SHRI KRIPALU KUNJ ASHRAM
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A DIVINE MESSAGE                 
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2022 गुरु  पूर्णिमा​

सिद्धांत
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गुरु महात्म्य​

हमारे शास्त्रों में ऐसे अनेक वृतांत हैं जब कई घोर पापात्मा जीवों ने उसी जन्म में, गुरु की कृपा से, भगवत्प्राप्ति की। क्या आप ऐसे गुरु के बारे में जानना चाहते हैं? कैसे भगवत्प्राप्ति हो?तो निम्नलिखित लेख अवश्य पढ़िए।
कृपालु लीलामृतम​​
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गुरु भक्त की परीक्षा लेते हैं

एक शरद ऋतु की रात में श्री महाराज जी ने महाबनी जी की परीक्षा ली...
कहानी
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कृपामूर्ति गुरु

विश्वामित्र उसी जन्म में राजर्षि से ब्रह्मर्षि कैसे बन गए?

गुरु महात्म्य​

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ऋषि वाल्मीकि की कहानीरत्नाकर डाकू का परिवर्तन - ऋषि वाल्मीकि
सनातन वैदिक धर्म में रत्नाकर डाकू का पाप प्रख्यात है । उस पाप के कारण रत्नाकर "रा" तथा "म" तो बोल सकता था परंतु राम नहीं बोल सकता था । ऐसे खूंखार डाकू ने जब देवर्षि नारद जी की शरण ग्रहण की तो ऐसा परिवर्तन हुआ कि वह डाकू उसी जन्म में संत वाल्मीकि के नाम से प्रख्यात हुआ। यह तो आप जानते ही होंगे कि वाल्मीकि ने रामावतार से पूर्व ही रामायण की रचना की थी । और आप भीलनी शबरी की कथा से भी अवगत होंगे। गुरु की पूर्ण शरणागति कर, उनकी निरंतर सेवा करने से अनपढ़ गँवार भीलनी भी श्री राम की कृपा की पात्र बन गई। उसी जन्म में श्री राम स्वयं उसको दर्शन देने के लिए गए।

इसीलिए कहा जाता है कि गुरु की महिमा अपरंपार है। ऐसे गुरु का संग किए बिना यह जीवन व्यर्थ है। गुरु ही ज्ञान चक्षु खोलता है, तत्वज्ञान का बोध कराता है, वासना युक्त मन को शुद्ध कर दिव्यता प्रदान करता है तथा प्रेम दान भी करता है। 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु - ब्रह्मा, विष्णु, शिवगुरु ही ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव है
गुरु को ब्रह्मा कहा जाता है क्योंकि गुरु जीव के अंतःकरण में ज्ञान का प्रादुर्भाव करता है, विष्णु बनकर उस ज्ञान की रक्षा करता है, तथा शिव बनकर अज्ञान का संहार करता है। गुरु को भगवान का ही प्रत्यक्ष रूप माना जाता है। इसलिए तीनों लोकों में गुरु तत्त्व के सामान कोई तत्त्व है ही नहीं।

गुरु पूर्णिमा गुरु की आराधना का दिन है। आराधना शब्द का अर्थ है अत्यधिक प्रेम। शिष्य अपने गुरु की अनवरत आराधना करता है। गुरु पूर्णिमा का पर्व शिष्य को अपने गुरु के प्रति प्रेम और कृतज्ञता को व्यक्त करने का स्वर्णिम अवसर है।

तो, गुरु से अत्यधिक प्रेम बढ़ाने के लिए हमें क्या करना होगा ?​
सर्वप्रथम आपको यह समझना होगा कि गुरु किसे कहते हैं, फिर उन गुरु से तत्त्व ज्ञान प्राप्त करके उनके आदेशों का पालन करना होगा । आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने के लिए तत्त्व ज्ञान पर अमल करना आवश्यक है । पूर्णतया अमल सहसा नहीं हो जाएगा, अमल में लाने के लिए समय देना होगा तथा प्रयास करना होगा। इस यात्रा के प्रारंभ में पूर्व संस्कारों के कारण सबसे त्रुटियाँ होती हैं । रत्नाकर और शबरी ने पूर्व जन्मों में साधना द्वारा गुरु के शब्दों पर विश्वास की पूंजी कमा ली थी । इसलिए इस जन्म में गुरु के मिलते ही पूर्ण श्रद्धा हो गई और शरणागति में रही बाकी कसर उन्होंने साधना तथा सेवा द्वारा पूरी कर ली । संभव है कि हम में से कुछ लोगों को गुरु के शब्दों पर उन की भाँति पूर्ण विश्वास तत्काल न हो । अतः ऐसे लोगों को गुरु के वाक्यों पर विश्वास दृढ़ करने के लिए भी साधना करनी होगी । तत्पश्चात पूर्ण शरणागति करने के लिए साधना करनी होगी। यदि पूर्ण शरणागति इस जन्म में नहीं भी हुई, तो भी आपकी साधना व्यर्थ नहीं जाएगी, इसलिये निराश न हों। अगले जन्म में आपकी साधना वहीं से शुरू होगी जहाँ पिछले जन्म में छूटी थी। इस तरह लगातार साधना करते रहने से एक दिन आप भी पूर्ण शरणागत हो जाएँगे - यही गुरु पूर्णिमा का वास्तविक अर्थ है। और जैसे-जैसे आपकी साधना में परिपक्वता आती जाएगी,  गुरु के प्रति आपका प्रेम स्वतः उत्तरोत्तर बढ़ता जायेगा।  एक दिन आप भी अपने गुरु के प्रति वैसे ही शरणागत हो जायेंगे जैसे वाल्मीकि और शबरी हुए थे। 

चलिए अब हम इस लेख में  इस की पूरी प्रक्रिया समझते हैं। 
पहले आप इस बात पर विचार करिए कि कलियुग में वास्तविक गुरु को  पहचाना कैसे जाए ? आजकल अपने को गुरु कहलवाने वाले कई हैं जिस के कारण जिज्ञासु को वास्तविक गुरु को पहचानने में चूक हो सकती है। इसके लिए सर्वप्रथम इस विषय से संबंधित ज्ञान आवश्यक है ।  यथा -
  1. गुरु की परिभाषा क्या है ?
  2. गुरु कहलाने के योग्य कौन है ? 
  3. गुरु उपासना से क्या लाभ ?
  4. गुरु से ज्ञान कैसे मिलेगा ?

जब आप उपरोक्त बातों को समझ लेंगे, तब वास्तविक गुरु से मिलने की व्याकुलता बढ़ाइए । फिर उनकी पूर्ण शरणागति कर, उनके आदेशों का पालन करने पर उनकी अनवरत आराधना किये बिना आप नहीं रह सकते।

गुरु की परिभाषा

आधुनिक बोलचाल की भाषा में “गुरु” शब्द का अर्थ है "किसी क्षेत्र में विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्ति"। परंतु ‘गुरु’ संस्कृत शब्द है और संस्कृत व्याकरण के अनुसार गुरु शब्द का अर्थ बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले अर्थ से बहुत भिन्न है। शास्त्रों के अनुसार संस्कृत शब्द गुरु के दो अर्थ हैं।
गुं रौतीति गुरु: ।
“जो हमारे अज्ञान के अंधकार को दूर करता है, उसे गुरु कहते हैं​।”
 गुशब्दस्त्वंधकारत्वात्, रुशब्दस्तन्निरोधतः । तस्मादंधकारनिरोधत्वात् गुरूरित्यभिधीयते ॥
”’गु’ का अर्थ है ‘अज्ञान’ और ‘रु’ का अर्थ है ‘भंजन करना’ । गुरु अज्ञान रूपी ग्रंथि को काट देते हैं, इसलिए उन्हें गुरु कहा जाता है।”

गुरु शब्द की दूसरी परिभाषा है -
गृणाति ज्ञानं इति गुरु: ।
“दिव्य ज्ञान प्रदान करने वाला ही गुरु है।”
​
इन दो परिभाषाओं से स्पष्ट है कि संगीत, नृत्य, विज्ञान आदि जैसे किसी भी विशेष विषय के विशेषज्ञ को “गुरु” की उपाधि से संबोधित करना गुरु शब्द के असली अर्थ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । क्योंकि, पहले तो ऐसा विशेषज्ञ मात्र एक विषय का ही ज्ञान प्रदान कर सकता है। दूसरा, उस एक विषय में भी उसका ज्ञान परिपूर्ण नहीं है । सोचिए ! जिसका अपना अज्ञान नहीं गया तो वह व्यक्ति किसी दूसरे के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने में सक्षम कैसे हो सकता है? 

इससे ये भी निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी मायाबद्ध​ जीव में गुरु कहलाने की योग्यता हो ही नहीं सकती, क्योंकि सभी मायाबद्ध​ जीव अभी अज्ञान की जननी माया के आधीन हैं ।

गुरु कहलाने के योग्य कौन है?

आइए हम शास्त्रों के द्वारा गहराई से जानें कि दूसरों की अज्ञानता को दूर करने की यह असाधारण योग्यता किसके पास है?
​
वेद भगवान से प्रकट हुए​।
निःश्वसितमस्य वेदाः ।
वेद जो कि सर्वशक्तिमान भगवान की श्वास से प्रकट हुए (निःश्वसितमस्य वेदाः) और ज्ञान का अंतिम भंडार हैं, यह उद्घोष करता है -
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । ​
मुंडकोपनिषद् १.२.१२
“जो गुरु इन दो महत्वपूर्ण गुणों से संपन्न हो उसकी ही शरण ग्रहण करो। - 
1. वह श्रोत्रिय हो अर्थात् समस्त शास्त्रों वेदों के मर्म का ज्ञाता हो।
2. वह ब्रह्मनिष्ठ हो अर्थात भगवत्प्राप्ति कर चुका हो।”
शुकदेव परमहंसशुकदेव परमहंस राजा परिक्षित को भागवत सुनाते हुए
इन दो गुणों में भी सर्वोपरि ब्रह्मनिष्ठता है। क्योंकि भगवत् प्राप्त जीव को भगवान की कृपा से स्वतः ही प्रत्येक विषय का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। क्योंकि भगवत् प्राप्ति के समय भगवान अपने संपूर्ण ज्ञान, अनंत अपरिमेय अपौरुषेय परमानंद जीव को प्रदान करते हैं। परंतु यदि आपके द्वारा चयन किया हुआ गुरू केवल श्रोत्रिय है तो वो साधना के मार्ग में आने वाली अड़चनों को नहीं हटा सकता, संशयों का समाधान नहीं कर सकता और न ही अंतःकरण को दिव्य बनाकर उसमें दिव्य प्रेम प्रदान कर सकता है।

श्रीमद् भगवत गीता तथा श्रीमद् भागवत महापुराण भी यही मत है –

तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम् । शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥ ​
भागवत ११.३.२१
”ऐसे महापुरुष की  शरणागति स्वीकार करो जो शास्त्रों वेदों का ज्ञाता हो और भगवत् प्राप्ति भी कर चुका हो। ऐसे संत को पूर्ण रूप से मन बुद्धि का समर्पण करो । अपनी जिज्ञासाओं को संतुष्ट करने के लिए विनम्रतापूर्वक उससे प्रश्न करो और निःस्वार्थ भाव से उसकी सेवा करो । उनकी कृपा से तुमको सही पथ तथा ध्येय​ का ज्ञान होगा ।” 

श्री चैतन्य महाप्रभु कहते हैं,
जेइ कृष्ण तत्त्ववेत्ता, सेइ गुरु हय ।
“ जो श्री कृष्ण नामक तत्व को पा चुका हो वही गुरू है।"

गुरु की उपासना करने से मेरा क्या लाभ होगा?

इसका तो आपको भली भाँति अनुभव है कि संसार में बिना शिक्षक के वर्णमाला के मात्र एक अक्षर का ज्ञान (उच्चारण तथा लेखन) कोई अपने आप नहीं सीख सकता है। तो फिर पूरी भाषा का संपूर्ण विज्ञान अपने आप कैसे हो जाएगा? आध्यात्मिक ज्ञान तो अत्यंत गूढ़ है तथा परोक्ष है । अतः उसको अपने आप प्राप्त करना तो कल्पनातीत है। जब संसारी विषय के लिए भी शिक्षक की आवश्यकता होती है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक जगत् के ऐसे शिक्षक की आवश्यकता होगी जो आध्यात्मिक ज्ञान को आत्मसात कर चुका हो । ऐसे आध्यात्मिक शिक्षक को भगवत् प्राप्त संत  कहा जाता है।
तुलसीदास जी कहते हैं,
गुरु बिनु भव निधि तरई न कोई, जो विरन्चि शंकर सम होई ।
सो विनु संत न काहू पाई ॥
“गुरु के बिना कोई भी माया के इस भवसागर को पार नहीं कर सकता चाहे वो ब्रह्मा शंकर ही क्यों ना हों ।”
​
ये सभी शास्त्र एकमत से एक ही बात पर जोर दे रहे हैं कि एक सच्चे आध्यात्मिक गुरु की सहायता के बिना भगवान को जानना असंभव है। सच्चा आध्यात्मिक गुरु अर्थात श्रोत्रियं (सभी वेदों शास्त्रों के अंतरंग ज्ञान से परिपूर्ण) और ब्रह्मनिष्ठम् (भगवत प्रेम प्राप्त कर चुका  हो)।
तो गुरु भगवान को जानते है। पर प्रश्न यह है कि हमें उनसे ज्ञान कैसे मिलेगा?

ऐसे गुरु से हमें ज्ञान कैसे मिलेगा

हम उनसे ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं? वेद कहते हैं -
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।   कठोपनिषद् १.३.१४
“उठो, जागो और एक संत के पास जाकर उससे ज्ञान की भिक्षा मांगो।”

गीता में उल्लेख किया गया है कि साधक एक सच्चे संत की संगति और मार्गदर्शन से केवल तभी लाभान्वित हो सकता है जब वह निम्नलिखित 3 नियमों का पालन करता है -

1.    तद्विद्धि प्रणिपातेन किसी भगवत्प्राप्त संत के श्री चरणों में मन बुद्धि को पूर्णरूपेण शरणागत कर दो और 
2.    परिप्रश्नेन उनसे दीनता पूर्वक​ प्रश्न कर अपनी जिज्ञासाओं को शांत करो और  
3.    सेवया उनके आदेशों का पालन करते हुए उनकी निःस्वार्थ सेवा करो

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का श्री वृंदावन धाम में अलौकिक प्रवचन​
जब इन 3 नियमों का पालन जीव करेगा तभी उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: अर्थात् वे भगवत्प्राप्त संत आपके अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव कर पाएँगे। अन्यथा वे उपदेश देते जायेंगे, फिर भी शिष्य को  लाभ नहीं  मिलेगा। लाभ प्राप्त करने के लिए गुरु के वाक्य में पूर्ण श्रद्धा और उनके आदेशों का पालन दोनों अनिवार्य हैं। 
संक्षेप में यूं समझिये कि अगर किसी ने ऐसे गुरु की शरण ले ली (जिन्हें वेद शास्त्र का ज्ञान हो, दिव्य प्रेम प्राप्त हो चुका हो, और जिनमें जिज्ञासु साधक के अंतःकरण में तत्त्व ज्ञान प्रदान करने का सामर्थ्य हो), तो भगवत्प्राप्ति, दुःख निवृत्ति और परमानंद प्राप्ति में कोई देर नहीं होगी।

नारद जी ने भी प्रह्लाद को, जब वे अपनी माँ के गर्भ में थे, यही ज्ञान दिया -
गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च ।
संगेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ॥
भा. ७.७.३०
“यद्यपि भगवत्प्राप्ति के कई तरीके हैं, तथापि अपने गुरु को सब कुछ समर्पित करते हुए श्रद्धा पूर्वक सत्संग और सेवा करना उनमें सबसे सरल और श्रेष्ठ तरीका है। “
​
इसीलिए अदिति ने भगवान् श्री कृष्ण से कहा,
भक्तिर्यथा हरौ मेऽस्ति, तद्वरिष्ठा गुरौ यदि ।
ममास्ति तेन सत्येन, संदर्शयतु मे हरि: ॥ ​
पद्म पुराण
“यदि मेरी गुरु भक्ति आपकी भक्ति से श्रेष्ठ हो, तो कृपया आप अपना दिव्य रूप मुझे अभी दिखाइए” - और श्रीकृष्ण को उनके सामने आना पड़ा।
अदिति और भगवान श्री कृष्ण
अदिति ने भगवान श्री कृष्ण से कहा - यदि मेरी गुरु भक्ति आपकी भक्ति से श्रेष्ठ हो, तो कृपया आप अपना दिव्य रूप मुझे अभी दिखाइए
भागवत का दुंदुभी घोष है - 
आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् । न  मर्त्य बुद्ध्याऽ सूयेत  सर्व देवमयो  गुरु: ॥
भा. १.१७.२७
श्री कृष्ण ने कहा “उद्धव ! सच्चे साधक को आचार्य को मेरा प्रत्यक्ष रूप मानना चाहिए।  गुरु में मनुष्य की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए और न ही उनका किंचित मात्र अपमान करना चाहिए। गुरु भगवान् के सब रूपों के मूर्तिमान अवतार हैं।”

​सारे अपराधों में नामापराध सबसे बड़ा अपराध होता है।  संत का निरादर करना सबसे भयानक अपराध है।
भावोऽप्यभावमायाति कृष्णप्रेष्ठापराध्तः
भगवान अपने भक्तों के प्रति अपराध कदापि सहन नहीं कर सकते।  चैतन्य महाप्रभु के इतिहास को याद कीजिये । जब जगाई मधाई ने नित्यानंद जी का अपमान किया तुम महाप्रभु जी ने जगाई मधाई को दंड देने हेतु सुदर्शन चक्र को बुलाया । उससे पूर्व जब दुर्वासा ऋषि ने अनन्य भक्त अम्बरीष का अपमान किया, श्री कृष्ण ने दुर्वासा के पीछे सुदर्शन चक्र लगा दिया । दुर्वासा उस चक्र के ताप से तपते रहे । इसलिए भगवत पथ पर चलने वालों को बहुत  सावधानी से जीवन व्यतीत करना होगा तथा महापुरुष के प्रति नामापराध करने से सर्वदा बचें। नहीं तो आप अपने सभी आध्यात्मिक धन की पूँजी खो देंगे । 

​यह कोरा ज्ञान प्राप्त करने से काम नहीं चलेगा। यह सब ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत इस पर अमल करना होगा । गुरु में पूर्ण शरणागति के द्वारा ही रत्नाकर तथा शबरी को उसी जीवन में भगवत प्राप्ति हो गई । यदि आपको भी सच्चा संत मिल गया है और उनकी तरह भगवत मालटाल चाहिए, तो आपको भी उन्हीं की तरह गुरु के पूर्ण शरणागत होना होगा । स्मरण रहे कि भगवान शारीरिक कर्म नोट नहीं करते वे केवल मन की शरणागति को ही शरणागति मानते हैं । तो आइए, अपनी निष्ठा तथा प्रेम को प्रगाढ़ करने के लिए गुरु पूजन की विधि जानते हैं।
चैतन्य महाप्रभु और जगाई मधाई लीला
चैतन्य महाप्रभु और जगाई मधाई लीला

गुरु की उपासना

गुरु परमानंद प्राप्ति का मार्ग जीव के लिए प्रशस्त करते हैं । परमानंद प्राप्ति ही प्रत्येक जीव का परम चरम लक्ष्य है इसीलिए एक सच्चा साधक अपने जीवन के हर क्षण, और विशेष रूप से गुरु पूर्णिमा के दिन, गुरु की आराधना करता है ।
​
चलिए अब हम अपने परम पूज्य गुरुदेव के पाद पद्मों की इन पदों से वंदना करते हैं - 
प्रथमं सद्गुरुं वन्दे, श्रीकृष्णं तदनन्तरम् ।
गुरु: पापात्मनां त्राता, श्रीकृष्णस्त्वमलात्मनाम् ॥
“सर्वप्रथम हम गुरु-चरणों में नमन करते हैं। क्योंकि गुरुदेव तो पापियों के उद्धारक हैं, जबकि श्रीकृष्ण विशुद्धात्माओं के।”
गुरुः कृपालुर्म शरणम्। वन्देऽहं सद्गुरु चरणम्॥ ​
“मैं अपने अत्यंत कृपालु गुरुदेव के चरण कमलों में शरण ग्रहण करती हूँ। मैं अपने सद्गुरु के चरणों की वंदना करती हूँ। “
औरन को गुरु हो या न हो गुरु मेरो कृपालु सुभाग हमारो ​
“बाकी और कोई चाहे श्री महाराज जी को अपना गुरु माने या न माने, लेकिन मेरा तो यह परम सौभाग्य है कि वे मेरे परम पूज्य गुरुदेव हैं।"
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श्री महाराज जी के चरण कमल​
इसलिए, गुरु पूर्णिमा मनाने का वास्तविक ढंग यही है कि सुबह जल्दी उठें, फिर उनके चरणों में अपार प्रेम व श्रद्धा के साथ फूल, चन्दन इत्यादि अर्पित करें । पूरे दिन मन से स्मरण करते हुए कीर्तन करें और प्रतिज्ञा कर लें कि आज और अन्य दिनों में भी उनके पादपद्मों में पूर्ण शरणागत रहेंगे तथा हर समय उनके  प्रत्येक आदेश का पालन अक्षरशः करेंगे।
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गुरु भक्त की परीक्षा लेते हैं

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यह वृत्तान्त उस समय का है जब महाराज जी महाबनी जी के साथ प्रतापगढ़ में रहते थे....

दीपावली का पर्व समीप आ रहा था । श्री महाराज जी के साथ दिवाली मनाने के लिए लगभग 50 साधक आसपास के शहरों से महाबनी जी के घर बिना बताये आ गए । सर्दियों की ठंडी रात थी। उन दिनों लोग यात्रा के समय बिस्तरबंद लेके चलते थे जिसमें एक पतला सा सूती गद्दा, तकिया, चादर और रजाई होती थी। लेकिन उन साधकों में से कोई भी अपना बिस्तर लेकर नहीं आया । महाबनी जी के घर​​ में महाराज जी को मिलाकर 7 लोग रहते थे । उनके पास कुछ अतिरिक्त गद्दे और रजाई थे पर 50 लोगों के लिए तो पर्याप्त नहीं थे न ही उनके सोने के लिए कोई  पलंग था । महाबनी जी ने अपने पड़ोसियों से कुछ गद्दे और रजाइयाँ मंगाईं और एक रजाई के अंदर दो-दो लोग सो गए । एक साधक को फिर भी कोई रजाई नहीं मिली और वह ऊन की चादर ओढ़कर एक बड़ी आरामकुर्सी पर ही सो गया । सबके सोने की व्यवस्था करके एक खटिया​ पर महाबनी जी अपनी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ एक रजाई ओढ़कर सो गए। 
Pictureश्री महाराज जी एवं उनके परम भक्त श्री हनुमान प्रसाद महाबनी की लीला
बीच रात को श्री महाराज जी अपने कमरे से बाहर आये और उस साधक को देखा जो आराम कुर्सी पर सो रहा था । और फिर महाबनी जी और उनकी पत्नी को खटिया पर रजाई ओढ़कर सोते हुए देखा। यह देखकर श्री महाराज जी ने महाबनी जी को डांटा कि उन्होंने प्रत्येक अतिथि  के सोने  की यथोचित व्यवस्था करने से पूर्व अपने परिवार के आराम के बारे में सोचा।  

महाबनी जी ने तुरंत बिना हिचकिचाहट के अपनी रजाई और
खटिया​ आराम कुर्सी पर सोने वाले साधक को दे दी । फिर उन्होंने अपने परिवार को ठंड से बचाने के लिए घर के एक कोने में तपका लगाकर अपने परिवार के साथ पूरी रात्रि जागकर बिता दी ।

​
सुबह महाराज जी ने महाबनी जी के त्याग की प्रशंसा की । साथ ही बाकी लोगों को डांटा कि उन्होंने महाबनी जी के बारे में नहीं सोचा घोर सर्दी में बिना बिस्तर रजाई के पहुँच गए । मेज़बान को अतिथि के आराम की व्यवस्था करनी चाहिए साथ ही अतिथि को मेज़बान के बारे में भी सोचना चाहिए ।

नीति

यह वृत्तांत पढ़कर आपमें से कुछ लोग ये सोच रहे होंगे कि श्री महाराज जी ने महाबनी जी को क्यों डांटा ? आखिर वह उनका ही घर था और ऊपर से उनके परिवार के चार लोग एक खटिया पर में एक रजाई के अंदर सो रहे थे। वो वैसे भी आराम से नहीं सो रहे होंगे ! 

साधकगण ध्यान दें - यह न भूलिए कि गुरु हमारे ऊपर कृपा के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते।

संत हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह पै कह न आना ।
निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर दुख द्रवई सुसंत पुनीता ॥
“संत का हृदय मक्खन से भी अधिक कोमल होता है।  मक्खन को ताप देने पर मक्खन पिघलता है लेकिन संत का हृदय दूसरों की पीड़ा को देखकर, कृपा से पिघल जाता है।“ 
​
यद्यपि गुरु का व्यवहार बाहर से कठोर प्रतीत होता हो परंतु उनका हृदय अत्यंत कोमल  होता है । गुरु का प्रत्येक कार्य अपने शिष्यों के उत्थान  के लिए ही होता है। 
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि मारे खोट । भीतर हाथ सहारि दे, बाहर मारे चोट ।
"गुरु एक कुम्भकार की तरह होता हैं, जो घड़ा बनाते समय बाहर से तो चोट मारता है पर अंदर से हलके हाथ से उसे सहारा भी देता है ताकि कहीं घड़ा टूट ना जाएऔर साथ ही सुडौल बने" । ठीक इसी तरह, गुरु बाहर से कठोर व्यवहार करके शिष्य के दोष का दमन करते हैं ताकि वह आध्यात्मिक पथ पर तत्परता से आगे बढ़ सके, और साथ ही अंदर से योगक्षेम भी वहन करते हैं।
​
श्री महाराज जी भी एक निपुण कुम्भकार हैं। वो कुछ बातें सिखाना चाहते थे। 
1. भक्त की सेवा करो जिससे भगवान् की कृपा जल्दी मिले। भक्त के लिए स्वयं के सुख का त्याग करने से भगवान् जल्दी खुश होते हैं।
2. गुरु कृपा पाना चाहते हो तो उनसे कभी तर्क, वितर्क, कुतर्क नहीं करना चाहिए । अपने दोष को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करो । 
3. उन्होंने दूसरों के लिए त्याग करने का एक उदहारण भी रखा और 
4. उन्होंने साधकों को भी सिखाया कि जिस तरह आतिथेय एक अथिति के सुख का ध्यान रखता है, उसी तरह एक अतिथि को भी अपने आतिथेय के सुख का ध्यान रखना चाहिए। 

कृपामूर्ति गुरु

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ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठराजर्षि विश्वामित्र एवं महर्षि वशिष्ठ की कथा
​राजर्षि विश्वामित्र कहलाने से पूर्व आपका नाम राजा सत्यरथ था । एक बार सत्यरथ अपनी सेना के साथ जंगल में शिकार के लिए गए । सांझ होने तक राजा साहब तथा उनकी सेना भूख, प्यास और थकान से व्याकुल थी। पानी की खोज में सत्यरथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे । संत महात्माओं से सत्यरथ को पानी से अधिक कोई अपेक्षा नहीं थी ! परंतु सत्यरथ की अपेक्षा के विपरीत महर्षि वशिष्ठ ने उनको खाने के लिए अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन, तथा  सरस पेय पदार्थ दिए तथा आराम करने के लिए समुचित व्यवस्था भी की। यह देखकर सत्यरथ को आश्चर्य हुआ कि जंगल में एक कुटिया में रहने वाले महात्मा के पास इतना वैभव कैसे आया । 

महर्षि वशिष्ठ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के मानस पुत्र तथा भगवत प्राप्त संत थे । शरीरधारियों के लिए सांसारिक पदार्थ आवश्यक हैं इसलिए ब्रह्मा जी ने महर्षि वशिष्ठ की शारीकिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कामधेनु की पुत्री नन्दिनी दी थी । महर्षि वशिष्ठ की आज्ञानुसार नन्दिनी इच्छित वस्तु तत्क्षण प्रस्तुत करने में समर्थ है । जब सत्यरथ को यह ज्ञात हुआ कि ये सब नन्दिनी से उत्पन्न हुआ है तो तो सत्यरथ लोभ में अंधा हो गया । उसने महर्षि वशिष्ठ से नन्दिनी मांगी । नन्दिनी भगवान की भक्ति में महर्षि वशिष्ठ की सहायता करती थी अतः महर्षि वशिष्ठ ने साफ इंकार कर दिया । सत्यरथ की कामना पूर्ति नहीं हुई अतः वह क्रोध की ज्वाला में जलने लगा। यहीं से सत्यरथ की महर्षि वशिष्ठ से शत्रुता की कहानी शुरू होती है।

राज मद में चूर सत्यरथ ने महर्षि वशिष्ठ पर आक्रमण कर दिया । नंदिनी से उत्पन्न सेना से सत्यरथ की पूरी सेना हार गई। इस हार से सत्यरथ में वैराग्य उत्पन्न हुआ । वह राजपाट छोड़कर दिव्य शक्तियों को प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करने लगा । घोर तपस्या से उसने अनेक दिव्य शक्तियाँ प्राप्त कर लीं जिससे सत्यरथ राजर्षि विश्वामित्र बन गए। राजर्षि बनने के उपरांत विश्वामित्र ने पुनः अनेकों बार महर्षि वशिष्ठ को हराने के लिए उन पर आक्रमण किया। यह साधारण युद्ध नहीं था यह शक्तियों का युद्ध था परंतु महर्षि वशिष्ठ की शक्तियों के आगे विश्वामित्र की शक्तियाँ सदा परास्त हो जाती थीं ।

यद्यपि विश्वामित्र ने अनेक दिव्य शक्तियाँ तो प्राप्त कर ली थी परंतु काम, क्रोध, लोभ, मद,​ अहंकार सब के सब डेरा जमाए उसके अंतः करण में बैठे रहते थे । इसी कारणवश अनेकों बार विश्वामित्र ने अपनी सारी शक्तियाँ व्यर्थ में समाप्त कर डालीं  । पुनः और शक्तियाँ संजोने के लिए उन्होंने और तपस्या की। इस प्रकार अनेक बार परास्त होने पर क्रोध में विश्वामित्र की बुद्धि समाप्त हो गई। वशिष्ठ को जागते समय परास्त न कर पाने के कारण उसने सोते समय महर्षि वशिष्ठ की हत्या करने की ठानी।

मध्य रात्रि में विश्वामित्र फरसा लेकर महर्षि वशिष्ठ की कुटिया के पीछे छुप गए एवं उचित समय की प्रतीक्षा करने लगे । उस समय महर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुंधति से वार्तालाप कर रहे थे । अरुंधति ने पूछा,“स्वामी इस समय पृथ्वी पर सबसे बड़ा तपस्वी कौन है”? महर्षि वशिष्ठ ने कहा,”देवी ! वर्तमान में संपूर्ण पृथ्वी पर विश्वामित्र सबसे बड़ा तपस्वी है। उसके जैसा महान तपस्वी कोई नहीं है। परंतु क्रोध के कारण कई बार अपनी संपूर्ण पूंजी गँवा​ चुका है । यदि वह अपना क्रोध त्याग दे तो क्षण भर में ब्रह्मर्षि बन जाए ।”

विश्वामित्र, महर्षि वशिष्ठ
विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ के समक्ष समर्पण कर दिया
यह सुनकर विश्वामित्र का माथा ठनका “मेरा परम शत्रु मेरी पीठ पीछे मेरी प्रशंसा कर रहा है” । विश्वामित्र को अपनी छुद्रता और महर्षि वशिष्ठ की बड़प्पन को देख कर अत्यधिक ग्लानि हुई और उनकी मनोवृत्ति में महान परिवर्तन हुआ । उनके हृदय में धधकती प्रतिशोध तथा क्रोध की ज्वाला शांत हो गई। आंखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे। उन्होंने रात्रि में ही महर्षि वशिष्ठ की कुटिया पर दस्तक दी । महर्षि वशिष्ठ के द्वार खुलते ही विश्वामित्र फरसा फेंक कर महर्षि वशिष्ठ के चरणों में गिर पड़े । रो-रो कर विश्वामित्र ने अपने वहाँ आने का प्रयोजन भी बता दिया तथा क्षमा मांगी । महर्षि वशिष्ठ का हृदय द्रवित हो गया । महर्षि वशिष्ठ की कृपा से शरणागत विश्वामित्र उसी जन्म में राजर्षि से ब्रह्मर्षि बन गए । सनातन धर्म के इतिहास में यह एकमात्र उदाहरण है जिसमें एक ही जन्म में कोई राजर्षि से ब्रह्मर्षि बन जाए ।

नीति
  • महर्षि वशिष्ठ भागवत प्राप्त संत थे । वे छिछली नदी के समान बढ़ते उतरते नहीं रहते । मायिक लाभ अथवा हानि से संतों का कोई संबंध नहीं होता । अतः मायिक लाभ करने वाले पर कृपा तथा हानि करने वाले पर क्षोभ भी नहीं करते । यद्यपि वे किसी भी जीव के अंतःकरण की दुर्भावनाओं​ को जान लेते हैं तथापि उनको दंड नहीं देते । संत आशावादी होते हैं कि एक दिन जीव के हृदय में परिवर्तन आएगा । और हृदय परिवर्तन होते ही तुरंत कृपा कर देते हैं । पुराने अपराधों का खाता नहीं देखते । 
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  • हमेशा याद रहे - क्रोध में कभी कोई कार्य नहीं करना चाहिए । क्रोध में मानसिक संतुलन खो जाता है, अतः मन सही कर्म नहीं कर सकता।
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  • मायिक जीव चाहे कितनी भी बड़ी उपाधियाँ प्राप्त कर ले (जैसे विश्वामित्र ने राजर्षि की उपाधि प्राप्त की) काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सारे मायिक विकार जीव के हृदय में विद्यमान रहते हैं और रहेंगे क्योंकि माया का अत्यंताभाव नहीं हुआ है। जब तक जीव किसी भगवत प्राप्त संत के शरणागत होकर पश्चाताप के आँसू न बहाए तब तक मलिन हृदय शुद्ध नहीं होता । और जब तक हृदय शुद्ध नहीं होता तब तक संत कृपा कर के मालामाल नहीं कर सकते।

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