प्रश्न
मैंने पिछले कई वर्षों में श्री महाराज जी के बहुत से प्रवचन सुने हैं और कभी-कभी मैं उनके कथन से सहमत हो जाता हूँ और कभी अपने को सहमत होने में असमर्थ पाता हूँ । कभी तो ऐसा भी होता है कि अन्य वक्ताओं एवं लेखकों की भगवद् विष्यक विचारधारा से मैं अधिक सहमत हो पाता हूँ, श्री महाराज जी से नहीं । सबके अपने-अपने सीखने सिखाने के अनोखे ढ़ंग होते हैं। यदि मेरी सीखने की पद्धति श्री महाराज जी के सिखाने की पद्धति से भिन्न है तो क्या दूसरे स्रोतों से भगवान के विषय में जानना गलत होगा? उत्तर शास्त्र कहते हैं: यावत्पापैस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि ।
न शासत्रे सत्यता बुद्धिः, सद्बुद्धिः सद्गुरौ तथा ॥ |
" जिसका हृदय संसारासक्त होने के कारण जितना अधिक मलिन होगा उसको शास्त्रों एवं संतों की वाणी पर उतना ही कम विश्वास होगा। "
अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार, जीव का किसी भी विचारधारा से सहमत होना या असहमत होना स्वाभाविक है । साथ ही यह भी सत्य है कि जैसे-जैसे भगवद् ज्ञान में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे भगवद्-प्रेम में भी वृद्धि होती जाती है । परिपूर्ण महात्म्य ज्ञान होने पर विपरीत स्थिति में भी प्रेम घटने का कारण होने पर भी बढ़ता है ।
प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान को आत्मसात करने की शक्ति भिन्न भिन्न होती है। शास्त्रों के अनुसार यह विविधता व वैमत्य, व्यक्तिगत संस्कारों के कारण और विभिन्न परिस्थितियों में किये गये निश्चयों के कारण होता है ।
आध्यात्मिक उत्थान(भगवत् ज्ञान) हेतु बुद्धिमान व्यक्ति को सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करना होगा वह यह है कि "मेरी सहज एवं एकमात्र इच्छा क्या है?" । इस प्रश्न पर गहराई से चिंतन मनन करने के पश्चात ही किसी को संत की बात प्रभावित करेगी ।
श्री महाराज जी अनेक वेदों-शास्त्रों यथा रामचरितमानस, गीता, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद् भागवत आदि के उदाहरणों से किसी मत की अत्यधिक सरलता से पुष्टि करते हैं। आपका सिद्धांत है कि चींटी से ब्रह्मा तक सब जीव एकमात्र आनन्द ही चाहते हैं । यदि आप इस तथ्य से सहमत नहीं हैं तो आप तनिक अपने सभी मानसिक एवं शारीरिक कर्मों पर विचार कीजिए। उन कर्मों को करने के पीछे क्या प्रयोजन है । यद्यपि कई क्रियायें परस्पर विरोधी होंगी तथापि उनका लक्ष्य एकमात्र आनंदप्राप्ति ही होगा ।
जैसे किसी व्यक्ति को नींद में सुख मिल रहा है परंतु कुछ समय पश्चात नींद का सुख समाप्त हो जाता है । तब वह व्यक्ति जाग कर अन्य कर्मों में रत हो जाता है । इसी प्रकार कोई मिष्ठान में सुख प्राप्त करता है परंतु अत्यधिक मिष्ठान के सेवन से दुख मिलने लगता है । बलात और अधिक खिलाने पर उलटी भी हो जाती है । अतः यह सिद्ध है कि हम हर क्रिया सुख प्राप्ति के लिए ही करते हैं।
जब हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेंगे तब दूसरा प्रश्न उठेगा है कि “सच्चा सुख कहाँ है”। सभी शास्त्र वेद एकमत होकर घोषित करते हैं कि "भगवान ही सुख है"।
प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान को आत्मसात करने की शक्ति भिन्न भिन्न होती है। शास्त्रों के अनुसार यह विविधता व वैमत्य, व्यक्तिगत संस्कारों के कारण और विभिन्न परिस्थितियों में किये गये निश्चयों के कारण होता है ।
आध्यात्मिक उत्थान(भगवत् ज्ञान) हेतु बुद्धिमान व्यक्ति को सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करना होगा वह यह है कि "मेरी सहज एवं एकमात्र इच्छा क्या है?" । इस प्रश्न पर गहराई से चिंतन मनन करने के पश्चात ही किसी को संत की बात प्रभावित करेगी ।
श्री महाराज जी अनेक वेदों-शास्त्रों यथा रामचरितमानस, गीता, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद् भागवत आदि के उदाहरणों से किसी मत की अत्यधिक सरलता से पुष्टि करते हैं। आपका सिद्धांत है कि चींटी से ब्रह्मा तक सब जीव एकमात्र आनन्द ही चाहते हैं । यदि आप इस तथ्य से सहमत नहीं हैं तो आप तनिक अपने सभी मानसिक एवं शारीरिक कर्मों पर विचार कीजिए। उन कर्मों को करने के पीछे क्या प्रयोजन है । यद्यपि कई क्रियायें परस्पर विरोधी होंगी तथापि उनका लक्ष्य एकमात्र आनंदप्राप्ति ही होगा ।
जैसे किसी व्यक्ति को नींद में सुख मिल रहा है परंतु कुछ समय पश्चात नींद का सुख समाप्त हो जाता है । तब वह व्यक्ति जाग कर अन्य कर्मों में रत हो जाता है । इसी प्रकार कोई मिष्ठान में सुख प्राप्त करता है परंतु अत्यधिक मिष्ठान के सेवन से दुख मिलने लगता है । बलात और अधिक खिलाने पर उलटी भी हो जाती है । अतः यह सिद्ध है कि हम हर क्रिया सुख प्राप्ति के लिए ही करते हैं।
जब हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेंगे तब दूसरा प्रश्न उठेगा है कि “सच्चा सुख कहाँ है”। सभी शास्त्र वेद एकमत होकर घोषित करते हैं कि "भगवान ही सुख है"।
आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात्।
अर्थात् "भगवान ही आनंद है ” भगवान का पर्यायवाची शब्द आनन्द है अतः सुख भगवान के अतिरिक्त कहीं और से प्राप्त नहीं हो सकता ।
इस संपूर्ण ब्रह्मांड में तीन तत्व हैं। जीवात्मा, परमात्मा तथा माया। हम जीवात्मा हैं तथा संपूर्ण भौतिक जगत माया है तथा तीसरा तत्व परमात्मा है । यद्यपि हम अपनी मायिक इंद्रिय, मन-बुद्धि से उसको नहीं देख सकते परंतु इतने नियमित जगत को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस संपूर्ण जगत का नियंता कोई सर्वशक्तिमान अवश्य होगा । तीसरा तत्व जिसने इस संपूर्ण सृष्टि की रचना की एवं उसका पालन करता है वह परमात्मा कहलाता है।
हम सभी जीव जो आनंद के याचक हैं तथा अनंतकाल से इस मायिक जगत में आनंद को ढूंढ रहे हैं एवं दृढ़ विश्वास रखते हैं कि एक दिन उस आनंद को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। हमारे शास्त्र कहते हैं कि यह संपूर्ण जगत माया का बना है परंतु माया स्वयं जड़ है अतः इसमें सुख कदापि नहीं हो सकता।
वेदों ने आनंद शब्द की परिभाषा की है -
इस संपूर्ण ब्रह्मांड में तीन तत्व हैं। जीवात्मा, परमात्मा तथा माया। हम जीवात्मा हैं तथा संपूर्ण भौतिक जगत माया है तथा तीसरा तत्व परमात्मा है । यद्यपि हम अपनी मायिक इंद्रिय, मन-बुद्धि से उसको नहीं देख सकते परंतु इतने नियमित जगत को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस संपूर्ण जगत का नियंता कोई सर्वशक्तिमान अवश्य होगा । तीसरा तत्व जिसने इस संपूर्ण सृष्टि की रचना की एवं उसका पालन करता है वह परमात्मा कहलाता है।
हम सभी जीव जो आनंद के याचक हैं तथा अनंतकाल से इस मायिक जगत में आनंद को ढूंढ रहे हैं एवं दृढ़ विश्वास रखते हैं कि एक दिन उस आनंद को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। हमारे शास्त्र कहते हैं कि यह संपूर्ण जगत माया का बना है परंतु माया स्वयं जड़ है अतः इसमें सुख कदापि नहीं हो सकता।
वेदों ने आनंद शब्द की परिभाषा की है -
यो वै भूमा तत्सुखम् |
“जो अनन्त मात्रा का हो वह ही सुख है”। सच्चे सुख पर दु:ख का आधिपत्य कभी भी नहीं हो सकता है ।
"जो भी परमात्मा को प्राप्त करता है वह आनंदित हो जाता है"।
वास्तविक सुख अनंतमात्रा का तथा अनंतकाल के लिये होता है । अर्थात वह कभी समाप्त नहीं होता। सांसारिक सुख सीमित काल तथा सीमित मात्रा का होता है। सांसारिक सुख में दुःख मिश्रित गोता है और अंततः दुख में परिणत हो जाता है। मान लीजिये कोई प्रतिमाह पैसे बचा कर नई साइकिल खरीदता है । वह सुखी होता है परंतु मोटरसाइकिल को देखकर उसका साइकिल का सुख समाप्त हो जाता है, अब वह मोटरसाइकिल को खरीदने की योजना बनाने लगता है। वह मोटरसाइकिल खरीद पाने के उपरांत पुनः सुखी होता है, परंतु उसके आगे अनेक सुविधाजनक यातायात के साधन हैं जैसे कार को देख कर वह पुनः दुःखी हो जाता है । अर्थात कामना पूर्ति पर अधिक पाने का लोभ पैदा होता है और कामना अपूर्ति पर क्रोध उतपन्न होता है । संसार का सुख मृग मरीचिका की भांति भ्रम है फिर भी अभ्यास वश हम उसके प्रति इतने आकर्षित हैं कि शास्त्रों वेदों के ज्ञान को बारम्बार सुनने पर भी उसका लाभ नहीं ले पाते । यह ज्ञान त्रिकालदर्शी संतो ने कृपावश हमको दिया है। उसपर अमल कर अपने परम-चरम लक्ष्य को पाने के विपरीत हम अपनी सीमित मायिक बुद्धि का प्रयोग त्रिकालदर्शी संतों की बात को काटने में करते हैं ।
"जो भी परमात्मा को प्राप्त करता है वह आनंदित हो जाता है"।
वास्तविक सुख अनंतमात्रा का तथा अनंतकाल के लिये होता है । अर्थात वह कभी समाप्त नहीं होता। सांसारिक सुख सीमित काल तथा सीमित मात्रा का होता है। सांसारिक सुख में दुःख मिश्रित गोता है और अंततः दुख में परिणत हो जाता है। मान लीजिये कोई प्रतिमाह पैसे बचा कर नई साइकिल खरीदता है । वह सुखी होता है परंतु मोटरसाइकिल को देखकर उसका साइकिल का सुख समाप्त हो जाता है, अब वह मोटरसाइकिल को खरीदने की योजना बनाने लगता है। वह मोटरसाइकिल खरीद पाने के उपरांत पुनः सुखी होता है, परंतु उसके आगे अनेक सुविधाजनक यातायात के साधन हैं जैसे कार को देख कर वह पुनः दुःखी हो जाता है । अर्थात कामना पूर्ति पर अधिक पाने का लोभ पैदा होता है और कामना अपूर्ति पर क्रोध उतपन्न होता है । संसार का सुख मृग मरीचिका की भांति भ्रम है फिर भी अभ्यास वश हम उसके प्रति इतने आकर्षित हैं कि शास्त्रों वेदों के ज्ञान को बारम्बार सुनने पर भी उसका लाभ नहीं ले पाते । यह ज्ञान त्रिकालदर्शी संतो ने कृपावश हमको दिया है। उसपर अमल कर अपने परम-चरम लक्ष्य को पाने के विपरीत हम अपनी सीमित मायिक बुद्धि का प्रयोग त्रिकालदर्शी संतों की बात को काटने में करते हैं ।
मानव योनि ज्ञान प्रधान है । इस योनि में भगवान ने संकल्प-विकल्प करने की शक्ति प्रदान की है । कलियुग में ढ़ोंगियों के किस्से आए दिन समाचार पत्रों में सुनने व पढ़ने को मिलते हैं । निःसंदेह बुद्धिजीवि पूर्ण विश्वास करके धोखा नहीं खाना चाहते हैं इसलिये किसी पर पूर्णविश्वास नहीं करते । सर्वज्ञ भगवान ने इसका विकल्प प्रस्तुत किया है - वेद शास्त्रों में सच्चे संत को पहचानने के लक्ष्ण बताए हैं । अतः इन लक्ष्णों की कसौटी पर कसकर संत को पहचान कर शरणापन्न होने से कोई भी आनंद प्राप्ति के पथ पर अग्रसर हो सकता है ।
इसमें समय व परिश्रम लगेगा । आप संत पहिचानने की चेष्टा तब ही करेंगे जब आपका दृढ़ निश्चय हो कि मुझे सुख चाहिये और मेरे प्रयत्नों से वह सुख मुझे नहीं मिल रहा है ।
अतः प्रिय साधक! तत्व ज्ञान प्राप्त करते समय कृपया मिथ्या अभिमान त्याग दीजिए । हमारी मायिक बुद्धि शास्त्रों वेदों में वर्णित दिव्य ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सकती । केवल श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत ही समस्त शास्त्रों वेदों के गूढ़ ज्ञान का सारांश इतनी सरल भाषा में हमारे सामने प्रस्तुत करने में सक्ष्म हैं जिस को समस्त जन सहजता से समझ सकते हैं।
पूर्व में हुए चार जगद्गुरु अपने दर्शन में पारंगत थे परंतु श्री महाराज जी केवल जगद्गुरु नहीं हैं बल्कि वे 'जगतगुरूत्तम' की उपाधि से अलंकृत किये गये हैं क्योंकि आपने सभी जगद्गुरुओं के सिद्धांतों का, जन साधारण के हित हेतु, समन्वय किया है। आपने प्रवचनों में प्रस्तुत प्रत्येक विचार को अनेक शास्त्रों वेदों से प्रमाणित किया है । साथ ही तर्क द्वारा उसकी पुष्टि की । इसके साथ ही आपने हमारे दैनिक जीवन के अनुभवों के उदाहरण से क्लिष्ट सिद्धांतों को सरल बना कर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया ।
किसी भी क्षेत्र में ज्ञानार्जन के लिये गुरु पर पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास अनिवार्य है । और आध्यात्मिक विषय तो बहुत ही गूढ़ है । साधक को दीन एवं जिज्ञासु भाव से संत के शरणागत होकर शास्त्रों का ज्ञानार्जन करना होगा । इसी संदर्भ में गीता कहती है -
इसमें समय व परिश्रम लगेगा । आप संत पहिचानने की चेष्टा तब ही करेंगे जब आपका दृढ़ निश्चय हो कि मुझे सुख चाहिये और मेरे प्रयत्नों से वह सुख मुझे नहीं मिल रहा है ।
अतः प्रिय साधक! तत्व ज्ञान प्राप्त करते समय कृपया मिथ्या अभिमान त्याग दीजिए । हमारी मायिक बुद्धि शास्त्रों वेदों में वर्णित दिव्य ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सकती । केवल श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत ही समस्त शास्त्रों वेदों के गूढ़ ज्ञान का सारांश इतनी सरल भाषा में हमारे सामने प्रस्तुत करने में सक्ष्म हैं जिस को समस्त जन सहजता से समझ सकते हैं।
पूर्व में हुए चार जगद्गुरु अपने दर्शन में पारंगत थे परंतु श्री महाराज जी केवल जगद्गुरु नहीं हैं बल्कि वे 'जगतगुरूत्तम' की उपाधि से अलंकृत किये गये हैं क्योंकि आपने सभी जगद्गुरुओं के सिद्धांतों का, जन साधारण के हित हेतु, समन्वय किया है। आपने प्रवचनों में प्रस्तुत प्रत्येक विचार को अनेक शास्त्रों वेदों से प्रमाणित किया है । साथ ही तर्क द्वारा उसकी पुष्टि की । इसके साथ ही आपने हमारे दैनिक जीवन के अनुभवों के उदाहरण से क्लिष्ट सिद्धांतों को सरल बना कर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया ।
किसी भी क्षेत्र में ज्ञानार्जन के लिये गुरु पर पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास अनिवार्य है । और आध्यात्मिक विषय तो बहुत ही गूढ़ है । साधक को दीन एवं जिज्ञासु भाव से संत के शरणागत होकर शास्त्रों का ज्ञानार्जन करना होगा । इसी संदर्भ में गीता कहती है -
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ॥
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ॥
भगवद् गीता ४.३४
“श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत के पास जाओ । मन-बुद्धि का समर्पण कर दीनता पूर्वक अपनी शंकाओं के निवारण हेतु उनसे प्रश्न करो तथा संत की इच्छानुसार उनकी सेवा करो ।"
सभी शास्त्रों वेदों को तथा विभिन्न संतो के द्वारा लिखे गए ग्रंथों को पढ़ने से बुद्धि परिष्कृत न होकर भ्रमित हो जाती है। यद्यपि समस्त शास्त्रों वेदों में लिखा गया एक-एक अक्षर शाश्वत सत्य है तथापि हम अपनी बुद्धि से विरोधाभासी तथ्यों को नहीं समझ सकते अतः उनको पढ़ने से हमारा लक्ष्य हमें प्राप्त नहीं होगा। संत के अलावा, कोई मायिक व्यक्ति द्वारा लिखित पुस्तकों को पढ़ने से भी हमें लक्ष्य प्राप्ति नहीं होगी । अलग-अलग संतों ने शास्त्रों में वर्णित भिन्न-भिन्न भावों से साधना करके भगवत दर्शन किए हैं । सूरदास जी ने वात्सल्य भाव को अपनाया, तुलसीदास जी ने दास्य भाव को, एवं मीराबाई जी ने माधुर्य भाव से ईश्वर प्राप्ति की। यहाँ तक कि पूर्व चार जगतद्गुरुओं के पथ भी भिन्न भिन्न हैं । यद्यपि वे सभी लेखक संत हैं परंतु उनकी भिन्न-भिन्न उपासना की पद्धति को पढ़कर हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायेंगे ? सुलझने के बजाए और उलझ जाएँगे । मुनि बहु मत बहु पंथ पुरानन, जहाँ तहाँ झगरो सो ।
“संतो और पुराणों के मतों में अनेकानेक विरोधाभास दिखाई पड़ता है।
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श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । छूट न अधिक अधिक अरुझाई
“वेद और पुराण उत्थान के लिए बहुत से पथ बताते हैं परंतु उनमें विरोधाभास प्रतीत होता है और इन सब को पढ़ने से व्यक्ति पथ भ्रमित हो जाता है”।
हमेशा याद रखें कि विभिन्न शास्त्रों वेदों पुराणों में बड़े-छोटे, अच्छे-बुरे का भेद करना नामापराध की श्रेणी में आता है ।
अतः यह मेरा विनम्र निवेदन है कि अनेक ग्रंथों को पढ़ने के बजाय किसी एक श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत के शरणागत होकर अपने परम चरम लक्ष्य का निर्धारण करिए और केवल उसी की अनन्य भाव से सेवा करिए । भगवत प्राप्ति का यही एकमात्र उपाय है।
हमेशा याद रखें कि विभिन्न शास्त्रों वेदों पुराणों में बड़े-छोटे, अच्छे-बुरे का भेद करना नामापराध की श्रेणी में आता है ।
अतः यह मेरा विनम्र निवेदन है कि अनेक ग्रंथों को पढ़ने के बजाय किसी एक श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत के शरणागत होकर अपने परम चरम लक्ष्य का निर्धारण करिए और केवल उसी की अनन्य भाव से सेवा करिए । भगवत प्राप्ति का यही एकमात्र उपाय है।
एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास ।
"एक ही इष्ट देव तथा एक ही पथ का अबलम्बन लेने से ही सफलता मिलेगी।”
हमारा जीवन अत्यंत क्षणिक है एवं हमारा लक्ष्य अत्यंत दूरस्थ है । हमें अपनी सीमित बुद्धि से संतों महात्माओं के आचार, व्यवहार एवं वचनों में संशय करने में एक क्षण भी नष्ट नहीं करना चाहिए। लक्ष्य प्राप्ति के लिये हमें एक गुरु तथा एक पथ का अनन्यता से चयन करना चाहिए । भगवान से भी अधिक गुरु हमारे लिए परिश्रम करते हैं । पारस पत्थर का स्पर्श पाकर शुद्ध लोहा सोना बन जाता है परंतु गुरु का संग तो इतना विलक्ष्ण है कि गुरु के संग से लोह समान जीव पारस बन जाता है । गुरु अधम पतित जीवों को अपनाते हैं तथा उनके अनंत काल के अज्ञान को दूर करके भगवान से मिलवाते हैं । जीव को गुरु ही ज्ञान करवाते हैं कि भगवान दोनों भुजाओं को पसारे हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं । जानत तुमहिं तुमहिं है जाई ॥
“जो भगवान को जान लेता है वह भगवत स्वरूप हो जाता है” ।
मेरे विचार से जिस प्रकार एक प्राथमिक विद्यालय का बच्चा किसी प्रोफेसर के ज्ञान की परीक्षा नहीं ले सकता उसी प्रकार एक जीव सच्चे संत को नहीं पहचान सकता । अतः यदि किसी को सच्चा संत नहीं मिला है तो उसे भगवान से रो रो कर वास्तविक संत के संग के लिए अनुनय-विनय करनी चाहिए । हमारे सच्चे हितैषी दयालु प्रभु अवश्य ही हमको किसी सच्चे संत से मिलवा देंगे एवं हमारी अन्तर चेतना को भी अवगत करा देंगे कि ये ही हमारे सद्गुरु हैं जो हम को भवसागर से पार कराने में पूर्णतया सक्षम हैं। तब अंतर मन से हमें अटूट विश्वास हो जायेगा कि यही सच्चा संत है जिसे भगवान ने हमें सही पथ पर साधना करवाने हेतु भेजा है। अंततोगत्वा उस सच्चे संत को पूर्ण समर्पण कर, उनकी आज्ञा पालन करके हम हमारे परम-चरम लक्ष्य, भगवत प्राप्ति, हेतु यात्रा आरम्भ कर सकते हैं । |