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जेकेपी जन कल्याण​ योजनाओं में योगदान क्यों?

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सेवा अथवा साधनासेवा अथवा साधना
प्रश्न

जब भी जेकेपी जन कल्याण की योजनाओं की चर्चा होती है तो यह प्रश्न सामने प्रस्तुत हो जाता है - क्या इन योजनाओं में योगदान करना आवश्यक है? श्री महाराज जी के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतानुसार साधक का  केवल​ एक लक्ष्य है; मन से प्रतिक्षण​ हरि एवं  गुरु का  स्मरण । इस तथ्य​ की पुष्टि के लिए श्री महाराज जी कहते हैं --

  • साधना करु साधना करु साधना करु प्यारे ।
  • मन करु सुमिरन राधे रानी के चरण​ ।
  • आज्ञा पालन सर्वोच्च सेवा है ।

श्री महाराज जी की ही वाणी में धन की सेवा को भी महत्त्व दिया गया है । यदि मन की सेवा पर्याप्त है तो जगदगुरू कृपालु परिषत (जे के पी) की जन-कल्याण​ योजनाओं में तन अथवा धन के योगदान का क्या अभिप्राय है ?  हमारी तार्किक बुद्धि के अनुसार जब मन की सेवा प्रमुख है तो तन व धन के सेवाओं में समय क्यों व्यय करें?

उत्तर​:

मनुष्य ज्ञान प्रधान योनि है अतः अन्य प्राणियों की अपेक्षा केवल इस योनि में तर्क एवं विश्लेषण करने की क्षमता है । अतः इस प्रश्न का उत्तर तर्क से समझिये ।

सेवा संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है “सेव्य को प्रसन्न करने वाले कार्य करना”। संसार में हम माता-पिता, स्त्री-पति, बच्चों, मित्रों आदि को प्रसन्न करने के लिये उनकी सेवा करते हैं। आध्यात्मिक जगत में भी सेव्य को सुख पहुँचाने के उद्देश्य से ही सेवा हो तो सेवा है अन्यथा वह सेवा नहीं है ।

संत तुलसीदास जी महाराज के अनुसार​ -

आज्ञा पालन सम नहीं सुसाहिब सेवा
"सद्गुरु की आज्ञा के पालन से बढ़कर और कोई सेवा नहीं है।"

श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्री कृष्ण भी कहते हैं कि-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।  उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्तवदर्शिनः।। 
गी. 3.34
"मन बुद्धि से उस​की शरणागति करिए जिसको समस्त शास्त्रों वेदों का परिपूर्ण​ ज्ञान हो तथा वह​ भगवद् प्रेम प्राप्त कर चुका हो । ऐसे भगवद् प्राप्त संत से दीनता पूर्वक अपनी जिज्ञासा को शांत करने हेतु प्रश्न करिए और निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा करिए । तब वे कृपा करके तत्व ज्ञान का उपदेश करेंगे जिससे आप​ तत्व को प्राप्त कर लेंगें।"

गुरु की सेवा को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है

  • जो शिष्य गुरु की आज्ञा की अवहेलना करे वह तो शिष्य ही नहीं है ।
वह शिष्य शिष्य नहीं गोविंद राधे। जो गुरु आज्ञा न माने बता दें।।
  • गुरु आज्ञा का पालन बेमनी से करना सबसे निम्न प्रकार की सेवा है जिसको तामसी सेवा कहा जाता है ।
अधम है शिष्य जो गोविंद राधे । आज्ञा माने बेमनी ते बता दे ॥
  • गुरु के मात्र इंगित करने पर सहर्ष सेवा करना उच्चतर सेवा है।
मध्यम शिष्य वह गोविंद राधे । जो माने आज्ञा हर्ष से बता दे ॥
  • गुरु के बिना कहे उनकी इच्छानुसार​ सहर्ष की गई सेवा सर्वोत्तम सेवा है।
उत्तम शिष्य वह गोविंद राधे।
जो बिना आज्ञा करे सेवा बता दे।।

गुरु के श्री चरणों में  संपूर्णतः समर्पित भक्तगण​ गुरु की इच्छा जान जाते हैं व​ पूर्ण​ पालन करते हैं।
भगवत प्राप्ति से पहले कोई भगवान को न देख सकता है न उनकी इच्छा को जान जा​ सकता है अतः हरि सेवा का तो प्रश्न ही नहीं उठता है । प्रारंभ में तो गुरु को भगवान का ही सक्षात रूप मानकर​ उन​को प्रसन्न करने हेतु ही समस्त चेष्टाएँ करनी होंगी ।
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गुरु बिन भवनिधि तर​ई कि कोई । जो बिरंचि शंकर सम होई ॥ रामचरित मानस​
गुरु कुशल नाविककुशल नाविक के समान, गुरु हमारी नैया को भवसागर के उस पार ले जाकर हमें परम-चरम लक्ष्य प्राप्त कराते हैं ।
" सच्चे गुरु की कृपा के बिना इस भवसागर से कोई भी पार नहीं हो सकता चाहे वह ब्रह्मा और शंकर ही क्यों ना हो।"

कुशल नाविक के समान, गुरु हमारी नैया को भवसागर के उस पार ले जाकर हमें परम-चरम लक्ष्य प्राप्त कराते हैं ।

हमारे श्रद्धेय गुरु जगतगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
हमें समस्त क्रियाओं को करते समय निरंतर श्वास श्वास से भगवन्नाम​ लेने की सलाह देते हैं। प्रारंभिक अवस्था में यह दुष्कर​ अवश्य​ है परंतु यह​ असंभव नहीं है । अर्जुन ने महाभारत के युद्ध के मैदान में यह​ करके इस बात का सक्षात प्रमाण दिया । अर्जुन ने कौरवों से युद्ध करते समय अपने मन को भगवान श्री कृष्ण में पूर्णतया अनुरक्त कर युद्ध करने जैसा सूक्ष्म​ कार्य किया। संसार के कौन से कार्य में इससे अधिक एकाग्रता की आवश्यकता होगी ? यह प्रमाण है कि कोई भी अपना ध्यान भगवान पर केंद्रित कर​ अपने संसारी दायित्व का निर्वाह कर सकता है।

कार चलाते समय हमारा अंतःकरण बहुत कुछ​ सोचता है । माँ को काम करते समय भी अपने नवजात शिशु का ध्यान रहता है । गाय को चरागाह में चरते समय भी अपने बछड़े का ध्यान रहता है । यह सिद्ध करता है कि अर्जुन में ही नहीं वरन​ आम मनुष्य में भी यह क्षमता है कि वह​ प्रत्येक कर्म​ करते समय भगवान का ध्यान कर सके।

तथापि भगवान का निरंतर स्मरण अभ्यास के द्वारा ही हो सकेगा । प्रारंभ में हमें कमर कस कर थोड़ी-थोड़ी देर में भगवान का स्मरण करने का अभ्यास करना होगा। 

संत तुलसीदास जी कहते हैं -

कर ते कर्म करहु विधि नाना । मन राखहु जहाँ  कृपा निधाना ॥
"शरीर से नाना प्रकार के कर्म करते हुए भी मन को भगवान के स्मरण में लीन रखना चाहिए।"

श्री महाराज जी भी यही सलाह देते हैं कि कर्मेंद्रियों तथा ज्ञानेंद्रियों से मायिक कार्य करते समय भी मन भगवान में तल्लीन रखने का अभ्यास करिये।

यह सदैव स्मरण रहे कि जिस क्षण हम भगवान का स्मरण नहीं करते उस क्षण में हम पाप के अतिरिक्त कुछ और नहीं करते, नहीं कर सकते (पढ़े क्या मैं पापी हूँ?)। इस मायिक संसार में दिव्यानंद का लव​लेश भी नहीं है । फिर भी हमारा मन इस भौतिक संसार में आनंद की खोज में लगातार रत है । और यही कारण है कि मन​ लगातार माया के विकारों जैसे काम, क्रोध ,लोभ, मोह, अहंकार​ से त्रसत है । परंतु जब हम भौतिक व​ दैनिक कर्म​ करते हुए भी अपने मन को भगवान में अनुरक्त रखते हैं तो हमें दिव्यानंद प्राप्त होता है तथा हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है । भगवत्प्राप्ति के लिए शुद्ध अंतःकरण की अपेक्षा है ।

मन से भगवान का स्मरण करना शरीर द्वारा किये जाने वाले दैनिक कर्मों में बाधक नहीं बनता । इस प्रकार किये गये कर्म को कर्मयोग कहते हैं।
मन यार में तन कार में । गु. गो.
"मन भगवान में रखें तथा तन से कर्म करें"।

श्री महाराज जी कहते हैं कि सेवा से बढ़कर और कोई साधना नहीं है। हमारे पास तीन चीजें हैं - तन, मन धन । भगवद् सेवा तन, मन धन से करी जा सकती है। प्रारंभिक अवस्था में 1 घंटे भी मन से भगवान का स्मरण करना कठिन होता है, इसीलिए श्री महाराज जी हम लोगों को धन की सेवा करने के लिए प्रेरित करते हैं। संसार की वस्तुओं से मन हटाने का यही एक प्रभावशाली तरीका है। कलियुग में सभी भौतिक सुविधाएँ प्राप्त करने का माध्यम धन है अतः हमारा लगाव धन में अधिक होता है। सम्पत्ति के लोभ में लोग अपने सगे-संबंधियों की हत्या जैसा घृणित कृत्य तक कर डालते हैं। और धन के लोभ में तलाक, बंटवारा, आजीवन शत्रुता आदि तो होती ही रहती है। नहीं मानते तो कोई भी अखबार उठा कर पढ़ लीजिये !
सम्पत्ति का लोभ
सम्पत्ति के लोभ में लोग अपने सगे-संबंधियों की हत्या जैसा घृणित कृत्य तक कर डालते हैं।
भौतिक कामनाएं परमार्थ शनैः शनैः साधक की भौतिक कामनाएं समाप्त होती जाती हैं और वह केवल जीवन निर्वाह के लिये आवश्यकताओं पर धन का व्यय करता है । बाकी सारा धन परमार्थ में ही लगा देता है ।
इतिहास में आपने पढ़ा होगा कि बड़े-बड़े महापुरुष प्रह्लाद, अंबरीश, भगवान बुध आदि ने भगवत्प्राप्ति के लिए सभी राजसी भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया। अब कलियुग में हमारा अत्यधिक लगाव धन से है, अतः श्री महाराज जी सभी को थोड़ा-थोड़ा धन परमार्थ में लगाने का संकल्प करने को उत्साहित कर​ते हैं। इस संकल्प को पूरा करने के लिए हम भौतिक जगत की कामनाओं पर अंकुश लगा कर​ परमार्थ में धन लगाने लगते हैं । तब हमारे गुरुदेव हमको दान की मात्रा बढ़ाने की सलाह देते हैं । शनैः शनैः साधक की भौतिक जगत की कामनाएं समाप्त होती जाती हैं और वह केवल जीवन निर्वाह के लिये आवश्यकताओं पर धन का व्यय करता है । बाकी सारा धन परमार्थ में ही लगा देता है ।  इस प्रकार वह गृहस्थ में रहते हुए मन से त्यागी बन जाता है। 

अतः धन की सेवा का लक्ष्य मन को संसार से हटाना ही है।

दूसरा तर्क यह है कि यदि हमारे पास अधिक पैसा होगा तो हम उस धन से संसार के संचय का ही चिन्तन करेंगे “हम क्या खरीदें”, “कहां से खरीदें”, "कैसे इस धन की वृद्धी हो" । संसार के निरंतर चिन्तन से साधना भक्ति द्वारा अर्जित लाभ (ज्ञान व वैराग्य​) का क्षय​ हो जायेगा । इसके साथ ही भौतिक वस्तुओं के लगातार चिंतन से हमारा उनसे लगाव बढ़ेगा । संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं; लगाव के कारण उनके नष्ट होने पर हमको दुख होगा। अतः यदि हमारे पास कम वस्तुएँ  होंगी तो हमारे दुख के कारण भी कम होंगे। भगवान शाश्वत एवं  नित्य हैं,उनसे प्रेम करने से हमें दिव्यानंद की प्राप्ति ही होगी।

हमारे आधुनिक समाज में त्वरित-संतुष्टि के अभिलाषी जनों का भौतिक वस्तुओं में अत्यधिक लगाव होता है। अतः संतों द्वारा बताई गई अनादिकालीन​ त्याग व परमार्थ से युक्त​ जीवनशैली में साधकों की रुचि नहीं होती । इसीलिए श्री महाराज जी ने साधकों का मन भौतिक वस्तुओं से हटाने के लिए त्याग सेवा परमार्थ युक्त जीवन यापन की प्रेरणा दी है । साथ ही जेकेपी अस्पताल, जेकेपी एजुकेशन व जेकेपी निधन सहायता कोष आदि के निर्माण से उस प्रेरणा को चरितार्थ करने का माध्यम भी दिया है । उनमें तन व धन के योगदान से अंततः मन भगवान में लगने लगेगा ।

परमार्थ भगवत्प्राप्ति परमार्थ में लगाया गया एक एक पैसा साधक को भगवत्प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है।
निष्कर्ष यह की
  • परमार्थ में लगाया गया एक एक पैसा साधक को भगवत्प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। तथा भगवान का स्मरण करने से हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है और संसारी वस्तुओं का त्याग किए बिना भगवान से प्रेम नहीं किया जा सकता ।अतः बुद्धिमता इसी में है कि हमें अपने जीवन का प्रत्येक क्षण हरि गुरु के स्मरण में एवं उनकी शरणागति कर उनकी सेवा में बिताएँ ।   
  • हम श्रोत्रिय ब्राह्मनिष्ठ (समस्त शास्त्रों, वेदों ,पुराणों का ज्ञान रखने वाला एवं भगवद्  प्राप्त) गुरु के चरण कमलों की शरण में जाएँ।
  • उनकी समस्त आज्ञाओं का पालन करें क्योंकि वे भगवद प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
  • हमें छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी, कोई भी वस्तु उनको देने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये क्योंकि वे मायिक संपत्ति को लेकर उसे दिव्य संपत्ति में परिवर्तित करने में सक्षम हैं।

बुद्धिमान वही है जो अपनी समस्त वस्तुओं (तन मन धन) को वर्तमान में शांति एवं उज्जवल भविष्य के लिए उपयोग करें। अतः बुद्धिमता पूर्ण निर्णय लीजिए।



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सौ बातन की बात इक, धरु मुरलीधर ध्यान।
बढ़वहु सेवा-वासना , यह सब ज्ञानन ज्ञान।।

भक्ति शतक-74
हरि गुरु की सेवा वासना बढ़ाना तथा उनका निरंतर स्मरण ही समस्त भव रोगों की एकमात्र रामबाण दवा है। भगवत्प्राप्ति के लिए इससे अधिक और किसी  ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।
- Jagadguruttam Shri Kripalu Maharaj

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