मन की पाँच बाधाएँ जीव को जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर जाने से रोकती हैं । वे पंचक्लेश कहलाती हैं । पंच का अर्थ है पाँच, क्लेश का अर्थ है बाधा। इन पाँच बाधाओं का वर्णन पतंजलि ने योग सूत्र में किया है।
अविद्या शब्द का शाब्दिक अर्थ अज्ञान है। हमारे दुखों का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञानता के कारण मनुष्य ने तीन अवधारणाओं के बारे में गलत धारणा बना ली है। इन्हीं धारणाओं के कारण पीड़ा उत्पन्न होती है।
वे धारणाएँ निम्नलिखित हैं -
वे धारणाएँ निम्नलिखित हैं -
- अनित्य को नित्य मानना - इस अज्ञान के कारण हम संसारी वस्तुओं का संचय करते हैं और संसारी जीवों से संबन्ध स्थापित करते हैं। सर्वप्रथम उन अनित्य वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। उन्हें प्राप्त करने के बाद हम उनके खोने के डर के कारण उनकी रक्षा के लिए फिर से प्रयास करते हैं। अंततः, जब वे क्षतिग्रस्त या नष्ट हो जाते हैं तो हम फिर से दुःखी हो जाते हैं। अनंत जन्मों में असंख्य अनुभवों के बावजूद भी हम संसारी वस्तुओं की क्षणभंगुरता को नहीं समझ सके।
- दुःख को सुख देना - उदाहरण बच्चा पैदा होने पर माता-पिता यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि यह बच्चा बहुत खुशियाँ लाएगा । वे नहीं जान पाते कि बंधन की शृंखला में एक कड़ी और जुड़ गई है । दूसरे शब्दों में, उनका जीवन अब और अधिक तनावग्रस्त होने वाला है। भगवान् बुद्ध ने यह समझ लिया था । बारीकी से निरीक्षण करने पर पता चलेगा कि सभी प्रकार के भौतिक सुख आगे चलकर दुःख का कारण बनते हैं । और उन सुखों को भोगते समय उनके अभाव का भय भी बना रहता है। इसके अतिरिक्त, कोई भी संसारी वस्तु (जड़ तथा चेतन) सदा प्राप्त नहीं रहती है इसलिए उससे आनंद भी सदा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। और यदि आपके जीवन काल में रहे भी तो भी थोड़े समय के बाद आपको संसारी वस्तु नीरस मालुम पड़ने लगेगी ।
- अनात्म को आत्म मानना - यह अज्ञान का दूसरा भाग है। मृत्यु के समय यह सभी को अनुभव होता है कि आत्मा शरीर से निकल जाती है और इसलिए शरीर मर जाता है । जब वह जीवित था तो बहुत प्रिय हुआ करता था । परंतु उस मृत शरीर के प्रति परिवार और दोस्तों को कोई विशेष स्नेह नहीं होता है । इससे निःसंदेह सिद्ध होता है कि शरीर और आत्मा दो भिन्न तत्व हैं। हम आत्मा हैं शरीर नहीं । शरीर का जीवनकाल पूरा होने पर आत्मा शरीर छोड़ देती है।
अस्मिता अपने क्षणभंगुर शरीर का मिथ्या अहंकार है। इस अहंकार के कारण जीव अपने को स्त्री-पुरुष मानने लगा । उसके आगे धन, देश, जाति, पंथ आदि मानने लगे । फिर उससे भी आगे भारतीय, गुजराती, पंजाबी, मराठी आदि मानने लगे । स्वयं को और अधिक संकुचित करने की कोई सीमा नहीं है। तब विभिन्न समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा, शत्रुता, प्रतिद्वंद्विता बढ़ गई । अपने समूह को दूसरे समूह से श्रेष्ठ साबित करने की प्रतिस्पर्धा होने लगी । यह सब करने में जीव व्यस्त रहने लगा और अधिक असंतुष्टि, अतृप्ति और दुःख बढ़ता जा रहा है ।
अनुकूल भाव से मन का अनुराग करना राग है । जैसे प्रियजनों, सखा-सखी और परिवार के सदस्यों आदि के साथ लगाव है । यह राग भी दुःख का कारण बनता है । क्योंकि अब उन रिश्ते-नातेदारों का दुःख-दर्द आपका दुःख-दर्द बन गया । साथ ही, आप अक्सर अपने प्रियजनों के बारे में सोचते हैं इसलिए उनकी अच्छाइयों और बुराइयों का आपके मन पर प्रभाव पड़ता हैं । साथ ही, भगवान् ने केवल एक मन दिया है । यदि मन संसार में ही लगा रहेगा तो किस मन से भगवान् की अनन्य भक्ति करोगे?
द्वेष का अर्थ है दुर्भावना से मन का लगाव होना । जिस प्रकार राग में मन प्रियजनों का चिन्तन करता है उसी प्रकार द्वेष में शत्रु का चिन्तन करना भी स्वाभाविक है । जितनी अधिक आत्मीयता होगी उतना अधिक चिन्तन होगा । उसी प्रकार जितना अधिक द्वेष होगा उतना अधिक उसके गुणों का चिन्तन होगा । उसको नीचा दिखाने, बदला लेने, हानि पहुँचाने आदि वचारों में मन उलझा रहेगा । अतः यह भी आनन्द प्राप्ति में बाधक है ।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ग्रंथ प्रेम रस सिद्धांत में इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि राग और द्वेष दोनों ही निंदनीय हैं क्योंकि संसारी क्षेत्र में इन दोनों में से किसी एक की भी उपस्थिति मन को मलिन कर देती है। क्योंकि जिसे आप याद करते हैं, चाहे अपनेपन से या नफरत से, वो धीरे-धीरे आपके मन में घुल-मिल जाता है । फिर उस व्यक्ति की छाप को मिटाना असंभव हो जाता है । कंस के मन में श्रीकृष्ण का अत्यधिक भय था । अत: उसे श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता था । वे भोजन, जल, अपने वस्त्र और यहाँ तक कि अपने शरीर में भी श्रीकृष्ण को ही देखता था । गोपियाँ श्री कृष्ण में आसक्त थीं। वे भी निरंतर श्रीकृष्ण का ही चिंतन करती रहती थीं । इसलिए कंस और गोपियों दोनों को श्री कृष्ण के नित्य धाम गोलोक की प्राप्ति हुई । इसका मतलब है कि मन के लगाव का फल मिलता है। यदि मन संसारी क्षेत्र में कहीं भी संलग्न है, तो व्यक्ति को इस संसार में बार-बार आकर कष्ट उठाना पड़ेगा । यदि मन किसी भी तरह से भगवान् से जुड़ा हुआ है (स्नेह, घृणा, क्रोध, भय आदि किसी भी भाव से) तो परिणाम दिव्य होगा, क्योंकि भगवान् दिव्य हैं ।
अभिनिवेश मृत्यु का भय है। यद्यपि, हमें पूर्व देह की मृत्यु का दर्द याद नहीं रहता, फिर भी वह दर्द हमारे अवचेतन मन में रहता है। हमें पिछले जन्मों के अनुभव के कारण उस पीड़ा का अंदाज़ा है। इसीलिए हर कोई, यहाँ तक कि शिशु भी, स्वाभाविक रूप से मृत्यु से डरता है। मृत्यु के भय का दूसरा कारण यह है कि किसी अज्ञात लोक में अज्ञात शरीर में अज्ञात कष्ट सहने पड़ सकते हैं। जो लोग भगवान के समर्पित होते उन्हें कभी भी किसी का डर नहीं होता।
ढ़ोंगी बाबाओं के खोखले शब्दों जैसे "मृत्यु के बाद तुम्हें मोक्ष (या भगवद् दर्शन) मिलेगा।" से कभी धोखा न खाएँ । इस मानव जीवन में आप जो कुछ भी प्राप्त करेंगे (पुण्य, पाप या भगवदानंद) वही आपके साथ जाएगा । मृत्यु के बाद कुछ प्लस माइनस नहीं होता है । मृत्यु के बाद जीव को अपने कर्मों का ही फल भोगना पड़ता है ।
ढ़ोंगी बाबाओं के खोखले शब्दों जैसे "मृत्यु के बाद तुम्हें मोक्ष (या भगवद् दर्शन) मिलेगा।" से कभी धोखा न खाएँ । इस मानव जीवन में आप जो कुछ भी प्राप्त करेंगे (पुण्य, पाप या भगवदानंद) वही आपके साथ जाएगा । मृत्यु के बाद कुछ प्लस माइनस नहीं होता है । मृत्यु के बाद जीव को अपने कर्मों का ही फल भोगना पड़ता है ।