तत्त्वज्ञान
क्रोध पर नियंत्रण कैसे हो?किसी इच्छा की पूर्ति से लोभ बढ़ता है और इच्छा अपूर्ति से क्रोध उत्पन्न होता है। यदि आपके मन में किसी के प्रति (अ)ज्ञात क्रोध आता है, तो पश्चाताप करें और अपने मन को नियंत्रित करने के लिए भगवान से प्रार्थना करें।
|
कृपालु लीलामृतम्
लड्डू चोरयह कहानी तब की है जब श्री महाराज जी ने अपने प्रिय भक्तों के लिए कुछ लड्डू चुराये थे।
|
Kid’s Story
श्रीकृष्ण - सनातन सम्बन्धी जानिये अभिमन्यु ने अर्जुन को यह बोध कैसे कराया कि प्रत्येक जीव का प्रत्येक नाता इअक मात्र भगवान से ही है ।
|
तत्त्वज्ञान
प्रश्न
मुझे अपनी 4 वर्ष की बेटी पर पता नहीं क्यों अत्यधिक क्रोध आता है । मुझे क्या करना चाहिए?
उत्तर
क्रोध माया का विकार है और क्रोध का मुख्य कारण है हमारी अपूर्ण कामनाएँ। कामना जाग्रत होने पर दो परिणाम हो सकते हैं । कामना की पूर्ति पर लोभ बढ़ता है। कामना की अपूर्ति पर क्रोध आता है। हमारा यह दृढ़ विश्वास है की इच्छा पूर्ति से आनंद प्राप्ति होगी परंतु इच्छाएँ अनंत है और हमारे साधन सीमित हैं। मायिक पदार्थों को प्राप्त करने से सीमित सुख क्षण भर के लिये मिलता है ।
तो यदि हमारी इच्छाएँ पूर्ण भी हो जाएँ, तब भी अनंत काल के लिये आनंद प्राप्ति होना असंभव है। और अनंत आनंद ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है ।
मुझे अपनी 4 वर्ष की बेटी पर पता नहीं क्यों अत्यधिक क्रोध आता है । मुझे क्या करना चाहिए?
उत्तर
क्रोध माया का विकार है और क्रोध का मुख्य कारण है हमारी अपूर्ण कामनाएँ। कामना जाग्रत होने पर दो परिणाम हो सकते हैं । कामना की पूर्ति पर लोभ बढ़ता है। कामना की अपूर्ति पर क्रोध आता है। हमारा यह दृढ़ विश्वास है की इच्छा पूर्ति से आनंद प्राप्ति होगी परंतु इच्छाएँ अनंत है और हमारे साधन सीमित हैं। मायिक पदार्थों को प्राप्त करने से सीमित सुख क्षण भर के लिये मिलता है ।
तो यदि हमारी इच्छाएँ पूर्ण भी हो जाएँ, तब भी अनंत काल के लिये आनंद प्राप्ति होना असंभव है। और अनंत आनंद ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है ।
अतः यदि हमें संपूर्ण पृथ्वी का एक छत्र राज्य मिल जाये तब भी हम सदैव असंतुष्ट ही रहेंगे।
वेद व्यास जी के अनुसार - यत्पृथिव्यां व्रीहि यवं हिरण्यं पशवस्त्रियः।
नालमेकस्य पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत् ।। भागवत
"यदि किसी को संपूर्ण मृत्युलोक के सभी सुख दे दिए जाएँ फिर भी उसकी अतृप्ति अपूर्णता ज्यों की त्यों बनी रहेगी ।"
कहाँ तक कहें, स्वर्ग सम्राट इंद्र भी अपने पद से असंतुष्ट है । आनंद पाने की आशा में वह ब्रह्मा का पद चाहता है । |
ऐसा इसलिये है क्योंकि हम लोग चूने के पानी से मक्खन निकालने की कोशिश में हैं। चूने के पानी में मक्खन है ही नहीं तो निकलेगा कैसे ? जब अथक प्रयास करने पर भी इच्छा पूर्ति नहीं होती तब हम हताश हो जाते हैं । औरों पर दोषारोपण करते हैं । और यदि दोषारोपण के लिये कोई और नहीं मिलता तो अपने को ही दोषी ठहराते हैं एवं अपने हताशाजनित क्रोध से किसी ऐसे असहाय को प्रताड़ित करते हैं, जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता है।
सम्भवतः, आप किसी परिस्थिति से असंतुष्ट हैं परंतु किसी को उस का ज़िम्मेदार नहीं ठहरा पा रही हैं । छोटे बच्चों का लालान-पालन लाड़-दुलार से करना होता है । परंतु आप अपनी झुंझलाहट को अपनी बेटी पर निकाल देती हैं । वो मासूम बच्ची आपसे लाड़-दुलार की आशा रखती है । मुझे आपकी बेटी पर तरस आ रहा है। आपके प्रश्न से प्रतीत होता है की आप भी मेरे मत से सहमत हैं, परन्तु आप अपने क्रोध के आवेश में ऐसा दुर्व्यवहार करती हैं जो आप कदापि नहीं करना चाहती।
अतः यह ध्यान रहे कि वर्तमान सुख और दुख हमारे इस जन्म तथा पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों का फल है। भक्त प्रह्लाद का जन्म एक दानव परिवार में हुआ था। एक दिन गुरुकुल में, जब उनके गुरु व गुरुपुत्र कहीं बाहर गये थे, प्रह्लाद ने अन्य दानव बालकों को संबोधित किया और उन्हें भगवान के बारे में बताया। उन बालकों की जिज्ञासा थी की जब उन्हें सांसारिक सुख, सुविधा की कामना है तो प्रह्लाद उन्हें भगवान की भक्ति करने की सलाह क्यों दे रहे हैं? तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रह्लाद ने उन्हें समझाया (1)- सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोनेन देहिनाम्। सर्वत्र लभ्यते दैवात्। यथा दुःखमयत्नतः ।
भा ७.६.३
|
"ओ असुर बालकों! इस जीवनकाल में समस्त सुख और दुःख तुम्हारे पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार ही आते हैं "
इस जीवन काल में हमें सुखद क्षण हमारे पूर्व जन्म में किए गए कर्मों के फलस्वरूप मिलते हैं । इसी प्रकार आपदाएँ भी बिना प्रयत्न व इच्छा के पूर्व जन्म में किए गए कर्मों के फलस्वरूप आती हैं । अतः सदा सुखों को प्राप्त करने के लिए उद्यम करना बुद्धिमत्ता नहीं है। आपको भौतिक सुख सुविधाएँ बिना प्रयास के कर्मानुसार प्राप्त हो जाएँगी (2)। संक्षेप में कहें तो हम सभी अपने जीवनकाल में दुख नहीं चाहते हैं। हम दुःख से कोसों दूर रहना चाहते हैं, परंतु सभी के जीवन में दुख आ ही जाता है।
अतः विवेकी जीव को वेद-शास्त्र के इस वाक्य पर दृढ़ विश्वास करना होगा कि “जो कुछ भी हमारे जीवन में हमारी इच्छाओं एवं प्रयासों के विपरीत हो रहा है वह पूर्व निर्धारित है” । अतः उन अवांछित परिस्थितियों में हम विचलित न हों । वर्तमान में विवेक पूर्वक परिस्थिति का सामना करें तथा भविष्य में ऐसी पुनरावृत्ति से बचने हेतु श्रेय मार्ग का अवलंब लें ताकी आगामी जीवन में दुखों से पिंड छूट जाये ।
यदि आपको किसी पर क्रोध आता है तो सिद्धांत का मनन करें, पश्चाताप करते हुए भगवान से प्रार्थना करें कि वे हमारे क्रोधित मन को नियंत्रित करें (3) । किसी को भी दुख देना सबसे बड़ा पाप है, चाहें वह हमारा अपना मासूम बालक ही क्यों न हो। इस प्रकार सोचकर हमें उस राक्षसी प्रवृत्ति से उबरने का अभ्यास करना चाहिए ।
आपको साधना (4) द्वारा हर क्षण सदा हरि-गुरु को अपने पास मानने का अभ्यास बढ़ाना होगा । इस बात का निरंतर मनन करिये कि “वे कितने कृपालु हैं । कितना ममत्व है उनमें । मैं कृतघ्नी जीव उन्हें भूली हुई हूँ फिर भी वे सदैव मेरे ऊपर अपनी कृपा बरसाते रहते हैं । मैं देव-दुर्लभ मानव शरीर, सक्षम मन-बुद्धि, तत्व ज्ञान, सत्संग पाकर भी अपने लाभ के लिए उनकी बात नहीं मानती यद्यपि वह सब कुछ मेरी उन्नति में सहायक होगा”।
इस प्रकार कृतज्ञता एवं साधना के द्वारा अपने मन पर नियंत्रण करके आप आपनी मासूम बच्ची की परवरिश प्रेम व स्नेह से सिक्त होकर कर पायेंगी ।
यदि आपको किसी पर क्रोध आता है तो सिद्धांत का मनन करें, पश्चाताप करते हुए भगवान से प्रार्थना करें कि वे हमारे क्रोधित मन को नियंत्रित करें (3) । किसी को भी दुख देना सबसे बड़ा पाप है, चाहें वह हमारा अपना मासूम बालक ही क्यों न हो। इस प्रकार सोचकर हमें उस राक्षसी प्रवृत्ति से उबरने का अभ्यास करना चाहिए ।
आपको साधना (4) द्वारा हर क्षण सदा हरि-गुरु को अपने पास मानने का अभ्यास बढ़ाना होगा । इस बात का निरंतर मनन करिये कि “वे कितने कृपालु हैं । कितना ममत्व है उनमें । मैं कृतघ्नी जीव उन्हें भूली हुई हूँ फिर भी वे सदैव मेरे ऊपर अपनी कृपा बरसाते रहते हैं । मैं देव-दुर्लभ मानव शरीर, सक्षम मन-बुद्धि, तत्व ज्ञान, सत्संग पाकर भी अपने लाभ के लिए उनकी बात नहीं मानती यद्यपि वह सब कुछ मेरी उन्नति में सहायक होगा”।
इस प्रकार कृतज्ञता एवं साधना के द्वारा अपने मन पर नियंत्रण करके आप आपनी मासूम बच्ची की परवरिश प्रेम व स्नेह से सिक्त होकर कर पायेंगी ।
If you enjoyed this one, you might also enjoy
कृपालु लीलामृतम्
श्री महाराज जी की यह लीला उस समय की है जब वे प्रतापगढ़ में श्री महाबनी जी के स्थान पर निवास करते थे । प्रतापगढ़ में एक राजस्थानी महिला भी रहती थीं। सब लोग उनको गोदावरी बुआ जी कह कर सम्बोधित करते थे ।
गोदावरी बुआ जी की श्री महाराज जी में अपार श्रद्धा थी । वे श्री महाराज जी को अपने घर पर आमंत्रित कर प्रेमपूर्वक भोजन कराती थीं । वे चूरमे के लड्डू बनाने में निपुण थीं । अतः भोजन के उपरांत वे चूरमे के लड्डू का भोग अवश्य लगाती थीं ।
जब श्री महाराज जी गोदावरी बुआ जी के घर से भोजन करके लौटते तो उनके बनाये लड्डुओं की भूरि-भूरि प्रंशसा करते । महाबनी जी श्री महाराज जी को पुत्र समान मानते थे । प्रत्येक बार की तरह एक दिन जब श्री महाराज जी ने प्रशंसा की तो उन्हें विनोद में डाँटते हुए कहते कि, "तुम्हें शर्म नहीं आती । आप तो लड्डू खा कर आते हो और उनकी इतनी प्रशंसा करते हो । ये नहीं कि एक लड्डू हमारे लिए भी ले आया करो "।
अगली बार जब श्री महाराज जी पुनः गोदावरी बुआ जी के घर भोजन करने गये तो प्रत्येक बार की तरह उन्होंने दो लड्डू परोसे । श्री महाराज जी ने एक लड्डू चखते हुये कहा कि, "ये लड्डू बड़े स्वादिष्ट हैं, कृपया एक और ले आइये"। जब वे और लड्डू लाने के लिये कमरे से गयीं, श्री महाराज जी ने स्फुर्ति से एक लड्डू अपने कुरते की जेब में रख लिया । जब बुआ जी लड्डू लेकर लौटीं तो यह देखकर बड़ी प्रसन्न हुयी कि श्री महाराज जी को लड्डू प्रिय हैं और उन्होंने दोनों लड्डू खा लिये।
जब उन्होंने लड्डू थाली में रखा, श्री महाराज जी पुनः बोले," एक और लड्डू है क्या ?"। बुआ जी खुशी-खुशी एक और लड्डू लाने के लिये कमरे से गयीं और श्री महाराज जी ने तपाक से एक और लड्डू अपने कुर्ते की जेब में रख लिया । जब तीसरी बार बुआ जी लड्डू लेकर आयीं उसको प्रेमपूर्वक ग्रहण करके श्री महाराज जी लौट आये ।
जैसे ही उन्होंने घर में प्रवेश किया, वे जोर से बोले, "महाबनी! देखो मैं क्या लाया हूँ "। जैसे ही महाबनी जी आये, श्री महाराज जी ने मुस्कुराते हुए अपनी जेब से दोनों लड्डू निकालते हुए कहा कि, "देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ", और फिर उन्होंने लड्डू चोरी करने का सारा वृतांत सुनाया।
श्रीकृष्ण प्रेम के वशीभूत होकर, सखाओं के लिये मक्खन और खीर चुरा कर, ब्रज गोपिकाओं का चित्त चुरा कर, माखनचोर, खीर चोर, चितचोर कहलाये । उसी प्रकार हमारे प्यारे श्री महाराज जी, उस दिन, लड्डू चोर बन गये ।
नैतिक शिक्षा
भगवान एवं उनके वास्तविक संत कभी भी कोई अनुपयुक्त कार्य नहीं कर सकते। वे आत्माराम हैं अतः वे सब कार्य अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिये ही करते हैं । उनके प्रत्येक कार्य का उद्देश्य जीव कल्याण के लिये ही होता है । उनकी प्रत्येक चेष्टा जीव का मन श्रीकृष्ण के पावन चरणों में आकृष्ट करने हेतु ही होती है ।
गोदावरी बुआ जी की श्री महाराज जी में अपार श्रद्धा थी । वे श्री महाराज जी को अपने घर पर आमंत्रित कर प्रेमपूर्वक भोजन कराती थीं । वे चूरमे के लड्डू बनाने में निपुण थीं । अतः भोजन के उपरांत वे चूरमे के लड्डू का भोग अवश्य लगाती थीं ।
जब श्री महाराज जी गोदावरी बुआ जी के घर से भोजन करके लौटते तो उनके बनाये लड्डुओं की भूरि-भूरि प्रंशसा करते । महाबनी जी श्री महाराज जी को पुत्र समान मानते थे । प्रत्येक बार की तरह एक दिन जब श्री महाराज जी ने प्रशंसा की तो उन्हें विनोद में डाँटते हुए कहते कि, "तुम्हें शर्म नहीं आती । आप तो लड्डू खा कर आते हो और उनकी इतनी प्रशंसा करते हो । ये नहीं कि एक लड्डू हमारे लिए भी ले आया करो "।
अगली बार जब श्री महाराज जी पुनः गोदावरी बुआ जी के घर भोजन करने गये तो प्रत्येक बार की तरह उन्होंने दो लड्डू परोसे । श्री महाराज जी ने एक लड्डू चखते हुये कहा कि, "ये लड्डू बड़े स्वादिष्ट हैं, कृपया एक और ले आइये"। जब वे और लड्डू लाने के लिये कमरे से गयीं, श्री महाराज जी ने स्फुर्ति से एक लड्डू अपने कुरते की जेब में रख लिया । जब बुआ जी लड्डू लेकर लौटीं तो यह देखकर बड़ी प्रसन्न हुयी कि श्री महाराज जी को लड्डू प्रिय हैं और उन्होंने दोनों लड्डू खा लिये।
जब उन्होंने लड्डू थाली में रखा, श्री महाराज जी पुनः बोले," एक और लड्डू है क्या ?"। बुआ जी खुशी-खुशी एक और लड्डू लाने के लिये कमरे से गयीं और श्री महाराज जी ने तपाक से एक और लड्डू अपने कुर्ते की जेब में रख लिया । जब तीसरी बार बुआ जी लड्डू लेकर आयीं उसको प्रेमपूर्वक ग्रहण करके श्री महाराज जी लौट आये ।
जैसे ही उन्होंने घर में प्रवेश किया, वे जोर से बोले, "महाबनी! देखो मैं क्या लाया हूँ "। जैसे ही महाबनी जी आये, श्री महाराज जी ने मुस्कुराते हुए अपनी जेब से दोनों लड्डू निकालते हुए कहा कि, "देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ", और फिर उन्होंने लड्डू चोरी करने का सारा वृतांत सुनाया।
श्रीकृष्ण प्रेम के वशीभूत होकर, सखाओं के लिये मक्खन और खीर चुरा कर, ब्रज गोपिकाओं का चित्त चुरा कर, माखनचोर, खीर चोर, चितचोर कहलाये । उसी प्रकार हमारे प्यारे श्री महाराज जी, उस दिन, लड्डू चोर बन गये ।
नैतिक शिक्षा
भगवान एवं उनके वास्तविक संत कभी भी कोई अनुपयुक्त कार्य नहीं कर सकते। वे आत्माराम हैं अतः वे सब कार्य अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिये ही करते हैं । उनके प्रत्येक कार्य का उद्देश्य जीव कल्याण के लिये ही होता है । उनकी प्रत्येक चेष्टा जीव का मन श्रीकृष्ण के पावन चरणों में आकृष्ट करने हेतु ही होती है ।
येन-केन प्रकारेण मन: कृष्णे निवेशयेत ||
भक्ति रसामृत सिंधु - 1.2.4
अतः अपने प्रिय गुरुदेव के प्रयास को सफल बनाने हेतु "किसी भी प्रकार से मन श्रीकृष्ण को समर्पित करें" ।
बच्चों की कहानी
महाभारत युद्ध के दौरान 13वें दिन कौरवों ने अर्जुन का ध्यान भटकाने के लिए राज्य में अन्यत्र विद्रोह कर दिया । इस षड्यंत्र से अनभिज्ञ, द्रोह को कुचलने के लिए अर्जुन कुरुक्षेत्र के मैदान को छोड़कर जाना पड़ा । जब अर्जुन चला गया तो कौरव सेनापतियों ने अर्जुन के पुत्र और एक उत्कृष्ट योद्धा अभिमन्यु को मारने की योजना बनाई।
उसी दिन कौरवों के सेनापति गुरु द्रोणाचार्य ने चक्र-व्यूह नामक एक जटिल भूलभुलैया के रूप में कौरव सेना का आयोजन किया। उस युद्ध संरचना में 7 द्वार हैं।
यदि पांडव-योद्धा सभी 7 द्वारों को भेद कर सबसे भीतरी घेरे में कौरव योद्धाओं को हरा दें और फिर सभी 7 द्वारों से बाहर निकल आयें तो पांडवों को विजेता माना जाएगा। यदि नहीं तो कौरव विजेता होंगे। पांडवों की ओर से केवल अर्जुन ही जानता था कि उस संरचना को कैसे भेद कर किस प्रकार वापस निकला जाता है । अर्जुन पुत्र अभिमन्यु उनमें से 6 द्वारों में प्रवेश करना जानता था।
उसी दिन कौरवों के सेनापति गुरु द्रोणाचार्य ने चक्र-व्यूह नामक एक जटिल भूलभुलैया के रूप में कौरव सेना का आयोजन किया। उस युद्ध संरचना में 7 द्वार हैं।
यदि पांडव-योद्धा सभी 7 द्वारों को भेद कर सबसे भीतरी घेरे में कौरव योद्धाओं को हरा दें और फिर सभी 7 द्वारों से बाहर निकल आयें तो पांडवों को विजेता माना जाएगा। यदि नहीं तो कौरव विजेता होंगे। पांडवों की ओर से केवल अर्जुन ही जानता था कि उस संरचना को कैसे भेद कर किस प्रकार वापस निकला जाता है । अर्जुन पुत्र अभिमन्यु उनमें से 6 द्वारों में प्रवेश करना जानता था।
इतनी अल्पायु में अभिमन्यु ने 6 द्वार भेदना कैसे सीखा
एक बार जब अर्जुन की पत्नी सुभद्रा अपने बेटे अभिमन्यु से गर्भवती थी, तो अर्जुन ने उसे बताया कि चक्र-व्यूह के सात द्वारों को कैसे भेदा जाता है । अर्जुन बता दे गए और सुभद्रा ध्यान पूर्वक सुनती रही। सुभद्रा ने छठे द्वार तक के भेदन की विधि ध्यान पूर्वक सुने परंतु उसके बाद सुभद्रा को नींद आ गई । उसके गर्भ में पल रहे बच्चे ने भी छह द्वारों तक प्रवेश करने की विधि सुनी और फिर सो गया, इसलिए अभिमन्यु ने सातवें द्वार की भेदन विधि नहीं सीखी । [1][2]
एक बार जब अर्जुन की पत्नी सुभद्रा अपने बेटे अभिमन्यु से गर्भवती थी, तो अर्जुन ने उसे बताया कि चक्र-व्यूह के सात द्वारों को कैसे भेदा जाता है । अर्जुन बता दे गए और सुभद्रा ध्यान पूर्वक सुनती रही। सुभद्रा ने छठे द्वार तक के भेदन की विधि ध्यान पूर्वक सुने परंतु उसके बाद सुभद्रा को नींद आ गई । उसके गर्भ में पल रहे बच्चे ने भी छह द्वारों तक प्रवेश करने की विधि सुनी और फिर सो गया, इसलिए अभिमन्यु ने सातवें द्वार की भेदन विधि नहीं सीखी । [1][2]
जिस समय महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ उस समय अभिमन्यु की आयु 16 वर्ष थी, अतः उसकी युद्धभूमि में जाने की उम्र नहीं थी। साथ ही, वह छह द्वारों को भेदना ही जानता था। तो, पांडव असमंजस में थे क्योंकि अर्जुन दूर थे, अभिमन्यु अकेले युद्ध लड़ने के लिए पर्याप्त उम्र के नहीं थे और युद्ध के मैदान में किसी भी योद्धा को न भेजने का मतलब पांडवों की स्वत: हार होगी।
इसलिए पांडव सेना के सेनापतियों ने एक योजना बनाई । द्वार का भेदन करके प्रवेश करेगा उसके पीछे-पीछे अन्य पांडव योद्धा भी प्रवेश कर जाएँगे । इस प्रकार अभिमन्यु 6 द्वारों में प्रवेश कर लेगा तत्पश्चात सारे पांडव योद्धा मिलकर सातवें द्वार का भेदन कर लेंगे । सातवें द्वार के अंदर कौरवों का राजा दुर्योधन होगा । उसको परास्त करके पुनः योद्धा बाहर आ जाएँगे ।
युद्ध के मैदान में योजना विफल हो गई । चूँकि केवल अभिमन्यु ही जानता था कि भूलभुलैया में कैसे प्रवेश किया जाए। लेकिन इससे पहले कि अन्य लोग प्रवेश कर पाते, भूलभुलैया बंद हो गई और बाकी सभी लोग बाहर रह गए।
अभिमन्यु अकेले ही बहादुरी से लड़े और कौरव सेना को भारी क्षति पहुँचाते हुए छह द्वारों को सफलतापूर्वक भेदने में सफल रहे। जब अभिमन्यु सातवें द्वार को भेदने के लिए लड़ रहा था तो कौरवों ने वेदों द्वारा निर्धारित युद्ध के नियमों का उल्लंघन किया । वेद में युद्ध के नियम होते हैं जैसे किसी एक योद्धा पर एक ही योद्धा बार कर सकता है, सामने से ही वार किया जाए, निहत्थे योद्धा पर कोई हमला नहीं करें, वीरगति को प्राप्त योद्धाओं का सम्मान हो आदि। कई कौरव योद्धाओं ने एक साथ अभिमन्यु पर हमला किया, जब उनके पास कोई हथियार नहीं बचा था तब भी वे उस पर हमला करते रहे। अंततः कौरव योद्धा मिलकर अभिमन्यु को मारने में सफल हो गये।
जब अर्जुन वापस लौटे तो उन्होंने अपने युवा पुत्र की दुखद मृत्यु के बारे में सुना, उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण से अभिमन्यु को पुनः दिखाने का अनुरोध किया। श्री कृष्ण ने हँसते हुए कहा, "तुम उन्हें 16 वर्ष से देख रहे हो। यदि अभी देखने की तुम्हारी प्यास नहीं बुझी तो एक बार और देखने से तुम्हारी प्यास कैसे बुझेगी"। अर्जुन सखा था, इसलिए उसने सभी तर्कों को टाल दिया और जोर देकर कहा, "हाँ, मैं यह सब जानता हूँ । फिर भी मुझे मेरे बेटे को दिखाओ। मुझे पता है कि तुम यह कर सकते हो।"
श्री कृष्ण ने अपनी योगमाया शक्ति से आत्मा को बुलाया, उसे अभिमन्यु के समान शरीर दिया और अभिमन्यु को अर्जुन के सामने आकाश में स्थित कर दिया। अपने पुत्र का रूप देखकर अर्जुन ने अपनी भुजाएँ फैलाकर कहा, "मेरे पुत्र!" इस पर अभिमन्यु ने उसे झिड़कते हुए कहा, "तुम पुत्र किसे कह रहे हो ? तुम शरीर को ही अपना बेटा मानते हो। मैं एक बार तुम्हारा पुत्र बन चुका हूँ और तुम भी अनेक बार मेरे पुत्र बन चुके हो । मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हूँ । मैंने तुम्हारे बेटे को तुम्हारे पास छोड़ दिया है । मैं एक आत्मा हूँ और तेरे पास खड़े हैं (श्रीकृष्ण) मैं उनका पुत्र हूँ।''
अभिमन्यु की डाँट सुनकर अर्जुन मुँह लटका कर रह गए । गीता ज्ञानी अर्जुन को अभिमन्यु की बातों की सत्यता का ज्ञान महाभारत के पूर्व श्री कृष्ण करा ही चुके थे ।
नैतिक
जिन्हें हम माता-पिता कहकर संबोधित करते हैं, वे पंचमहाभूत से निर्मित शरीर के ही माता-पिता हैं । कोई भौतिक प्राणी आत्मा को जन्म नहीं दे सकता। दरअसल, जन्म से पहले माता-पिता बच्चे के लिंग, रंग-रूप और स्वभाव से पूरी तरह अनजान होते हैं। न तो उन्हें बच्चे का अतीत पता है और न ही भविष्य । ईश्वर प्रत्येक जीव का शाश्वत पिता है। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक जीव का प्रत्येक संबंध केवल और केवल भगवान से ही है । ।
भगवान की शक्ति होने के कारण जीव अनादि है । जीव का नव निर्माण कभी नहीं हुआ और न कभी होगा । आत्मा के पिछले कर्मों के आधार पर, ईश्वर माँ का जीवन चुनता है और आत्मा को उस माँ के गर्भ में भेजता है [3]। वेद कहते हैं -
इसलिए पांडव सेना के सेनापतियों ने एक योजना बनाई । द्वार का भेदन करके प्रवेश करेगा उसके पीछे-पीछे अन्य पांडव योद्धा भी प्रवेश कर जाएँगे । इस प्रकार अभिमन्यु 6 द्वारों में प्रवेश कर लेगा तत्पश्चात सारे पांडव योद्धा मिलकर सातवें द्वार का भेदन कर लेंगे । सातवें द्वार के अंदर कौरवों का राजा दुर्योधन होगा । उसको परास्त करके पुनः योद्धा बाहर आ जाएँगे ।
युद्ध के मैदान में योजना विफल हो गई । चूँकि केवल अभिमन्यु ही जानता था कि भूलभुलैया में कैसे प्रवेश किया जाए। लेकिन इससे पहले कि अन्य लोग प्रवेश कर पाते, भूलभुलैया बंद हो गई और बाकी सभी लोग बाहर रह गए।
अभिमन्यु अकेले ही बहादुरी से लड़े और कौरव सेना को भारी क्षति पहुँचाते हुए छह द्वारों को सफलतापूर्वक भेदने में सफल रहे। जब अभिमन्यु सातवें द्वार को भेदने के लिए लड़ रहा था तो कौरवों ने वेदों द्वारा निर्धारित युद्ध के नियमों का उल्लंघन किया । वेद में युद्ध के नियम होते हैं जैसे किसी एक योद्धा पर एक ही योद्धा बार कर सकता है, सामने से ही वार किया जाए, निहत्थे योद्धा पर कोई हमला नहीं करें, वीरगति को प्राप्त योद्धाओं का सम्मान हो आदि। कई कौरव योद्धाओं ने एक साथ अभिमन्यु पर हमला किया, जब उनके पास कोई हथियार नहीं बचा था तब भी वे उस पर हमला करते रहे। अंततः कौरव योद्धा मिलकर अभिमन्यु को मारने में सफल हो गये।
जब अर्जुन वापस लौटे तो उन्होंने अपने युवा पुत्र की दुखद मृत्यु के बारे में सुना, उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण से अभिमन्यु को पुनः दिखाने का अनुरोध किया। श्री कृष्ण ने हँसते हुए कहा, "तुम उन्हें 16 वर्ष से देख रहे हो। यदि अभी देखने की तुम्हारी प्यास नहीं बुझी तो एक बार और देखने से तुम्हारी प्यास कैसे बुझेगी"। अर्जुन सखा था, इसलिए उसने सभी तर्कों को टाल दिया और जोर देकर कहा, "हाँ, मैं यह सब जानता हूँ । फिर भी मुझे मेरे बेटे को दिखाओ। मुझे पता है कि तुम यह कर सकते हो।"
श्री कृष्ण ने अपनी योगमाया शक्ति से आत्मा को बुलाया, उसे अभिमन्यु के समान शरीर दिया और अभिमन्यु को अर्जुन के सामने आकाश में स्थित कर दिया। अपने पुत्र का रूप देखकर अर्जुन ने अपनी भुजाएँ फैलाकर कहा, "मेरे पुत्र!" इस पर अभिमन्यु ने उसे झिड़कते हुए कहा, "तुम पुत्र किसे कह रहे हो ? तुम शरीर को ही अपना बेटा मानते हो। मैं एक बार तुम्हारा पुत्र बन चुका हूँ और तुम भी अनेक बार मेरे पुत्र बन चुके हो । मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हूँ । मैंने तुम्हारे बेटे को तुम्हारे पास छोड़ दिया है । मैं एक आत्मा हूँ और तेरे पास खड़े हैं (श्रीकृष्ण) मैं उनका पुत्र हूँ।''
अभिमन्यु की डाँट सुनकर अर्जुन मुँह लटका कर रह गए । गीता ज्ञानी अर्जुन को अभिमन्यु की बातों की सत्यता का ज्ञान महाभारत के पूर्व श्री कृष्ण करा ही चुके थे ।
नैतिक
जिन्हें हम माता-पिता कहकर संबोधित करते हैं, वे पंचमहाभूत से निर्मित शरीर के ही माता-पिता हैं । कोई भौतिक प्राणी आत्मा को जन्म नहीं दे सकता। दरअसल, जन्म से पहले माता-पिता बच्चे के लिंग, रंग-रूप और स्वभाव से पूरी तरह अनजान होते हैं। न तो उन्हें बच्चे का अतीत पता है और न ही भविष्य । ईश्वर प्रत्येक जीव का शाश्वत पिता है। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक जीव का प्रत्येक संबंध केवल और केवल भगवान से ही है । ।
भगवान की शक्ति होने के कारण जीव अनादि है । जीव का नव निर्माण कभी नहीं हुआ और न कभी होगा । आत्मा के पिछले कर्मों के आधार पर, ईश्वर माँ का जीवन चुनता है और आत्मा को उस माँ के गर्भ में भेजता है [3]। वेद कहते हैं -
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशंति, तद् विजिज्ञासस्व । तद्व्रह्मेति ।
" जिससे सब जीवों का जन्म होता है है, जिसके द्वारा सब जीव पालित हैं, प्रलय काल में जिसमें सबका लय होगा होता है और भगवत प्राप्ति के समय जिसको जीव प्राप्त करता है वह भगवान है ।"
समुद्र से अनेक लहरें उठती हैं । लहरों का आपस में कोई संबंध नहीं होता । यदि कोई लहर दूसरी लहर को पार करते समय उसमें आसकती कर ले तो पुनः अलग होने में उसको दुख होगा । लहर नहीं जानती कि वह कहाँ से निकली है और उसका कहाँ विलीन होगी , यह केवल समुद्र ही जानता है।
इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को अनित्य संबंधियों में आसक्त होने के बजाय सनातन संबंधी को जानना तथा मानना होगा [4] और उसके प्रति प्रेम बढ़ाना होगा । साथ ही, वह आनंद का सागर है, इसलिए जैसे-जैसे आप उसके समीप पहुँचेंगे, आपका मन आनंद से भरता जाएगा।
समुद्र से अनेक लहरें उठती हैं । लहरों का आपस में कोई संबंध नहीं होता । यदि कोई लहर दूसरी लहर को पार करते समय उसमें आसकती कर ले तो पुनः अलग होने में उसको दुख होगा । लहर नहीं जानती कि वह कहाँ से निकली है और उसका कहाँ विलीन होगी , यह केवल समुद्र ही जानता है।
इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को अनित्य संबंधियों में आसक्त होने के बजाय सनातन संबंधी को जानना तथा मानना होगा [4] और उसके प्रति प्रेम बढ़ाना होगा । साथ ही, वह आनंद का सागर है, इसलिए जैसे-जैसे आप उसके समीप पहुँचेंगे, आपका मन आनंद से भरता जाएगा।
यदि आपको यह लेख लाभप्रद लगा तो संभवतः निम्नलिखित लेख भी लाभप्रद लगेगें
यह लेख पसंद आया !
उल्लिखित कतिपय अन्य प्रकाशन आस्वादन के लिये प्रस्तुत हैं
दिव्य संदेश
|
दिव्य रस बिंदु
|
आध्यात्मिक शब्दकोश
|
हम आपकी प्रतिक्रिया जानने के इच्छुक हैं । कृप्या contact us द्वारा
|
नये संस्करण की सूचना प्राप्त करने हेतु subscribe करें
|