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Divya Ras Bindu

क्या मैं पापी हूँ?

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शास्त्र वेद हमें पतित​ (पापी) क्यों कहते हैंशास्त्र वेद हमें पतित​ (पापी) क्यों कहते हैं
प्रश्न

मैंने कुछ छोटे-मोटे झूठ बोले होंगे या कुछ छोटे जीवों (जेसे कीड़े मकोड़ों) को मारा होगा परंतु मैंने कोई जघन्य अपराध (जैसे हत्या, बलात्कार, नशीले पदार्थों अथवा हथियारों की तस्करी, सामूहिक हत्याएं,  बैंक डकैती, बाल शोषण आदि) नहीं किए । तो शास्त्र वेद हमें
पतित​ (पापी) क्यों कहते हैं? यह अपमानजनक है ।

उत्तर

शास्त्र वेदानुसार केवल तीन सनातन तत्व है-- 

1. ब्रह्म
2. जीव
3. माया


हम जीव हैं तथा परमानंद, सुख ,शांति ,संतोष आदि की खोज में हैं । हमारे अतिरिक्त दो तत्व बचे; माया और ​भगवान । अतः इन्हीं दो तत्वों में से किसी के द्वारा हमारी कामना पूर्ति हो सकती है। सभी मायिक जीवात्माएं माया से शासित​ हैं । घृणा, क्रोध, लोभ आदि माया के दोष हैं । अतः सभी दोष मायिक जीवों में हैं और जब तक माया जीव पर हावी है तब तक कोई जीव इन दोषों से मुक्त नहीं हो सकता ।

Pictureविचार करें कि इस परिभाषानुसार​ पिछले २४ घंटों में आपने कितने सत्कर्म किये ।
इस संसार में चोरी करना, झूठ बोलना, बेईमानी, हत्या, डकैती आदि को ही दंडनीय अपराध माना जाता है । परंतु अपनी रोज़मर्रा की क्रियाओं का सूक्ष्मावलोकन करने पर हमें यह ज्ञात होता है यद्यपि हम प्रत्यक्ष​ रूप से इन अपराधों को नहीं करते हैं परंतु मानसिक रूप से (जाने या अनजाने में) मन ये सब कर लेता है । उदाहरण के लिए मान लीजिए आप सार्वजनिक परिवहन से यात्रा कर रहे हैं। एक व्यक्ति बेढंगे परिधान पहने तथा अजीब श्रृंगार किए हुए भद्दा व्यवहार कर रहा है। वह व्यक्ति जब दूसरी ओर​ देखता है तब आप चुपके से उसकी ओर देखते हैं और जैसे ही वह आपकी ओर​ देखता है आप कहीं और देखने लगते हैं । क्या यह कपट​ व्यवहार नहीं है ? इसी प्रकार हम दिन में कई बार छोटी-छोटी बातों के लिए झूठ बोलते हैं । जैसे दिन में दसियों बार​ "क्षमा कीजिए" (sorry) शब्द का प्रयोग करना परंतु मन में ग्लानि न होना । क्या यह ठगना नहीं है ?

स्त्री,पति,अभिभावकों अथवा मालिक द्वारा अनावश्यक तथा गलत आरोपों के लगाये जाने पर​ अधिकतर​ को क्रोध आता ही है । यद्यपि मन में तो अपशब्द कहते हैं परंतु बहस से बचने के लिए चुप रह जाते हैं । क्या यह दोगलापन​ नहीं है? कोई व्यक्ति घृणा वश हत्या की बात सोचे या किसी स्टोर से कोई कीमती वस्तु चुराने की बात सोचे परंतु साक्षात रूप से यह क्रियाएँ न करे तो क़ानूनन​​ उसे अपराधी नहीं माना जाता । क्योंकि साधारण मनुष्य​ दूसरे के विचारों को जानने में असमर्थ है । परंतु भगवान सर्वव्यापक है और सर्वांतर्यामी भी है। वह भगवान सबके हृदय में बैठा है तथा सबके विचारों को लिखता है और तद्नुरूप उन कर्मों का फल भी देता है। 

संभवतः कुछ पाठकगण उपर्युक्त मानसिक पाप की परिभाषा से असहमत होंगे । यदि आप उस श्रेणी में हैं तो एक और दृष्टिकोण आपके सामने प्रस्तुत है । अधिकांश की सत्कर्म की परिभाषा होती है किसी की सहायता करना, दान देना, किसी के प्रति सद्भावना होना इत्यादि । विचार करें कि इस परिभाषानुसार​ पिछले २४ घंटों में आपने कितने सत्कर्म किये । मेरे विचार से आपने मुट्ठी भर सत्कर्म किए होंगे और उनको करने में आपने अधिकतम लगभग 2 घंटे व्यतीत किए होंगे। अब एक दिन में किए गए दुष्कर्म (क्रोध ,लोभ ,अहंकार ,ईर्ष्या आदि को) को गिनिये । एक दिन के अच्छे तथा बुरे कर्मों का क्या अनुपात है? क्या आपका अधिकांश समय बुरे कर्मों में बीतता है?  शास्त्रों में इन​ बुरे कर्मों को ही पाप कहा जाता है । अब सोचिये कि 100 वर्षों के जीवनकाल में आपने कितने पाप किये हैं ।

मनुष्य शरीर में किये गये प्रत्येक कर्म का फल मिलता है । सभी जीवात्माएं सनातन है तथा इस मनुष्य योनि से पहले भी अनंत बार मनुष्य शरीर प्राप्त हो चुका है । सोचिए हमने पिछले प्रत्येक मनुष्य शरीर में यदि केवल​ एक पाप किया तो भी अनंत जन्मों में अनंत पाप किए बैठे हैं ।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --

मन्निमित्तं कृतं पापं मद्धर्माय च कल्पते ।
मामनादृत्य धर्मोऽपि पापं स्यान्मत्प्रभावतः ॥
यज्ञपत्नियों ने सारा यज्ञ का भोग श्री कृष्ण को अर्पित कियायज्ञपत्नियों ने, अपने पतियों की आज्ञा का उल्लंघन कर, सारा यज्ञ का भोग श्री कृष्ण को अर्पित किया । वे श्री कृष्ण की कृपा की पात्र बनीं । साथ ही उनके पतियों ने अपनी भूल स्वीकार की तथा पत्नियों से क्षमा माँगी ।
"दिखने में पापकर्म भी यदि मेरे निमित्त हो तो वह धर्म कहलाता है तथा मुझे छोड़ के किया गया पुण्य कर्म भी अधर्म कहलाता है” । कारण स्पष्ट है, हमारे पास एक मन है जिसका काम है विचार करना । कोई भी कर्म मन के बिना नहीं हो सकता । और मन एक समय में एक ही वस्तु में रह​ सकता है । अतः जितनी देर​ हमारा मन भगवान में रत​ है बस उतनी ही देर वह पाप नहीं करता है । बाकी समय केवल पाप ही करता है । 

अब अनुमान लगाइए की एक दिन में हम कितने क्षण हरि एवं गुरु का स्मरण करते हैं?  यदि हम रोज 5 मिनट हरि गुरु का स्मरण करते हैं और 100 वर्ष जीवित रहते हैं तो इस हिसाब से एक वर्ष से भी कम हमारा समय भगवान के स्मरण में बीतेगा । वर्तमान मानव देह से पूर्व सभी जीवों को अनंत बार मानव देह दिया जा चुका है । तो उन अनंत पूर्व जन्मों में भी हमने 99% पाप ही किये होंगे । अब​ सोचिए कि हमारी पापों की गठरी कितनी बड़ी है ।
भगवान शुद्ध है तथा रस का मूर्त रूप है। जब हम अपना मन भगवान में लगाते हैं तो हमारा मन शुद्ध होता है । जब मन मायिक पदार्थों का चिंतन​ करता है तो वह और अशुद्ध हो जाता । अशुद्ध मन और अधिक पापाचार में प्रवृत होता है । 

निष्कर्ष ये कि यदि हम पापी नहीं कहलाना चाहते हैं या पाप प्रवृत्ति से उत्तीर्ण होना चाहते हैं तो हमें संसार के पदार्थों की अभिलाषा को मन से त्याग​ कर मन को अनंतानंदकंद​ भगवान की ओर उन्मुख करना होगा । हमें यह स्वीकार करना होगा कि
 
  1. हम भगवान, अर्थात अनंत आनंद, के अंश हैं 
  2. इसलिये बिना किसी के सिखाये पढ़ाये हम स्वाभावतः अनंतानंद ही चाहते हैं। 
  3. उस​ परमानंद की प्राप्ति किसी भगवत प्राप्त संत के निर्देशन में भगवान के नाम, रूप, लीला, गुणधाम, तथा उनके संतों का स्मरण करने से ही होगी ।

भगवत प्राप्ति पर भगवान हमारे पिछले अनंत पापों को भस्म कर देता है । और भगवत प्राप्ति के उपरांत भगवान स्वयं उस जीव के सब कर्म करता है इसलिये भविष्य में भी वह जीव​ कभी पाप नहीं कर सकता । 

इसलिये भगवत प्राप्ति से पूर्व प्रत्येक जीव पापी है और भगवत प्राप्ति के उपरांत ही, सदा के लिये, निष्पाप हो जायेगा ।


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पाप अनंत किये, गोविंद राधे । अब तो हठीलो मन हरि गुरू में लगा दे ॥




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