क्या पिंड दान से मुक्ति हो जाती है? |
प्रश्न :
क्या पुत्र तथा पौत्र के द्वारा पिंड दान किए जाने पर मुक्ति हो जाती है? पिंड दान करना चाहिए या नहीं?
क्या पुत्र तथा पौत्र के द्वारा पिंड दान किए जाने पर मुक्ति हो जाती है? पिंड दान करना चाहिए या नहीं?
उत्तर :
पिंडदान वैदिक कर्मकांड की एक नैमित्तिक क्रिया है जो पितरों की आत्मा की शांति के लिए किया जाता है (1)। अतः इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर तो यही है कि किसी प्रकार के कर्मकांड से किसी जीव को मुक्ति नहीं मिलती। हाँ अपने माता-पिता या पितामह आदि के अनुग्रहों के ऋण (अर्थात् पितृ ऋण) से किसी सीमा तक उऋण हो जाते हैं (3)। किंतु इसका भी कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता।
सतयुग में धर्म के चारों पद (सत्य, दया, तप और शौच) का प्रभुत्व होने के कारण लोगों में इतनी आत्मशक्ति होती थी कि वे पता लगा सकते थे कि उनके दिवंगत पूर्वज कहाँ और किस स्थिति में हैं। यदि वह स्वर्ग में हैं तो महाजन उन पूर्वजों का आह्वाहन कर उनको उपहार प्रदान करके उनकी आत्मा को शांति प्रदान करने में सहायक होते थे। इसी प्रकार जो नरक में यातना भोग रहे होते हैं, यदि तर्पण या पिंडदान वेद के अनुसार शत-प्रतिशत अभिप्रमाणित रूप से किया जाए तो उनके कष्ट भोगने में भी यत्किञ्चित् न्यूनता आ जाएगी। जिन्हें कहीं मनुष्य देह प्राप्त हो चुका है, उन्हें भी क्षणिक शांति का अनुभव हो सकता है। किंतु यदि अनुष्ठान त्रुटि पूर्वक संपन्न हुआ है तो उसका विपरीत प्रभाव भी हो सकता है। क्योंकि कर्मकांड संबंधी अनुष्ठानों में भक्ति का तो सर्वथा राहित्य होता ही है और यदि कर्मकांड भी पूर्णरूपेण प्रामाणिक न हुआ तो यजमान का भी सर्वनाश हो जाता है। वेद कहता है -
पिंडदान वैदिक कर्मकांड की एक नैमित्तिक क्रिया है जो पितरों की आत्मा की शांति के लिए किया जाता है (1)। अतः इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर तो यही है कि किसी प्रकार के कर्मकांड से किसी जीव को मुक्ति नहीं मिलती। हाँ अपने माता-पिता या पितामह आदि के अनुग्रहों के ऋण (अर्थात् पितृ ऋण) से किसी सीमा तक उऋण हो जाते हैं (3)। किंतु इसका भी कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता।
सतयुग में धर्म के चारों पद (सत्य, दया, तप और शौच) का प्रभुत्व होने के कारण लोगों में इतनी आत्मशक्ति होती थी कि वे पता लगा सकते थे कि उनके दिवंगत पूर्वज कहाँ और किस स्थिति में हैं। यदि वह स्वर्ग में हैं तो महाजन उन पूर्वजों का आह्वाहन कर उनको उपहार प्रदान करके उनकी आत्मा को शांति प्रदान करने में सहायक होते थे। इसी प्रकार जो नरक में यातना भोग रहे होते हैं, यदि तर्पण या पिंडदान वेद के अनुसार शत-प्रतिशत अभिप्रमाणित रूप से किया जाए तो उनके कष्ट भोगने में भी यत्किञ्चित् न्यूनता आ जाएगी। जिन्हें कहीं मनुष्य देह प्राप्त हो चुका है, उन्हें भी क्षणिक शांति का अनुभव हो सकता है। किंतु यदि अनुष्ठान त्रुटि पूर्वक संपन्न हुआ है तो उसका विपरीत प्रभाव भी हो सकता है। क्योंकि कर्मकांड संबंधी अनुष्ठानों में भक्ति का तो सर्वथा राहित्य होता ही है और यदि कर्मकांड भी पूर्णरूपेण प्रामाणिक न हुआ तो यजमान का भी सर्वनाश हो जाता है। वेद कहता है -
दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रं यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्॥
स वाग्वज्रं यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्॥
वेद
वेद में एक कथा आती है (कर्म के प्रकरण में पढ़ें) कि एक अति क्रूर राक्षस वृत्रासुर देवताओं पर विजय प्राप्त कर स्वर्ग का सम्राट बनना चाहता था। इस हेतु उसने श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों को बलपूर्वक यज्ञ करने के लिए बाध्य किया। यज्ञ का मंत्र, अर्थात् संपुट (लक्ष्य) था -
इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्व
अर्थात् “इंद्र के शत्रु (अर्थात् राक्षसों) की विजय हो।” वेदों में तीन स्वर होते हैं - उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। ब्राह्मण विद्वान यह नहीं चाहते थे कि ऐसे घोर राक्षस स्वर्ग का सम्राट बने। इसलिए उन पंडितों ने जान-बूझकर मंत्र में प्रयुक्त होने वाले एक उदात्त स्वर को अनुदात्त करके गाया, जिससे उसका अर्थ बन गया 'इंद्र के शत्रु का पराजय हो।" अर्थात् मंत्र का अर्थ विपरीत हो गया। वृत्रासुर को वेद के स्वरों का ज्ञान नहीं था और इस कारण वह पंडितों की चालाकी की समझ नहीं पाया। यज्ञ के परिणाम स्वरूप राक्षस का अंत हो गया और देवता विजयी हुए।
षड्भिः संपद्यते धर्मस्तेऽति दुर्लभतराः कलौ ।
“धर्म की छः प्रमुख शर्ते हैं, जिनका पालन कलियुग में लगभग असंभव है।”
ये छः शर्त हैं -
आज के युग में प्रत्येक अक्षर का सही उच्चारण करने वाला कोई विरला ही मिलेगा। पुनः मंत्र में निहित साम संगीत को जानने वाले व देवता का आह्वान करने वाले तो दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे। तो चाहे वह पिंडदान हो या कोई भी कर्मकांड हो, उसका लाभ क्या? अर्थात किसी भी प्रकार की त्रुटि होने पर सांसारिक लाभ भी नहीं मिलेगा, मुक्ति आदि की तो वार्ता ही क्या?
ये छः शर्त हैं -
- प्रत्येक वेद मंत्र के प्रत्येक अक्षर का उच्चारण अक्षरशः सही हो।
- मंत्र के स्वर सामवेद के अनुसार पूर्णतया शुद्ध हों।
- यज्ञ में लगने वाला धन विशुद्ध कमाई का हो।
- यज्ञ के स्थान की शुद्धि हेतु जल का शुद्धिकरण हो व उस जल से स्थान की शुद्धि करने का ज्ञान हो।
- यज्ञ कराने वाले पंडित निःस्वार्थ हों एवं उन्हें पूरी आस्था हो।
- प्रायः यज्ञ का फल देवता देते हैं। पुरोहित को यज्ञ के देवता का आह्वान करना आना चाहिए अन्यथा यज्ञ का फल कौन देगा?
आज के युग में प्रत्येक अक्षर का सही उच्चारण करने वाला कोई विरला ही मिलेगा। पुनः मंत्र में निहित साम संगीत को जानने वाले व देवता का आह्वान करने वाले तो दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे। तो चाहे वह पिंडदान हो या कोई भी कर्मकांड हो, उसका लाभ क्या? अर्थात किसी भी प्रकार की त्रुटि होने पर सांसारिक लाभ भी नहीं मिलेगा, मुक्ति आदि की तो वार्ता ही क्या?
तथापि लोकादर्श के लिए हमारे देश में महान संत एवं स्वयं भगवान भी पिंड दान आदि करते या करने का परामर्श देते देखे गए हैं। क्योंकि जो लोग भक्ति नहीं करते, वे यदि वेदानुसार कर्मकांड भी नहीं करेंगे तो उनका जीवन पूर्णतया उच्छृंखल हो जाएगा, विकर्मी हो जायेंगे। अतः यदि वेदों में उनकी श्रद्धा बनी रहेगी तो कम से कम कुछ दान पुण्य करेंगे। शुचितापूर्वक सात्विक जीवन व्यतीत करेंगे। ऐसी स्थिति में यदि उन्हें कोई वास्तविक संत मिल गया और उसने समझा दिया कि इन सब कर्मकांड को भक्ति के साथ भगवद् अर्पण बुद्धि से करो तो तुम्हें मुक्ति मिल सकती है और यदि उसे यह बात समझ में आ जाए तो उसका कल्याण संभव है। किंतु जिसका वेद में, संतों में, किञ्चित् मात्र भी विश्वास नहीं है, वह तो किसी संत को सुनेगा ही नहीं तो सन्मार्ग पर चलेगा कैसे?(2)
इसलिए शंकराचार्य ने ज्ञानी होकर भी अपनी माँ का श्राद्ध किया, भगवान श्रीराम ने भी दशरथ जी का पिंड दान दिया। भगवान श्री कृष्ण ने संत शिरोमणि भक्त प्रह्लाद से भी अपने पिता का श्राद्ध व पिंडदान करने का आदेश दिया। समस्त शास्त्र वेदों के प्रकांड विद्वान व रसिक शिरोमणि श्री कृपालु जी महाराज ने भी अपनी माँ का पिंडदान करवाया। उनके पुत्र-पुत्रियों ने श्री महाराज जी का भी पिंड दान दिया। (https://www.shri-kripalu-kunj-ashram.org/uploads/1/9/8/0/19801241/_skka.2015.newyear.newsletter.pdf)
इसलिए शंकराचार्य ने ज्ञानी होकर भी अपनी माँ का श्राद्ध किया, भगवान श्रीराम ने भी दशरथ जी का पिंड दान दिया। भगवान श्री कृष्ण ने संत शिरोमणि भक्त प्रह्लाद से भी अपने पिता का श्राद्ध व पिंडदान करने का आदेश दिया। समस्त शास्त्र वेदों के प्रकांड विद्वान व रसिक शिरोमणि श्री कृपालु जी महाराज ने भी अपनी माँ का पिंडदान करवाया। उनके पुत्र-पुत्रियों ने श्री महाराज जी का भी पिंड दान दिया। (https://www.shri-kripalu-kunj-ashram.org/uploads/1/9/8/0/19801241/_skka.2015.newyear.newsletter.pdf)
यह सभी महापुरुष परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर चुके थे अथवा स्वयं ही मुक्तिदाता थे। इन्हें ये सब धार्मिक क्रियाओं की कोई आवश्यकता नहीं थी। तथापि -
महाजनो येन गतः स पन्थाः
के अनुसार “लोग इन महापुरुषों की नकल करके उच्छृंखल न हो जाएँ,” लोकादर्श के लिए वेद विहित कर्म किए।
गीता में श्रीकृष्ण ने इस कारण को स्पष्ट करते हुए कहा -
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: | स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || 3.21||
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त्म एव च कर्मणि || 3.22||
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 3.23||
उत्सीदेयुरिमेलोका न कुर्यां कर्म चेदहम् | संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: || 3.24||
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त्म एव च कर्मणि || 3.22||
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 3.23||
उत्सीदेयुरिमेलोका न कुर्यां कर्म चेदहम् | संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: || 3.24||
“हे अर्जुन! , जनसाधारण महान व्यक्तियों को आदर्श मान कर उन्हीं के पद चिन्हों का अनुसरण करते हैं। लोग वही मानदंड अपनाते हैं जो यह महान लोग स्थापित करते हैं। (21)
ओ पार्थ! इस त्रैलोक्य में ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता हूँ । (22)
परंतु यदि मैं जन कल्याणकारी कर्म नहीं करूँगा तो यह संसार मेरा अनुसरण करके उच्श्रृंखल हो जायेगा । (23)
यदि मैं कर्म करना बंद कर दूँ तो मुझ पर संसार को भ्रमित करने का व सर्वनाश करने का आरोप लगेगा” । (24)”
इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि कर्म में पूर्णतया अनासक्त होकर इन महापुरुषों ने संसार आसक्त जीवों के लिए लोकादर्श हेतु आवश्यकता अनुसार कर्म संपन्न किए। किंतु यह विषय समस्त वेद शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा बहुत बार स्पष्ट किया जा चुका है कि मोक्ष की प्राप्ति केवल भक्ति से ही होगी।
ओ पार्थ! इस त्रैलोक्य में ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता हूँ । (22)
परंतु यदि मैं जन कल्याणकारी कर्म नहीं करूँगा तो यह संसार मेरा अनुसरण करके उच्श्रृंखल हो जायेगा । (23)
यदि मैं कर्म करना बंद कर दूँ तो मुझ पर संसार को भ्रमित करने का व सर्वनाश करने का आरोप लगेगा” । (24)”
इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि कर्म में पूर्णतया अनासक्त होकर इन महापुरुषों ने संसार आसक्त जीवों के लिए लोकादर्श हेतु आवश्यकता अनुसार कर्म संपन्न किए। किंतु यह विषय समस्त वेद शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा बहुत बार स्पष्ट किया जा चुका है कि मोक्ष की प्राप्ति केवल भक्ति से ही होगी।
शंकराचार्य भी कहते हैं -
शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते |
“श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अन्तःकरण शुद्धि ही नहीं हो सकती ।”
मोक्ष साधन समग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी । त्वद्भक्तिमृतहीनानां मोक्षः स्वपनेऽपि नो भवेत्॥ बा. रामा.
“मुक्ति की ओर ले जाने वाली सभी विधियों में से भक्ति सर्वोच्च और अपरिहार्य है।”
वारि मथे बरु होय घृत, सिकता ते बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धांत अपेल। रा. च. मा
“असंभव भी संभव हो जाए, किन्तु बिना ईश्वर-भक्ति के मुक्ति नहीं हो सकती ।”
अतः किसी भी वैदिक कर्मकांड से मुक्ति नहीं मिलेगी। तदर्थ भक्ति ही एकमात्र साधन है। आजकल तो 99.9% पुरोहित उपरोक्त अनिवार्यता से रहित हैं। अतः समाज की दृष्टि से पिंडदान करने में कोई क्षति नहीं है । किन्तु उससे किसी कल्याणकारी आध्यात्मिक फल की आशा न करें ।
रागानुगा भक्ति को गोविंद राधे । किसी विधि की अपेक्षा न बता दे ॥ 5890
भक्ति के अनुकूल गोविंद राधे। जो भी हो आचरण सोई करा दे ॥ 5891 भक्ति के प्रतिकूल गोविंद राधे। जो भी हो उदासीन भाव बना दे ॥ 5892 “रागानुगा भक्ति में किसी भी विधि की अपेक्षा नहीं है, वह स्वतन्त्र है।” (5890)“साधक को वही आचरण अपनाना चाहिए जो भक्ति के अनुकूल हो।” (5891)“जो भी (व्यक्ति या वस्तु) भक्ति के प्रतिकूल हो साधक को उससे उदासीन होकर मन से त्याग देना चाहिए ।” (5892)
- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
राधा गोविन्द गीत |
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