भगवान श्री कृष्ण ने संसार प्रकट करने के पहले सृष्टिकर्ता ब्रह्मा पर कृपा करके वेदों का ज्ञान कराया। वेदों ने ब्रह्मा को उन तीन प्रमुख ऋणों का बोध कराया जिनके साथ हम पैदा होते हैं और उनको चुकाने का सबसे अच्छा तरीका भी समझाया।
हम अपने प्रारब्ध कर्म से साथ जन्म लेते हैं जिसमें हमारे पिछले जन्मों के विभिन्न प्रकार के अच्छे और बुरे कर्मों के फल सम्मिलित होते है। इस प्रारब्ध को हम अपने जन्म के अंतिम क्षण तक भोगते हैं। शास्त्रों के अनुसार, इन तीन ऋणों को चुकाने से हम अपने कई बुरे कर्मों के फल भोग से तथा उससे होने वाली पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं। यदि कोई शास्त्रों में विश्वास न भी करे, तो भी वह अपने पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के फल भोगने के लिये बाध्य है। इन दुःखों और कष्टों से बचने का एक उपाय है। अतः इन तीन ऋणों को चुकाने का प्रयास करने में ही बुद्धिमानी है।
चलिए, इन तीन ऋणों पर विचार करते हैं और जानते हैं कि हम उनसे कैसे मुक्त हो सकते हैं।
हम अपने प्रारब्ध कर्म से साथ जन्म लेते हैं जिसमें हमारे पिछले जन्मों के विभिन्न प्रकार के अच्छे और बुरे कर्मों के फल सम्मिलित होते है। इस प्रारब्ध को हम अपने जन्म के अंतिम क्षण तक भोगते हैं। शास्त्रों के अनुसार, इन तीन ऋणों को चुकाने से हम अपने कई बुरे कर्मों के फल भोग से तथा उससे होने वाली पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं। यदि कोई शास्त्रों में विश्वास न भी करे, तो भी वह अपने पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के फल भोगने के लिये बाध्य है। इन दुःखों और कष्टों से बचने का एक उपाय है। अतः इन तीन ऋणों को चुकाने का प्रयास करने में ही बुद्धिमानी है।
चलिए, इन तीन ऋणों पर विचार करते हैं और जानते हैं कि हम उनसे कैसे मुक्त हो सकते हैं।
देव ऋण
देव ऋण स्वर्ग के देवी देवताओं के प्रति हमारा ऋण होता है।
हमारा जीवन वायु, आकाश, जल, अग्नि, पृथ्वी, भोजन और कई अन्य शक्तियों पर निर्भर है। हमारे लिए उपरोक्त सभी चीज़ों की व्यवस्था किसने की? गर्भाधान के क्षण से लेकर हमारे जन्म तक देहधारियों के लिए हर आवश्यक वस्तु प्रदान की गई। जन्म के बाद, हमारे लिए हमारी माँ के स्तन में दूध बन गया, जबकि हमें इस बात का भान भी नहीं था कि हमारे भरण-पोषण के लिए क्या क्या आवश्यक है। भगवान ने सूर्य देवता (सूर्य), पवन देवता (वायु), अग्नि देवता (आग), वरुण देवता (जल), सरस्वती देवी (ज्ञान की देवी), धरती माता (पृथ्वी), अन्नपूर्णा देवी जैसे कई दिव्य देवी-देवताओं के माध्यम से हमें सब कुछ प्रदान किया। अपने शरीर चलाने के लिए आवश्यक पदार्थ बिना परिश्रम के उपहार के रूप में प्रदान करने के लिए हम उनके ऋणी हैं। इसलिए हमारे शास्त्र यज्ञ द्वारा स्वर्ग के देवी देवताओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का उपदेश देते हैं ।शास्त्रों की उपदेशों का पालन कर इन दैवीय शक्तियों के प्रति वैदिक कर्म करने से हमें लाभ मिलता है। इससे हमारे आस-पास का वातावरण, हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है और ज्ञान और संपत्ति की प्राप्ति होती है।
एक उदाहरण से यह और स्पष्ट हो जायेगा। वेदों के अनुसार उगते सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए। अब ऐसा करने के लिए, हमें सुबह जल्दी उठना होगा (जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है), नदी में स्नान कर के उसमें से जल लाना होगा (ताज़े जल का लाभ), सूर्य की ओर मुंह करके खड़े होना चाहिए (प्रातः सूर्य की किरणों से दृष्टि में सुधार होता है, और मानव शरीर विटामिन डी भी बना सकता है जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है)। हमें सुबह की ताज़ी और स्वच्छ हवा का भी लाभ मिलता है। इस प्रकार, केवल एक गतिविधि से हमें वरुण देवता, सूर्य देवता, पृथ्वी और आकाश से लाभ प्राप्त होता है। और जब उचित यज्ञ सामग्री जलती है, तो वातावरण में व्याप्त होने वाली धुंआ पूरे क्षेत्र को शुद्ध कर देता है। उस वायु में श्वास लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उससे लाभ होता है। इस प्रकार, हमें प्रदान हुई पाँचों स्थूल तत्त्व हमारे लिए कल्याणकारी हैं और हमें स्वस्थ रखते हैं।
इसलिए, इन आवश्यक तत्वों को प्रदान करने के लिए हमें स्वर्ग के देवी देवताओं के प्रति आभारी होना चाहिए।
हमारा जीवन वायु, आकाश, जल, अग्नि, पृथ्वी, भोजन और कई अन्य शक्तियों पर निर्भर है। हमारे लिए उपरोक्त सभी चीज़ों की व्यवस्था किसने की? गर्भाधान के क्षण से लेकर हमारे जन्म तक देहधारियों के लिए हर आवश्यक वस्तु प्रदान की गई। जन्म के बाद, हमारे लिए हमारी माँ के स्तन में दूध बन गया, जबकि हमें इस बात का भान भी नहीं था कि हमारे भरण-पोषण के लिए क्या क्या आवश्यक है। भगवान ने सूर्य देवता (सूर्य), पवन देवता (वायु), अग्नि देवता (आग), वरुण देवता (जल), सरस्वती देवी (ज्ञान की देवी), धरती माता (पृथ्वी), अन्नपूर्णा देवी जैसे कई दिव्य देवी-देवताओं के माध्यम से हमें सब कुछ प्रदान किया। अपने शरीर चलाने के लिए आवश्यक पदार्थ बिना परिश्रम के उपहार के रूप में प्रदान करने के लिए हम उनके ऋणी हैं। इसलिए हमारे शास्त्र यज्ञ द्वारा स्वर्ग के देवी देवताओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का उपदेश देते हैं ।शास्त्रों की उपदेशों का पालन कर इन दैवीय शक्तियों के प्रति वैदिक कर्म करने से हमें लाभ मिलता है। इससे हमारे आस-पास का वातावरण, हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है और ज्ञान और संपत्ति की प्राप्ति होती है।
एक उदाहरण से यह और स्पष्ट हो जायेगा। वेदों के अनुसार उगते सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए। अब ऐसा करने के लिए, हमें सुबह जल्दी उठना होगा (जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है), नदी में स्नान कर के उसमें से जल लाना होगा (ताज़े जल का लाभ), सूर्य की ओर मुंह करके खड़े होना चाहिए (प्रातः सूर्य की किरणों से दृष्टि में सुधार होता है, और मानव शरीर विटामिन डी भी बना सकता है जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है)। हमें सुबह की ताज़ी और स्वच्छ हवा का भी लाभ मिलता है। इस प्रकार, केवल एक गतिविधि से हमें वरुण देवता, सूर्य देवता, पृथ्वी और आकाश से लाभ प्राप्त होता है। और जब उचित यज्ञ सामग्री जलती है, तो वातावरण में व्याप्त होने वाली धुंआ पूरे क्षेत्र को शुद्ध कर देता है। उस वायु में श्वास लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उससे लाभ होता है। इस प्रकार, हमें प्रदान हुई पाँचों स्थूल तत्त्व हमारे लिए कल्याणकारी हैं और हमें स्वस्थ रखते हैं।
इसलिए, इन आवश्यक तत्वों को प्रदान करने के लिए हमें स्वर्ग के देवी देवताओं के प्रति आभारी होना चाहिए।
ऋषि ऋण
मनुष्य प्राचीन काल के ऋषियों और ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त करता है। उदाहरण के लिए मनु द्वारा लिखित मनुस्मृति से हमें अपने जीवन में पालन किए जाने वाले आदर्श आचरण और व्यवहार के बारे में सीख मिलती है। ऋषि वेद व्यास ने तीन प्रकार के कर्म और उनके फल का ज्ञान हमें प्रदान करने के लिए गीता और महाभारत की रचना की। उन्होंने वेदान्त भी लिखा जिसे पढ़कर हमें माया से मुक्ति पाने का ज्ञान मिले। (पढ़ें - माया का जीव पर अधिकार कैसे और क्यों?)ऋषि वेद व्यास ने श्रीमद्भागवत महापुराण भी लिखा, जो फिर शुकदेव परमहंस ने राजा परीक्षित को सुनाया। श्रीमद्भागवत साधकों को विशुद्ध भक्ति का ज्ञान प्रदान करता है। इसी तरह अनगिनत अन्य ऋषियों ने हमें प्रबुद्ध कराने के लिए कई अन्य ग्रंथ लिखे हैं।
इस प्रकार मनुष्य अनेक ऐसे ऋषि-मुनियों की ऋणी है, जो सच्चे ज्ञान के स्रोत हैं, जिससे मनुष्य माया के बंधन से मुक्त हो सकता है। मानव जाति को ज्ञान प्रदान करने वाले इन संतों के हम ऋणी हैं। इस ऋण को ऋषि ऋण कहते हैं। इस ऋण को चुकाने के लिए हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हम शास्त्रों को पढ़ें और सीखें, और हम दूसरों को भी वह ज्ञान प्रदान करें।
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम और सन्यास आश्रम रखा गया है। वैसे तो ईश्वर प्राप्ति से पहले सभी के लिए सब शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना असंभव है, लेकिन हम से ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करने की अपेक्षा रखी जाती है।
इस प्रकार मनुष्य अनेक ऐसे ऋषि-मुनियों की ऋणी है, जो सच्चे ज्ञान के स्रोत हैं, जिससे मनुष्य माया के बंधन से मुक्त हो सकता है। मानव जाति को ज्ञान प्रदान करने वाले इन संतों के हम ऋणी हैं। इस ऋण को ऋषि ऋण कहते हैं। इस ऋण को चुकाने के लिए हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हम शास्त्रों को पढ़ें और सीखें, और हम दूसरों को भी वह ज्ञान प्रदान करें।
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम और सन्यास आश्रम रखा गया है। वैसे तो ईश्वर प्राप्ति से पहले सभी के लिए सब शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना असंभव है, लेकिन हम से ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करने की अपेक्षा रखी जाती है।
पितृ ऋण
गृहस्थ आश्रम में संतान उत्पन्न कर उनके पालन-पोषण करके अपने पूर्वजों का ऋण चुकाने का अवसर मिलता है।
मनुष्य अपने माता-पिता और पूर्वजों का ऋणी है, जिन्होंने वंशावली, संस्कृति, परंपराओं और संस्कारों का एक अनमोल खज़ाना हमें प्रदान किया। इस ऋण को पितृ ऋण कहा जाता है।
गृहस्थ आश्रम में इस ऋण को चुकाने का अवसर हमें बच्चों को जन्म देकर, उनका पालन-पोषण करके उन्हें शिक्षा देकर और उन्हें अपने पूर्वजों के बहुमूल्य परंपराओं को सिखाकर प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए, भगवान राम ने अपने पूर्वजों (रघुवंशियों) के आदर्शों का पालन किया, अपनी प्रजा के प्रति निष्ठावान होकर, हर कीमत पर अपने वचन का पालन किया।
पश्चात्, संस्कृति और परंपराओं में कुछ बदलाव होने के कारण, कुछ शास्त्रों में दो निम्नलिखित ऋण जोड़े गए -
मनुष्य अपने माता-पिता और पूर्वजों का ऋणी है, जिन्होंने वंशावली, संस्कृति, परंपराओं और संस्कारों का एक अनमोल खज़ाना हमें प्रदान किया। इस ऋण को पितृ ऋण कहा जाता है।
गृहस्थ आश्रम में इस ऋण को चुकाने का अवसर हमें बच्चों को जन्म देकर, उनका पालन-पोषण करके उन्हें शिक्षा देकर और उन्हें अपने पूर्वजों के बहुमूल्य परंपराओं को सिखाकर प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए, भगवान राम ने अपने पूर्वजों (रघुवंशियों) के आदर्शों का पालन किया, अपनी प्रजा के प्रति निष्ठावान होकर, हर कीमत पर अपने वचन का पालन किया।
पश्चात्, संस्कृति और परंपराओं में कुछ बदलाव होने के कारण, कुछ शास्त्रों में दो निम्नलिखित ऋण जोड़े गए -
नृ ऋण
पवित्र ग्रंथ, शतपथ ब्राह्मण (1.7.2.1-6) ने मानव जाति के प्रति हमारे ऋण का सिद्धांत स्थापित किया और इसको पूरी मानव जाति पर लागू किया है।
मानव जाति के ऋण को नृ ऋण कहा जाता है और इसे आपसी सहयोग और परोपकार द्वारा चुकाया जा सकता है।
मानव जाति के ऋण को नृ ऋण कहा जाता है और इसे आपसी सहयोग और परोपकार द्वारा चुकाया जा सकता है।
भूत ऋण
गाय-बैल आदि जानवर, विभिन्न पौधों और पंच-महाभूत के प्रति हमारे ऋण को भूत ऋण कहा जाता है। हम भगवान के ऋणी हैं, जिन्होंने हमारे अस्तित्व के लिए यह सब प्रदान किया।
जानवरों और पौधों के प्रति दयालु होकर, उनके जीवन को शांतिपूर्ण बनाकर तथा पारिस्थितिक संतुलन को बाधित करने वाली सभी गतिविधियों से दूर रहकर यह ऋण चुकाया जाता है।
जानवरों और पौधों के प्रति दयालु होकर, उनके जीवन को शांतिपूर्ण बनाकर तथा पारिस्थितिक संतुलन को बाधित करने वाली सभी गतिविधियों से दूर रहकर यह ऋण चुकाया जाता है।
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