प्रश्न
आप कहते हैं कि भगवान् माया से परे है अतः मायिक विकार उस पर हावी नहीं हो सकते । फिर भी भगवान् चाहता है कि हम केवल उससे प्रेम करें। हमारे स्वार्थी संसार में भी एक व्यक्ति कई लोगों से प्यार करता है यथा पिता, माता, भाई, बहनें, स्त्री-पति, बच्चे, मित्र आदि। कोई ईर्ष्या नहीं करता । तो फिर भगवान् को इतनी ईर्ष्या क्यों है?
उत्तर
आप श्री महाराज जी के प्रवचन सुनते हैं और आपने कुछ तत्वज्ञान पा लिया है
तत्वज्ञान को परिपक्व करने और जिज्ञासा शांत करने हेतु वेद-शास्त्र गुरु से विनम्रता पूर्वक प्रश्न पूछने की सलाह देते हैं, जिससे भक्ति से संबंधित तत्व ज्ञान अच्छे से बुद्धि में बैठ जाये । और यह उन सवालों में से एक है ।
पहले मैं आपको संक्षिप्त उत्तर दे दूँ । "भगवान् की कोई अपूर्ण इच्छा नहीं है, किसी से कोई स्वार्थ नहीं है, अतः कोई उसके किसी स्वार्थ की हानी भी नहीं कर सकता । इसलिए, भगवान् का प्रत्येक कार्य जीवों के कल्याण के लिए ही होता है।"
अब, भगवान् का आदेश "केवल मुझसे ही प्यार करो" को समझने के लिये थोड़ी गहराई में चलिये ।
आप कहते हैं कि भगवान् माया से परे है अतः मायिक विकार उस पर हावी नहीं हो सकते । फिर भी भगवान् चाहता है कि हम केवल उससे प्रेम करें। हमारे स्वार्थी संसार में भी एक व्यक्ति कई लोगों से प्यार करता है यथा पिता, माता, भाई, बहनें, स्त्री-पति, बच्चे, मित्र आदि। कोई ईर्ष्या नहीं करता । तो फिर भगवान् को इतनी ईर्ष्या क्यों है?
उत्तर
आप श्री महाराज जी के प्रवचन सुनते हैं और आपने कुछ तत्वज्ञान पा लिया है
- प्रत्येक जीव प्रत्येक कार्य अपने सुख के लिए ही करता है।
- भगवान् माया के स्वामी हैं। माया के विकारों से परे हैं ।
तत्वज्ञान को परिपक्व करने और जिज्ञासा शांत करने हेतु वेद-शास्त्र गुरु से विनम्रता पूर्वक प्रश्न पूछने की सलाह देते हैं, जिससे भक्ति से संबंधित तत्व ज्ञान अच्छे से बुद्धि में बैठ जाये । और यह उन सवालों में से एक है ।
पहले मैं आपको संक्षिप्त उत्तर दे दूँ । "भगवान् की कोई अपूर्ण इच्छा नहीं है, किसी से कोई स्वार्थ नहीं है, अतः कोई उसके किसी स्वार्थ की हानी भी नहीं कर सकता । इसलिए, भगवान् का प्रत्येक कार्य जीवों के कल्याण के लिए ही होता है।"
अब, भगवान् का आदेश "केवल मुझसे ही प्यार करो" को समझने के लिये थोड़ी गहराई में चलिये ।
भगवद् गीता में, भगवान श्री कृष्ण ने "अनन्यता" पर जोर देते हैं । भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं
मामेकं शरणं ब्रज ॥
"केवल मेरे ही प्रति समर्पण करो"।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
गीता 9.22
गीता 9.22
"जो लोग निरंतर मेरा ध्यान करते हैं और निःस्वार्थ भाव से केवल मेरी सेवा करते हैं, मैं उनका योगक्षेम वहन करता हूँ"।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय॥
गीता 12.8
गीता 12.8
"अपनी मन-बुद्धि केवल मुझे समर्पित कर दो"।
गीता के इन सभी श्लोकों में श्री कृष्ण ने प्रायः एव शब्द का प्रयोग किया है। संस्कृत में "एव" शब्द का अर्थ "केवल" होता है। तो इन सभी श्लोकों में श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए अपना मन उनमें और केवल उन्हीं में लगाओ।
इस संसार में, हम कई लोगों से प्यार करते हैं, अपनी माँ, पिता, भाई, बहन, स्त्री-पति, बच्चे, अन्य रिश्तेदार, दोस्त आदि और किसी को आपत्ति नहीं है । कोई नहीं कहता हमसे ही प्यार करो । परंतु गीता के अनुसार भगवान ने कृपा प्राप्त करने के लिये बड़ी विचित्र शर्त रखी है कि मुझसे और केवल मुझसे ही प्रेम करो (मामेकं शरणं ब्रज)। तभी मैं तुम पर कृपा करूँगा [1] ।
हमारे दैनिक जीवन में ऐसे शब्दों का प्रयोग ईर्ष्या के कारण होता है । उस अनुभव के कारण कई लोग भोलेपन से भगवान् के शब्दों का भी वही अर्थ लगा लेते हैं ।
गीता के इन सभी श्लोकों में श्री कृष्ण ने प्रायः एव शब्द का प्रयोग किया है। संस्कृत में "एव" शब्द का अर्थ "केवल" होता है। तो इन सभी श्लोकों में श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए अपना मन उनमें और केवल उन्हीं में लगाओ।
इस संसार में, हम कई लोगों से प्यार करते हैं, अपनी माँ, पिता, भाई, बहन, स्त्री-पति, बच्चे, अन्य रिश्तेदार, दोस्त आदि और किसी को आपत्ति नहीं है । कोई नहीं कहता हमसे ही प्यार करो । परंतु गीता के अनुसार भगवान ने कृपा प्राप्त करने के लिये बड़ी विचित्र शर्त रखी है कि मुझसे और केवल मुझसे ही प्रेम करो (मामेकं शरणं ब्रज)। तभी मैं तुम पर कृपा करूँगा [1] ।
हमारे दैनिक जीवन में ऐसे शब्दों का प्रयोग ईर्ष्या के कारण होता है । उस अनुभव के कारण कई लोग भोलेपन से भगवान् के शब्दों का भी वही अर्थ लगा लेते हैं ।
नहीं भगवान् ईर्ष्यालु नहीं है। ईर्ष्या माया का एक गुण है । माया भगवान् की दासी है स्वामिनी नहीं है। उसके गुण भगवान् पर हावी नहीं हो सकते । अत: भगवान् ईर्ष्यालु नहीं है और न कभी ईर्ष्यालु हो सकता है। फिर भी भगवान् "केवल मुझ से ही प्रेम करो" सलाह देता है । अनन्यता के इस प्रतिबंध के पीछे क्या कारण है?
सबका अनुभव है कि जीवनकाल में अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों के प्रति हमारा लगाव बढ़ जाता है, उदाहरण के लिए बच्चे का माता-पिता से घनिष्ठ संबन्ध होता है, युवावस्था में स्त्री-पति का संबन्ध घनिष्ठ हो जाता है और माता-पिता से कम हो जाता है । तदनन्तर बाल-बच्चों से घनिष्ठता हो जाती है और स्त्री-पति को कोई आपत्ति नहीं होती।
परंतु, जब जीव की रुचि भगवान् में होने लगती है और भगवदीय क्षेत्र में वह अपना अधिकांश समय व्यतीत करने लगता है, तो उसके परिवार के सदस्य विरोध करते हैं, क्रोध करते हैं और उस जीव को भगवान् की ओर जाने से रोकने का भरसक प्रयास करते हैं। इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण मौजूद हैं जहाँ प्रह्लाद, मीराबाई, तुकाराम, तुलसीदास, कबीरदास आदि संतों को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा।
जिस प्रकार संसारी जीवों को किसी जीव का भगवान् से प्रेम करना पसंद नहीं आता, उसी प्रकार भगवान् को भी किसी जीव का संसारी वस्तु या व्यक्ति से प्रेम करना पसंद नहीं आता ।
जीव के प्रेमास्पद बनने से भगवान् को कोई लाभ नहीं होता, फिर भी भगवान् जीव को भगवान् को प्रेमास्पद बनने को कहता है क्योंकि उससे जीव को लाभ होगा । याद रहे भगवान् क प्रत्येक कार्य लोकहितार्थ ही होता है !
परंतु, जब जीव की रुचि भगवान् में होने लगती है और भगवदीय क्षेत्र में वह अपना अधिकांश समय व्यतीत करने लगता है, तो उसके परिवार के सदस्य विरोध करते हैं, क्रोध करते हैं और उस जीव को भगवान् की ओर जाने से रोकने का भरसक प्रयास करते हैं। इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण मौजूद हैं जहाँ प्रह्लाद, मीराबाई, तुकाराम, तुलसीदास, कबीरदास आदि संतों को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा।
जिस प्रकार संसारी जीवों को किसी जीव का भगवान् से प्रेम करना पसंद नहीं आता, उसी प्रकार भगवान् को भी किसी जीव का संसारी वस्तु या व्यक्ति से प्रेम करना पसंद नहीं आता ।
जीव के प्रेमास्पद बनने से भगवान् को कोई लाभ नहीं होता, फिर भी भगवान् जीव को भगवान् को प्रेमास्पद बनने को कहता है क्योंकि उससे जीव को लाभ होगा । याद रहे भगवान् क प्रत्येक कार्य लोकहितार्थ ही होता है !
भगवान् के असंख्य नाम, गुण, धाम और प्रेमी भक्त हैं। यदि जीव उनमें से किसी एक (या सभी) से प्रेम करता है, तो भगवान् प्रसन्न होता है । अनेक भगवद्प्राप्त संतों से प्रेम करने पर भी वह जीव अनन्य भक्त कहलाता है। दूसरे शब्दों में, जीव को दैवीय क्षेत्र की किसी भी वस्तु या व्यक्ति से भी प्रेम करने की स्वतंत्रता है। लेकिन भगवान् नहीं चाहते कि आप किसी संसारी जड़ वस्तु या चेतन प्राणी से प्रेम करें।
वज़ह साफ है। भगवान् हमारा सनातन संबंधी [2][3][4][5] और सच्चा हितैषी है। वह चाहता है कि हम जीवन का लक्ष्य प्राप्त करें और अनंत काल के लिये आनंदमय हो जायें । यदि आप मायिक जगत् से प्रेम करते हैं, तो उनके प्रति आप की आसक्ति बढ़ जाती है। इस प्रकार, आप पर माया और अधिक हावी होती है और मायिक विकार (काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या इत्यादि) कस के जकड़ लेते हैं [6] । जिससे आप पहले से भी अधिक दुःखी हो जाते हैं।
वज़ह साफ है। भगवान् हमारा सनातन संबंधी [2][3][4][5] और सच्चा हितैषी है। वह चाहता है कि हम जीवन का लक्ष्य प्राप्त करें और अनंत काल के लिये आनंदमय हो जायें । यदि आप मायिक जगत् से प्रेम करते हैं, तो उनके प्रति आप की आसक्ति बढ़ जाती है। इस प्रकार, आप पर माया और अधिक हावी होती है और मायिक विकार (काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या इत्यादि) कस के जकड़ लेते हैं [6] । जिससे आप पहले से भी अधिक दुःखी हो जाते हैं।
भगवान् ही आनंद है । जब कोई भगवान् से प्रेम करता है तो उसका मन आनंद में तन्मय तल्लीन हो जाता है। इस प्रकार साधक को प्रतिक्षण वर्धमान आनंद की अनुभूति होती है। जैसे-जैसे आप मन को अधिकाधिक भगवान् से जोड़ते जाते हैं, संसार से स्वतः विरक्ति होती जायेगी [7], जिससे मन शुद्ध हो जाता है। एक बार जब मन पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाता है, तो गुरु मन को दिव्य बना देते हैं और भगवान् का प्रेम दान कर देते हैं। प्रेम दान के उपरांत ही भक्त भगवान् को देख सकता है [8][9] और उनकी दिव्य शक्तियों [10][11], दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर सकता है और हमेशा के लिए उनके दिव्य लोक में वास करता है।
हमेशा याद रखें कि माया और भगवान् दोनों एक मन में वास नहीं रह सकते। जब माया जायेगी तब भगवान् आयेंगे। जैसा कि संत कबीरदास ने कहा था -
प्रेम गली सांकरी, तामें दो ना समाहिं ।
“प्रेम का मार्ग संकीर्ण है। इसमें माया और भगवान दोनों नहीं रह सकते।”
गुरु, या कोई भी भगवद्प्राप्त संत भगवान् से भिन्न नहीं है। भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और उनके संत, सब दिव्य हैं । वे सभी हर समय एक-दूसरे में निवास करते हैं। जब आप संतों से प्रेम करते हैं तो भगवान् अति प्रसन्न होते हैं। दरअसल, श्रीमद्भागवत महापुराण 11.19.21 में श्रीकृष्ण ने कहा है, "मुझे मेरे भक्त की उपासना करने वाला मेरी उपासना करने वाले से अधिक प्रिय है।"
हमेशा याद रखें कि माया और भगवान् दोनों एक मन में वास नहीं रह सकते। जब माया जायेगी तब भगवान् आयेंगे। जैसा कि संत कबीरदास ने कहा था -
प्रेम गली सांकरी, तामें दो ना समाहिं ।
“प्रेम का मार्ग संकीर्ण है। इसमें माया और भगवान दोनों नहीं रह सकते।”
गुरु, या कोई भी भगवद्प्राप्त संत भगवान् से भिन्न नहीं है। भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और उनके संत, सब दिव्य हैं । वे सभी हर समय एक-दूसरे में निवास करते हैं। जब आप संतों से प्रेम करते हैं तो भगवान् अति प्रसन्न होते हैं। दरअसल, श्रीमद्भागवत महापुराण 11.19.21 में श्रीकृष्ण ने कहा है, "मुझे मेरे भक्त की उपासना करने वाला मेरी उपासना करने वाले से अधिक प्रिय है।"
तो, भगवान् ईर्ष्यालु नहीं है । भगवान् जीव को अनंतकाल के लिये, प्रतिक्षण वर्धमान, नित्य-नवायमान आनन्द प्रदान करना चाहता है [12]। भगवान् के नियम के अनुसार वह आनंद केवल दिव्य मन में ही प्रदान किया जा सकता है। जीव को आनंदित करने की उत्कट इच्छा से प्रेरित होकर, वे जीव को मायिक संसार के प्रति आसक्ति त्यागने की सलाह दे रहे हैं । केवल उनके नाम, रूप, लीलाओं, गुणों और उनके संतों से प्रेम करके मन को शुद्ध करो। उनसे प्रेम करने से मन पवित्र हो जाता है। एक बार जब मन पूर्ण रूप से मायिक वस्तुओं की आसक्ति से रहित हो जाता है [13], तो गुरु मन को दिव्य बना देते हैं और उसमें दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं। इसके बाद जीव को असीम आनंद की प्राप्ति होती है ।
कामना अटैचमेन्ट के कारण होती है और अटैचमेन्ट बार बार चिन्तन के कारण होता है॥
- Jagadguru Kripalu Ji Maharaj
- Jagadguru Kripalu Ji Maharaj