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Divya Ras Bindu

भाग्य अथवा पुरुषार्थ​

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भाग्य अथवा पुरुषार्थ जब शिक्षा, व्यव्साय और धन पूर्व निर्धारित हैं तो फिर पुरुषार्थ क्यों?
प्रश्न:

जब शिक्षा, व्यव्साय और धन आदि पूर्व निर्धारित हैं तो फिर कोई स्कूल की पढ़ाई के लिए कठिन परिश्रम क्यों करे, अच्छी नौकरी के लिए, सेवानिवृत्ति के उपरांत जीपन यापन के लिये धन संचय​ आदि प्रयास क्यों करें? चूंकि सब कुछ पूर्व निर्धारित है व्यक्ति को इन सब चीजों के स्वतः घटित होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए ?

उत्तर :

सभी जीव एक आंतरिक उपकरण से संपन्न हैं जिसे अंतःकरण कहते हैं। "अंतः" अर्थात अंदर और "करण" अर्थात उपकरण या मशीन। यह उपकरण तीन प्रकार के कार्य निष्पादित करता है यथा सोचना, निर्णय लेना, इच्छा करना। इसके द्वारा किए जाने वाले कार्य के आधार पर इसे चार नामों से जाना जाता है यथा -
  • मन : जब यह किसी चीज की इच्छा बनाता है तो उसे मन कहते हैं। 
  • बुद्धि : जब यह कोई निर्णय लेता है तो उसे बुद्धि कहते हैं।
  • चित्त : जब यह चिंतन​ करता है तो उसे चित्त कहते हैं।
  • अहंकार : जब यह गर्व या घमंड करता है तो उसे अहंकार कहते हैं।

मन ही कर्ता है और​ यह सदा कार्यरत रहता है । यहाँ तक कि निद्रावस्था, जब शरीर निष्क्रिय होता है, में भी मन स्वप्न बनाता है । यह केवल सुषुप्ति अवस्था में, जहाँ स्वप्न भी नहीं आते, अकर्मा रहता है ।

कर्म के उपकरण के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं
  • केवल मन के द्वारा : जब केवल मन कार्य करता है और शरीर आराम करता है। उदाहरण :जब हम नींद में सपने देखते हैं ।
  • मन तथा भौतिक शरीर के द्वारा आसक्ति युक्त कर्म​: जब मन और शरीर दोनों शामिल हो और मन पूर्णतया व्यस्त रहे और भौतिक क्रिया का आनंद ले। उदाहरणार्थ मां जब प्यार से अपने बच्चे के लिए खाना पकाती है ।
  • मन तथा भौतिक शरीर के द्वारा अनासक्त कर्म :  जब शरीर और मन दोनों शामिल हों लेकिन मन को उस क्रिया से आनंद न मिले । उदाहरणार्थ अधिकतर लोग अपने कार्यालय में केवल वेतन प्राप्त करने के लिए कार्य करते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वे उस क्रिया से अधिक आनंदित हो ।

आध्यात्मिक नियम के अनुसार जीव को, मानव शरीर में किये गये, प्रत्येक कर्म का फल भोगना पड़ता है । वह कार्य जो हम अपने विवेक से करते हैं क्रियमाण कर्म कहलाते हैं । यद्यपि कर्म करते ही फल निर्धारित हो जाता है तथापि भगवान कुछ क्रियाओं का फल तुरंत देते हैं । जैसे खाना खाते ही तुरंत क्षुधा निवृत्ति, पानी पीते ही तुरंत प्यास समाप्त हो जाना इत्यादि। भगवान, कृपा कर, अन्य सभी कर्मों का फल हमें तुरंत नहीं देते हैं । इन का फल हमारे कारण शरीर​ में संरक्षित रहता है तथा भविष्य में अनेकों जीवन में भोगा जाता है । यह अनंत कर्म संचित कर्म कहलाते हैं। भगवान हमारे पूर्व जन्मों के संचित कर्मों में से कुछ चुनिंदा कर्मों का फल​ वर्तमान जीवन में भोगना निर्धारित करते हैं । उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं। इसी को भाग्य, नियति, किस्मत (पढ़ें प्रारब्ध का रचयिता कौन ?) इत्यादि भी कहते हैं । इन प्रारब्ध कर्मों का फल भोग अनिवार्य है । भगवतप्राप्त महापुरुष भी सहर्ष इन कर्मों का फल भोगते हैं ।

प्रमुखतः सभी के जीवन के पांच पहलू जन्म के पूर्व ही निर्धारित हो जाते हैं यथा आयु, व्यव्साय, धन, शिक्षा और मृत्यु का समय।

अब यह प्रश्न उठता है कि जब हमें अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार फल मिलेगा ही तो पुरुषार्थ​ क्यों किया जाय ?

ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे जीवन का प्रत्येक पहलु पूर्व-निर्धारित नहीं है । वर्तमान एवं भविष्य के बचे हुए पहलू हमारे वर्तमान जन्म के क्रियमाण कर्मों पर निर्भर हैं ।

विपत्ति के कुछ क्षणों के अतिरिक्त, भगवान की कृपा से अधिकांश जीवन शांतिपूर्वक बीतता है । श्रीमद्भागवत में लिखा है कि भक्त प्रहलाद, जो कि राक्षस परिवार में जन्मा था, ने अपने राक्षस सहपाठियों को उपदेश देते हुए कहा था-
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम्। 
सर्वत्र लभ्यते दैवात् यथा दु:खमयत्नतः ॥ भा ७.६.३

"ओ राक्षस पुत्रोंं! जैसे बिना किसी प्रयास के अनिवार्य रूप से दुःख प्राप्त होते हैं वैसे ही प्रारब्ध वश हमें सुख भी प्राप्त होते हैं ।"

कबिर दास के शब्दों में
Prahald instructs his classmates
भक्त प्रहलाद अपने राक्षस सहपाठियों को उपदेश देते हुए
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे तो
दुःख काहे को होय ॥
हम कृतघ्नी जीव​ सामान्य जीवन में हम यदा-कदा ही भगवान का आभार मानते हैं । परंतु कठिनाई आने पर​ हम भगवान को या दुर्भाग्य को कोसते हैं । जबकि अपना भविष्य उज्जवल करने हेतु अच्छा कर्म करना तथा कृतज्ञता बढ़ाना हमारा उद्देश्य होना चाहिये ।
कर्मणां संचितादीनां जीवोऽधीनस्तथापि हि । स्वतंत्रः क्रियमाणे वै कृतो भगवता विदा ॥
"यद्यपि जीवात्माएं संचित कर्मों के आधीन हैं तथापि वे अच्छे या बुरे क्रियमाण कर्मों को करने के लिए स्वतंत्र हैं।"
कृतज्ञता
अपना भविष्य उज्जवल करने हेतु अच्छा कर्म करना तथा कृतज्ञता बढ़ाना उद्देश्य होना चाहिये ।
सच्चे संतकिसी सच्चे संत के संग से ही जीवात्मा सतकर्मों से परिचित होता है जो कि सुखी और आदर्श जीवन का आधार​ हैं
इच्छानुसार जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं और सभी कर्मों का फल भी मिलता है । चूंकि हम एक आदर्श जीवन चाहते हैं तो सिद्धांततः हमें आदर्श कर्म ही करने होंगे। मायिक मनुष्यों का अनुसरण करके जीव विवेकपूर्ण​ निर्णय नहीं ले सकता । इसलिए सत्संग (पढ़ें Saint or Imposter) अर्थात किसी सच्चे संत का संग अत्यंत आवश्यक है। सच्चे संत के संग से ही जीवात्मा सतकर्मों से परिचित होता है जो कि सुखी और आदर्श जीवन का आधार​ हैं।

मायाबद्ध जीव के कर्म माया के गुणों से प्रेरित होने के कारण तीन कोटि के हो सकते हैं -
  • सात्विक: इनको पुण्य​ कर्म या अच्छे कर्म भी कहा जाता है। वर्णाश्रम धर्म का पालन, निष्कपटभाव​, दया, सहानुभूति, करुणा आदि गुणों से प्रेरित कर्म सात्विक हैं । ऐसे कर्मों का फल स्वर्ग के सुखों का भोग है । इन लोकों में, मृत्युलोक से, उच्च कोटि का इंद्रियों का सुख प्राप्त होता है । तथापि यह सीमित एवं क्षणिक है। पुण्य कर्मों के फलभोग के उपरांत कर्म व फल दोनों समाप्त हो जाते हैं और जीव को सिर के बल स्वर्ग के गिरा दिया जाता है ।

गीता कहती है--

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं​, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ॥
अर्थात "स्वर्ग लोक में कर्मफल के उपभोग के पश्चात जीव को पुनः मृत्युलोक में हीन योनियों में आना पड़ता है"। 

तो यह व्यक्त है कि सात्त्विक कर्म से अनंत आंनद का लक्ष्य नहीं प्राप्त होगा अतः यह त्याज्य हैं ।

  • राजस : स्वार्थ सिद्धी से प्रेरित शुभाशुभ कर्म राजस कहलाते हैं । इन कर्मों के फल स्वरूप जीव मृत्युलोक में विभिन्न योनियों में घूमता फिरता है ।
 
  • तामस : अशुभ कर्म। छल कपट​, क्रोध, लोभ​, ईर्ष्या, द्वेष​ आदि तामस कर्म कहलाते हैं । इन कर्मों के फल स्वरूप​ जीव को नरकादि की यातनाओं को अनिश्चितकाल के लिए भोगना पड़ता है ।

अतः आंनद प्राप्ति की बात तो दूर​, कोई भी शुभाशुभ कर्म दुख निवृत्ति भी नहीं करा सकता ।

इस उक्ति पर आपको आश्चर्य हो सकता है कि केवल मनुष्य योनि ही कर्म योनि है, और वह मिलने पर भी किसी कर्म द्वारा जीव दुःखों से उत्तीर्ण नहीं हो सकता ?

हाँ हो सकता है। उन कर्मों के परिज्ञान हेतु जीव को किसी क्षोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष का संग करना होगा ।

यह देव​दुर्लभ मनुष्य शरीर केवल अच्छे बुरे कर्मों के भोग के लिए नहीं दिया गया है । अपितु इस योनि में ज्ञान व इच्छा शक्ति प्रदान की ग​ई है अतः यह अपेक्षा की जाती है कि जीव अपने अंतिम लक्ष्य की ओर अग्रसर होगा ।

  • मनुष्य शरीर ही एकमात्र कर्मयोनि है जिसमें मनुष्य पुरुषार्थ​ करके अपना भविष्य उज्ज्वल बना सकता है ।
  • जीव अपने भाग्य (प्रारब्ध कर्म​) से अनभिज्ञ है । इस ज्ञान के अभाव में जीव को पुरुषार्थ​ करना चाहिए । यदि वह भाग्य में नहीं है तो नहीं मिलेगा।
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीर्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषामात्मशक्त्या, यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ॥

अर्थात "एक बुद्धिमान व्यक्ति केवल अपने भाग्य के भरोसे अकर्मर्ण्य हो कर नहीं बैठता । वह अपने लक्ष्य (पढ़ें Aim of Life) को प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न करता है । क्योंकि वह य​ह जानता है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है । अतः इच्छित फल न प्राप्त होने पर वह सन्तुष्ट रहता है कि यह प्रयास के अभाव के कारण​ नहीं अपितु भाग्य में न होने के कारण​ नहीं मिला"।

यह कभी भी नहीं सोचना चाहिए कि सब कुछ मेरी गोद में बिना प्रयास के गिरेगा । मान लीजिए आपके भाग्य में धन​-धान्य​ लिखा है । आपको आपके पुण्य​ कर्मों के अनुसार पर्याप्त धन प्राप्त भी हो गया । परंतु यह आवश्यक तो नहीं कि वह पूरे जीवन रहे ! यदि आप परिश्रमी नहीं हैं और​ आपके भाग्य में धन​-धान्य​ नहीं लिखा है तो आप क्या करोगे ? इसके अलावा केवल धन से जीवन में संतुष्टि प्राप्त नहीं होती । आपकी अन्य आवश्यताएं आपके भाग्य में हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती हैं । यदि आपको पुरुषार्थ करने का अभ्यास नहीं है तो उन आवश्यक्ताओं की पूर्ति हेतु आप क्या करेंगे ?

अतः सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ-साथ पुरुषार्थ करना अति आवश्यक है । तथा प्रमुख उद्देश्य सत्कर्म का ही होना चाहिये।

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लख चौरासी में गोविंद राधे, नर योनी ही कर्म योनि बता दे॥
चौरासी लाख योनिओं में से केवल मनुष्य योनि में ही कर्म करके भविष्य को सुधारा जा सकता है ।

- राधा गोविंद गीत​
जगदगुरुत्तम​ श्री कृपालु जी महराज


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