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गीता ज्ञानी

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"भगवद् गीता" एक हिंदू ग्रंथ है जिसमें 700 श्लोक हैं । 5,000 साल पहले, परात्पर ब्रह्म श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में महाभारत से पूर्व अर्जुन को गाकर बताया था। इसलिए इन श्लोकों के संकलन को "भगवद्  गीता" कहा जाता है।

तब से इस ग्रंथ का दुनिया भर में 100 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। यह सबसे व्यापक रूप से पढ़े जाने वाले और अत्यधिक प्रशंसित ग्रंथों में से एक है। इसकी विशेषतायें हैं:
  1. भाषा की सरलता -इसे साधारण​ हिंदी भाषी आसानी से समझ सकता है ।
  2. इस भौतिक संसार में मन की शांति प्राप्त करने के लिए हम लोग संघर्ष कर रहे हैं ।  हमारे मन में उठने वाले सभी सवालों के जवाब देने की क्षमता इस में है । चूंकि वे उत्तर स्वयं परात्पर ब्रह्म ने दिए हैं, इसलिए कोई भी किसी उत्तर की प्रामाणिकता पर सवाल या संदेह नहीं कर सकता ।

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भगवान कृष्ण ने इस महान ज्ञान  को प्रदान करने के लिए अर्जुन को चुना, जो पिछले जन्म में भगवद् प्राप्ति कर चुका था​ ।

युग युगांतर तक जीवों के लाभ के लिए, भगवान कृष्ण ने अपनी योगमाया की शक्ति से अर्जुन के ज्ञान को भुला दिया और उसे एक अज्ञानी व्यक्ति के मानसिक स्तर पर ले आये । अज्ञानी की भाँति अर्जुन ने साधारण अज्ञानी जीवों की शंकाओं के बारे में प्रश्न किये ।

वर्तमान काल में कुछ​ ऐसे लोग हैं जो संस्कृत पढ़ सकते हैं और श्लोकों के शाब्दिक अनुवाद की सहायता से गीता पर प्रवचन देते हैं । लेकिन ये लोग स्वयं गीता के ज्ञान का पालन नहीं करते । और ऐसे लोग भी हैं, जो प्रतिदिन गीता के श्लोकों का पाठ करते हैं, और कुछ बच्चे तो गीता पाठ प्रतियोगिताएँ जीतने के लिए श्लोकों को कंठस्थ भी कर लेते हैं ।

अर्जुन इस ज्ञान का प्रथम श्रोता था और उसने इसे पूरी तरह से आत्मसात कर रणभूमि में क्रियान्वित भी कर दिया । इसलिए उसे "गीता-ज्ञानी" के रूप में जाना जाता है।

​क्या इस समय के सभी गीता केवक्ताओं को भी ​"गीता-ज्ञानी" कहा जा सकता है?

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आइए विचार करें कि 'गीता जानने' का क्या अर्थ है?

अर्जुन महाभारत कI रणभूमि में युद्ध करने के लिये गया । युद्ध के मैदान में सभी योद्धाओं ने युद्ध आरंभ होने की घोषणा करने के लिए शंखनाद किया।  तत्पश्चात अर्जुन ने श्रीकृष्ण को रथ को दोनों सेनाओं के बीच में स्थापित करने का निर्देश दिया । शूरवीर योद्धाओं, अपने गुरुजनों तथा प्रियजनों को शत्रु सेना में देखकर अर्जुन शोकग्रsta हो गया।  वह अपने हथियार को नीचे डालकर कायरों की तरह बैठ गया । असंख्य योद्धाओं की हत्या करने के परिणामों से वह डर गया । गांडीवधारी अर्जुन की ऐसी दयनीय दशा हो गई कि उसने स्वयं भगवान् श्री कृष्ण के आदेशों का उल्लंघन किया और उनसे युद्ध न करने का अपना निश्चय बताया । भगवान श्रीकृष्ण उसके इस  फैसले को सुनकर दंग रह गए, क्योंकि पांडवों की जीत अर्जुन के युद्ध कौशल पर ही निर्भर थी । साथ ही एक क्षत्रिय योद्धा के लिए यह लज्जा की बात है कि वह युद्ध के मैदान में अपने कर्तव्य से विमुख हो जाए !

गीता के प्रारंभ में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रेमपूर्वक डांटते हुए कहा:

क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते
विषमे समुपस्थिते
Shri Krishna serve His devotees
"हे पार्थ! ऐसी विषम परिस्थिति में अपने भीतर इस प्रकार की नपुंसकता का भाव लाना तुम्हें शोभा नहीं देता।"

लेकिन अर्जुन ने खुद को युद्ध लड़ने में पूरी तरह असमर्थ पाया । उसने युद्ध के हर अवांछनीय परिणाम को गिनाना आरंभ कर दीया । उसका तर्क था कि इस युद्ध का कारण राजा बनने का लोभ​ है ।वह इतनी हत्याएँ करके राजा के पद पर आसीन नहीं होना चाहता क्योंकि ऐसा करने से वह इतिहास के पन्नों में सर्वोच्च लोभी व स्वार्थी प्रतीत होगा । साथ ही उसे पाप का दंड भी भोगना पड़ेगा ।

अब कुरुक्षेत्र की पावन भूमि पर गीता के उपदेशों के लिए मंच तैयार हो गया । भगवान् कृष्ण ने इस उपदेश को प्रश्नोत्तर  के रूप में संसार के समक्ष आसानी से प्रस्तुत करने के लिए अर्जुन को माध्यम बनाया । भगवान कृष्ण ने उसे समझाया कि आत्मा अजर अमर है और यह मायिक शरीर क्षणभंगुर है । उन्होंने आगे अर्जुन को कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति के सिद्धांत और उनकी विशेषताओं और लाभों के बारे में बताया। उन्होंने अर्जुन को अपना दिव्य विराट रूप भी दिखाया।

इस प्रकार, अंततः उन्होंने अर्जुन को समझाया कि शाश्वत सुख प्राप्त करने का केवल एक ही तरीका है -

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: || 
गीता १८.६६
"अन्य सभी अपर धर्मों को त्याग दो, क्योंकि वे अंततः कष्टों में परिणत होते हैं। अपनी मन बुद्धि को मुझे समर्पित कर दो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों के फलों से मुक्त कर दूँगा । डरो मत!"

अर्जुन ने अब गीता के सभी 18 अध्यायों के दर्शन को आत्मसात कर लिया और अंत में भगवान कृष्ण से कहा,

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा
                                                                                             “अब मेरे सारे संदेह दूर हो गए हैं । मैंने ज्ञान प्राप्त कर लिया है।"
 
अर्जुन ​ने ज्ञान कैसे प्राप्त किया? उसने बोला,
त्वत्प्रसादान्मयाऽच्युत
                                                                                                       “हे अच्युत! आपकी कृपा से ही मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है।"

जब कोई भक्त स्वयं को पूरी तरह से भगवान् को समर्पित कर देता है, तत्क्षण भगवान माया के परदे को हटा देते हैं तब वह​ साकार भगवान् को देख सकता है। उसी क्षण, भगवान अपनी सभी दिव्य शक्तियाँ उस जीव को प्रदान कर देते हैं।

यह गीता का अंत है। दूसरे शब्दों में
1. अर्जुन ने सुना,
2. आत्मसात किया और
3. उस ज्ञान को उसी युद्ध के क्षेत्र में क्रियान्वित कर दिया ।

​इस प्रकार, उसका जीवन पूरी तरह से बदल गया और उसने जीवन के परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया।

जैसे कि पहले बताया गया है, गीता का सार सब अपर धर्मों का त्याग कर मन बुद्धि को भगवान् के निमित्त समर्पित करना है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में यह भी बताया कि यह कैसे करना है।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरूष्व मदर्पणम् ॥ गीता ९.२७
                                     "हे कुन्ती पुत्र! तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, यज्ञाग्नि में जो आहुति देते हो, जो भी दान करते हो, जो भी तपस्या करते हो, वह सब मुझे अर्पित करते हुए करो।"

संक्षेप में, गीता को जानने का अर्थ है, दैनिक जीवन में गीता की उपदेशों का पालन करना। अर्जुन ने इसे सुना और तुरंत उस पर अमल किया। यदि हम वही श्लोक पढ़ते हैं,
सर्वधर्मान परित्यज्य 
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परन्तु अपने जीवन में चरितार्थ नहीं करते और अपने मन को भगवान् कृष्ण को समर्पित करने की कोशिश भी नहीं करते हैं, तो इन शब्दों को हर दिन दोहराने का क्या लाभ?

ये वचन भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहे थे, लेकिन जब हम प्रतिदिन गीता के श्लोकों का पाठ करते हैं, तो हम यह किससे कह रहे हैं? विवेकशील व्यक्ति के प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिए । हमें एक या दो बार श्लोक पढ़ें, फिर उस श्लोक में भगवान् कृष्ण क्या कह रहे हैं, उस पर विचार करें और फिर उसे अपने व्यवहार में लाने का अभ्यास भी करें तब लाभ होगा।

महाप्रभु चैतन्य के समय में एक भक्त था, जो संस्कृत के शब्दों को ठीक से पढ़ना नहीं जानता था न ही उसे श्लोकोच्चारण करना आता था। फिर भी वह​ प्रतिदिन गीता का पाठ करता था । एक दिन अन्य भक्त ने महाप्रभु जी को सूचित किया कि एक व्यक्ति जिसे संस्कृत का ज्ञान नहीं है, वह गीता में कहे गए भगवान के वचनों को विकृत कर देता है। महाप्रभु जी ने उसे बुलाया और पूछा, "क्या तुम संस्कृत जानते हो"? उसने सच बता दिया। महाप्रभु जी ने आगे पूछा, "फिर पढ़ते-पढ़ते क्या क्या सोचते हो"? उसने कहा, मैं भगवान श्री कृष्ण को उनके रथ पर बैठे और अर्जुन को व्याख्यान देते हुए देखता हूँ जो उनके चरण कमलों पर श्रद्धापूर्वक बैठा है और उन शब्दों को सुन रहा है।"

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यह सुनकर महाप्रभु जी प्रसन्न हुए और उन्होंने उस भक्त को गले लगा लिया। उन्होंने कहा कि ठीक यही गीता कहती है "भगवान का स्मरण​ करो"। इसने ​ गीता के सार को समझ लिया है। जो कोई लगातार भगवान का स्मरण​ नहीं करता और गीता को जानने और गीता की उपदेशों​ का पालन करने का दावा करता है वह भोला है।

तो, हमें गीता का कितना ज्ञान है, यह जानने के लिए हमे नापना चाहिए कि हमारी भगवान् के प्रति शरणागति कितने प्रतिशत है।

इस संसार से हमें जितना वैराग्य है, उतना ही हमें भगवान् में अनुराग होगा।   और भगवान् में जितना अनुराग है, उतना ही भगवान् के शरणागत वह जीव होगा।  इस प्रकार, जो केवल गीता का पाठक या वक्ता हो, लेकिन अपनी वासनाओं का दास हो, वह "गीता-ज्ञानी" नहीं है।

"गीता-ज्ञानी" वह है जो श्री कृष्ण को मन से प्रेम करता है, जिसका मन लगातार भगवान श्री कृष्ण के चरणारविंद में अनुरक्त रहता है, जिसकी समस्त चेष्टाएँ श्री कृष्ण के प्रीत्यर्थ होती हैं । ​

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