 500 वर्ष पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी ,जीव गोस्वामी आदि। |
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु महाप्रभु
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु महाप्रभु आधुनिक युग के रसिक संत हैं । आपने माधुर्य भाव में भी अंतरंगतम शैली गोपी भाव से युगल सरकार की । अतः आपको रसिक शिरोमणि अर्थात सभी रसिकों के सिरमौर की उपाधि प्राप्त है । आपके साहित्य में सखी भाव व गोपी भाव का अनूठा सम्मिश्रण है तथापि आपने प्रधान रूप से गोपी भाव का ही प्रचार, प्रसार किय है । प्रस्तुत है युगल सरकार के प्रति आपके प्रेम भाव की एक झलक –
हमारे माई! गौर श्याम दोऊ आँखी ।
गौर तेज तिल श्याम पलक पुनि, रस विलास हित राखी । माया-पलक-विलास होत हम, तलफति दृग जल साखी । बिनु वियोग संयोग सुखद कम, रसिक जनन यह भाखी । सोई रस प्रेम विषामृत जानत, लो बारेक यह चाखी । चाखे पुनि "कृपालु" नित नव रस, रह चाखन अभिलाषी ॥ "अरी सखी ! श्री श्याम सुंदर और श्री राधा रानी मेरी आँखें हैं। गौर वर्णी राधा मेरे नयनों की श्वेतिमा तथा प्रियतम श्याम सुंदर मेरी पुतली की कालिमा हैं। मैं अपनी पलकों उनकी अंतरंग लीलाओं को संसार से छुपा कर रखती हूं परंतु जब कभी माया के आवरण के कारण उनकी लीलाएं दृष्टिगोचर नहीं होती हैं तो मैं अत्यंत व्याकुल हो जाती हूँ। मेरी आंखों से बहते हुए आँसू इस दशा के साक्षी हैं । रसिक संतों के अनुसार वियोग का सुख संयोग से कहीं अधिक है। जिन लोगों ने इस विष व अमृत का पान किया हो वे ही इस दिव्यानंद की मधुरिमा को जानते हैं। श्री कृपालु महाप्रभु कहते हैं कि,”जिस कृपा पात्र जीव ने, एक बार, इस रस का आस्वादन किया है, वह अनंत काल तक इस दिव्य प्रेम के नित नवीन रसों का रसास्वादन करते हुए भी रसास्वादन करने के लिए आतुर रहता है”।
इन शब्दों के रस का अनुभवात्मक ज्ञान तो समानान्तर श्रेणी के संत को ही हो सकता है । काशी विद्वत परिषद के मूर्धन्य विद्वानों ने अनेक ग्रंथों की विवेचना में अपना अधिकांश जीवन व्यतीत किया । उन विद्वानों ने श्री महाराज जी के दिव्य गुणों को पहचाना तथा पद्यप्रसूनोपहार के प्रत्येक श्लोक में आपके गुणों का यशोगान भी किया । |
श्री महाराज जी के अनुयायियों को अपने आप को अत्यंत सौभाग्यशाली समझना चाहिये क्योंकि हमें बिना किसी प्रयास के उच्चतम कक्षा के ऐसी गुरु मिले हैं । तथा इस भावना को उत्तरोत्तर बढ़ाते रहना चाहिये क्योंकि पता नहीं हमारे पूर्व जन्म के किन पुण्य कर्मों के फल के स्वरूप हम को भगवान की छप्पर फाड़ कर अहैतुकी कृपा प्राप्त हुई है । जिसने भी श्री महाराज जी अपना सर्वस्व मान लिया है उसको एक दिन परम चरम लक्ष्य प्राप्ति अवश्य होगी ।
भगवत प्राप्ति के उपरांत जीव को अपने गुरु से के ठीक नीचे का पद प्राप्त होता है । अतः यदि हमें गोपी भाव का प्रेम प्राप्त करना है तो हमें उनके सिद्धांत को सहृदय अपनाना होगा। उनकी दिव्य कृपा प्राप्त करने हेतु बनने के लिए उनकी प्रत्येक आज्ञा का अक्षरशः पालन करना होगा । इससे हम उस दिव्यानंद को प्राप्त करे पायेंगे जोकि महालक्ष्मी, शंकर, ब्रह्मादि को भी अप्राप्य है।
भगवत प्राप्ति के उपरांत जीव को अपने गुरु से के ठीक नीचे का पद प्राप्त होता है । अतः यदि हमें गोपी भाव का प्रेम प्राप्त करना है तो हमें उनके सिद्धांत को सहृदय अपनाना होगा। उनकी दिव्य कृपा प्राप्त करने हेतु बनने के लिए उनकी प्रत्येक आज्ञा का अक्षरशः पालन करना होगा । इससे हम उस दिव्यानंद को प्राप्त करे पायेंगे जोकि महालक्ष्मी, शंकर, ब्रह्मादि को भी अप्राप्य है।
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