प्रत्येक जीव को संसार में भेजने से पूर्व भगवान् उसे 5 कर्मेन्द्रियाँ और 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन, एक बुद्धि, एक स्थूल मायिक शरीर और पँच प्राण देते हैं। इन सभी को त्रिशरीर में विभाजित किया गया है । ये तीन शरीर अनादि काल से जीव के साथ जुड़े हुए हैं । इन्हीं को पंचकोश भी में विभाजित किया गया है ।
पंच का अर्थ है पाँच और कोष का अर्थ है आवरण । उपनिषदों के अनुसार जीव पाँच आवरणों से ढका हुआ है जिन्हें कोष कहा जाता है । इन पाँच आवरणों के कारण जीव अपना स्वरूप भूला हुआ है । जीव स्वयं को शरीर मानने लगा । यह आनादिकालीन स्थिती है । स्वयं को शरीर मानने के कारण हम संसारी सुखों की खोज में रत हैं । अतः उन में आसक्ति होने के कारण मन मायिक विकारों का घर बन गया है ।
इन 5 आवरणों का संक्षेप में वर्णन नीचे दिया गया है
पंच का अर्थ है पाँच और कोष का अर्थ है आवरण । उपनिषदों के अनुसार जीव पाँच आवरणों से ढका हुआ है जिन्हें कोष कहा जाता है । इन पाँच आवरणों के कारण जीव अपना स्वरूप भूला हुआ है । जीव स्वयं को शरीर मानने लगा । यह आनादिकालीन स्थिती है । स्वयं को शरीर मानने के कारण हम संसारी सुखों की खोज में रत हैं । अतः उन में आसक्ति होने के कारण मन मायिक विकारों का घर बन गया है ।
इन 5 आवरणों का संक्षेप में वर्णन नीचे दिया गया है
1. अन्नमय कोष सबसे बाहरी आवरण है। यह आवरण 5 कर्मेन्द्रियों, 5 ज्ञानेन्द्रिय और हाड-मांस के स्थूल शरीर से बना है।
स्थूल शरीर अन्न से निर्मित और पोषित होता है । मृत्यु के बाद यह स्थूल शरीर पुनः पृथ्वि में विलीन होकर अन्य जीवों का पोषण करता है। स्थूल शरीर अन्य 2 शरीरों (अर्थात सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर) और अन्य 4 आवरणों की नींव है। इसीलिए स्थूल शरीर (अन्नमय कोष पर निर्भर और अन्न द्वारा पोषित) भगवद्-प्राप्ति के लिए नितांत आवश्यक है। जो भोजन हम ग्रहण करते हैं उसके एक चौथाई भाग से जीव का मन एवं प्रवृत्तियाँ बनती हैं ।
मृत्युपरांत जीव का शरीर, स्वभाव, कौशल आदि का निर्माण अन्नमय कोष पर निर्भर करता है । यह हमारे द्वारा ग्रहण किए गए भोजन से बनता है। इस प्रकार, संपूर्ण व्यक्तित्व (शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक) का विकास अन्नमय कोष में सुधार के साथ आरंभ होता है।
जो जीव अन्नमय कोष को लाँघ जाता है, वह ईश्वर प्राप्ति के एक पग समीप पहुँच जाता है। प्रथम आवरण को पार करने के बाद जीव को भूख नहीं लगती । खाने या न खाने से स्थूल शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
स्थूल शरीर अन्न से निर्मित और पोषित होता है । मृत्यु के बाद यह स्थूल शरीर पुनः पृथ्वि में विलीन होकर अन्य जीवों का पोषण करता है। स्थूल शरीर अन्य 2 शरीरों (अर्थात सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर) और अन्य 4 आवरणों की नींव है। इसीलिए स्थूल शरीर (अन्नमय कोष पर निर्भर और अन्न द्वारा पोषित) भगवद्-प्राप्ति के लिए नितांत आवश्यक है। जो भोजन हम ग्रहण करते हैं उसके एक चौथाई भाग से जीव का मन एवं प्रवृत्तियाँ बनती हैं ।
मृत्युपरांत जीव का शरीर, स्वभाव, कौशल आदि का निर्माण अन्नमय कोष पर निर्भर करता है । यह हमारे द्वारा ग्रहण किए गए भोजन से बनता है। इस प्रकार, संपूर्ण व्यक्तित्व (शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक) का विकास अन्नमय कोष में सुधार के साथ आरंभ होता है।
जो जीव अन्नमय कोष को लाँघ जाता है, वह ईश्वर प्राप्ति के एक पग समीप पहुँच जाता है। प्रथम आवरण को पार करने के बाद जीव को भूख नहीं लगती । खाने या न खाने से स्थूल शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
2. प्राणमय कोष दूसरा कोष है जिसका शाब्दिक अर्थ वायु कोष है। यह अन्नमय कोष से भिन्न है और अन्नमय कोष के भीतर रहता है। इसका निर्माण पंचप्राण और 5 कर्मेन्द्रियाँ से होता है ।
इस आवरण में वायु अनिवार्य है। यह धौंकनी के समान अन्नमय कोष को हवा से भर देता है।
प्रायः जीव को प्राण (वायु) से सम्बोधित किया जाता है जैसे जीव के जाने से शरीर मृत हो गया को "प्राण पखेरू उड़ गये" भी कहते हैं । परन्तु ऐसा नहीं है । आप समझ लीजिये कि जीव दिव्य सतातन है और भगवान् का अंश है । इसके विपरीत प्राणमय कोष मायिक आवरण है।
यह आवरण शरीर और मन में सामंजस्य, संतुलन और शांति बनाए रखता है। जब तक शरीर में जीव रहता है तब तक प्राणमय कोष काम करना बंद नहीं करता। वायु को श्वास द्वारा जाना जा सकता है। ये प्राण 5 प्रकार के होते हैं और इन्हें सम्मिलित रूप से पंचप्राण कहा जाता है।
इस कोष को पार करने के बाद जीव पर वायु की कमी का असर नहीं पड़ता ।
इस आवरण में वायु अनिवार्य है। यह धौंकनी के समान अन्नमय कोष को हवा से भर देता है।
प्रायः जीव को प्राण (वायु) से सम्बोधित किया जाता है जैसे जीव के जाने से शरीर मृत हो गया को "प्राण पखेरू उड़ गये" भी कहते हैं । परन्तु ऐसा नहीं है । आप समझ लीजिये कि जीव दिव्य सतातन है और भगवान् का अंश है । इसके विपरीत प्राणमय कोष मायिक आवरण है।
यह आवरण शरीर और मन में सामंजस्य, संतुलन और शांति बनाए रखता है। जब तक शरीर में जीव रहता है तब तक प्राणमय कोष काम करना बंद नहीं करता। वायु को श्वास द्वारा जाना जा सकता है। ये प्राण 5 प्रकार के होते हैं और इन्हें सम्मिलित रूप से पंचप्राण कहा जाता है।
इस कोष को पार करने के बाद जीव पर वायु की कमी का असर नहीं पड़ता ।
3. मनोमय कोष मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों से बनता है ।
इन्दियाँ मन के आधीन हैं । इसलिये मन संकल्प-विकल्प करता है, महसूस करता है और कामनाएँ बनाता है। पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ मन में अंतर्निहित हैं। अतः मन ही मुक्ति और बंधन दोनों का एकमात्र कारण है। यह बहुत शक्तिशाली है! फिर भी, बुद्धि मन को नियंत्रित करती है । बुद्धि जो निर्णय लेती है मन उसी का अनुसरण करता है। और बुद्धि का निर्णय उसके मार्गदर्शक पर निर्भर करता है। इसीलिए हमारे शास्त्र अपनी बुद्धि को वास्तविक संत की बुद्धि से जोड़ने की सलाह देते हैं।।
ईश्वर-प्राप्त संत वास्तविक सुख का मार्ग बताते हैं । जब किसी की बुद्धि ईश्वर-प्राप्त संतों का अनुसरण करने का निर्णय लेती है तब मन एकाग्र होकर वास्तविक आनंद की ओर बढ़ता है ।
मनोमय कोष को पार करने के बाद भोजन, वातावरण, जलवायु आदि का प्रभाव शरीर-मन पर नहीं पड़ता है ।
इन्दियाँ मन के आधीन हैं । इसलिये मन संकल्प-विकल्प करता है, महसूस करता है और कामनाएँ बनाता है। पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ मन में अंतर्निहित हैं। अतः मन ही मुक्ति और बंधन दोनों का एकमात्र कारण है। यह बहुत शक्तिशाली है! फिर भी, बुद्धि मन को नियंत्रित करती है । बुद्धि जो निर्णय लेती है मन उसी का अनुसरण करता है। और बुद्धि का निर्णय उसके मार्गदर्शक पर निर्भर करता है। इसीलिए हमारे शास्त्र अपनी बुद्धि को वास्तविक संत की बुद्धि से जोड़ने की सलाह देते हैं।।
ईश्वर-प्राप्त संत वास्तविक सुख का मार्ग बताते हैं । जब किसी की बुद्धि ईश्वर-प्राप्त संतों का अनुसरण करने का निर्णय लेती है तब मन एकाग्र होकर वास्तविक आनंद की ओर बढ़ता है ।
मनोमय कोष को पार करने के बाद भोजन, वातावरण, जलवायु आदि का प्रभाव शरीर-मन पर नहीं पड़ता है ।
4. विज्ञानमय कोष बौद्धिक कोष है । विज्ञान का अर्थ है दृढ़ निश्चयी बुद्धि । यह कोष बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों से बनता है।
यह कोष मनोमय कोष से भी सूक्ष्म है और मनोमय कोष में व्याप्त है । इस कोष को भी गलती से जीव मान लिया जाता है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि विज्ञानमय कोष मायिक है, जड़ है, सदैव परिवर्तनशील है । जबकि जीव दिव्य, चेतन एवं अपरिवर्तनशील है ।
तर्क करना इस कोष का मुख्य कार्य है। देहाभिमान की उत्पत्ति भी इसी कोष से होती है। अहंकार (महान से उत्पन्न होने वाला) का दृढ़ ज्ञान कर लेने वाला जीव विज्ञानमय या विज्ञान से संपन्न जीव कहा जाता है ।
यह कोष मनोमय कोष से भी सूक्ष्म है और मनोमय कोष में व्याप्त है । इस कोष को भी गलती से जीव मान लिया जाता है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि विज्ञानमय कोष मायिक है, जड़ है, सदैव परिवर्तनशील है । जबकि जीव दिव्य, चेतन एवं अपरिवर्तनशील है ।
तर्क करना इस कोष का मुख्य कार्य है। देहाभिमान की उत्पत्ति भी इसी कोष से होती है। अहंकार (महान से उत्पन्न होने वाला) का दृढ़ ज्ञान कर लेने वाला जीव विज्ञानमय या विज्ञान से संपन्न जीव कहा जाता है ।
5. आनंदमय कोष आनंद का एक कोष है । यह कारण शरीर पर निर्भर होता है ।
पूर्व के चार कोषों का भेदन करके अंतरतम आवरण में प्रवेश करने पर आत्मज्ञान हो जाता है । ऐसा होने पर मन को जीव केआनंद की प्राप्ति होती है । इस आवरण में अब तक प्राप्त अन्य सभी आनंदों की तुलना में अधिक आनंद की अनुभूति होती है। इस आनंद की झलक हम सभी को सुषुप्ति (स्वप्न रहित निद्रा) की अवस्था में होती है। परंतु जो विज्ञानमय कोष की सीमा को पार कर जाता है वह उसे स्थायी रूप से प्राप्त कर लेता है [1] । हालाँकि, यह ईश्वर का आनंद नहीं है[2][3], फिर भी यह इतना बड़ा आनंद होता है कि जीव ब्रह्मलोक के सुख [4] सहित अन्य सभी प्रकार के सुखों को स्वेच्छा से त्याग देता है।
पूर्व के चार कोषों का भेदन करके अंतरतम आवरण में प्रवेश करने पर आत्मज्ञान हो जाता है । ऐसा होने पर मन को जीव केआनंद की प्राप्ति होती है । इस आवरण में अब तक प्राप्त अन्य सभी आनंदों की तुलना में अधिक आनंद की अनुभूति होती है। इस आनंद की झलक हम सभी को सुषुप्ति (स्वप्न रहित निद्रा) की अवस्था में होती है। परंतु जो विज्ञानमय कोष की सीमा को पार कर जाता है वह उसे स्थायी रूप से प्राप्त कर लेता है [1] । हालाँकि, यह ईश्वर का आनंद नहीं है[2][3], फिर भी यह इतना बड़ा आनंद होता है कि जीव ब्रह्मलोक के सुख [4] सहित अन्य सभी प्रकार के सुखों को स्वेच्छा से त्याग देता है।