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Divya Ras Bindu

कोरोना वायरस - परोक्ष कृपा (भाग २)

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हम पिछले अंक में कोविड-१९ से उत्पन्न मृत्यु के भय एवं उससे जीवन पर प्रभाव की चर्चा कर चुके हैं । इस वायरस की संक्रामकता पर अंकुश लगाने हेतु देश-विदेश की सरकारों ने समस्त व्यवसायों पर प्रतिबंध लगा दिया एवं लोगों के घर से निकलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। आय के साधनों के अभाव में लोगों की आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिससे अनेक लोग​ चिंतित व व्याकुल हैं ।

इस अंक में हम इन्हीं वित्तीय प्रभावों की चर्चा करेंगे ।

हितोपदेश में लिखा है
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।
पंचैत्यान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥

हितोपदेश
पढ़ें पिछला अंक​ कोरोना वायरस - परोक्ष कृपा
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"पांच चीजें प्रारब्ध में पूर्व सुनिश्चित होती हैं। आयु, व्यवसाय​, धन, विद्या एवं मृत्यु।"
पूर्व संस्करण में हम "आयु" तथा "निधन" की चर्चा कर चुके हैं । अब इस श्लोक के "वित्तं" शब्द पर ध्यान दें । यह श्लोक पुष्टि करता है कि धन एवं भौतिक सुविधाएँ पूर्व निर्धारित होती हैं। पुरुषार्थ से भले ही बदल जायें किंतु चिंता से परिस्थितियाँ कदापि नहीं बदलती हैं ।

संत भतृहरि जी कहते हैं
यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनम्, तत्प्राप्नोति मरुस्थलेऽपि नितरां, मेरौ ततो नाधिकम्।
तद्धीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा मा कृथाः, कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं धनम्॥
भतृहरि
"यदि जीव को प्रारब्ध वश कुछ प्राप्त होना है तो वह अवश्य मिलेगा चाहे जीव दूर रेगिस्तान में क्यों न बैठा हो । उससे अधिक एक​ पैसा भी नहीं मिलेगा चाहे जीव सोने के सुमेरु पर्वत पर क्यों न बैठा हो । चाहें आप पात्र समुद्र में डुबाएँ लेकिन​ आप पात्र के परिमाण के अनुसार ही जल ले सकते हैं ।" अतः जितना आपको प्रारब्ध वश प्राप्त होता है, आप उतने में ही संतुष्ट रहें ।
हमारे जीवन निर्वाह  के लिए हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर धन-संपत्ति अवश्य प्राप्त होती है, परन्तु प्रारब्ध से मापित न कम प्राप्त  होगी  और न ही उससे अधिक । अत्यधिक परिश्रम करने पर हमको यदि प्रारब्ध से कुछ अधिक प्राप्त होता है, उस धन का क्षय अवश्य होगा क्योंकि वह हमारे भाग्य  में नहीं है ।

अथक प्रयास से भी यदि धनोपार्जन में ध​न प्राप्त न हो तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वह ध​न हमारे  प्रारब्ध में नहीं है (भाग्य अथवा पुरुषार्थ​​)। इस ज्ञान एवं सिद्धांत को जानने व मानने के पश्चात जीव विपरीत परिस्थितियों में भी सदैव सकारात्मक एवं शांत चित्त रह सकता है ।

महान भक्त प्रह्लाद राक्षस हिरण्यकशिपु का पुत्र था। जब वह 5 वर्ष का था तब उसके सहपाठी, जो कि  हिरण्यकशिपु के राज्य के राक्षस पुत्र थे, ने  प्रह्लाद से पूछा,"तुम हमें भगवान को याद करने एवं उससे प्रेम करने की बात क्यों कहते हो जबकि हमारा मन भौतिक पदार्थों में अनुरक्त  रहता है"।

तब भक्त प्रह्लाद ने उत्तर दिया
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोनेन देहिनाम्।
सर्वत्र लभ्यते दैवात्। यथा दुःखमयत्नतः ।

भा ७.६.३
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हे असुर बालकों! जिस प्रकार दुख बिना किसी भी प्रयास के आपके पूर्व कर्मों के आधार पर प्राप्त होते रहते हैं, उसी प्रकार सुख भी प्राप्त होते रहते हैं ।
"हे असुर बालकों! जिस प्रकार दुख हमारे  किसी प्रयास के बिना हमारे  पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार से सुख भी प्राप्त होते हैं"।

हितोपदेश के अनुसार प्रारब्ध में पाँच सुनिश्चित वस्तुएँ हैं । अज्ञानतावश जीव इन्हीं पूर्व निर्धारित वस्तुओं को अधिकाधिक पाने की इच्छा रखते हैं । इन वस्तुओं से जीव उस अनंत आनंद की अपेक्षा करता है जिस पर कभी भी दुखों का अधिकार न हो । भगवत प्राप्ति से पूर्व सुख एवं दुख अपने पूर्व कर्मों के आधार पर ही प्राप्त होता है । अनंत आनंद तो भगवत प्राप्ति पर ही प्राप्त होगा।

इस सिद्धांत का ज्ञान न होने के कारण हम अपना परिश्रम एवं बहुमूल्य समय माया के बने संसार से सुख प्राप्त करने में गवाँ देते हैं। इस परिस्थिति की तुलना तुलसीदास जी की चौपाई के सारांश से की जा सकती है कि अत्यधिक परिश्रम के उपरांत भी बालू से तेल नहीं निकल सकता क्योंकि बालू के कणों में तेल होता ही नहीं है।

इतिहास साक्षी है कि कुछ ही संत (प्रह्लाद, ध्रुव, अम्बरीश) धनाढ्य थे । अधिकांशतः संत निर्धन​ थे फिर भी वे सदैव प्रसन्नचित्त​ रहते थे। यह इस बात की ओर इंगित करता है कि संत विपरीत परिस्थितियों में भी कभी विक्षुब्ध नहीं होते ।
एक बार एक राजा ईसा मसीह​ की झोपड़ी में गया। झोपड़ी में उसे एक चटाई एवं कुछ पात्रों के अतिरिक्त​ कुछ भी नहीं दिखा। राजा को आश्चर्य हुआ और उसने ईसा से पूछा," मेरा महल सुविधाओं से भरा हुआ है फिर भी मैं प्रसन्न नहीं हूँ और आप इतने गरीब होते हुए भी इतने प्रसन्न कैसे हैं" । तब ईसा ने उत्तर ​दिया, "तुम भी यह प्रसन्नता प्राप्त कर सकते हो अगर तुम वह सब कुछ त्याग दो"। राजा ने कहा," क्या मैं 50 प्रतिशत त्याग कर सकता हूं"। ईसा मुस्कुराए और बोले,"तब तुम्हें सिर्फ 50 प्रतिशत ही सुख प्राप्त होगा"।

अब प्रश्न उठता है कि
क्या अकारण करुण भगवान भी पक्षपाती हैं ?  वे केवल भक्तों का ही पक्ष क्याें लेते हैं?

वास्तव में आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगवान अपने भक्तों पर कोई विशेष कृपा नहीं करते फिर भी भक्त को दुख का उतना अनुभव नहीं होता जितना कि साधारण मनुष्य को होता हैं ।
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राजा को आश्चर्य हुआ और उसने ईसा मसीह​ से पूछा," मेरा महल सुविधाओं से भरा हुआ है फिर भी मैं प्रसन्न नहीं हूँ और आप​ इतने गरीब होते हुए भी इतने प्रसन्न कैसे हैं" । तब ईसा ने उत्तर ​दिया, "तुम भी यह प्रसन्नता प्राप्त कर सकते हो अगर तुम वह सब कुछ त्याग दो"। राजा ने कहा," क्या मैं 50 प्रतिशत त्याग कर सकता हूं"। ईसा मुस्कुराए और बोले,"तब तुम्हें सिर्फ 50 प्रतिशत ही सुख प्राप्त होगा"।
Pictureहमारा मन किसी चीज में ध्यान मग्न होता है तो हम किसी के बुलाने या अपने पास खड़े का आभास​ नहीं होता
यह बात​ आप अपने  अनुभव से समझ सकते हैं । जब हमारा मन किसी कार्य में एकाग्र​ होता है तो हमें किसी के सम्बोधन या अपने पास आए किसी व्यक्ति का आभास​ नहीं होता है । शास्त्र वेद भी इस तर्क की पुष्टि करते हैं कि व्यक्ति का मन एक समय में एक ही वस्तु में ध्यान केंद्रित कर सकता है। अतः जब तक​ हमारा मन भगवान में अनुरक्त रहता है व​ह भौतिक और मानसिक सुख और दुख का अनुभव नहीं करता व संसारी सुख-दुख को भूला रहता है ।

भगवान आनंद का समुद्र है । भगवान के चिंतन का तात्पर्य है  कि भगवान अर्थात आनंद हमारे मन में  आ गया। जब हम बार-बार प्रेम से भगवान का स्मरण करते हैं तो हम आनंदित होते हैं और यह आनंद हमें संसारी दुखों को भुला देता है। भगवान के स्मरण का सुख हमें भगवान को लगातार स्मरण करने की प्रेरणा देता है। यही अभ्यास  हमारे मन को भगवान में अनुरक्त एवं संसार से विरक्त कर देता है। अतः साधक जब अपने परम चरम लक्ष्य परमानंद,- जो असीम है, अनादि है, प्रतिक्षण वर्धमान​ है - को प्राप्त कर लेता है तो वह संसारी धन संपत्ति की हानि में दुखी नहीं होता। इस अनंत आनंद को प्राप्त कर लेने के पश्चात कौन इंद्रियों के क्षणिक सुखों की कामना करेगा।

तुलसीदास जी कहते हैं --

सोई सुख लवलेश​, बारेक जो सपनेहुँ लहहि ।
ते नहिं गनहिं खगेश​, ब्रह्म सुखहिं सज्जन सुमत ॥

""यदि उस आनंद का लवलेश मात्र भी, सपने में भी कोई एक बार भी प्राप्त कर लेता है, वह फिर ब्रह्म लोक तक के सुखों को लात मार देता है"। जबकि ब्रह्म लोक समस्त भौतिक लोकों में सबसे ऐश्वर्यपूर्ण लोक है ।

अतः यदि आप वास्तव में सांसारिक क्लेशों से त्रस्त​ हैं तो भगवान और उनकी कृपा पर अपने विश्वास को दृढ़​ करिए क्योंकि

आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात् ।
"भगवान ही आनंद है"। भगवान के अतिरिक्त  कहीं से भी किसी को आनंद की एक बूंद भी प्राप्त नहीं हो सकती।
Pictureभगवान श्री कृष्ण ब्राह्मण बालक के रूप में बलि से कहते हैं,"इस संसार में कोई भी धन-संपत्ति की अधिकता से संतुष्ट नहीं होता। तुम्हारे पास इतना सब कुछ होते हुए भी क्या तुम संतुष्ट हो? यदि हां तो इस यज्ञ को करने का क्या तात्पर्य है"?
धन-संपत्ति से सुखों की प्राप्ति भ्रम-मात्र है। इस संसार में सबसे अधिक धनवान व्यक्ति बिल गेट्स तथा मुकेश अंबानी राजा बलि की संपत्ति के सामने नगण्य​ हैं । सतयुग में राजा बलि संपूर्ण पृथ्वी के राजा थे और अनेक दैवीय​ शक्तियाँ उनको प्रदत्त थीं । जब भगवान श्री कृष्ण ने, भगवान वामन के रूप में राजा बलि से तीन पग धरती मांगी तो बलि ने हंसते हुए कहा,"ब्राह्मण देवता ! आप​ मुझसे अपनी संतुष्टि के लिए बहुमूल्य​ गहने, नगर​, हाथी, घोड़े कुछ भी मांग सकते हैं"। भगवान वामन बलि से कहते हैं- "इस संसार में कोई भी धन-संपत्ति के बाहुल्य​ से संतुष्ट नहीं होता। राजा बलि क्या आप​ संतुष्ट हैं ? यदि हाँ तो इस यज्ञ को करने का क्या तात्पर्य है"?

अतः इस लॉक डाउन के रूप में भगवान ने हमको एक स्वर्णिम अवसर प्रदान​ किया है, कि हम परमानंद को प्राप्त करें । बुद्धिमान बनिए और इस दुर्लभ अवसर को हाथ से न जाने दीजिए। संसारी सुखों के पीछे बहुत भाग चुके । अब वास्तविक सुख (भगवान) की दिशा में अग्रसर होइए । वे दोनों भुजाओं को फैलाकर हमारा आलिंगन करने को तत्पर हैं । अतः अपने जीवन के परम चरम लक्ष्य परमानंद की प्राप्ति हेतु किसी भगवत प्राप्त संत की शरण में जा कर उनके निर्देशों का पालन करिये ।

ऐसा स्वर्णिम सुअवसर पुनः किसी काल में कभी नहीं मिलेगा । अतः लॉक डाउन को धन्यवाद देते हुए अपने परम​-चरम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कटिबद्ध हो साधना कीजिये ।

पढ़ें पिछला अंक​ कोरोना वायरस - परोक्ष कृपा

 
अस अवसर फिर नाहिं मिलैगो, बातन मोर  पतीजिये।
पिय मोल अमोलक लीजिए।।
( प्रेम रस मदिरा, पृष्ठ संख्या 35 ,पद संख्या 63 )
- जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज​
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