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Divya Ras Bindu

भौतिकता और आध्यात्मिकता का संगम

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उज्जवल भविष्य एक मृग तृष्णा सा मालूम पड़ता है उज्जवल भविष्य एक मृग तृष्णा सा मालूम पड़ता है
प्रश्न :

जब मैं प्राथमिक स्कूल में था तब मेरे अभिभावक कहते, ६ वर्ष के परिश्रम से तुम इन कक्षाओं को विशेष योग्यता सहित उत्तीर्ण कर लोगे l  प्राथमिक स्कूल से मध्यमा में आया, तो वे बोले बस ४ साल के परिश्रम से तुमको अच्छे हाई स्कूल में प्रवेशिका मिल जाएगी l

मैं अब हाई स्कूल में हूँ, और मेरे माता - पिता मुझसे कह रहे हैं, ये ४ साल तुम्हारे भविष्य निर्माण के लिए अत्यधिक महत्व पूर्ण हैं l  उनका कहना है कि, मुझे अथक परिश्रम करना चाहिए जिस से अच्छे कॉलेज में प्रवेश मिल पायेगा l वे पुनः भविष्य की एक सुंदर रूप रेखा खींच कर कहते हैं कि, कॉलेज के ४ साल की मेहनत के पश्चात्, श्रेष्ठ परीक्षा फल से स्नातक बन, मुझे एक अच्छी तनख्वाह वाला काम मिलेगा जिससे मेरे उज्जवल भविष्य का निर्माण होगा l

अब मैं सोचने लगा हूँ, जिस उज्जवल भविष्य की मेरे माता - पिता बात करते हैं, एक मृग तृष्णा सी मालूम पड़ती है जो मुझे हर पड़ाव के बाद दूर और दूर ही दिखाई पड़ता है l मुझे समझ नहीं आ रहा है, मैं जीवन का आनंद कब उठाऊँगा ?

प्रत्येक मनुष्य आनंद चाहता हैसबके अंगूठे के निशान भी भिन्न होते हैं l परन्तु, ... प्रत्येक मनुष्य आनंद चाहता है
उत्तर :

​आपके प्रश्न से यह प्रतीत होता है कि, आप सच्चे आनंद की तलाश में हैं l यह भी अभिव्यक्त होता है कि, अपने माता पिता के निर्देशों और अथक परिश्रम के पश्चात भी, वह आनंद अभी तक आपको प्राप्त नहीं हुआ है l

मैं आपको एक बात का आश्वासन देना चाहूंगी कि, आप अकेले नहीं हैं, आप और हमारे जैसे कई हैं जो अपने आप को इस परिस्थिति में पाते हैं l

हमारे विश्व में अत्यधिक मात्रा में विविधता पायी जाती है l यहाँ ८४० योनियाँ  हैं, जिन में मनुष्य भी एक है l इस पृथ्वी पर ७.७ करोड़ मनुष्यों में, दो मनुष्य भी सामान नहीं हैं l हम सब भिन्न दीखते है, सबकी बौद्धिक क्षमता अलग है, और यहाँ तक ज्ञात है कि, सबके अंगूठे के निशान भी भिन्न होते हैं l  परन्तु, एक समानता हर मनुष्य में होती है : प्रत्येक मनुष्य आनंद चाहता है, बिना किसी के बताये या पढ़ाये ! यह दृष्टिगत तथ्य कि सब आनंद पाना चाहते हैं, मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है l  प्रत्येक शरीर​धारी, एक छोटी सी चींटी से लेकर, सृष्टि के सृजक​ ब्रह्मा तक, सब आनंद पाना चाहते हैं l

क्यों?

वेदों में इस क्यों का उत्तर मिलता है -

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् ।
भगवान् ही आनंद हैं l

रसो वै स: ।
भगवान् ही आनंद हैं l

आनंद एवाधस्तात् आनंद उपरिष्टात् आनंद: पुरस्तात् आनंद: पश्चात्
आनंद उत्तरतः आनंदो दक्षिणतः आनंद एवेद्ॅसर्वम्॥  छांदोग्योपनिष्द​
"उनके (ईश्वर के) ऊपर, नीचे, आगे, पीछे, दाएं, बाएं, उनके समस्त ओर आनंद ही आनंद है" l
 
जीव, उस परमानन्द भगवान् का चिर काल से, अविभाज्य, अणु अंश है l यह भी ज्ञात है कि, हर​ अपूर्ण वस्तु पूर्णता को प्राप्त करना चाहती है l अतः हम उस परमानन्द के अणु अंश हो, उस परमानन्द से संयोग की सतत इच्छा  रखते हैं, और यह इच्छा अनवरत बनी ही रहती है,जब तक हम उस परमांनद को, ईश्वर को प्राप्त नहीं कर लेते l
 
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं,
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
"हम एक क्षण को भी अकर्मा नहीं रह सकते" l क्यों ? क्योंकि हमारे समस्त कर्म हमारे एक मात्र ध्येय के लिए उद्यत होते हैं, और वो है आनंद प्राप्ति, और जब तक हम उस आनंद को प्राप्त नहीं कर लेते, हम स्वभावतः कर्म करते रहेंगे l
 
चिरकाल से, समस्त जीव, आनंद की खोज में लगे रहे हैं, हमारे पूर्वज, हमारे माता - पिता सब l हमारे अभिभावक सदैव हमारा हित चाहते हैं, और आनंद प्राप्त करने के जिन साधनो से वे अवगत हैं उसी की सलाह वे हमको देते हैं, कि, परिश्रम से पढ़ लिख कर, योग्य बन, भविष्य में आनद मिलेगा l
 
पर विडंबना ये है कि, उस सच्चे आनंद की परिभाषा कोई नहीं जानता l अज्ञानता के कारण, हम सब आनंद को संसार में ढूँढ़ते रहते हैं l परन्तु वह सच्चा आनद, प्रति क्षण बढ़ने वाला, चिरस्थायी, नित्य नूतनता से युक्त, दिव्य होता है, और भगवत प्राप्ति से ही हम सब प्राप्त होता है l
 
हम सब माया के वशीभूत हैं, अतः हमारी बुद्धि और मन सब मायिक हैं l जैसे संत तुलसीदास जी कहते हैं -
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ॥
"हमारी इन्द्रियां, मन, बुद्धि जहाँ तक पहुँच सकते हैं, सब माया का ही प्रदेश है" l 
 
हमारा मन मायिक है, अतः हम स्वभावतः मायिक लोग और मायिक वस्तुओं के प्रति आकर्षित होते  हैं l हमारा मायिक मन, हमारी मायिक इन्द्रियों को संसार की मायिक वस्तुओं को इकठ्ठा करने का निर्देश देता है, यह सोंच कर कि इससे ही सुख की प्राप्ति होगी l हमारा मायिक मन यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं  कि, संसार में आनंद नहीं है, और भगवान् ही स्वयं आनद हैं l 

माया के वश में जीव अविद्या (देखें - पंचक्लेश) से ग्रस्त रहता है, जो अज्ञानता है l इसी अज्ञानतावश जीव ४ भ्रांतियों से युक्त रहता है l

1. अनित्य को नित्य मानना

यह संसार एक दिन बना और एक दिन मिट जायेगा, इसी तरह इस संसार की प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर है l एक व्यक्ति या वस्तु कब तक अस्तित्व में रहेगी कोई नहीं जनता l फिर भी हम सतत परिश्रम करते हैं, सांसारिक वस्तुओं को इकट्ठा करते हैं, उसकी साज सज्जा में समय व्यतीत करते हैं l अंततः समस्त सांसारिक वस्तुएं नश्वरता को प्राप्त होती हैं और हमको दुःख और ग्लानि प्रदान करती हैं l  इस कष्ट भोगने का मात्र एक कारण है कि हमको भ्रान्ति है कि सांसारिक वस्तुओं को इकठ्ठा करने से हमको सुख मिलेगा l


2. असत्य को सत्य मानना 
यह संसार एक रेल यात्रा के सामान हैयह संसार एक रेल यात्रा के सामान है
समस्त जीव अपने माता,पिता, भाई, बहन, बेटा, बेटी इत्यादि से अभिन्न सम्बन्ध स्थापित करते है l इन शारीरिक सम्बन्धियों को हम अपना चिरकालिक सम्बन्धी मानते हैं l यह भ्रान्ति भी घोर दुःख का कारण है l

​
यह संसार एक रेल यात्रा के सामान है, जहाँ कई यात्री साथ में सफर कर रहे हैं l यात्री परस्पर एक दूसरे से बात चीत करते हैं, खान पान का आदान प्रदान करते हैं, तब तक जब तक वे उस रेल गाड़ी में सफर कर रहे हैं l जैसे ही किसी यात्री का गंतव्य स्थान आता है ( मृत्यु के समान) वह रेल गाड़ी से उतर जाता है l अज्ञानता वश हम उस सहयात्री को अपना सम्बन्धी मान लेते हैं, और हमेशा के लिए उनके साथ रहने की कामना करते हैं, जिसके फलस्वरूप उनकी विदाई पर हमको घोर दुःख की प्राप्ति होती है l

संस्कृत शब्द सम्बन्ध दो शब्दों से बनता है, ' सम ' का अर्थ पूर्ण, और ' बंध ' का अर्थ बंधन (देखें : article “Our Real Relative” in 2017 Sharad Poornima Issue ) सम्बन्धी का अर्थ हुआ, जिससे हमारा बंधन पूर्णरूपेण हो l  ऐसा पूर्णरूपेण बंधन संसार में होना स्वाभाविक नहीं है l

एक सच्चा सम्बन्धी होने के लिए एक व्यक्ति को हमारा माता, पिता, भाई, बहन,चाचा,चाची, पति,पत्नी, बच्चे, सब एक साथ होना चाहिए I ऐसा सम्पूर्ण नाता संसार में किसी भी व्यक्ति के साथ नहीं हो सकता I

कोई किसी के साथ सर्वदा भी नहीं रह सकता I सब भिन्न भिन्न समय पर इस संसार में आते हैं, और संसार में रहते हुए विभिन्न रूप से स्वतंत्रता पूर्वक जीवन यापन कर, अपने पूर्व निर्धारित समय पर इस संसार से कूच कर जाते हैं I कोई दो लोग यदि साथ मरते हैं, तो मृत्यूपरांत प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मो के आधार पर अलग अलग स्थान प्राप्त करता है I

कोई भी किसी का भला नहीं सोंचता I यहाँ विचारणीय है कि माता - पिता अपने पुत्र या पुत्री के सबसे सगे सम्बन्धी होते हैं, और सदा उनका हित ही चाहते हैं I  परन्तु यह तभी तक है जब तक बच्चों का व्यवहार अनुकूल हो l यदि बच्चे आज्ञा का उलंघन करते हैं और प्रतिकूल व्यवहार करते हैं, तो माता - पिता अपने बच्चों को त्याग भी देते हैं l ऐसे ही समस्त बंधु बांधव भी हमारे अनुकूल तब तक ही रहते हैं, जब तक उनके स्वार्थ की कोई हानि न हो रही हो l

जगद्गुरु शंकराचार्य अपने काव्य ' भज गोविन्दम ' में कहते हैं -

यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये॥६॥
जब तक शरीर में प्राण हैं, सब कुशल क्षेम पूछते हैं, प्राण निकलते ही अपनी स्वयं की पत्नी को पति के नश्वर शरीर से भय लगता है l गंभीरता से इस गूढ़ ज्ञान का मनन करना चाहिए l

का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः, तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः॥८॥ 
कौन तुम्हारी पत्नी है और कौन तुम्हारा पुत्र है ? यह संसार बड़ा ही विचित्र है l  पुनः पुनः विचार करने योग्य बस ये है कि हम कौन हैं और कहाँ से आये हैं ?
​
इस संसार में सब एक दूसरे को खुश करने के लिए, एक दूसरे से झूठा व्यवहार करते हैं l जब किसी के मृदु व्यहार के पीछे कि असलियत पता चलती है तब हमको उनसे वैराग्य हो जाता है, मन का अनुराग समाप्त हो जाता है l

सबको अपने लिए आनंद की खोज है, और वो आनंद हम सोंचते हैं कि एक दूसरे से मिलेगा l प्रेम तब तक ही रहता है जब तक आनंद प्राप्ति की आशा रहती है l यदि आशापूर्ति नहीं होती, प्रेम का तापमान उतनी ही शीघ्रता से काम होता है जितनी शीघ्रता से आशा न पूरी होने की कामना क्षीण होती है l अंत में परम प्रिय मित्र प्रगाढ़ शत्रु बन जाता है l इसलिए सांसारिक व्यक्ति  कभी भी किसी का परम हितेषी नहीं बन सकता,क्योंकि सब अपनी इच्छा पूर्ती से परम सुख पाना चाहते हैं l अतः इस संसार में कोई किसी का सगा एवं सच्चा सम्बन्धी नहीं हो सकता l
जगद्गुरु शंकराचार्य
जगद्गुरु शंकराचार्य
इसलिए सांसारिक व्यक्ति  कभी भी किसी का परम हितेषी नहीं बन सकता,क्योंकि सब अपनी इच्छा पूर्ती से परम सुख पाना चाहते हैं l अतः इस संसार में कोई किसी का सगा एवं सच्चा सम्बन्धी नहीं हो सकता l

3. अनात्म को आत्म मानना

इस भ्रान्ति का प्रमुख कारण है कि हम इस शरीर को  ' मैं ' मानते हैं l यह शरीर पंचभूत से बना है l असल में, ' मैं ' आत्मा का सम्बोधन है, और शरीर मेरा है यानि आत्मा का चोला है l आत्मा शरीर का स्वामी है , और सदा अपने  सुख को पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है l आनंदप्राप्ति के लिए आत्मा के पास बुद्धि का आश्रय होता है, बुद्धि मायिक होने के कारण मायिक जगत में परमानन्द ढूंढने में असफल रहती है l

अतःअज्ञानता का जड़ मूल है, इस शरीर को जो आध्यात्मिक इकाई न होते हुए बस मायिक है, उसको ' मैं ' , एक आध्यात्मिक इकाई,समझना l सारे शरीर के नातेदारों को ' मेरा  ' नातेदार समझना,और हर इन्द्रिय सुख को प्रदान करने वाली वस्तु को ' मेरे ' सुख का कारण समझना, और असली दिव्यानंद से अनभिज्ञ रहना, जो स्वयं भगवान् हैं l देखा जाये तो हमारा दिव्यानंद प्राप्त करने का ध्येय ठीक है, परन्तु हम जहाँ ढूंढ रहे हैं वह क्षेत्र गलत है l वस्तुतः इसीलिए इतनी सतत खोज के पश्चात भी हम सच्चे आनंद से दूर हैं l 
 
4. दुःख को सुख मानना

यह भ्रान्ति कि मायिक संसार में आनंद है, इससे हमारी बुद्धि इतनी भ्रमित है कि उस को विश्वास हो गया है कि मायिक पदार्थों को पा लेने से हमको आनंद प्राप्ति हो जाएगी l परन्तु सच तो इसके विपरीत है, संसार और सांसारिक वस्तुओं की कामना, ही सारे दुःख दर्द का कारण है l
सांसारिक वस्तुओं की कामना पूर्ती से लोभ का जन्म होता है और यदि कामना न पूरी हुई तो क्रोध का जन्म होता है l अतः मायिक वस्तुओं की कामना के दो परिणाम होते हैं, लोभ या क्रोध, इनसे आगे चल कर अनेक मन के रोग पैदा होते हैं जैसे, ईर्ष्या,कोप,अहंकार, मद, मात्सर्य इत्यादि l हमारा एक ही मन है और वो भी यदि नकारात्मक भावनाओं से ग्रसित हो जायेगा, तो सन्मार्ग से, भगवान् से दूर हो जायेगा l यह बहुत बड़ी हानि होगी क्योंकि भगवान् ही परमानन्द के एक मात्र स्त्रोत हैं l अतः प्रत्येक भौतिक लाभ अंततोगत्वा किसी न किसी दुःख का कारण अवश्य बनेगा l
 
इसीलिए गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं -

यस्याऽहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः ॥
जिस पर मैं अपनी विशेष कृपा करता हूँ, मैं उनके भौतिक सुख को हर लेता हूँ l

क्योंकि,
अर्थोऽनर्थस्य कारणम्
अर्थ अनर्थ का कारण होता है l धन संपत्ति ही अधोगति का कारण होती है. इसीलिए कुंती ने भगवान् श्री कृष्ण से एक अनोखा वरदान माँगा -

विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्रतत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥ भ १.८.२५
हे जगत के स्वामी ! मेरी आपसे विनती है कि मुझे जीवन में पग पग पर कष्ट मिले ऐसा वरदान दीजिये जिससे मैं आपको कभी न भूल पाऊँ l

भागवत में पुनः इस तथ्य पर दृढ़ता से जोर देते हुए कहा-
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान् नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चननगोचरम्। भा १.८.२६
जिसने उच्च कुल में जन्म लिया हो, जो शक्तिशाली हो, प्रभावशाली हो और धनाढ्य हो, वह आपके (भगवान् ) पास नहीं पहुँच सकता, क्योंकि यह सब भौतिक सुख उसके अहंकार को बढ़ा देंगे l ऐसे महुष्य के पास दीनता होगी नहीं, जो भक्ति की आधारशिला है l
कुंती ने भगवान् श्री कृष्ण से दुःख माँगा
कुंती ने भगवान् श्री कृष्ण से दुःख माँगा
जिसने उच्च कुल में जन्म लिया हो, जो शक्तिशाली हो, प्रभावशाली हो और धनाढ्य हो, वह आपके (भगवान् ) पास नहीं पहुँच सकता, क्योंकि यह सब भौतिक सुख उसके अहंकार को बढ़ा देंगे l ऐसे मनुष्य के पास दीनता होगी नहीं, जो भक्ति की आधारशिला है l
 
यह सब जानने के पश्चात् हम अपने मुख्य प्रश्न पर दृष्टि डालते हैं, माता - पिता अपने बच्चों को सुखी देखना चाहते हैं, अतः वे जो ठीक समझते हैं, अपनी बुद्धि के अनुसार वो ही निर्देश वे अपने बच्चों को देते हैं l मुख्यतः माता - पिता ये ही जानते हैं कि सांसारिक या भौतिक सुख ही सच्चा सुख है और अपने बच्चों को उच्च शिक्षा और ऊँचे ओहदे पाने की सीख देते हैं l
 
कुछ माता - पिता जिनका आध्यात्मिक रुझान होता है, अपने पुत्री पुत्रादि को साधना भक्ति के लिए प्रेरित करते हैं और भगवत प्राप्त संतो की वाणी और उनकी शिक्षाओं से अवगत कराते हैं l
 
यद्यपि शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण होती है, तथापि वह ज्ञान जो ईश्वर की और ले जाये अनिवार् अनिवार्य है l वह भौतिक शिक्षा अधूरी है, जो हमको अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर न कर सके l एक विद्वान् व्यक्ति भी अशांत और विव्हल रहेगा यदि वह अध्यात्म ज्ञान से अनभिज्ञ है l
 
इसलिए मेरा सुझाव है  कि अपने माता - पिता का कहा मानो खूब पढ़ो, लिखो, काबिल बनो, पर अपना मन भगवान् में सदैव लगाए रखो l  ऐसा ही कुछ भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, "अर्जुन, मेरा प्रति क्षण स्मरण करते हुए युद्ध करो , यह तुम्हारा धर्म है l " इससे पता चलता है कि हमारा मुख्य ध्येय भगवान् का स्मरण करना है और उसके साथ दुनिया के समस्त कार्य करना भी जरूरी है, परन्तु यह भी आवश्यक है कि कार्य ऐसे करना चाहिए कि भगवान् के स्मरण में बाधा न आने पाये l
 
ऐसे साधन भक्ति करने के लिए निर्देश देते हुए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं -
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्। गीता ९.२७
हम को हमारा प्रत्येक कार्य ( बात करना, खाना, सेवा करना, दान देना) एक ही ध्येय से करना चाहिए और वो है उनको(भगवान्) प्रसन्न करने के लिए कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे भगवान् को अप्रसन्नता हो l  कोई भी कार्य करते समय श्री कृष्ण की उपस्थिति का अनुभव करो, वे हमको देख रहे हैं, वे हमको देख कर मुस्कुरा रहे हैं, वे हमसे बात कर रहे हैं, और हम उनके चरण कमल की सेवा कर रहे हैं, इत्यादि I इस तरह से जीवन यापन करना एक परमावश्यक शैली है, जिसका हम सबको अभ्यास करना चाहिए l

जग जल में न घी मना, श्रम ही है याको मथना ।

 जैसे घी दूध मथने से प्राप्त हिता है वैसे ही आनंद भगवान की भक्ति से प्राप्त होता है । जैसे घी की अपेक्षा में पानी को मथना मात्र परिश्रम है वैसे ही इस संसार में सुख ढूँढना मात्र परिश्रम ही है ।

                                                                                                                                        - जगद्गुरु कृपालु जी महाराज​


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