2009 Guru Poornima
Philosophy
Homage to Maa PadmaGuru is God-in-person |
Kripalu Leelamritam
श्री वृन्दावन धाम व श्री गोलोकधामवासिनी माँ पद्मा से जुड़ी अलौकिक घटनाएँएक-प्रच्छन्न-दिव्य-विभूति |
Kids Story
Is there no God? |
Philosophy
शत प्रणाम स्वीकारो ।
śata praṇāma svīkāro ।
Accept my countless obeisance.
हे माँ पद्मा ! हे जगदम्बा ! शत प्रणाम स्वीकारो ।
he mām̐ padmā ! he jagadambā ! śata praṇāma svīkāro ।
O Mother Padma! O Mother of the entire creation! Accept my countless obeisance.
बिनु कारण करुणा कारिणि तुम, करुणा कर सिर धारो,
binu kāraṇa karuṇā kāriṇi tuma, karuṇā kara sira dhāro,
Oh causelessly merciful Mother! Place Your merciful hand on my head.
हौं अति पतित, पतित - पावनि तुम, यह निज विरद विचारो ।
hauṁ ati patita, patita - pāvani tuma, yaha nija virada vicāro ।
I am extremely sinful and You are the purifier of sinners. Reflect on Your merciful nature and grace me.
तुम अरु गुरुवर इक हौं जानत, दृढ़ विश्वास हमारो,
tuma aru guruvara ika hauṁ jānata, dr̥ḍha़ viśvāsa hamāro,
I have firm faith that You and Gurudev are one.
अब गुरुवर - दर्शन महँ दर्शन, पाऊँ नित्य तिहारो ।
aba guruvara - darśana maham̐ darśana, pāūm̐ nitya tihāro ।
Please bless me, so that I may always see You in my Guru.
करहु कृपा अस निज दृगजल सों, गुरुवर चरण पखारों,
karahu kr̥pā asa nija dr̥gajala soṁ, guruvara caraṇa pakhāroṁ,
Grace me so that I may wash Gurudev’s lotus feet with my tears. Mother!
बरबस लेकर मम मन माँ तुम, हमरी दशा सुधारो ॥
barabasa lekara mama mana mām̐ tuma, hamarī daśā sudhāro ॥
Take my mind away from me forcibly and remedy my situation.
ब्रज बनचरी दीदी जी, अप्रैल १२, २००९
Braj Banchary April 12, 2009
śata praṇāma svīkāro ।
Accept my countless obeisance.
हे माँ पद्मा ! हे जगदम्बा ! शत प्रणाम स्वीकारो ।
he mām̐ padmā ! he jagadambā ! śata praṇāma svīkāro ।
O Mother Padma! O Mother of the entire creation! Accept my countless obeisance.
बिनु कारण करुणा कारिणि तुम, करुणा कर सिर धारो,
binu kāraṇa karuṇā kāriṇi tuma, karuṇā kara sira dhāro,
Oh causelessly merciful Mother! Place Your merciful hand on my head.
हौं अति पतित, पतित - पावनि तुम, यह निज विरद विचारो ।
hauṁ ati patita, patita - pāvani tuma, yaha nija virada vicāro ।
I am extremely sinful and You are the purifier of sinners. Reflect on Your merciful nature and grace me.
तुम अरु गुरुवर इक हौं जानत, दृढ़ विश्वास हमारो,
tuma aru guruvara ika hauṁ jānata, dr̥ḍha़ viśvāsa hamāro,
I have firm faith that You and Gurudev are one.
अब गुरुवर - दर्शन महँ दर्शन, पाऊँ नित्य तिहारो ।
aba guruvara - darśana maham̐ darśana, pāūm̐ nitya tihāro ।
Please bless me, so that I may always see You in my Guru.
करहु कृपा अस निज दृगजल सों, गुरुवर चरण पखारों,
karahu kr̥pā asa nija dr̥gajala soṁ, guruvara caraṇa pakhāroṁ,
Grace me so that I may wash Gurudev’s lotus feet with my tears. Mother!
बरबस लेकर मम मन माँ तुम, हमरी दशा सुधारो ॥
barabasa lekara mama mana mām̐ tuma, hamarī daśā sudhāro ॥
Take my mind away from me forcibly and remedy my situation.
ब्रज बनचरी दीदी जी, अप्रैल १२, २००९
Braj Banchary April 12, 2009
कृपालु लीलामृतम्
श्री वृन्दावन धाम श्रीराधाकृष्ण की दिव्य क्रीड़ा स्थली है । जो आज भी रसिकों का प्राण व उनका प्रमुख आकर्षण केन्द्र है । श्री राधाकृष्ण संबंधी पर्वों पर तो इस अलौकिक तीर्थ पर इतनी भीड़ हो जाती है कि प्रमुख मार्गों पर श्रीकृष्ण भक्तों का ताँता ही लगा रहता है । समस्त वाड्.मय (वातावरण) मधुरातिमधुर "राधे" नाम के दिव्य उच्चारण से गुंजायमन रहता है । यह वह नगरी है जहाँ के मोर, तोते, कोयल आदि पक्षी भी राधे राधे कह कूजते रहते हैं । श्री राधा कृष्ण के प्रेमी विरक्त संतो का तो यह गढ़ है । हजारों साधु भगवन्नाम लेते हुये, श्रीराधा रानी के सहारे कहीं भी सोकर और कुछ भी प्रसाद रूप में पाकर, यमुना का जलपान कर के आनंद से रहते हैं।
इसी दिव्य वृन्दावन धाम में वर्तमान काल में सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र है श्री श्यामा श्याम धाम नामक आश्रम । यह आश्रम जगद् गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रेरणा व अथक प्रयास से सन् 1993 में निर्मित हुआ था । तब से हजारों कृष्ण भक्तों के लिये यह परमाश्रय बना हुआ है। यहाँ साधकों को उपदेश व अभ्यास द्वारा परम निष्काम हो कर, माधुर्यभाव से श्री राधाकृष्ण की अनन्य भक्ति करने का निरन्तर अभ्यास कराया जाता है ।
इस वृन्दावन धाम में श्रद्धालु भक्तजन प्रायः साधु भोज, भंडारा आदि आयोजित करते रहते हैं और अपनी-अपनी श्रद्धा, क्षमता व दानशीलता के अनुसार साधुओं को आमंत्रित कर भोजन व वस्त्र आदि की भेंट देकर उनका सम्मान करते हैं ।
इसी दिव्य वृन्दावन धाम में वर्तमान काल में सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र है श्री श्यामा श्याम धाम नामक आश्रम । यह आश्रम जगद् गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रेरणा व अथक प्रयास से सन् 1993 में निर्मित हुआ था । तब से हजारों कृष्ण भक्तों के लिये यह परमाश्रय बना हुआ है। यहाँ साधकों को उपदेश व अभ्यास द्वारा परम निष्काम हो कर, माधुर्यभाव से श्री राधाकृष्ण की अनन्य भक्ति करने का निरन्तर अभ्यास कराया जाता है ।
इस वृन्दावन धाम में श्रद्धालु भक्तजन प्रायः साधु भोज, भंडारा आदि आयोजित करते रहते हैं और अपनी-अपनी श्रद्धा, क्षमता व दानशीलता के अनुसार साधुओं को आमंत्रित कर भोजन व वस्त्र आदि की भेंट देकर उनका सम्मान करते हैं ।
अलौकिक त्यागमूर्ति - माँ पद्मा
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को भारत में भला कौन नहीं जानता, जो महत्तम संतों व विद्वानों द्वारा सदा सर्वदा पूजनीय हैं, जिन्हें काशी के मूर्द्धन्य विद्वानों द्वारा भी भक्तियोग रसावतार उपाधि से पूजित किया गया है । इन्होंने श्यामा श्याम धाम में भक्ति की गहन धारा को प्रवाहित कर अहर्निश हरिनाम ध्वनि व नित्य बढ़ती हुई भक्तों की संख्या से वृन्दावन की शोभा व गरिमा में चारचाँद लगा दिये है । इनके निश्छल व गहन प्रेम से लालित पालित, इनके हजारों भक्त जब देश-विदेश से इनके पास आते हैं तो दिवानों की भाँति इनके आगे पीछे इस प्रकार मँडराते रहते हैं, मानो इनकी सन्निधि के अतिरिक्त न कोई और सुख है, न संसार ।
श्री महाराज जी से हमें जो भी ममत्त्व और प्यार मिलता है उसका सारा श्रेय उनकी गोलोक वासिनी धर्मपत्नी श्रीमती पद्मा देवी को है । जिन्होंने अपने संपूर्ण जीवन का समस्त सुख केवल पति की प्रसन्नता में ही न्योछावर कर दिया । और इस प्रकार गुरुदेव को अपने लक्ष्य संबंधी कार्यक्रमों के सफल प्रयासों के लिये उन्हें पूर्णतया निर्बन्ध कर दिया । स्वयं अपने पातिव्रत धर्म के सहारे वर्षों त्याग, वैराग्य का जीवन जीती रहीं ।
श्रीमती पद्मा देवी (हमारी अम्मा जी ) मनगढ़ से लगभग ५० मील की दूरी पर स्थित, प्रतापगढ़ जिले के लीलापुर ग्राम निवासी श्री कृष्णकुमार ओझा व श्रीमती राम रती ओझा की सुपुत्री हैं । इनके पिता एक बड़े जमींदार व गणित के अध्यापक थे और इन्हीं के समान अति सरल व उच्चकोटि के भक्त थे । इनके पितामह पंडित माधव प्रसाद ओझा एक प्रख्यात ज्योतिषाचार्य व प्रकांड विद्वान् थे । वस्तुतः उन्होंने ही श्री महाराज जी को पहिचाना व उन के बाल्यकाल संबंधी लौकिक कौतुक व ख्याति से प्रभावित हो कर इन्होंने अपनी सर्वगुण सम्पन्न व अति सुन्दर पौत्री का हाथ श्री महाराजजी को देने का निश्चय कर लिया और तत्कालीन भारतीय ग्रामीण परम्परा के अनुसार बाल्यकाल में ही दोनों का विवाह हो गया था । विवाह के दूसरे दिन 'खिचड़ी' नामक उत्सव के अवसर पर पितामह श्री माधव प्रसाद जी ने दोनों की कुंडली पढ़ कर सुनाई और सबको इस बात से अवगत कराया कि दोनों की कुंडली में दोनों के पचीसों गुण एक सम हैं । ऐसा संसार में कहीं संभव नहीं होता । कुछ गुणों की साम्यता ही दुर्लभ है, पचीसों की कौन कहे ? उन्होंने उपस्थि जन समूह के सामने यह भी घोषणा की थी कि "आप सब से मेरा निवेदन है कि आज इनके ( महाराज जी ) दर्शन आप जी भर कर कर लें । भविष्य में इनको सारी दुनिया पूजेगी और इनके दर्शन अति दुर्लभ हो जायेंगे । ये कोई साधारण बालक नहीं हैं । इनकी कुंडली इस बात को प्रमाणित कर रही है कि साक्षात् भगवान् हमारे सम्मुख बैठे हैं । क्योंकि ये लक्षण भगवान् के अतिरिक्त किसी और में हो ही नहीं सकते । मैं अपनी पौत्री पद्मा को, जो इनके ही समान गुण व शील वाली है, इन के हाथों सौंपते हुये आज अपने आप को परम गौरवान्वित व प्रत्यक्षतः विशेष भगवत् कृपा का पात्र अनुभव कर रहा हूँ । अपनी ज्योतिष विद्या के आधार पर भी मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि एक दिन यह बालक अपने ज्ञानदीप से सारे विश्व को आलोकित करेगा । यह एक अद्वितीय महापुरुष है।" तब से इनके माता-पिता व पितामह श्री महाराज जी व अपनी पुत्री (पद्मा देवी ) में सदैव भगवद् बुद्धि ही रखते थे । अम्मा जी के परिवार वालों का यह कहना है कि इनके जन्म के बाद से घर की समृद्धि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी थी । यही बात मनगढ़ की समृद्धि के लिये भी घटित होती है । इससे भी इनके महालक्ष्मी के अवतार होने की संपुष्टि होती है ।
श्री महाराज जी तो प्रायः बाहर ही रहते थे । पहले शिक्षा के कारण और बाद में अपने प्रचार कार्य के कारण । अतः अम्मा जी अपने अविचल प्रेम व त्याग का अखंड दीपक जलाए अधिकतर लीलापुर या मनगढ़ में ही उनकी प्रतीक्षा में रत रहती थीं । सन् १९५६ तक अखिल भारत में अपने प्रचार कार्य के माध्यम से अपने शास्त्र वेद सम्मत, समन्वयात्मक अद्वितीय ज्ञान की पताका फहरा देने के पश्चात् व सन् १९५७ में जगद्गुरु बन जाने के पश्चात् श्रीमहाराज जी ने अपने जन्म स्थान श्री मनगढ़ धाम (उ. प्र. के प्रतापगढ़ जिले की तहसील कुण्डा का एक ग्राम) में एक साधना भवन का निर्माण करवाया । जहाँ सन् १९६४ से प्रति वर्ष एक माह का साधना शिविर होता है । तब से श्री महाराज जी लगभग दो माह के लिये मनगढ़ में रुकने लगे थे और अम्मा को उनके दर्शन, सेवा व सानिध्य का लाभ मिलने लगा था । तभी से सत्संगियों को भी उनका सम्पर्क प्राप्त कर के उनके दिव्य गुणों का अनुभव होने लगा था । उनके निश्छल स्नेह व ममता की सुखद छींटे हमें आह्लादित करने लगे थे और हम जानने लगे थे कि इनके ही चरण हमारी वास्तविक विश्राम-स्थली है। उनकी ही अनुकम्पा से श्री महाराजजी की सेवा का सौभाग्य व उनकी दिव्यता व महानता का आभास होने लगा था । एक वाक्य में हम यों कह सकते हैं कि आज गुरु चरणों में हमारा जितना भी अनुराग, विश्वास व निष्काम प्रेम है, उसकी आधारभूता हैं निष्कामता की परम मूर्ति हमारी माँ पद्मा । अतः श्री महाराज जी की सफलता में अम्मा श्री के त्याग व पातिव्रत को मुख्य स्तम्भ कहा जा सकता है ।
एक बार जब अम्मा की अवस्था बहुत कम थी, श्री महाराज जी की प्रतीक्षा में वर्षों बीत गये और वह अम्मा को दर्शन देने के लिये एक दिन को भी मनगढ़ नहीं गये । वे इस प्रतीक्षा मे शनैः शनैःथकने लगीं । निराश होकर उन्होंने व्रत ले लिया कि जब तक वे दर्शन नहीं देंगे हम भोजन नहीं करेंगे । छोटी सी अवस्था ! सुकोमल अङ्ग ! धीरे धीरे शरीर दुर्बल व कमजोर होने लगा । १-२ दिन के बाद श्री महाराज जी की माँ (आजी) व मौसी जो वहीं रहती थीं, को भी पता चला कि उनकी कोमलाङ्गी पुत्र वधू अपने पति के वियोग में दो दिन से कुछ नहीं खा रही तो उनका मन ऐसी सरल हृदया, पतिव्रता वधू के लिये विदीर्ण होने लगा । दोनों ने उनको अनेक प्रकार से मनाने व समझाने का प्रयास किया। मगर वह अपने निश्चय पर दृढ़ थी। श्री महाराज जी उस समय मेरे पिता श्री महाबनी जी के घर पर प्रतापगढ़ में थे। मौसी जी ने किसी प्रकार एक व्यक्ति भेजकर श्रीमहाराज जी को अम्मा जी का सारा वृतान्त बताया और उन से प्रार्थना की कि हमारी पुत्र वधू के प्राणों की रक्षा करो। श्री महाराज जी ने यह कह कर संदेश वाहक को वापस कर दिया कि "जब तक वह खाना नहीं खायेंगी,मैं नहीं आऊँगा । "मौसी ने पुनः अम्मा का संदेश भिजवाया कि "पद्मा का प्रण है कि बिना तुम्हारा दर्शन किये वह खाना नहीं खायेंगी ।" दोनों में ठन गई। दिन पर दिन बीतने लगे । कोई हार मानने को तैयार नहीं। अन्ततोगत्वा मौसी व आजी ने रो कर व स्वयं भोजन आदि त्याग कर भोरी भारी, परम दयामयी अपनी वधू को मना लिया । अपने गुरुजनों के आग्रह पर, व उन लोगों के कष्ट की बात सोचकर उनका सरल हृदय पसीज उठा और बात रखने के लिये उन्होंने मौसी आदि की आज्ञानुसार अत्यल्प मात्रा में जैसे ही कुछ आहार ग्रहण किया, श्रीमहाराज जी आ गये । जैसे वह पहले से मनगढ़ में ही थे । केवल उनके हठ तोड़ने की प्रतीक्षा कररहे थे। तब से हमारी भोरी अम्मा केवल "तत्सुखसुखित्वं" वाले प्रेम के सर्वोच्च आदर्श को गाँठ बाँधकर ही सुखपूर्वक जीवन यापन करती रहीं । क्योंकि यही तो श्री महाराज जी के दर्शन का पहिला सोपान व सर्वोच्च आदर्श भी है, जिसका वे नित्य-निरन्तर प्रचार कर रहे हैं । संभवतः जन साधारण को यही शिक्षा देने के लिये दोनों की यह अद्भुद लीला थी और माँ ने अप्रत्यक्ष रूप से इस लीला द्वारा भी पति के कार्यों में सहयोग देने वाले अपने पतिव्रत धर्म को ही निभाया था ।
हे निष्कामता व त्याग की मूर्ति ! तुमको शत शत प्रणाम है ।
श्री महाराज जी से हमें जो भी ममत्त्व और प्यार मिलता है उसका सारा श्रेय उनकी गोलोक वासिनी धर्मपत्नी श्रीमती पद्मा देवी को है । जिन्होंने अपने संपूर्ण जीवन का समस्त सुख केवल पति की प्रसन्नता में ही न्योछावर कर दिया । और इस प्रकार गुरुदेव को अपने लक्ष्य संबंधी कार्यक्रमों के सफल प्रयासों के लिये उन्हें पूर्णतया निर्बन्ध कर दिया । स्वयं अपने पातिव्रत धर्म के सहारे वर्षों त्याग, वैराग्य का जीवन जीती रहीं ।
श्रीमती पद्मा देवी (हमारी अम्मा जी ) मनगढ़ से लगभग ५० मील की दूरी पर स्थित, प्रतापगढ़ जिले के लीलापुर ग्राम निवासी श्री कृष्णकुमार ओझा व श्रीमती राम रती ओझा की सुपुत्री हैं । इनके पिता एक बड़े जमींदार व गणित के अध्यापक थे और इन्हीं के समान अति सरल व उच्चकोटि के भक्त थे । इनके पितामह पंडित माधव प्रसाद ओझा एक प्रख्यात ज्योतिषाचार्य व प्रकांड विद्वान् थे । वस्तुतः उन्होंने ही श्री महाराज जी को पहिचाना व उन के बाल्यकाल संबंधी लौकिक कौतुक व ख्याति से प्रभावित हो कर इन्होंने अपनी सर्वगुण सम्पन्न व अति सुन्दर पौत्री का हाथ श्री महाराजजी को देने का निश्चय कर लिया और तत्कालीन भारतीय ग्रामीण परम्परा के अनुसार बाल्यकाल में ही दोनों का विवाह हो गया था । विवाह के दूसरे दिन 'खिचड़ी' नामक उत्सव के अवसर पर पितामह श्री माधव प्रसाद जी ने दोनों की कुंडली पढ़ कर सुनाई और सबको इस बात से अवगत कराया कि दोनों की कुंडली में दोनों के पचीसों गुण एक सम हैं । ऐसा संसार में कहीं संभव नहीं होता । कुछ गुणों की साम्यता ही दुर्लभ है, पचीसों की कौन कहे ? उन्होंने उपस्थि जन समूह के सामने यह भी घोषणा की थी कि "आप सब से मेरा निवेदन है कि आज इनके ( महाराज जी ) दर्शन आप जी भर कर कर लें । भविष्य में इनको सारी दुनिया पूजेगी और इनके दर्शन अति दुर्लभ हो जायेंगे । ये कोई साधारण बालक नहीं हैं । इनकी कुंडली इस बात को प्रमाणित कर रही है कि साक्षात् भगवान् हमारे सम्मुख बैठे हैं । क्योंकि ये लक्षण भगवान् के अतिरिक्त किसी और में हो ही नहीं सकते । मैं अपनी पौत्री पद्मा को, जो इनके ही समान गुण व शील वाली है, इन के हाथों सौंपते हुये आज अपने आप को परम गौरवान्वित व प्रत्यक्षतः विशेष भगवत् कृपा का पात्र अनुभव कर रहा हूँ । अपनी ज्योतिष विद्या के आधार पर भी मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि एक दिन यह बालक अपने ज्ञानदीप से सारे विश्व को आलोकित करेगा । यह एक अद्वितीय महापुरुष है।" तब से इनके माता-पिता व पितामह श्री महाराज जी व अपनी पुत्री (पद्मा देवी ) में सदैव भगवद् बुद्धि ही रखते थे । अम्मा जी के परिवार वालों का यह कहना है कि इनके जन्म के बाद से घर की समृद्धि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी थी । यही बात मनगढ़ की समृद्धि के लिये भी घटित होती है । इससे भी इनके महालक्ष्मी के अवतार होने की संपुष्टि होती है ।
श्री महाराज जी तो प्रायः बाहर ही रहते थे । पहले शिक्षा के कारण और बाद में अपने प्रचार कार्य के कारण । अतः अम्मा जी अपने अविचल प्रेम व त्याग का अखंड दीपक जलाए अधिकतर लीलापुर या मनगढ़ में ही उनकी प्रतीक्षा में रत रहती थीं । सन् १९५६ तक अखिल भारत में अपने प्रचार कार्य के माध्यम से अपने शास्त्र वेद सम्मत, समन्वयात्मक अद्वितीय ज्ञान की पताका फहरा देने के पश्चात् व सन् १९५७ में जगद्गुरु बन जाने के पश्चात् श्रीमहाराज जी ने अपने जन्म स्थान श्री मनगढ़ धाम (उ. प्र. के प्रतापगढ़ जिले की तहसील कुण्डा का एक ग्राम) में एक साधना भवन का निर्माण करवाया । जहाँ सन् १९६४ से प्रति वर्ष एक माह का साधना शिविर होता है । तब से श्री महाराज जी लगभग दो माह के लिये मनगढ़ में रुकने लगे थे और अम्मा को उनके दर्शन, सेवा व सानिध्य का लाभ मिलने लगा था । तभी से सत्संगियों को भी उनका सम्पर्क प्राप्त कर के उनके दिव्य गुणों का अनुभव होने लगा था । उनके निश्छल स्नेह व ममता की सुखद छींटे हमें आह्लादित करने लगे थे और हम जानने लगे थे कि इनके ही चरण हमारी वास्तविक विश्राम-स्थली है। उनकी ही अनुकम्पा से श्री महाराजजी की सेवा का सौभाग्य व उनकी दिव्यता व महानता का आभास होने लगा था । एक वाक्य में हम यों कह सकते हैं कि आज गुरु चरणों में हमारा जितना भी अनुराग, विश्वास व निष्काम प्रेम है, उसकी आधारभूता हैं निष्कामता की परम मूर्ति हमारी माँ पद्मा । अतः श्री महाराज जी की सफलता में अम्मा श्री के त्याग व पातिव्रत को मुख्य स्तम्भ कहा जा सकता है ।
एक बार जब अम्मा की अवस्था बहुत कम थी, श्री महाराज जी की प्रतीक्षा में वर्षों बीत गये और वह अम्मा को दर्शन देने के लिये एक दिन को भी मनगढ़ नहीं गये । वे इस प्रतीक्षा मे शनैः शनैःथकने लगीं । निराश होकर उन्होंने व्रत ले लिया कि जब तक वे दर्शन नहीं देंगे हम भोजन नहीं करेंगे । छोटी सी अवस्था ! सुकोमल अङ्ग ! धीरे धीरे शरीर दुर्बल व कमजोर होने लगा । १-२ दिन के बाद श्री महाराज जी की माँ (आजी) व मौसी जो वहीं रहती थीं, को भी पता चला कि उनकी कोमलाङ्गी पुत्र वधू अपने पति के वियोग में दो दिन से कुछ नहीं खा रही तो उनका मन ऐसी सरल हृदया, पतिव्रता वधू के लिये विदीर्ण होने लगा । दोनों ने उनको अनेक प्रकार से मनाने व समझाने का प्रयास किया। मगर वह अपने निश्चय पर दृढ़ थी। श्री महाराज जी उस समय मेरे पिता श्री महाबनी जी के घर पर प्रतापगढ़ में थे। मौसी जी ने किसी प्रकार एक व्यक्ति भेजकर श्रीमहाराज जी को अम्मा जी का सारा वृतान्त बताया और उन से प्रार्थना की कि हमारी पुत्र वधू के प्राणों की रक्षा करो। श्री महाराज जी ने यह कह कर संदेश वाहक को वापस कर दिया कि "जब तक वह खाना नहीं खायेंगी,मैं नहीं आऊँगा । "मौसी ने पुनः अम्मा का संदेश भिजवाया कि "पद्मा का प्रण है कि बिना तुम्हारा दर्शन किये वह खाना नहीं खायेंगी ।" दोनों में ठन गई। दिन पर दिन बीतने लगे । कोई हार मानने को तैयार नहीं। अन्ततोगत्वा मौसी व आजी ने रो कर व स्वयं भोजन आदि त्याग कर भोरी भारी, परम दयामयी अपनी वधू को मना लिया । अपने गुरुजनों के आग्रह पर, व उन लोगों के कष्ट की बात सोचकर उनका सरल हृदय पसीज उठा और बात रखने के लिये उन्होंने मौसी आदि की आज्ञानुसार अत्यल्प मात्रा में जैसे ही कुछ आहार ग्रहण किया, श्रीमहाराज जी आ गये । जैसे वह पहले से मनगढ़ में ही थे । केवल उनके हठ तोड़ने की प्रतीक्षा कररहे थे। तब से हमारी भोरी अम्मा केवल "तत्सुखसुखित्वं" वाले प्रेम के सर्वोच्च आदर्श को गाँठ बाँधकर ही सुखपूर्वक जीवन यापन करती रहीं । क्योंकि यही तो श्री महाराज जी के दर्शन का पहिला सोपान व सर्वोच्च आदर्श भी है, जिसका वे नित्य-निरन्तर प्रचार कर रहे हैं । संभवतः जन साधारण को यही शिक्षा देने के लिये दोनों की यह अद्भुद लीला थी और माँ ने अप्रत्यक्ष रूप से इस लीला द्वारा भी पति के कार्यों में सहयोग देने वाले अपने पतिव्रत धर्म को ही निभाया था ।
हे निष्कामता व त्याग की मूर्ति ! तुमको शत शत प्रणाम है ।
भक्तों पर वज्र पात
मार्च १३, २००९ को श्री महाराज जी के भक्तों पर वज्रपात हो गया, जब इनकी पत्नी श्रीमती पद्मादेवी अकस्मात् अपने अनंत स्नेह का आँचल छुड़ा कर अपने गोलोक धाम को सिधार गई । जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज (श्री महाराज जी ) के लाखों अनुयायी, जो गुरु माँ की ममता की डोर में बँधे हुये, उन्हें अम्मा - अम्मा कह कर, उनके स्नेह सागर में डूबे ही रहते थे, वे करुणा सागर श्री महाराज जी के रहते हुये भी अपने को नितान्त अकेला अनुभव करने लगे । उनका प्यासा हृदय चीत्कार कर उठा "कहाँ मिलेगी वह निश्छल ममता ! वह प्यार भरा आश्रय! एवं अपनापन ! जो अम्मा से अहर्निश बिना माँगे मिल जाता था । महाराज जी कभी डाँट देते तो झट अम्मा के आँचल में सिर छुपा कर रोने का सहारा मिल जाता था, कहीं से थककर, हारकर, निराश हो कर आते तो अपना दुखड़ा उन्हें सुनाने का अवसर मिल जाता था । अम्मा अपनी भोली-भाली ग्रामीण भाषा में कुछ शब्दों में ही ऐसा उत्तर देतीं थीं कि आस पास बैठे सारे सत्सङ्गी सहज रूप से हँस देते थे और हमारे प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता था, मन की थकान भी दूर हो जाती थी । कितना भी बूढ़ा व्यक्ति उनके पास जाता तो अपने अपको उनके सामने बालक ही महसूस करता था । हाय ! ये सब अब सदा के लिये छूट गया ? कभी नहीं मिलेगा ? "
उनके स्निग्ध स्नेहयुक्त इन बातों की स्मृतिवश भक्तों का मन विकल था । हमारे पिता स्वरूप श्री महाराजजी, जो स्वयं प्रेम के सागर हैं, अपने बच्चों की इस मनोव्यथा को मिटाने के लिये तुरन्त योजनायें बनाने लगे । उन्होंने सर्वप्रथम शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पार्थिव शरीर के दाह संस्कार की समुचित योजना बनाई और एतदर्थ उन्होंने वृन्दावन की दिव्यस्थली को चुना । अम्मा जैसी दिव्यात्मा के शरीर का संस्कार और कहाँ शोभित हो सकता था ! यथा संभव अधिक से अधिक भक्त इस अवसर पर वृन्दावन पहुँच सकें, इस ममत्व से अभिभूत हो के हमारे गुरुदेव ने पूरे डेढ़ दिन तक प्रतीक्षा की । परिणामतः माँ के प्रेमी भक्त इंग्लैंड, कनाडा, अमेरिका, हाँग काँग, आस्ट्रेलिया, ट्रिनिडाड आदि देशों से भाग पड़े । तब तक उपस्थित भक्त जन निरन्तर अश्रुपात करते हुये भगवन्नाम संकीर्तन के साथ माँ की परिक्रमा करते जा रहे थे । अगले दिन उनका सर्वांग श्रृंगार किया गया व शोभा यात्रा का प्रबंध हुआ । सुन्दर से सुसज्जित रथपर आदरणीया माँ के शरीर को लिटाया गया और हजारों भक्तों के साथ, मार्ग स्थित मंदिरों की परिक्रमा करते हुये यह यात्रा अंतिम संस्कारार्थ यमुना घाट पर पहुँची । उस अंतिम यात्रा में मीलों लंबी भीड़ को देखकर ऐसा लगता था कि जैसे सारा संसार ही अपनी ममतामयी अम्मा को अंतिम श्रद्धाञ्जलि देने को लालायित हो उठा हो । और ऐसा क्यों न हो ? वह तो स्वभावतः हैं ही जगज्जननी । लगभग २० मिनट की दूरी को तय करने में ४-५ घंटे लग गये । पूज्य गुरुदेव हम सब के संतोष के लिये यथोचित समय पर यमुना घाट पर यथास्थान पहुँच गये थे। उन्होंने शास्त्रोक्त विधि से संपन्न कराये गये हवन में भाग लिया, पारिवारिक जन व भक्तों को अपने अमल ज्ञान का सहारा देते हुये उनके आश्वासन व मनः शान्ति के लिये एक छोटा सा उपदेश दिया और कहा " आपकी माँ कहीं नहीं गईं हैं। वे मुझमें ही समाहित हो गईं हैं। " १५ मिनट के इस छोटे से उपदेश में वे बहुत सा गहन मर्म समझा कर एवम् हमारे व्यथित मन को एक विचित्र सी सान्त्वना दे कर चुप हो गये । शेष संस्कार कार्य का भार वे अपने दोनों पुत्रों (श्री घनश्याम दास त्रिपाठी व श्री बालकृष्ण त्रिपाठी ) तथा तीनों पौत्रों (श्री रामानन्द त्रिपाठी, श्री कृष्णानन्द त्रिपाठी व श्री प्रेमानन्द त्रिपाठी ) को सौंप कर वापस आश्रम चले गये । चन्दन की लकड़ी से निर्मित शैया पर माँ के शरीर को स्थापित किया गया था । और उचित समय पर अविरल प्रवाहित पावन अश्रु जल से माँ के चरणों का प्रक्षालन कर के सपुत्रों ने दाह कर्म को सम्पन्न किया । उस समय सारा वाड्.मय (वातावरण) भक्तों की पीड़ामयी चीत्कारव सिसकियों से गूँज गया ।
तदुपरान्त श्री महाराज जी शरीर के लिये यथोचित वेदोक्त कर्मकांड तेरहीं (जो तेरहवें दिन मनगढ़ में सम्पन्न होगी) व आत्मा के कल्याणार्थ श्री वृन्दावन धाम में महात्माओं के विशाल भोज' की घोषणा कर के सभी भक्तजनों के साथ अपनी प्रमुख निवास स्थली मनगढ़ धाम चले गये ।
उनके स्निग्ध स्नेहयुक्त इन बातों की स्मृतिवश भक्तों का मन विकल था । हमारे पिता स्वरूप श्री महाराजजी, जो स्वयं प्रेम के सागर हैं, अपने बच्चों की इस मनोव्यथा को मिटाने के लिये तुरन्त योजनायें बनाने लगे । उन्होंने सर्वप्रथम शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पार्थिव शरीर के दाह संस्कार की समुचित योजना बनाई और एतदर्थ उन्होंने वृन्दावन की दिव्यस्थली को चुना । अम्मा जैसी दिव्यात्मा के शरीर का संस्कार और कहाँ शोभित हो सकता था ! यथा संभव अधिक से अधिक भक्त इस अवसर पर वृन्दावन पहुँच सकें, इस ममत्व से अभिभूत हो के हमारे गुरुदेव ने पूरे डेढ़ दिन तक प्रतीक्षा की । परिणामतः माँ के प्रेमी भक्त इंग्लैंड, कनाडा, अमेरिका, हाँग काँग, आस्ट्रेलिया, ट्रिनिडाड आदि देशों से भाग पड़े । तब तक उपस्थित भक्त जन निरन्तर अश्रुपात करते हुये भगवन्नाम संकीर्तन के साथ माँ की परिक्रमा करते जा रहे थे । अगले दिन उनका सर्वांग श्रृंगार किया गया व शोभा यात्रा का प्रबंध हुआ । सुन्दर से सुसज्जित रथपर आदरणीया माँ के शरीर को लिटाया गया और हजारों भक्तों के साथ, मार्ग स्थित मंदिरों की परिक्रमा करते हुये यह यात्रा अंतिम संस्कारार्थ यमुना घाट पर पहुँची । उस अंतिम यात्रा में मीलों लंबी भीड़ को देखकर ऐसा लगता था कि जैसे सारा संसार ही अपनी ममतामयी अम्मा को अंतिम श्रद्धाञ्जलि देने को लालायित हो उठा हो । और ऐसा क्यों न हो ? वह तो स्वभावतः हैं ही जगज्जननी । लगभग २० मिनट की दूरी को तय करने में ४-५ घंटे लग गये । पूज्य गुरुदेव हम सब के संतोष के लिये यथोचित समय पर यमुना घाट पर यथास्थान पहुँच गये थे। उन्होंने शास्त्रोक्त विधि से संपन्न कराये गये हवन में भाग लिया, पारिवारिक जन व भक्तों को अपने अमल ज्ञान का सहारा देते हुये उनके आश्वासन व मनः शान्ति के लिये एक छोटा सा उपदेश दिया और कहा " आपकी माँ कहीं नहीं गईं हैं। वे मुझमें ही समाहित हो गईं हैं। " १५ मिनट के इस छोटे से उपदेश में वे बहुत सा गहन मर्म समझा कर एवम् हमारे व्यथित मन को एक विचित्र सी सान्त्वना दे कर चुप हो गये । शेष संस्कार कार्य का भार वे अपने दोनों पुत्रों (श्री घनश्याम दास त्रिपाठी व श्री बालकृष्ण त्रिपाठी ) तथा तीनों पौत्रों (श्री रामानन्द त्रिपाठी, श्री कृष्णानन्द त्रिपाठी व श्री प्रेमानन्द त्रिपाठी ) को सौंप कर वापस आश्रम चले गये । चन्दन की लकड़ी से निर्मित शैया पर माँ के शरीर को स्थापित किया गया था । और उचित समय पर अविरल प्रवाहित पावन अश्रु जल से माँ के चरणों का प्रक्षालन कर के सपुत्रों ने दाह कर्म को सम्पन्न किया । उस समय सारा वाड्.मय (वातावरण) भक्तों की पीड़ामयी चीत्कारव सिसकियों से गूँज गया ।
तदुपरान्त श्री महाराज जी शरीर के लिये यथोचित वेदोक्त कर्मकांड तेरहीं (जो तेरहवें दिन मनगढ़ में सम्पन्न होगी) व आत्मा के कल्याणार्थ श्री वृन्दावन धाम में महात्माओं के विशाल भोज' की घोषणा कर के सभी भक्तजनों के साथ अपनी प्रमुख निवास स्थली मनगढ़ धाम चले गये ।
मनगढ़ में तेरहीं संस्कार
मनगढ़, जहाँ के कण कण में अम्मा ज्ञात या अज्ञात रूप से सदा विहार करती हैं, जहाँ के धाम वासियों को अम्मा ने सदा अपनी संतान मानकर दुलारा हो, वहाँ के वासियों की क्या दशा हो रही होगी, इसका अनुमान पाठक स्वयं लगा सकते हैं । अतः मनगढ़वासियों के सम्मुख भी उन्होंने एक छोटा सा सारगर्भित प्रवचन दे कर वहाँ के निवासियों की व्यथा को हल्का किया । तदुपरान्त दैनिक सत्सङ्ग आदि के कार्यक्रमों में सबको अत्यधिक व्यस्त कर दिया | खाली समय में जब भक्तमंडली प्रभु के पास आकर बैठती, वे हँस हँस कर यही योजनाएँ बनाते कि तेरहीं में क्या और कैसे किया जाय कि निमन्त्रित सभी ब्राह्मण पूर्णतया संतुष्ट हो कर जायें । उन्होंने हास परिहास के माध्यम से यह कह कर कि "हमें क्या चिन्ता ? जिसका काम है वह स्वयं सँभालेगा । उनका नाम पद्मा । पद्मा माने महालक्ष्मी । तो जब स्वयं महालक्ष्मी का कार्य है तो भला किस बात की चिन्ता और किस चीज़ का अभाव ? " - इस रहस्य का उद्घाटन भी किया हमारी गुरु माँ "अम्मा" कौन थीं । वैसे तो बहुत पहले से ही सभी के अनुभव में यह बात आती ही थी और प्रायः सभी सत्संगी उन्हें महालक्ष्मी या श्री राधा के रूप में ही पूजते थे, तथापि श्री महाराज जी के उपरोक्त कथन से इस भावना की सुदृढ़ पुष्टि हो गई । ज्ञातव्य है कि अम्मा जी का जन्म भी दीपावली के शुभ दिन (सन् १९२५ में) पर हुआ था । यह दिन श्री महालक्ष्मी पूजन का दिवस है । जिस प्रकार शरत् पूर्णिमा की आधीरात को श्री महाराज जी का अवतरण उनके जीवन के प्रयोजन (महारास रस दिलाने वाले माधुर्य भाव-युक्त रागानुगा भक्ति का प्रचार ) को दर्शाता है उसी प्रकार दीपावली के दिन अम्मा श्री का अवतरण भी उनके स्वरूप की ओर इंगित करता है । ऐसी सरल हृदया, पतिव्रता, प्रेममयी, त्यागशीला, सदा सहयोगिनी पत्नी के बिछुड़ जाने पर हमारे गुरुदेव की क्या मनःस्थिति होगी ! उदास तो हुये होंगे ! एक आँसू तो आया होगा !! पाठक जन यह सब जानने के लिये भी अवश्य उत्सुक होंगे । उनकी मनःस्थिति की बात तो वही जाने । क्योंकि ऐसे संत कब, कहाँ, कौन सी दिव्य स्थिति में रहते हैं इसका अनुमान कोई भी मायाबद्ध जीव तो लगा ही नहीं सकता । इस बात का भी हल्का-फुल्का अनुभव उनके पास रहने वाले साधकों को होता रहता है । किन्तु उनकी किसी भी क्रिया या मुद्रा से एक क्षण को भी ऐसा नहीं प्रतीत होता था कि उनकी दृष्टि मे कोई अनहोनी बात घटित हो गई है। क्योंकि वस्तुतः अम्मा उनसे पृथक हुई ही नहीं । जैसा कि उन्होंने अपने संक्षिप्त प्रवचन में व्यक्त भी कर दिया । वह तो औरों को भी सामान्य मानसिक स्थिति में रखने के लिये सतत् प्रयत्नशील थे ।
जब वह अस्पताल से अम्मा को एक दिन पहले देख कर आये तभी साधारणतौर पर, साधारण मुद्रा में उन्होंने वृन्दावन में अंतिम संस्कार के प्रबंध का आदेश दे दिया था व भक्तों को भी वृन्दावन चलने के लिये कह दिया था । उनकी दिनचर्या व मुख की मुसकान में कोई अंतर न ही दिखाई देता था । अतः किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अपनी अम्मा सचमुच आज भर के लिये ही हमारे मध्य हैं ।
उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन द्वारा यह भी सिद्ध कर दिया कि वह वेदान्त दर्शन के मात्र वक्ता नहीं हैं प्रत्युत् उनका यह ज्ञान अन्दर से आलोकित है । जो किसी भी काल या परिस्थिति में अच्युत ही रहता है । अम्माजी के गोलोक सिधारने के पश्चात् गीता या वेदान्त दर्शन संबंधी अपने सारे प्रवचनों को उन्होंने अपनी निजी दिनचर्या के द्वारा सत्य कर दिखाया । गुरुदेव यह भलीभाँति जानते थे कि माँ के प्रेम में पागल इन भक्तों के भावुक हृदय इस समय मेरे उपदेश नहीं स्वीकार करेंगे । अतः उनकी निजी दिनचर्या ही भक्तों को अप्रत्यक्ष रूप से मानो वेदान्त का श्रवण व अभ्यास कराती रहती थी और अतीव सान्त्वना देने का कार्य करती थी ।
जब वह अस्पताल से अम्मा को एक दिन पहले देख कर आये तभी साधारणतौर पर, साधारण मुद्रा में उन्होंने वृन्दावन में अंतिम संस्कार के प्रबंध का आदेश दे दिया था व भक्तों को भी वृन्दावन चलने के लिये कह दिया था । उनकी दिनचर्या व मुख की मुसकान में कोई अंतर न ही दिखाई देता था । अतः किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अपनी अम्मा सचमुच आज भर के लिये ही हमारे मध्य हैं ।
उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन द्वारा यह भी सिद्ध कर दिया कि वह वेदान्त दर्शन के मात्र वक्ता नहीं हैं प्रत्युत् उनका यह ज्ञान अन्दर से आलोकित है । जो किसी भी काल या परिस्थिति में अच्युत ही रहता है । अम्माजी के गोलोक सिधारने के पश्चात् गीता या वेदान्त दर्शन संबंधी अपने सारे प्रवचनों को उन्होंने अपनी निजी दिनचर्या के द्वारा सत्य कर दिखाया । गुरुदेव यह भलीभाँति जानते थे कि माँ के प्रेम में पागल इन भक्तों के भावुक हृदय इस समय मेरे उपदेश नहीं स्वीकार करेंगे । अतः उनकी निजी दिनचर्या ही भक्तों को अप्रत्यक्ष रूप से मानो वेदान्त का श्रवण व अभ्यास कराती रहती थी और अतीव सान्त्वना देने का कार्य करती थी ।
मनगढ़ में अद्वितीय ब्रह्म भोज
श्री महाराज जी वर्षों से प्रतिवर्ष एक ब्रह्म भोज तो करते ही हैं । कभी कभी वर्ष में दो या तीन भोज भी हो जाते हैं । किन्तु इतने मुक्त हस्त से, इतने कम समय में इतना विशाल ब्रह्म भोज करते हुये कभी नहीं देखा था जैसा कि २५ मार्च को संपन्न होने वाली, अम्मा की तेरहीं के अवसर पर देखने को मिला ।
मन मोहक पंडाल सजा कर उसमें सुन्दर सी वेदी बनाई गई । चारों ओर यथा योग्य अतिथि, पारिवारिक जन, सत्संगी आदि के बैठने की समुचित व्यवस्था थी । लोकादर्श व शास्त्रों की रक्षा करते हुये हवन आदि के सारे अनुष्ठान योग्य पंडितों द्वारा विधि विधान से कराये गये । १३ प्रमुख ब्राह्मणों के अतिरिक्त १००० अन्य ब्रह्मणों को आमन्त्रित किया गया । प्रमुख तेरहों ब्राह्मणों को भेंट में मोटर साइकिल व १००० रु. की दक्षिणा के अतिरिक्त २ - ३ बार १०००-१००० रु. दक्षिणा देते हुये श्री महाराज जी घान थे । १००० ब्राह्मणों को साइकिल सहित आवश्यकता का इतना सामान भेंट किया गया था कि उनके लिये सामान को घर ले जाना कठिन हो रहा था । नाई व यज्ञ कराने वाले पंडितों को भी मुँहमाँगा रुपया व भेंटे दी गई । ब्राह्मणों के अतिरिक्त समस्त ग्राम वासियों को भोजन कराया गया । इस प्रकार पूजनीया माँ पद्मा की पावन स्मृति में बड़े ही सुन्दर व सुव्यवस्थित ढंग से २५ मार्च को ब्रह्म भोज सम्पादित हुआ । जो चिरस्मरणीय है ।
मन मोहक पंडाल सजा कर उसमें सुन्दर सी वेदी बनाई गई । चारों ओर यथा योग्य अतिथि, पारिवारिक जन, सत्संगी आदि के बैठने की समुचित व्यवस्था थी । लोकादर्श व शास्त्रों की रक्षा करते हुये हवन आदि के सारे अनुष्ठान योग्य पंडितों द्वारा विधि विधान से कराये गये । १३ प्रमुख ब्राह्मणों के अतिरिक्त १००० अन्य ब्रह्मणों को आमन्त्रित किया गया । प्रमुख तेरहों ब्राह्मणों को भेंट में मोटर साइकिल व १००० रु. की दक्षिणा के अतिरिक्त २ - ३ बार १०००-१००० रु. दक्षिणा देते हुये श्री महाराज जी घान थे । १००० ब्राह्मणों को साइकिल सहित आवश्यकता का इतना सामान भेंट किया गया था कि उनके लिये सामान को घर ले जाना कठिन हो रहा था । नाई व यज्ञ कराने वाले पंडितों को भी मुँहमाँगा रुपया व भेंटे दी गई । ब्राह्मणों के अतिरिक्त समस्त ग्राम वासियों को भोजन कराया गया । इस प्रकार पूजनीया माँ पद्मा की पावन स्मृति में बड़े ही सुन्दर व सुव्यवस्थित ढंग से २५ मार्च को ब्रह्म भोज सम्पादित हुआ । जो चिरस्मरणीय है ।
श्री वृन्दावन धाम में अभूतपूर्व साधु भोज की योजना
ब्रह्मभोज के अगले ही दिन भक्तों की अगाध भीड़ को विदा करने के लिये श्री महाराज जी साधु भोज की तैयारी के लिये गोलोक धाम नई दिल्ली आ गये । वहाँ भी उनका पीछा करते हुये सैकड़ों भक्त आ गये ।
अब प्रारंभ हुई साधु भोज की तैयारी । श्री महाराज जी का प्रथम प्रस्ताव था कि संपूर्ण ब्रज में एक भी साधु न बचे । सब को आदरपूर्वक बुलवाया जाय । अतः यह निश्चय हुआ कि मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना, नंदगाँव, गोवर्द्धन, महाबन आदि के १० हजार साधुओं के भोज की तैयारी प्रारंभ की जाय । सबको दो-दो सौ दक्षिणा सहित एक-एक स्टील का डोल देने का भी निर्णय ले लिया गया, जिसमें वह सुविधा पूर्वक जल व भोजन सामग्री आदि रख सकें ।
सोच विचार कर २० अप्रैल, २००९ की पुण्य तिथि भी इस शुभ कार्य के लिये सुनिश्चित हो गई । किन्तु भक्तों के व्यथित मन को तो अभी भी व्यस्त रखना है । अतः उनका मन माननीया अम्मा में चिन्तनशील भी रहे, अपनी व्यथा को भूले भी रहें और गुरुसेवा की भावना में भी दिनों दिन अभिवृद्धि होती रहे इस परम कल्याणमयी भावना से उत्प्रेरित कृपासिंधु श्री महाराज जी ने साधु भोज संबंधी नित्यप्रति नवीन योजनाएँ बनानी प्रारंभ करदीं । यह तो पहले ही वह इंगित कर चुके हैं कि यह कार्य महालक्ष्मी का है अतः धन की तो कोई चिन्ता ही नहीं है । अतः यह उनका नित्य नवीन परिहास भी होता था कि वह सब सत्संगियों से हँस-हँस कर पूछते कि "साधुओं को और क्या दिया जाय ?" सभी सोचने लगते कि उनके लिये और क्या उपयोगी हो सकता है ! तरह तरह के हास्यास्पद प्रस्ताव भी आते और सबका मनोरञ्जन होता रहता था ।
इस प्रकार सूची मे वस्तुएँ बढ़ती गईं और छाता, कुकर, अँगोछा, दो चादरें, दो जोड़ी अंग वस्त्र, कपड़े धोने के दस-दस साबुन, ब्रुश, पूजा-आसन आदि दस सामान जुड़ गया जिसे एक सुन्दर से बैग में रख कर साधुजनों को अर्पित किया गया । श्री महाराज जी जैसे ही किसी भक्त की राय को स्वीकार करते हुये किसी वस्तु को सूची में जोड़ते थे, तुरन्त ही कोई न कोई भक्त हाथ जोड़ कर उस सेवा को लेने की प्रार्थना करने लगता ।
विचित्र बात यह घटित हुई कि जो भी गद्-गद् होकर अम्मा श्री की कोई भी सेवा स्वेच्छा से लेता था, वह उस समय कितना ही साधन हीन क्यों न हो, उतना धन उनके पास कहीं न कहीं से तत्काल आ जाता था । जैसे उसे कोई खोया हुआ धन अकस्मात् मिल गया हो।
अतः ये योजना भी दस बारह दिन में समाप्त हो गई । अभी तो ब्रह्म भोज के १० १५ दिन शेष थे । अब क्या किया जाय ? भक्तों के मन को सही दिशा में व्यस्त रखना मानो गुरुदेव की इस समय ड्यूटी थी।
अब कहीं से प्रस्ताव आया कि श्री वृन्दावन धाम में कुछ विधवा महिलाओं के आश्रम हैं । उन विधवाओं की बड़ी दीन दशा है । अतः आदरणीया अम्मा संबंधी इस महद् आयोजन में वृन्दावनवासिनी उन भक्त महिलाओं पर भी अवश्य कृपा - वर्षा होनी चाहिये जो अपने इष्टदेव की आश्रिता होकर अपना जीवन भजन कीर्तन में ही व्यतीत कर रही हैं । श्री महाराज जी को यह बात जँची। पता चला कि उन विधवाओं की संख्या वृन्दावन में लगभग एक हजार है । अतः अब उन्हें भी भोजन करा कर दो - दो सौ रुपया व दो - दो जोड़ी वस्त्रों को देने का निश्चय हो गया । इस योजना के कारण उन भक्तों को सेवा का अवसर मिला, जो १० हजार लोगों की किसी वस्तु की सेवा नहीं ले सकते थे किन्तु २ हजार के लिये आगे बढ़ सकते थे । इस प्रकार अन्य बहुत से भक्तों की अम्मा की सेवा का पुनीत अवसर मिल गया।
अगले दिन से वही परिहास पुनः प्रारंभ हो गया कि इन्हें और क्या दिया जाय । शनैः शनैः गद्दा, चादरें तकिया, माला-झोली, चप्पल, मोजा, छाता, नहाने व कपड़े धोने के साबुन, लोटा, टिफिन, तौलिया, चाय बनाने का बर्तन व बक्सा सहित लगभग ३० - ३२ प्रकार का सामान देने का निश्चय हो गया ।
प्रभु ने देखा कि उनके बहुत से भक्त जो दो हजार लोगों की किसी सेवा को लेने में भी असमर्थ थे तथापि वे अपनी अम्मा की सेवा के लये अंदर से लालायित हैं । उनकी मनोकामना को पूर्ण करने के लिये वृन्दावन स्थित अंधे व कोढ़ी आश्रमवासियों की सेवा की बात समक्ष आई । उन आश्रमों के प्रबंधकों ने सामान व भोज की अपेक्षा एक माह की संपूर्ण खाद्य सामग्री लेने की इच्छा प्रकट की । श्रीमहाराज जी ने सत्संग हाल में जा कर तत्काल यह घोषणा कर दी कि जिनकी दान देने की मुराद बच गई हो वह इनके अनाज आदि के लिये दान करें । दस मिनट में दो महीने के अनाज, घी, तेल, मसाले आदि आवश्यक खाद्य सामग्री के लिये पर्याप्त धन एकत्र हो गया और उसी दिन सब सामान उनके पास पहुँचा दिया गया ।
अब प्रारंभ हुई साधु भोज की तैयारी । श्री महाराज जी का प्रथम प्रस्ताव था कि संपूर्ण ब्रज में एक भी साधु न बचे । सब को आदरपूर्वक बुलवाया जाय । अतः यह निश्चय हुआ कि मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना, नंदगाँव, गोवर्द्धन, महाबन आदि के १० हजार साधुओं के भोज की तैयारी प्रारंभ की जाय । सबको दो-दो सौ दक्षिणा सहित एक-एक स्टील का डोल देने का भी निर्णय ले लिया गया, जिसमें वह सुविधा पूर्वक जल व भोजन सामग्री आदि रख सकें ।
सोच विचार कर २० अप्रैल, २००९ की पुण्य तिथि भी इस शुभ कार्य के लिये सुनिश्चित हो गई । किन्तु भक्तों के व्यथित मन को तो अभी भी व्यस्त रखना है । अतः उनका मन माननीया अम्मा में चिन्तनशील भी रहे, अपनी व्यथा को भूले भी रहें और गुरुसेवा की भावना में भी दिनों दिन अभिवृद्धि होती रहे इस परम कल्याणमयी भावना से उत्प्रेरित कृपासिंधु श्री महाराज जी ने साधु भोज संबंधी नित्यप्रति नवीन योजनाएँ बनानी प्रारंभ करदीं । यह तो पहले ही वह इंगित कर चुके हैं कि यह कार्य महालक्ष्मी का है अतः धन की तो कोई चिन्ता ही नहीं है । अतः यह उनका नित्य नवीन परिहास भी होता था कि वह सब सत्संगियों से हँस-हँस कर पूछते कि "साधुओं को और क्या दिया जाय ?" सभी सोचने लगते कि उनके लिये और क्या उपयोगी हो सकता है ! तरह तरह के हास्यास्पद प्रस्ताव भी आते और सबका मनोरञ्जन होता रहता था ।
इस प्रकार सूची मे वस्तुएँ बढ़ती गईं और छाता, कुकर, अँगोछा, दो चादरें, दो जोड़ी अंग वस्त्र, कपड़े धोने के दस-दस साबुन, ब्रुश, पूजा-आसन आदि दस सामान जुड़ गया जिसे एक सुन्दर से बैग में रख कर साधुजनों को अर्पित किया गया । श्री महाराज जी जैसे ही किसी भक्त की राय को स्वीकार करते हुये किसी वस्तु को सूची में जोड़ते थे, तुरन्त ही कोई न कोई भक्त हाथ जोड़ कर उस सेवा को लेने की प्रार्थना करने लगता ।
विचित्र बात यह घटित हुई कि जो भी गद्-गद् होकर अम्मा श्री की कोई भी सेवा स्वेच्छा से लेता था, वह उस समय कितना ही साधन हीन क्यों न हो, उतना धन उनके पास कहीं न कहीं से तत्काल आ जाता था । जैसे उसे कोई खोया हुआ धन अकस्मात् मिल गया हो।
अतः ये योजना भी दस बारह दिन में समाप्त हो गई । अभी तो ब्रह्म भोज के १० १५ दिन शेष थे । अब क्या किया जाय ? भक्तों के मन को सही दिशा में व्यस्त रखना मानो गुरुदेव की इस समय ड्यूटी थी।
अब कहीं से प्रस्ताव आया कि श्री वृन्दावन धाम में कुछ विधवा महिलाओं के आश्रम हैं । उन विधवाओं की बड़ी दीन दशा है । अतः आदरणीया अम्मा संबंधी इस महद् आयोजन में वृन्दावनवासिनी उन भक्त महिलाओं पर भी अवश्य कृपा - वर्षा होनी चाहिये जो अपने इष्टदेव की आश्रिता होकर अपना जीवन भजन कीर्तन में ही व्यतीत कर रही हैं । श्री महाराज जी को यह बात जँची। पता चला कि उन विधवाओं की संख्या वृन्दावन में लगभग एक हजार है । अतः अब उन्हें भी भोजन करा कर दो - दो सौ रुपया व दो - दो जोड़ी वस्त्रों को देने का निश्चय हो गया । इस योजना के कारण उन भक्तों को सेवा का अवसर मिला, जो १० हजार लोगों की किसी वस्तु की सेवा नहीं ले सकते थे किन्तु २ हजार के लिये आगे बढ़ सकते थे । इस प्रकार अन्य बहुत से भक्तों की अम्मा की सेवा का पुनीत अवसर मिल गया।
अगले दिन से वही परिहास पुनः प्रारंभ हो गया कि इन्हें और क्या दिया जाय । शनैः शनैः गद्दा, चादरें तकिया, माला-झोली, चप्पल, मोजा, छाता, नहाने व कपड़े धोने के साबुन, लोटा, टिफिन, तौलिया, चाय बनाने का बर्तन व बक्सा सहित लगभग ३० - ३२ प्रकार का सामान देने का निश्चय हो गया ।
प्रभु ने देखा कि उनके बहुत से भक्त जो दो हजार लोगों की किसी सेवा को लेने में भी असमर्थ थे तथापि वे अपनी अम्मा की सेवा के लये अंदर से लालायित हैं । उनकी मनोकामना को पूर्ण करने के लिये वृन्दावन स्थित अंधे व कोढ़ी आश्रमवासियों की सेवा की बात समक्ष आई । उन आश्रमों के प्रबंधकों ने सामान व भोज की अपेक्षा एक माह की संपूर्ण खाद्य सामग्री लेने की इच्छा प्रकट की । श्रीमहाराज जी ने सत्संग हाल में जा कर तत्काल यह घोषणा कर दी कि जिनकी दान देने की मुराद बच गई हो वह इनके अनाज आदि के लिये दान करें । दस मिनट में दो महीने के अनाज, घी, तेल, मसाले आदि आवश्यक खाद्य सामग्री के लिये पर्याप्त धन एकत्र हो गया और उसी दिन सब सामान उनके पास पहुँचा दिया गया ।
विलक्षण साधु भोज
अब श्री महाराज जी की वर्तमान महत्तम योजना साधु भोज में केवल ३ दिन अवशिष्ट थे । अतएव श्री महाराज जी सब को लेकर रंगीली महल बरसाना आये। वहाँ बैठकर वृन्दावनस्थ अपने "जगद्गुरु आश्रम" में सम्पन्न होने वाले साधु भोज की तैयारियों की पूर्ण सूचना लेने के पश्चात् अनेकानेक वांछित प्रबंध के लिये आदेश व निर्देश देने का कार्य किया । दो दिन पूर्व लगभग एक हजार भक्तों को सुश्री विशाखा जी (बड़ी दीदी) के नेतृत्व में व्यवस्था के लिये भेज दिया । दो दिन जुट कर, तन मन धन से भक्तों ने आशातीत उत्साह के साथ जी भर के सेवा की। जिसको जहाँ, जो सेवा मिल गई, वह वहाँ से हिलना ही नहीं चाहता था । यहाँ तक कि श्री महाराज जी की तीनो पुत्रियाँ व पौत्र भी निरन्तर कार्यशील रहे । दो दिन का कार्य तीनों दीदियों के निर्देश में एक दिन में ही समाप्त हो गया ।
श्री श्यामा श्याम धाम के प्रबंधक कान्ता जी व श्री महाराज जी के प्रचारक श्री युगल शरण जी के नेतृत्व में एक अतीव सुंदर व भव्य पंडाल की संरचना की गई जहाँ तीन हजार साधु एक बार में सुविधापूर्वक प्रसाद पा सकें । श्री महाराज जी ने स्वयं उसका निरीक्षण किया और उसके सुदृढ़ीकरण का आदेश दिया ।
पंडाल की सजावट अद्वितीय थी । रंग बिरंगी पताकाओं व अम्मा श्री, श्री राधाकृष्ण व श्री महाराज जी के सुंदर सुंदर वृहद् चित्रों से पंडाल के हर खंभे को सजाया गया था । मध्य में प्रातःस्मरणीया माँ पद्मा ( अम्मा जी ) के अत्यंत विशाल चित्र के साथ झाँकी सजाई गई थी, जो दर्शनीय थी । स्थान स्थान पर शीतल जल व साधुओं के बैठने की सुंदर व्यवस्था थी । भोजन परोसने व अन्य सेवाओं में रत सभी युवक श्वेत वस्त्र धारण किये थे । कंधे पर बाँई ओर कमर तक लटकते हुये राधे नाम से सुसज्जित लाल रंग के चमकीले पटके मनमोहक लगते थे । पृथक पृथक सेवा वाले युवक पृथक पृथक के रंगों की पट्टियाँ बाँधे थे । सभी कार्यकर्ताओं का एक लक्ष्य और एक ही लालसा थी श्री महाराज जी की प्रसन्नता के लिये अपनी निष्काम सेवा से हर आगन्तुक साधु को प्रसन्न करना । अतः सभी विनम्रता की मूर्ति बन कर सेवा रत थे ।
साधुओं का भोज २० अप्रैल को दोपहर ११.३० पर प्रारंभ हो गया था । तब से लगातार निमंत्रित व अनिमिंत्रित साधुजन आते जा रहे थे। यह ताँता रात्रि ९.०० बजे तक अनवरत चला । क्योंकि श्री महाराज जी का आदेश था कि जो भी द्वार पर आ जाये, भूखा न जाय और अगर वह साधु वेष में है तो उसे दक्षिणा भी दी जाय। इस प्रकार लगभग १५ - १६ हजार लोगों का भोज हुआ । किंतु आश्चर्य वाली बात यह थी कि बने हुये भोजन व मिठाइयों के भंडार अभी तक ऐसे भरे हुये थे, जैसे भोज अभी-अभी प्रारंभ ही हुआ हो । और ऐसा क्यों न हो ? महालक्ष्मी का भंडारा था न !!
जो भी साधु आते, सर्वप्रथम उनका स्वागत द्वार पर ही साधक जन करते । पश्चात् आसन ग्रहण करने के बाद उनके तिलक व अभिनंदन द्वारा स्वागत किया गया । उसके बाद उन्हें प्रणामपूर्वक उपहार का झोला अर्पित किया गया और श्री महाराज जी के पुत्रों व पौत्रों ने आदरपूर्वक दक्षिणा दी ।
सर्वप्रथम दूरस्थ गोवर्द्धन के साधुओं को भोज का समय दिया गया था । पश्चात् वृन्दावन वासियों को शेष दूरस्थ बरसाना, नंदगाँव के साधुओं का भोजन बाद में था । सबको इस प्रकार से समय दिया गया था कि एकाएक बहुत अधिक भीड़ भी न हो जाय और दूर गाँवों में रहने वालों को सामान ले जाने की सुविधा के लिये बस भी मिल जाय । इन साधुओं को अपने अपने गाँवों में वापस जाने के लिये श्री महाराज जी ने अच्छी बसों की निःशुल्क व्यवस्था की थी ।
वृन्दावन में सभी के मुख से एक बात सुनने को मिलती थी कि ऐसा भंडारा पहले कभी नहीं हुआ जहाँ दस हजार साधु आमंत्रित हों और सबको इतनी-इतनी भेंट दी गई हो । यों तो कोई दीन दुखी अपनी किसी भी समस्या को लेकर, या किसी प्रकार की सहायता के लिये आ जाय तो श्री महाराज जी प्रसन्नता पूर्वक उन को मुँह-माँगी सहायता देते हैं । कोई भी याचक असंतुष्ट होकर उनके द्वार से कभी नहीं लौटा । जिस प्रकार वे दिव्यज्ञान व भक्ति के गहनतम् रहस्यों के परमाचार्य के रूप में विश्व विश्रुत हैं, उसी प्रकार श्री महाराज जी अपनी उदारता, दया व दानशीलता में भी यह अग्रणी हैं । इस बात को उनके निकट रहने वाले साधक ही भली-भाँति जानते हैं । क्योंकि इस प्रकार का कितना भी बड़ा कार्य वह करें उसकी प्रसिद्धि नहीं होने देते । उनका कथन है कि दान गुप्त ही होना चाहिये । इतना गुप्त कि दाहिना हाथ दे तो बाएँ हाथ को भी न पता चले । इस साधु भोज के समय हम लोगों ने समाचार पत्र व टी.वी. समाचार वालों को आमंत्रित करने की आज्ञा माँगी थी । तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया ।
लगभग ३५ वर्ष पूर्व एक छात्र, जो M,Sc. में दाखिला चाहता था, वृन्दावन में श्री महाराज जी से कुछ सहायता प्राप्त करने की आशा से आया । श्री महाराज जी उस समय विश्राम कर रहे थे । वह अन्य लोगों से मिला और बताया कि उसे अपनी एम. एस. सी की पढ़ाई पूरी करने के लिये २ हजार रुपये चाहिये । " श्री महाराजजी का बड़ा नाम सुन कर आया हूँ । जो सहायता हो सके, करवाइये । " जब महाराज जी उठे, सब साधक उनके समक्ष बैठे थे, उसी समय उस युवक का परिचय देते हुये एक भक्त ने इस राशि में से यथासंभव कुछ सहायता करने की सिफारिश की । श्री महाराज जी ने कोई उत्तर नहीं दिया और उस युवक की ओर देखा तक नहीं। वह निराश हो गया । सभी ने सोचा कि श्री महाराज जी ने उसकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया । लगभग २० मिनट के बाद महाराज जी ने अपनी चप्पल हाथ में उठाई और परिहास की सी प्रसन्न मुद्रा में कहना प्रारंभ किया " चप्पल, चप्पल । नकद, १० रु. में एक चप्पल । "लोग भाग-भाग कर आने लगे । 'महाराज जी ! १० चप्पल । महाराज जी ! २० चप्पल । " कोई कहता " महाराज जी ! ५० चप्पल । सर पर । जोर से कि हमारी बुद्धि ठीक हो जाय ।" यह अद्भुद् खेल देखकर वह युवक हैरान था कि चप्पल खाने के लिये लोग इतने उत्सुक! ऊपर से दक्षिणा भी दे रहे हैं !" कुछ ही देर में वहाँ एक तौलिये पर रुपयों का ढेर इकट्ठा हो गया । श्री महाराज जी ने वह तौलिया अपने हाथ में लिया और तौलिया सहित सारा धन उस युवक की गोद में डाल दिया । वह तो आश्चर्य में पड़ गया उनकी निरीहता (innocence) व दान की विचित्र शैली पर । उसे तो इतना धन चाहिये ही नहीं था । अर्थात् उनके दान व सहायता के विचित्र ढंग भी हैं। वह उस कार्य का गुणगान नहीं पसंद करते ।
किंतु परम पूजनीया जगदम्बा माँ पद्मा की स्मृति को चिरकाल तक अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सम्पन्न यह साधुभोज श्री महाराज जी की उदारता व दानशीलता का सर्वोत्तम उदाहरण था ।
श्री श्यामा श्याम धाम के प्रबंधक कान्ता जी व श्री महाराज जी के प्रचारक श्री युगल शरण जी के नेतृत्व में एक अतीव सुंदर व भव्य पंडाल की संरचना की गई जहाँ तीन हजार साधु एक बार में सुविधापूर्वक प्रसाद पा सकें । श्री महाराज जी ने स्वयं उसका निरीक्षण किया और उसके सुदृढ़ीकरण का आदेश दिया ।
पंडाल की सजावट अद्वितीय थी । रंग बिरंगी पताकाओं व अम्मा श्री, श्री राधाकृष्ण व श्री महाराज जी के सुंदर सुंदर वृहद् चित्रों से पंडाल के हर खंभे को सजाया गया था । मध्य में प्रातःस्मरणीया माँ पद्मा ( अम्मा जी ) के अत्यंत विशाल चित्र के साथ झाँकी सजाई गई थी, जो दर्शनीय थी । स्थान स्थान पर शीतल जल व साधुओं के बैठने की सुंदर व्यवस्था थी । भोजन परोसने व अन्य सेवाओं में रत सभी युवक श्वेत वस्त्र धारण किये थे । कंधे पर बाँई ओर कमर तक लटकते हुये राधे नाम से सुसज्जित लाल रंग के चमकीले पटके मनमोहक लगते थे । पृथक पृथक सेवा वाले युवक पृथक पृथक के रंगों की पट्टियाँ बाँधे थे । सभी कार्यकर्ताओं का एक लक्ष्य और एक ही लालसा थी श्री महाराज जी की प्रसन्नता के लिये अपनी निष्काम सेवा से हर आगन्तुक साधु को प्रसन्न करना । अतः सभी विनम्रता की मूर्ति बन कर सेवा रत थे ।
साधुओं का भोज २० अप्रैल को दोपहर ११.३० पर प्रारंभ हो गया था । तब से लगातार निमंत्रित व अनिमिंत्रित साधुजन आते जा रहे थे। यह ताँता रात्रि ९.०० बजे तक अनवरत चला । क्योंकि श्री महाराज जी का आदेश था कि जो भी द्वार पर आ जाये, भूखा न जाय और अगर वह साधु वेष में है तो उसे दक्षिणा भी दी जाय। इस प्रकार लगभग १५ - १६ हजार लोगों का भोज हुआ । किंतु आश्चर्य वाली बात यह थी कि बने हुये भोजन व मिठाइयों के भंडार अभी तक ऐसे भरे हुये थे, जैसे भोज अभी-अभी प्रारंभ ही हुआ हो । और ऐसा क्यों न हो ? महालक्ष्मी का भंडारा था न !!
जो भी साधु आते, सर्वप्रथम उनका स्वागत द्वार पर ही साधक जन करते । पश्चात् आसन ग्रहण करने के बाद उनके तिलक व अभिनंदन द्वारा स्वागत किया गया । उसके बाद उन्हें प्रणामपूर्वक उपहार का झोला अर्पित किया गया और श्री महाराज जी के पुत्रों व पौत्रों ने आदरपूर्वक दक्षिणा दी ।
सर्वप्रथम दूरस्थ गोवर्द्धन के साधुओं को भोज का समय दिया गया था । पश्चात् वृन्दावन वासियों को शेष दूरस्थ बरसाना, नंदगाँव के साधुओं का भोजन बाद में था । सबको इस प्रकार से समय दिया गया था कि एकाएक बहुत अधिक भीड़ भी न हो जाय और दूर गाँवों में रहने वालों को सामान ले जाने की सुविधा के लिये बस भी मिल जाय । इन साधुओं को अपने अपने गाँवों में वापस जाने के लिये श्री महाराज जी ने अच्छी बसों की निःशुल्क व्यवस्था की थी ।
वृन्दावन में सभी के मुख से एक बात सुनने को मिलती थी कि ऐसा भंडारा पहले कभी नहीं हुआ जहाँ दस हजार साधु आमंत्रित हों और सबको इतनी-इतनी भेंट दी गई हो । यों तो कोई दीन दुखी अपनी किसी भी समस्या को लेकर, या किसी प्रकार की सहायता के लिये आ जाय तो श्री महाराज जी प्रसन्नता पूर्वक उन को मुँह-माँगी सहायता देते हैं । कोई भी याचक असंतुष्ट होकर उनके द्वार से कभी नहीं लौटा । जिस प्रकार वे दिव्यज्ञान व भक्ति के गहनतम् रहस्यों के परमाचार्य के रूप में विश्व विश्रुत हैं, उसी प्रकार श्री महाराज जी अपनी उदारता, दया व दानशीलता में भी यह अग्रणी हैं । इस बात को उनके निकट रहने वाले साधक ही भली-भाँति जानते हैं । क्योंकि इस प्रकार का कितना भी बड़ा कार्य वह करें उसकी प्रसिद्धि नहीं होने देते । उनका कथन है कि दान गुप्त ही होना चाहिये । इतना गुप्त कि दाहिना हाथ दे तो बाएँ हाथ को भी न पता चले । इस साधु भोज के समय हम लोगों ने समाचार पत्र व टी.वी. समाचार वालों को आमंत्रित करने की आज्ञा माँगी थी । तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया ।
लगभग ३५ वर्ष पूर्व एक छात्र, जो M,Sc. में दाखिला चाहता था, वृन्दावन में श्री महाराज जी से कुछ सहायता प्राप्त करने की आशा से आया । श्री महाराज जी उस समय विश्राम कर रहे थे । वह अन्य लोगों से मिला और बताया कि उसे अपनी एम. एस. सी की पढ़ाई पूरी करने के लिये २ हजार रुपये चाहिये । " श्री महाराजजी का बड़ा नाम सुन कर आया हूँ । जो सहायता हो सके, करवाइये । " जब महाराज जी उठे, सब साधक उनके समक्ष बैठे थे, उसी समय उस युवक का परिचय देते हुये एक भक्त ने इस राशि में से यथासंभव कुछ सहायता करने की सिफारिश की । श्री महाराज जी ने कोई उत्तर नहीं दिया और उस युवक की ओर देखा तक नहीं। वह निराश हो गया । सभी ने सोचा कि श्री महाराज जी ने उसकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया । लगभग २० मिनट के बाद महाराज जी ने अपनी चप्पल हाथ में उठाई और परिहास की सी प्रसन्न मुद्रा में कहना प्रारंभ किया " चप्पल, चप्पल । नकद, १० रु. में एक चप्पल । "लोग भाग-भाग कर आने लगे । 'महाराज जी ! १० चप्पल । महाराज जी ! २० चप्पल । " कोई कहता " महाराज जी ! ५० चप्पल । सर पर । जोर से कि हमारी बुद्धि ठीक हो जाय ।" यह अद्भुद् खेल देखकर वह युवक हैरान था कि चप्पल खाने के लिये लोग इतने उत्सुक! ऊपर से दक्षिणा भी दे रहे हैं !" कुछ ही देर में वहाँ एक तौलिये पर रुपयों का ढेर इकट्ठा हो गया । श्री महाराज जी ने वह तौलिया अपने हाथ में लिया और तौलिया सहित सारा धन उस युवक की गोद में डाल दिया । वह तो आश्चर्य में पड़ गया उनकी निरीहता (innocence) व दान की विचित्र शैली पर । उसे तो इतना धन चाहिये ही नहीं था । अर्थात् उनके दान व सहायता के विचित्र ढंग भी हैं। वह उस कार्य का गुणगान नहीं पसंद करते ।
किंतु परम पूजनीया जगदम्बा माँ पद्मा की स्मृति को चिरकाल तक अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सम्पन्न यह साधुभोज श्री महाराज जी की उदारता व दानशीलता का सर्वोत्तम उदाहरण था ।
कृपालु लीलामृतम्
हमारा देश सदा से अनंतानंत दिव्य विभूतियों से धनी रहा है । कुछ महापुरुष अपने लोक कल्याण संबंधी कार्यों के कारण संसार द्वारा जान लिये जाते हैं और संसार उनकी पूजा करता है । किंतु अधिकांश संत अपने को छिपा कर रखते हैं । उनको जानना या पहिचानना बहुत कठिन या प्राय: असंभव ही हो जाता है । जगजननी माँ पद्मा एक ऐसी ही विभूति थीं । पद्मा देवी का जन्म सन् १९२५ में उ. प्र. के प्रतापगढ़ जिले के लीलापुर नामक ग्राम में दीपावली के शुभ अवसर पर श्री कृष्ण कुमार ओझा की धर्मपत्नी सौभाग्यवती राम रती की पुनीत कोख से हुआ । उनके जन्म के समय एक दिव्य वातावरण का साम्राज्य छा गया था, चारों ओर हरियाली व लोगों के मन में एक अज्ञात आनंद की लहरें हिलोरें लेने लग गई थीं। इससे स्पष्ट पता चलता था कि आज इस ग्राम में एक दिव्य आत्मा का अवतरण हो गया है । चारों ओर समृद्धि की अति वृद्धि देखकर लगा मानो साक्षात् महालक्ष्मी का ही पदार्पण हो गया हो । गौर वर्ण ! अदभुद् तेजस्विता ! खिलते हुए मुख पर अधरों की दिव्य अरुणिमा !! देखते ही बनती थी ।
अपनी बाल सुलभ लीलाओं से सबके मन को बरबस लुभाती हुई यह दिव्य कन्या पाँच वर्ष की हो गई । यद्यपि इस आयु में कोई भी अपनी कन्या के विवाह की बात नहीं सोचता । तथापि इनका लुभावना दिव्य सौंदर्य और आकर्षण माता-पिता व पितामह को अभी से यह लालच देने लगा कि इस कन्या का पाणिग्रहण करने वाला सौभाग्यशाली वर कौन होगा ? क्योंकि उनका दिव्य आकार्षण व भोलापन यह संदेशा तो देता ही था कि इनका वर इनसे भी श्रेष्ठ गुणों वाला कोई दिव्य पुरुष ही होगा । संभवतः उस महापुरुष के दर्शन की लालसा ने इनके बाल्यकाल में ही इनके विवाह की लालसा को जन्म दे दिया ।
पद्मा देवी के पितामह श्री माधव प्रसाद ओझा एक बहुत बड़े विद्वान् व ख्याति प्राप्त ज्योतिषाचार्य थे । श्री महाराज जी उस समय अपने माता-पिता के साथ हंडौर ग्राम में रहते थे जो लीलापुर से मात्र ५ कि. मी. की दूरी पर स्थित था । कदाचित् उनकी दृष्टि श्री लाल्ता प्रसाद जी के कनिष्ठ पुत्र श्री राम कृपालु पर पड़ी । जो आज जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के नाम से विश्व विख्यात हैं । जब माधव प्रसाद जी ने प्रथम बार लालता प्रसाद जी के नन्हें से बालक (राम कृपालु जी) को देखा तो देखते ही रह गये । और सोचने लग गये कि " पौत्री पद्मा के योग्य तो यही वर हो सकता है । यह बालक कितना सुंदर है कि इस के ऊपर से निगाह हटती ही नहीं । जो हाल जनक का श्री राम को प्रथम बार बाटिका में देखकर हुआ था ठीक वही हाल इस बालक को देख कर आज मेरा हो रहा है । कैसा अद्भुद् आकर्षण है ! काले घुँघराले बाल! नेत्रों में झरता हुआ दिव्य प्रकाश ! दमकता हुआ ललाट ! श्रीकृष्ण जैसा नटखटपन ! मुखारविंद पर बिल्कुल अपनेपन की मुसकान !! मेरी ज्योतिष विद्या इसमें भगवान् के सारे गुण होने का संकेत दे रही है !" इस प्रकार अपना मन वहीं लुटा कर श्री माधव जी लीलापुर वापस आ गये ।
सतत् चिंतन के पश्चात् उन्होंने कन्या के माता-पिता के सम्मुख अपना हृदय खोल कर रख ही दिया । अपने पुत्र व पुत्र वधू का स्वीकारात्मक संकेत पा कर वह श्री लाल्ता प्रसाद जी के घर पहुँचे और विवाह की इच्छा प्रकट करते हुये उनके पुत्र राम कृपालु (श्री महाराज जी ) की कुंडली माँगी । कुंडली देख कर तो वह दंग रह गये । और कहने लगे ऐसी कुंडली किसी मनुष्य की तो हो ही नहीं सकती । ये तो निःसंदेह स्वयं भगवान् की ही कुंडली है । मैं निश्चित रूप से अपनी पौत्री का विवाह आपके सुपुत्र से करना चाहता हूँ । लीलापुर आकर उन्होंने सबको श्री महाराज जी का पूरा अलौकिकत्व बताया और अपनी पौत्री पद्मा के साथ विवाह करने का पूर्ण निर्णय ले लिया। परम्परानुसार विवाह सम्पन्न हुआ । बाल विवाह होने के कारण कुछ वर्ष वह अपने मायके लीलापुर में ही रहीं । पश्चात् मनगढ़ रहने लगीं ।
श्री महाराज जी तो प्रायः बाहर ही रहते थे । पहले शिक्षा के कारण और बाद में अपने प्रचार कार्य के कारण । अतः अम्मा जी अपने अविचल प्रेम व त्याग का अखंड दीपक जलाए अधिकतर लीलापुर या मनगढ़ में ही उनकी प्रतीक्षा में रत रहती थीं । सन् १९६४ से श्री महाराज जी प्रतिवर्ष मनगढ़ में एक साधना शिविर करने लगे । तब से उस एक माह के शिविर के बहाने वह लगभग २ - ३ महीने मनगढ़ रहने लगे । तब से हमारी माँ पद्मा को श्री महाराज जी के सानिध्य व सेवा का सौभाग्य मिलने लगा व हम लोगों को भी पूजनीया अम्मा के दर्शन व सानिध्य का अवसर मिलने लगा । और शनैः शनैः भक्तों को उनकी दिव्यता का अनुभव होने लगा ।
अपनी बाल सुलभ लीलाओं से सबके मन को बरबस लुभाती हुई यह दिव्य कन्या पाँच वर्ष की हो गई । यद्यपि इस आयु में कोई भी अपनी कन्या के विवाह की बात नहीं सोचता । तथापि इनका लुभावना दिव्य सौंदर्य और आकर्षण माता-पिता व पितामह को अभी से यह लालच देने लगा कि इस कन्या का पाणिग्रहण करने वाला सौभाग्यशाली वर कौन होगा ? क्योंकि उनका दिव्य आकार्षण व भोलापन यह संदेशा तो देता ही था कि इनका वर इनसे भी श्रेष्ठ गुणों वाला कोई दिव्य पुरुष ही होगा । संभवतः उस महापुरुष के दर्शन की लालसा ने इनके बाल्यकाल में ही इनके विवाह की लालसा को जन्म दे दिया ।
पद्मा देवी के पितामह श्री माधव प्रसाद ओझा एक बहुत बड़े विद्वान् व ख्याति प्राप्त ज्योतिषाचार्य थे । श्री महाराज जी उस समय अपने माता-पिता के साथ हंडौर ग्राम में रहते थे जो लीलापुर से मात्र ५ कि. मी. की दूरी पर स्थित था । कदाचित् उनकी दृष्टि श्री लाल्ता प्रसाद जी के कनिष्ठ पुत्र श्री राम कृपालु पर पड़ी । जो आज जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के नाम से विश्व विख्यात हैं । जब माधव प्रसाद जी ने प्रथम बार लालता प्रसाद जी के नन्हें से बालक (राम कृपालु जी) को देखा तो देखते ही रह गये । और सोचने लग गये कि " पौत्री पद्मा के योग्य तो यही वर हो सकता है । यह बालक कितना सुंदर है कि इस के ऊपर से निगाह हटती ही नहीं । जो हाल जनक का श्री राम को प्रथम बार बाटिका में देखकर हुआ था ठीक वही हाल इस बालक को देख कर आज मेरा हो रहा है । कैसा अद्भुद् आकर्षण है ! काले घुँघराले बाल! नेत्रों में झरता हुआ दिव्य प्रकाश ! दमकता हुआ ललाट ! श्रीकृष्ण जैसा नटखटपन ! मुखारविंद पर बिल्कुल अपनेपन की मुसकान !! मेरी ज्योतिष विद्या इसमें भगवान् के सारे गुण होने का संकेत दे रही है !" इस प्रकार अपना मन वहीं लुटा कर श्री माधव जी लीलापुर वापस आ गये ।
सतत् चिंतन के पश्चात् उन्होंने कन्या के माता-पिता के सम्मुख अपना हृदय खोल कर रख ही दिया । अपने पुत्र व पुत्र वधू का स्वीकारात्मक संकेत पा कर वह श्री लाल्ता प्रसाद जी के घर पहुँचे और विवाह की इच्छा प्रकट करते हुये उनके पुत्र राम कृपालु (श्री महाराज जी ) की कुंडली माँगी । कुंडली देख कर तो वह दंग रह गये । और कहने लगे ऐसी कुंडली किसी मनुष्य की तो हो ही नहीं सकती । ये तो निःसंदेह स्वयं भगवान् की ही कुंडली है । मैं निश्चित रूप से अपनी पौत्री का विवाह आपके सुपुत्र से करना चाहता हूँ । लीलापुर आकर उन्होंने सबको श्री महाराज जी का पूरा अलौकिकत्व बताया और अपनी पौत्री पद्मा के साथ विवाह करने का पूर्ण निर्णय ले लिया। परम्परानुसार विवाह सम्पन्न हुआ । बाल विवाह होने के कारण कुछ वर्ष वह अपने मायके लीलापुर में ही रहीं । पश्चात् मनगढ़ रहने लगीं ।
श्री महाराज जी तो प्रायः बाहर ही रहते थे । पहले शिक्षा के कारण और बाद में अपने प्रचार कार्य के कारण । अतः अम्मा जी अपने अविचल प्रेम व त्याग का अखंड दीपक जलाए अधिकतर लीलापुर या मनगढ़ में ही उनकी प्रतीक्षा में रत रहती थीं । सन् १९६४ से श्री महाराज जी प्रतिवर्ष मनगढ़ में एक साधना शिविर करने लगे । तब से उस एक माह के शिविर के बहाने वह लगभग २ - ३ महीने मनगढ़ रहने लगे । तब से हमारी माँ पद्मा को श्री महाराज जी के सानिध्य व सेवा का सौभाग्य मिलने लगा व हम लोगों को भी पूजनीया अम्मा के दर्शन व सानिध्य का अवसर मिलने लगा । और शनैः शनैः भक्तों को उनकी दिव्यता का अनुभव होने लगा ।
श्री राधाकृष्ण के निष्काम प्रेमियों के लिये निष्कामता की साक्षात् मूर्ति अम्मा एक ज्वलन्त उदाहरण थीं । मनगढ़ में भी सैकड़ों सत्संगी हर समय श्री महाराज जी की सेवा में लगे होते थे । जिसके हाथ जो सेवा लग जाती थी उसे कोई छोड़ता नहीं था । भोजन बनाने से लेकर सारी सेवाएँ सत्संगी ही करते थे । किन्तु अम्मा ने न कभी किसी सेवा पर अपना अधिकार प्रकट करने की चेष्टा की और न ही और लोगों के सेवा करने पर कोई आपत्ति । जबकि समस्त सेवाओं पर उनका ही एकक्षत्र साम्राज्य था । घर में भी बाहरी भाग में श्री महाराज जी का कक्ष था और भीतरी भाग में अम्मा जी का कक्ष था । श्री महाराज जी प्रायः अम्मा के भाग में चक्कर लगाते रहते थे किन्तु अम्मा महाराज जी के भाग में बिना किसी विशेष कारण के नहीं जाती थीं कि कहीं उनके कार्यों में हस्तक्षेप न हो जाय । जैसे उन्होंने श्री महाराज जी को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपने कार्यों को करने के लिये पूर्ण स्वतंत्र कर दिया था ।
श्री महाराज जी तो प्रायः यात्रा करते रहते हैं । कहीं-कहीं विशेष कार्यक्रम भी होते हैं, जहाँ उन्हें अधिक समय के लिये रुक कर साधना शिविर आदि कुछ करना होता है । किसी-किसी यात्रा पर तो प्रायः सभी सत्संगी उनके साथ जाना चाहते हैं । परन्तु परम निष्काम हमारी अम्मा ने कभी भी कहीं चलने की इच्छा स्वयं नहीं व्यक्त की । और न ही न जाने पर कभी किंचित् मात्र भी क्षोभ प्रकट किया । हाँ, श्री महाराज जी के एक बार आमंत्रण दे देने से वे अतिशय प्रसन्न हो कर चलने को तैयार हो जाती थीं। तभी उनकी निष्कामता का आभास सबको हो जाता था । शरीर त्याग के कुछ दिन पूर्व, जब अम्मा अस्पताल में थीं और उनकी हालत गंभीर अवस्था में थी। दिल्ली से बार बार उनकी हालत गंभीरतर होने की सूचना महाराज जी को लगातार दी जा रही थी । मनगढ़ में उस समय १५ दिवसीय होली साधना-शिविर चल रहा था । देश-विदेश से साधक आये हुये थे । श्रीमहाराज जी ने अम्मा से फोन पर पूछा कि मैं आ जाऊँ ? उन्हों ने तत्काल उत्तर दिया कि नहीं, यहाँ आने में बहुत कष्ट होगा, आप वहीं रहिये । यहाँ हमारी देख रेख बहुत अच्छी तरह हो रही है। ऐसी बीमारी की दशा में हर पत्नी की कामना होती है कि उसका पति उसके पास रहे । फिर श्री महाराज जी के दर्शन के लिये तो यों भी सभी लालायित रहते हैं । तथापि श्री महाराज जी के सुख व उनके कार्य में बाधा न पहुँच जाय, इस भावना से उत्प्रेरित हो कर ऐसा उत्तर अम्मा के अतिरिक्त और कौन दे सकता है ?
ममता उनके रोम रोम से टपकती थी । जब उनकी युवावस्था थी, उस समय भी जो भी साधक आते थे, जिनकी आयु अम्मा से अधिक या दुगनी होती थी, वे भी अम्मा से विशुद्ध वात्सल्य प्रेम ही प्राप्त कर के जाते थे । उनके सामने सब अपने को बालक रूप में ही अनुभव करते थे। आज से ३० वर्ष पहले की बात है कि एक साधक जो चूना ढोने की सेवा कर रहा था, उसके दोनों हाथ चूने से कट गये थे दोपहर को अवकाश के समय, नहा धोकर वह जब सबके साथ भोजन करने आया तो अम्मा भी उधर टहलती हुई आ गईं । उसे कठिनाई से खाता हुआ देख कर उन्होंने ने बड़े स्नेह से उस युवक को बुलाया और कहा, "ए सुवर ! इधर आ ।" वह पास आया तो उसके हाथ उसकी थाली अपने हाथ में लेकर मोढ़े पर बैठती हुई अपार करुणा के साथ बोलीं, "सारा हाथ तो कटा हुआ है, कैसे खायेगा ? बैठ जा ।" वह भैया पास में ही बैठ गये और अम्मा लगभग २७ वर्ष के उस युवक साधक को अपने हाथ से इस प्रकार खिलाने लगीं जैसे कोई माँ अपने नन्हे से शिशु को खिलाती है । धन्य है माँ की ममता ! वह साधक ममता की डोर में बँधे हुये आज भी मनगढ़ में निवास करते हैं और बिजली संबंधी सेवा में लगे हैं ।
अम्मा में एक सहज सौंदर्य व भोलापन था जो बरबस सबके मन को खींच लेता था । वे अभी तक ८३ वर्ष की आयु पर्यंत सदा सिर ढके-ढके रहती थीं । बिंदी व सिंदूर लगा कर नई नवेली जैसी ही लगती थीं । इतनी आयु हो जाने के पश्चात् भी उनके रूप के निखार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता था ।
उनकी छवियाँ अविस्मरणीय हैं । उनके व्यक्तित्त्व का प्रभाव अप्रतिम है । उनकी ममता अनंत है । उनका त्यागमय जीवन आदर्श है । उनकी निष्कामता भगवत्पथ के पथिक के लिये मार्गदर्शिका है । ऐसी प्रेरणादायिनी माँ के श्री चरणों में बारम्बार प्रणाम है।
ब्रज बनचरी दीदी जी
श्री महाराज जी तो प्रायः यात्रा करते रहते हैं । कहीं-कहीं विशेष कार्यक्रम भी होते हैं, जहाँ उन्हें अधिक समय के लिये रुक कर साधना शिविर आदि कुछ करना होता है । किसी-किसी यात्रा पर तो प्रायः सभी सत्संगी उनके साथ जाना चाहते हैं । परन्तु परम निष्काम हमारी अम्मा ने कभी भी कहीं चलने की इच्छा स्वयं नहीं व्यक्त की । और न ही न जाने पर कभी किंचित् मात्र भी क्षोभ प्रकट किया । हाँ, श्री महाराज जी के एक बार आमंत्रण दे देने से वे अतिशय प्रसन्न हो कर चलने को तैयार हो जाती थीं। तभी उनकी निष्कामता का आभास सबको हो जाता था । शरीर त्याग के कुछ दिन पूर्व, जब अम्मा अस्पताल में थीं और उनकी हालत गंभीर अवस्था में थी। दिल्ली से बार बार उनकी हालत गंभीरतर होने की सूचना महाराज जी को लगातार दी जा रही थी । मनगढ़ में उस समय १५ दिवसीय होली साधना-शिविर चल रहा था । देश-विदेश से साधक आये हुये थे । श्रीमहाराज जी ने अम्मा से फोन पर पूछा कि मैं आ जाऊँ ? उन्हों ने तत्काल उत्तर दिया कि नहीं, यहाँ आने में बहुत कष्ट होगा, आप वहीं रहिये । यहाँ हमारी देख रेख बहुत अच्छी तरह हो रही है। ऐसी बीमारी की दशा में हर पत्नी की कामना होती है कि उसका पति उसके पास रहे । फिर श्री महाराज जी के दर्शन के लिये तो यों भी सभी लालायित रहते हैं । तथापि श्री महाराज जी के सुख व उनके कार्य में बाधा न पहुँच जाय, इस भावना से उत्प्रेरित हो कर ऐसा उत्तर अम्मा के अतिरिक्त और कौन दे सकता है ?
ममता उनके रोम रोम से टपकती थी । जब उनकी युवावस्था थी, उस समय भी जो भी साधक आते थे, जिनकी आयु अम्मा से अधिक या दुगनी होती थी, वे भी अम्मा से विशुद्ध वात्सल्य प्रेम ही प्राप्त कर के जाते थे । उनके सामने सब अपने को बालक रूप में ही अनुभव करते थे। आज से ३० वर्ष पहले की बात है कि एक साधक जो चूना ढोने की सेवा कर रहा था, उसके दोनों हाथ चूने से कट गये थे दोपहर को अवकाश के समय, नहा धोकर वह जब सबके साथ भोजन करने आया तो अम्मा भी उधर टहलती हुई आ गईं । उसे कठिनाई से खाता हुआ देख कर उन्होंने ने बड़े स्नेह से उस युवक को बुलाया और कहा, "ए सुवर ! इधर आ ।" वह पास आया तो उसके हाथ उसकी थाली अपने हाथ में लेकर मोढ़े पर बैठती हुई अपार करुणा के साथ बोलीं, "सारा हाथ तो कटा हुआ है, कैसे खायेगा ? बैठ जा ।" वह भैया पास में ही बैठ गये और अम्मा लगभग २७ वर्ष के उस युवक साधक को अपने हाथ से इस प्रकार खिलाने लगीं जैसे कोई माँ अपने नन्हे से शिशु को खिलाती है । धन्य है माँ की ममता ! वह साधक ममता की डोर में बँधे हुये आज भी मनगढ़ में निवास करते हैं और बिजली संबंधी सेवा में लगे हैं ।
अम्मा में एक सहज सौंदर्य व भोलापन था जो बरबस सबके मन को खींच लेता था । वे अभी तक ८३ वर्ष की आयु पर्यंत सदा सिर ढके-ढके रहती थीं । बिंदी व सिंदूर लगा कर नई नवेली जैसी ही लगती थीं । इतनी आयु हो जाने के पश्चात् भी उनके रूप के निखार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता था ।
उनकी छवियाँ अविस्मरणीय हैं । उनके व्यक्तित्त्व का प्रभाव अप्रतिम है । उनकी ममता अनंत है । उनका त्यागमय जीवन आदर्श है । उनकी निष्कामता भगवत्पथ के पथिक के लिये मार्गदर्शिका है । ऐसी प्रेरणादायिनी माँ के श्री चरणों में बारम्बार प्रणाम है।
ब्रज बनचरी दीदी जी
सिद्धांत
हमारे धर्मग्रंथों में ऐसे कई श्लोक हैं जो गुरु की महिमा का वर्णन करते हैं जैसे
आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् । न मर्त्य बुद्ध्याऽ सूयेत सर्व देवमयो गुरु: ॥
भा. 1.7.27
भा. 1.7.27
यस्य साक्षात् भगवति ज्ञानदीप प्रदे गुरौ । मर्त्या सद्धिः श्रतं तस्य सर्वं कुंजर शौचवत् ॥
भा. 7.15.26
भा. 7.15.26
एष वै भगवान् साक्षात् प्रधान पुरुषेश्वरः। योगेश्वरैर्विमग्यांघ्रिर्लोकोऽयं मन्यते नरम् ॥
भा. 7.15.27
भा. 7.15.27
ये श्लोक श्रीमद्भागवतम् से हैं । यह श्लोक श्री कृष्ण ने अपने बचपन के मित्र - महान ज्ञानी उद्धव द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कहा था । प्रश्न था - भगवान् और गुरु में श्रेष्ठ कौन है?
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- गुरुऔर मैं दो अलग-अलग व्यक्तित्व नहीं हैं । यदि वे होते तो "कौन श्रेष्ठ है और कौन निम्न है" का प्रश्न उठता। जब जीवात्मा को भगवद्प्राप्ति हो जाती है तो वह सब कर्म करना बंद कर देता है । भगवद्प्राप्ति के पश्चात उसके सभी कार्य स्वयं भगवान् द्वारा किये जाते हैं। उदाहरण के लिए - जब किसी जीव पर भूत अधिकार कर लेता है तो वह जीव कोई भी कार्य नहीं करता है। उस व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले सब कर्मों का करता वह भूत होता है । इसी प्रकार, जब कोई भगवान् के पूर्ण शरणापन्न हो जाता है, तो उसके अन्तःकरण में किसी संसारी वस्तु की कामना नहीं रह जाती है। तब भगवान् उसे जीव का पूरा योगक्षेम वहन करते हैं ।
- क्या भगवान् गुरु से श्रेष्ठ है? या
- गुरु भगवान् से श्रेष्ठ की महिमा? या
- भगवान् और गुरु दोनों समान हैं?
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- गुरुऔर मैं दो अलग-अलग व्यक्तित्व नहीं हैं । यदि वे होते तो "कौन श्रेष्ठ है और कौन निम्न है" का प्रश्न उठता। जब जीवात्मा को भगवद्प्राप्ति हो जाती है तो वह सब कर्म करना बंद कर देता है । भगवद्प्राप्ति के पश्चात उसके सभी कार्य स्वयं भगवान् द्वारा किये जाते हैं। उदाहरण के लिए - जब किसी जीव पर भूत अधिकार कर लेता है तो वह जीव कोई भी कार्य नहीं करता है। उस व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले सब कर्मों का करता वह भूत होता है । इसी प्रकार, जब कोई भगवान् के पूर्ण शरणापन्न हो जाता है, तो उसके अन्तःकरण में किसी संसारी वस्तु की कामना नहीं रह जाती है। तब भगवान् उसे जीव का पूरा योगक्षेम वहन करते हैं ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
गीता 9.22
गीता 9.22
"संत हमारे जैसे ही कर्म करता हुआ प्रतीत होता है लेकिन वास्तव में भगवान् उसके मन में बैठकर सभी कर्म करते हैं " । इसका विज्ञान भी शास्त्रों में बताया गया है। धर्मग्रंथों का उद्घोष है-
प्रयोजन मुनिद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते ।
"पागल आदमी भी बिना कारण कोई कार्य नहीं करता"।
प्रत्येक कार्य का कुछ न कुछ उद्देश्य होता है। जैसे हम सोते, जागते, खड़े होते, बैठते, लेटते, हंसते, रोते आदि, आनंद प्राप्ति के उद्देश्य से करते हैं। भगवद् प्राप्ति होने पर जीव को दिव्यानंद की प्राप्ति होती है जिसके बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता । फिर वह जीव कोई और कार्य क्यों करेगा ? वह जीव कर्म तथा कर्मबंधन दोनों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । अब भगवान् स्वयं उस जीव के सभी कार्म करता है। अर्जुन ने लाखों लोगों के सामने करोड़ों की हत्या की । फिर भी भगवान् की दृष्टि में अर्जुन ने कोई गलत काम नहीं किया । भगवान् कहते हैं "मैंने सब को मारा है ”। अर्थात संत द्वारा किया गया कोई भी कार्य उसके द्वारा नहीं किया जाता है; स्वयं भगवान् करते हैं।
प्रत्येक कार्य का कुछ न कुछ उद्देश्य होता है। जैसे हम सोते, जागते, खड़े होते, बैठते, लेटते, हंसते, रोते आदि, आनंद प्राप्ति के उद्देश्य से करते हैं। भगवद् प्राप्ति होने पर जीव को दिव्यानंद की प्राप्ति होती है जिसके बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता । फिर वह जीव कोई और कार्य क्यों करेगा ? वह जीव कर्म तथा कर्मबंधन दोनों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है । अब भगवान् स्वयं उस जीव के सभी कार्म करता है। अर्जुन ने लाखों लोगों के सामने करोड़ों की हत्या की । फिर भी भगवान् की दृष्टि में अर्जुन ने कोई गलत काम नहीं किया । भगवान् कहते हैं "मैंने सब को मारा है ”। अर्थात संत द्वारा किया गया कोई भी कार्य उसके द्वारा नहीं किया जाता है; स्वयं भगवान् करते हैं।
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः, मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।
महतः परमव्यत्तमव्यक्तात् पुरुषः परः, पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ॥
काठोपनिषद् 10
महतः परमव्यत्तमव्यक्तात् पुरुषः परः, पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ॥
काठोपनिषद् 10
यह श्लोक कठोपनिषद से है। इसका मतलब है, "इंद्रियों से परे इंद्रियों के विषय हैं, इंद्रियों के विषयों से परे मन है, और मन से परे बुद्धि है। बुद्धि से परे आत्मा है, आत्मा से परे माया है और माया से परे भगवान् है । भगवान् परतत्व है और भगवान् से परे कुछ भी नहीं है " । जीव पर आनादि काल से माया हावी है । जब जीव भगवान के पूर्ण शरणागत हो जाता है, तो माया उसे छोड़ देती है और भगवान् उस जीव के शासक बन जाते हैं ।
तो श्रीकृष्ण कहते हैं, तुम्हारे गुरु और मैं दो अलग-अलग व्यक्तित्व नहीं हैं । गुरु को मेरा स्वरूप समझो क्योंकि मैं गुरु के अंदर बैठकर उसके कार्य करता हूँ । गुरु के कर्मों को आँकने के लिये अपनी मायिक बुद्धि का उपयोग न करो । भगवान् के सभी रूप गुरु के भीतर निवास करते हैं। आचार्यं मां विजानीअन् का यही अर्थ है ।
दूसरे श्लोक यस्य साक्षात् भगवति में भी यही विचार व्यक्त किया गया है । गुरु साक्षात ईश्वर स्वरूप है । गुरु ईश्वर के समान नहीं है, वे स्वयं ईश्वर हैं ।
तीसरा श्लोक है एष वै भगवान् भगवद्-प्राप्त संत को मायिक जीव मानना, उनके कर्मों को मायिक कर्म मानना, नामापराध है । जिसका परिणाम आधयात्मिक पतन होता हैं । नामापराध भगवद् प्रेम के अंकुर को सुखा देता है । हमने पूर्व जन्मों में अनेक ऐसे नामापराध किये हैं इसलिये भक्ति करने पर भी आज तक भगवद्-प्राप्ति नही हुई । धर्मग्रंथों में नामापराध [1] के प्रायश्चित का कोई साधन नहीं लिखा है । जीवों द्वारा किए गए कार्य माया के प्रभाव से प्रेरित होते हैं , इसलिए उनके परिणाम भोगने पड़ते हैं । भगवान् के सभी कर्म योगमाया से होते हैं । योगमाया के कर्म मायिक दिखते हैं परंतु उन्हें करते समय हरि-गुरु अपनी परसनलिटी में रहते हैं । यानी अंदर से वे माया से रहित रहते हैं लेकिन बाहरी तौर पर माया के कार्य करते हैं । भगवद्प्राप्ति पर भगवान् उस जीव को योगमाया प्रदान करते हैं और तब से, भगवद्प्राप्त संत के सभी कार्य "योगमाया" से होते हैं, इसलिए उनका कोई परिणाम नहीं भोगना पड़ता है ।
संक्षेप में, तीनों श्लोकों का एक ही अर्थ है कि भगवान् और गुरु एक हैं । योगमाया द्वारा किए गए कार्यों को मायिक मानकर नामापराध नहीं करना चाहिए और अपने गुरु के निर्देशानुसार भगवान् और गुरु की भक्ति करनी चाहिए ।
तो श्रीकृष्ण कहते हैं, तुम्हारे गुरु और मैं दो अलग-अलग व्यक्तित्व नहीं हैं । गुरु को मेरा स्वरूप समझो क्योंकि मैं गुरु के अंदर बैठकर उसके कार्य करता हूँ । गुरु के कर्मों को आँकने के लिये अपनी मायिक बुद्धि का उपयोग न करो । भगवान् के सभी रूप गुरु के भीतर निवास करते हैं। आचार्यं मां विजानीअन् का यही अर्थ है ।
दूसरे श्लोक यस्य साक्षात् भगवति में भी यही विचार व्यक्त किया गया है । गुरु साक्षात ईश्वर स्वरूप है । गुरु ईश्वर के समान नहीं है, वे स्वयं ईश्वर हैं ।
तीसरा श्लोक है एष वै भगवान् भगवद्-प्राप्त संत को मायिक जीव मानना, उनके कर्मों को मायिक कर्म मानना, नामापराध है । जिसका परिणाम आधयात्मिक पतन होता हैं । नामापराध भगवद् प्रेम के अंकुर को सुखा देता है । हमने पूर्व जन्मों में अनेक ऐसे नामापराध किये हैं इसलिये भक्ति करने पर भी आज तक भगवद्-प्राप्ति नही हुई । धर्मग्रंथों में नामापराध [1] के प्रायश्चित का कोई साधन नहीं लिखा है । जीवों द्वारा किए गए कार्य माया के प्रभाव से प्रेरित होते हैं , इसलिए उनके परिणाम भोगने पड़ते हैं । भगवान् के सभी कर्म योगमाया से होते हैं । योगमाया के कर्म मायिक दिखते हैं परंतु उन्हें करते समय हरि-गुरु अपनी परसनलिटी में रहते हैं । यानी अंदर से वे माया से रहित रहते हैं लेकिन बाहरी तौर पर माया के कार्य करते हैं । भगवद्प्राप्ति पर भगवान् उस जीव को योगमाया प्रदान करते हैं और तब से, भगवद्प्राप्त संत के सभी कार्य "योगमाया" से होते हैं, इसलिए उनका कोई परिणाम नहीं भोगना पड़ता है ।
संक्षेप में, तीनों श्लोकों का एक ही अर्थ है कि भगवान् और गुरु एक हैं । योगमाया द्वारा किए गए कार्यों को मायिक मानकर नामापराध नहीं करना चाहिए और अपने गुरु के निर्देशानुसार भगवान् और गुरु की भक्ति करनी चाहिए ।
Philosophy
There are several verses in our scriptures that describe the importance of a Guru such as
आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् । न मर्त्य बुद्ध्याऽ सूयेत सर्व देवमयो गुरु: ॥
भा. 1.7.27 |
ācāryaṃ māṃ vijānīyānnāvamanyeta karhicit । na martya buddhyā' sūyeta sarva devamayo guru: ॥ bhā. 1.7.27
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यस्य साक्षात् भगवति ज्ञानदीप प्रदे गुरौ । मर्त्या सद्धिः श्रतं तस्य सर्वं कुंजर शौचवत् ॥ भा. 7.15.26
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yasya sākṣāt bhagavati jñānadīpa prade gurau । martyā saddhiḥ śrataṃ tasya sarvaṃ kuṃjara śaucavat ॥ bhā 7.15.26
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एष वै भगवान् साक्षात् प्रधान पुरुषेश्वरः। योगेश्वरैर्विमग्यांघ्रिर्लोकोऽयं मन्यते नरम् ॥
भा. 7.15.27 |
eṣa vai bhagavān sākṣāt pradhāna puruṣeśvaraḥ। yogeśvarairvimagyāṃghrirloko'yaṃ manyate naram ॥ bhā 7.15.27
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These verses are quoted from Srimad Bhagwatam. This verse was narrated by Shri Krishna in response to a question posed by his childhood friend - the great gyani Uddhav. The question was - Amongst God and Guru - who is superior? Is God superior to Guru or is Guru superior to God or both God and Guru are equal?
Sri Krishna replied - Guru and I are not two distinct personalities. If they were, then the question of who is superior and who is inferior would arise. When an individual soul attains God, he stops performing any actions. All his actions are performed by God Himself. For example - When someone's soul is possessed by a spirit, that person stops performing any actions. All his actions are performed by the spirit which has taken over his body. Similarly, when someone completely surrenders to God, his mind gets cleansed of all material attachments, and God takes complete charge of that person.
Sri Krishna replied - Guru and I are not two distinct personalities. If they were, then the question of who is superior and who is inferior would arise. When an individual soul attains God, he stops performing any actions. All his actions are performed by God Himself. For example - When someone's soul is possessed by a spirit, that person stops performing any actions. All his actions are performed by the spirit which has taken over his body. Similarly, when someone completely surrenders to God, his mind gets cleansed of all material attachments, and God takes complete charge of that person.
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ गीता 9.22
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teshaan nityaabhiyuktaanaan yogaksheman vahaamyaham Gita 9.22
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The saint seems to be performing actions just like us but in reality God sits in his mind and performs all actions. The science behind this is also explained in the scriptures. The scriptures proclaim -
प्रयोजन मुनिद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते ।
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prayojana muniddiśya mando'pi na pravartate ।
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Even an intellectually-challenged person does not perform any action without a reason. Every action is performed with a reason or objective in mind. for e.g. all our actions such as sleeping, waking up, standing, sitting down, lying down, laughing, crying etc, are performed with the exclusive purpose of attaining happiness. Upon God realization, one attains divine happiness after which nothing remains to be attained. Then why would one perform any more action? One is freed from the burden of performing actions forever. Now God Himself performs all his actions. Arjun killed millions in front of million others. However God says, “Arjun has done no wrong. I have done this. I have killed each of them” i.e. any action performed by a saint is not performed by Him; instead it is performed by God Himself.
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः, मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।
महतः परमव्यत्तमव्यक्तात् पुरुषः परः, पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ काठोपनिषद् 10 |
indriyebhyaḥ parā hyarthā arthebhyaśca paraṁ manaḥ, manasastu parā buddhirbuddherātmā mahān paraḥ ।
mahataḥ paramavyattamavyaktāt puruṣaḥ paraḥ, puruṣānna paraṁ kiñcit sā kāṣṭhā sā parā gatiḥ ॥ kaṭhopaniṣad 10 |
This verse is from the Kathopnishad. It means, beyond the senses is the objects of the senses, beyond the object of the senses is the mind, and beyond the mind is the intellect. Beyond the intellect is the soul, beyond the soul is Maya and beyond Maya is God. God is the ultimate reality and there is nothing beyond God. The individual soul has eternally been under the influence of Maya, however, once the soul completely surrenders to God, Maya is eliminated and God directly becomes the governor of this soul.
So Krishna says, your Guru and I are not two different personalities. Consider the Guru to be Me for I sit inside the Guru and govern his actions. Never use your material intellect to judge the Guru. All forms of God reside within Him. This is the meaning of ācāryaṃ māṃ vijānīyān.
In the second verse yasya sākṣāt bhagavati the same idea is conveyed. Guru is God personified. Not equal to God, He is God Himself.
The third verse is eṣa vai bhagavān
Considering a God realized saint to be a material being, upon seeing Him perform ordinary actions like other materially bound jiva, is the most serious spiritual transgression, which has very damaging results. It distances one from God. We have committed such spiritual transgressions in several life times. Our scriptures do not recommend any penance to atone for such spiritual sins.
Actions performed by material beings are influenced by Maya, hence one has to bear consequences of those actions. God performs all actions using his most potent divine power called "Yogmaya". The quality of Yogmaya is that while performing seemingly material action the performer of the action continues to be Godly i.e. from within He is devoid of Maya but externally is performing the acts of Maya. Upon God realization, God grants this most potent power “Yogmaya” to that Saint and from then on, all actions of the God realized saint are performed using "Yogmaya", hence do not bear any consequence.
In a nutshell, all three verses mean the same that God and Guru are ONE. We must not commit spiritual transgressions by judging the deeds done by Yogmaya as being material and should perform devotion to God and Guru as instructed by our spiritual master.
So Krishna says, your Guru and I are not two different personalities. Consider the Guru to be Me for I sit inside the Guru and govern his actions. Never use your material intellect to judge the Guru. All forms of God reside within Him. This is the meaning of ācāryaṃ māṃ vijānīyān.
In the second verse yasya sākṣāt bhagavati the same idea is conveyed. Guru is God personified. Not equal to God, He is God Himself.
The third verse is eṣa vai bhagavān
Considering a God realized saint to be a material being, upon seeing Him perform ordinary actions like other materially bound jiva, is the most serious spiritual transgression, which has very damaging results. It distances one from God. We have committed such spiritual transgressions in several life times. Our scriptures do not recommend any penance to atone for such spiritual sins.
Actions performed by material beings are influenced by Maya, hence one has to bear consequences of those actions. God performs all actions using his most potent divine power called "Yogmaya". The quality of Yogmaya is that while performing seemingly material action the performer of the action continues to be Godly i.e. from within He is devoid of Maya but externally is performing the acts of Maya. Upon God realization, God grants this most potent power “Yogmaya” to that Saint and from then on, all actions of the God realized saint are performed using "Yogmaya", hence do not bear any consequence.
In a nutshell, all three verses mean the same that God and Guru are ONE. We must not commit spiritual transgressions by judging the deeds done by Yogmaya as being material and should perform devotion to God and Guru as instructed by our spiritual master.
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Kid's Story
A man went to a barber shop to get a haircut.
As the barber began to cut his hair, the two engaged in a social conversation. They spoke on several topics and discussed various subjects. Eventually they embarked on the subject of God.
The barber said: I don't believe God exists.
Man Surprised: Why do you say that?
Barber: Well, you just have to look around to realize that God doesn't exist. For, if God existed would there be so many sick people? Would there be so much violence and killing in the world? Would there be so much suffering and pain? I can't imagine how God (if He existed), would allow so much misery in the world.
The man thought of an appropriate response to that statement, but finally decided not to say anything for fear of starting an unpleasant argument. After the barber had finished his job, the man paid for the service and left the shop.
Just as he was heading out of the shop, he saw an old beggar on the street with long, stringy, dirty hair and an untrimmed beard. The old beggar looked dirty and unkempt. Seeing him, the man got an idea and instead of leaving the barber shop, went back in and proclaimed - I don't believe barbers exist!!!
Now it was the Barber's turn to be surprised. He demanded to know as to why would that man make such an obviously incorrect statement when, he had just a few minutes back personally used the barber's service.
The man reiterated, 'Barbers don't exist'.
Upon the barber's insistence, the man pointed to the old beggar on the street and said - If barbers existed, why would there be that old beggar, with long unkempt hair and untrimmed beard? The barber, laughed out loud and explained that the old beggar's state was not caused by the fact that barbers don't exist but because people such as himself don't go to barbers!!
The man replied: On the same token, there is so much pain and misery in the world, not because God does not exist but because people do not go to God and seek refuge/shelter under His lotus feet.
MORAL
Just as the barber rendered his services to whoever came to the barber shop, similarly God takes care of those who surrender to Him. Unlike the barber, God does not charge a fee for His services. He does it ONLY because He is gracious by nature. Scriptures say that for the rest of the people who don't surrender to God, God sits in their heart and notes their actions and acts as a judge.
As the barber began to cut his hair, the two engaged in a social conversation. They spoke on several topics and discussed various subjects. Eventually they embarked on the subject of God.
The barber said: I don't believe God exists.
Man Surprised: Why do you say that?
Barber: Well, you just have to look around to realize that God doesn't exist. For, if God existed would there be so many sick people? Would there be so much violence and killing in the world? Would there be so much suffering and pain? I can't imagine how God (if He existed), would allow so much misery in the world.
The man thought of an appropriate response to that statement, but finally decided not to say anything for fear of starting an unpleasant argument. After the barber had finished his job, the man paid for the service and left the shop.
Just as he was heading out of the shop, he saw an old beggar on the street with long, stringy, dirty hair and an untrimmed beard. The old beggar looked dirty and unkempt. Seeing him, the man got an idea and instead of leaving the barber shop, went back in and proclaimed - I don't believe barbers exist!!!
Now it was the Barber's turn to be surprised. He demanded to know as to why would that man make such an obviously incorrect statement when, he had just a few minutes back personally used the barber's service.
The man reiterated, 'Barbers don't exist'.
Upon the barber's insistence, the man pointed to the old beggar on the street and said - If barbers existed, why would there be that old beggar, with long unkempt hair and untrimmed beard? The barber, laughed out loud and explained that the old beggar's state was not caused by the fact that barbers don't exist but because people such as himself don't go to barbers!!
The man replied: On the same token, there is so much pain and misery in the world, not because God does not exist but because people do not go to God and seek refuge/shelter under His lotus feet.
MORAL
Just as the barber rendered his services to whoever came to the barber shop, similarly God takes care of those who surrender to Him. Unlike the barber, God does not charge a fee for His services. He does it ONLY because He is gracious by nature. Scriptures say that for the rest of the people who don't surrender to God, God sits in their heart and notes their actions and acts as a judge.
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