2009 होली |
सिद्धांत
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बच्चों के प्रश्न
बचनरी दीदी द्वारा उत्तर |
सिद्धांत
वसंत सौंदर्य और प्रेम की ऋतु है। इस ऋतु में रंग-बिरंगे, सुगंधित फूलों और चारों ओर हरियाली से सुसज्जित पृथ्वी भव्य दिखती है । ऐसे में सब प्रसन्नचित होते हैं । यह ऋतु प्रेम वर्धक है ।
इसी समय होली का पावन पर्व पड़ता है । इस प्रकार वातावरण से उत्साहित होकर, लोग लाल गुलाल और लाल रंग के पानी से होली खेलते हैं । लाल रंग प्रेम का प्रतीक है । संस्कृत शब्द राग का अर्थ प्रेम है और राग का अर्थ लाल रंग भी होता है।
श्री राधा-कृष्ण दिव्य प्रेम के अवतार हैं। श्री कृष्ण के पृथ्वी पर अवतरित होने का मुख्य उद्देश्य अधिकारी जीवात्माओं पर प्रेम बरसाना था। इसलिए युगल सरकार इस "प्रेम की ऋतु" के आगमन के लिये लालायित रहते हैं । 5000 वर्ष पूर्व श्री राधा कृष्ण के अवतरण काल में वृन्दावन में दिव्य होली लीला का वर्णन निम्नलिखित है । यह पद श्री महाराज जी द्वारा रचित प्रेम रस मदिरा नामक काव्य ग्रन्थ में पाया जा सकता है ।
ऋतु राज वसंत के आगमन से ब्रजवासी प्रेम रस से सराबोर हैं । वृन्दावन के सभी गोप (श्री कृष्ण के मित्र) और गोपियाँ (श्री राधा रानी की सखियाँ) युगल सरकार से राग (लाल पाउडर और लाल रंग के पानी के रूप में प्रेम) प्राप्त करने और उन पर अपना राग फेंकने के लिए एक साथ इकट्ठे हुए हैं। इस दिव्य होली के खेल में मध्य में श्री राधा कृष्ण हैं और उनके चारों ओर हजारों गोप और गोपियाँ गोलाकार रूप में खड़े हैं, । इस झाँकी के सौरस्य का वर्णन शब्दातीत है।
इसी समय होली का पावन पर्व पड़ता है । इस प्रकार वातावरण से उत्साहित होकर, लोग लाल गुलाल और लाल रंग के पानी से होली खेलते हैं । लाल रंग प्रेम का प्रतीक है । संस्कृत शब्द राग का अर्थ प्रेम है और राग का अर्थ लाल रंग भी होता है।
श्री राधा-कृष्ण दिव्य प्रेम के अवतार हैं। श्री कृष्ण के पृथ्वी पर अवतरित होने का मुख्य उद्देश्य अधिकारी जीवात्माओं पर प्रेम बरसाना था। इसलिए युगल सरकार इस "प्रेम की ऋतु" के आगमन के लिये लालायित रहते हैं । 5000 वर्ष पूर्व श्री राधा कृष्ण के अवतरण काल में वृन्दावन में दिव्य होली लीला का वर्णन निम्नलिखित है । यह पद श्री महाराज जी द्वारा रचित प्रेम रस मदिरा नामक काव्य ग्रन्थ में पाया जा सकता है ।
ऋतु राज वसंत के आगमन से ब्रजवासी प्रेम रस से सराबोर हैं । वृन्दावन के सभी गोप (श्री कृष्ण के मित्र) और गोपियाँ (श्री राधा रानी की सखियाँ) युगल सरकार से राग (लाल पाउडर और लाल रंग के पानी के रूप में प्रेम) प्राप्त करने और उन पर अपना राग फेंकने के लिए एक साथ इकट्ठे हुए हैं। इस दिव्य होली के खेल में मध्य में श्री राधा कृष्ण हैं और उनके चारों ओर हजारों गोप और गोपियाँ गोलाकार रूप में खड़े हैं, । इस झाँकी के सौरस्य का वर्णन शब्दातीत है।
वृन्दाबन धूम मची होरी ।
वृंदावन की पावन भूमि पर होली का त्योहार बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है
सखन सखिन को सखिन सखन को, लै पिचकारिन संग बोरी ।
श्याम सुन्दर के सखा और श्री राधा रानी की सखियाँ अपनी पिचकारियों से छोड़े गए रंगीन पानी से एक दूसरे को सराबोर कर रहे हैं।
लली लाल मडंल बिच ठाढ़े, दुहुँन दुहुँन किय सरबोरी ।
घेरे के मध्य में खड़े श्री राधा और कृष्ण भी एक दूसरे को सिर से पैर तक रंगीन पानी से सराबोर कर रहे हैं
लाल गुलाब लाल भये बादर, लाल लाल भईं ब्रज खोरी ।
होली के इस हर्षोल्लास और रंग-बिरंगे अवसर पर ब्रज में इतनी अधिक मात्रा में लाल गुलाल उड़ रहा है, जिससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बादलों ने लाल रंग ले लिया है । ब्रज की गलियाँ भी लाल हो गई हैं ।
अस्त व्यस्त सब के पट भूषन, करत परस्पर झकझोरी ।
श्री कृष्ण के ग्वाल मित्रों और श्री राधा की सहेलियों के समूहों के बीच होने वाले झगड़े के कारण उनके कपड़े और आभूषण अस्त-व्यस्त हो गए हैं।
तब कृपालु कह साँझ भई अब, काल होये होरी हो री ॥
सायंकाल होने पर कवि श्री कृपालु जी महाराज जी ने घोषणा की, "अब शाम हो गई है । आज होली का खेल यहीं समाप्त होता है । कल यहीं फिर से होली का खेल आरंभ होगा।"
श्री राधा-कृष्ण प्रेम के अवतार हैं। युगल सरकार के अवतरण का एकमात्र उद्देश्य अधिकारी जीवों पर की प्रेम का अधाधुन्ध वर्षण करना है। इसलिए श्री कृष्ण, बसंत पंचमी (होली से लगभग एक महीने और 10 दिन पहले) से ही एक थैली में गुलाल लेकर घूमना आरंभ कर देते थे। श्री कृष्ण अपने अड़बंग (मस्ती भरे अंदाज) ढ़ंग से गोपियों को चुनौती और चेतावनी देकर होली में दिव्य प्रेम रस के वर्षण की सूचना देते थे । यदि किसी ने विरोध किया तो उसे वहीं रंग से सराबोर (प्रेम से मालामाल) कर देते थे । और क्यों न करें, उनका अवतार ही प्रेम देने के लिये होता हैं।
और श्री राधा-कृष्ण रंग एकादशी (होली से 4 दिन पहले) से रंगीन पानी से होली खेलना शुरू कर देते थे । होली का खेल रात में समाप्त होता और अगले दिन फिर शुरू हो जाता। ऐसा कई दिनों तक चलता था ।
इसीलिए कहा जा रहा है कि "कल यहीं होली का खेल फिर शुरू होगा"।
और श्री राधा-कृष्ण रंग एकादशी (होली से 4 दिन पहले) से रंगीन पानी से होली खेलना शुरू कर देते थे । होली का खेल रात में समाप्त होता और अगले दिन फिर शुरू हो जाता। ऐसा कई दिनों तक चलता था ।
इसीलिए कहा जा रहा है कि "कल यहीं होली का खेल फिर शुरू होगा"।
ऊपर
सिद्धांत
वर्तमान काल में होली मनाने की विधि तो आप जानते ही होंगे। इस संबंध में सबसे प्रचलित धारणा यह है कि होली रंग-बिरंगे पानी और गुलाल से खेलने, मौज-मस्ती करने, ढेर सारी मिठाइयाँ खाने और गरिष्ठ भोजन करने का त्योहार है !
भारत वर्ष में मनाये जाने वाले पर्वों में आध्यात्मिकता निहित होती है । क्या आप होली के आध्यात्मिक महत्व को जानते हैं ? अधिकांश लोग यह नहीं जानते हैं कि यह त्योहार भक्त प्रह्लाद से संबंधित है । प्रह्लाद का जीवन भक्ति की शक्ति का एक ज्वलंत उदाहरण है । भक्ति बड़ी से बड़ी राक्षसी शक्तियों को भी सहज ही समाप्त कर सकती है । होली के पावन पर्व का वस्तविक संदेश भक्त प्रह्लाद के दर्शन को समझना, उसे आत्मसात करके अथाह दैवीय कृपा प्राप्त करना है ।
प्रह्लाद कौन थे?
प्रह्लाद राक्षसों के राजा हिरण्यकशिपु का सबसे छोटा और सबसे गुणी पुत्र था। प्रह्लाद का मात्र एक गुण उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए पर्याप्त है - वह गुण था जन्म से ही भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों में उसका स्वाभाविक प्रेम ।
भारत वर्ष में मनाये जाने वाले पर्वों में आध्यात्मिकता निहित होती है । क्या आप होली के आध्यात्मिक महत्व को जानते हैं ? अधिकांश लोग यह नहीं जानते हैं कि यह त्योहार भक्त प्रह्लाद से संबंधित है । प्रह्लाद का जीवन भक्ति की शक्ति का एक ज्वलंत उदाहरण है । भक्ति बड़ी से बड़ी राक्षसी शक्तियों को भी सहज ही समाप्त कर सकती है । होली के पावन पर्व का वस्तविक संदेश भक्त प्रह्लाद के दर्शन को समझना, उसे आत्मसात करके अथाह दैवीय कृपा प्राप्त करना है ।
प्रह्लाद कौन थे?
प्रह्लाद राक्षसों के राजा हिरण्यकशिपु का सबसे छोटा और सबसे गुणी पुत्र था। प्रह्लाद का मात्र एक गुण उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए पर्याप्त है - वह गुण था जन्म से ही भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों में उसका स्वाभाविक प्रेम ।
वासुदेवे भगवति यस्य नैसर्गिकी रतिः
भागवत 7.4.36 भक्ति रसामृत सिन्धु 1.3.21 |
vāsudeve bhagavati yasya naisargikī ratiḥ
bhāgavata 7.4.36 bhakti rasāmr̥ta sindhu 1.3.21 |
"श्रीकृष्ण के प्रति उनका स्वाभाविक प्रेम था।"
बचपन से ही प्रह्लाद को खेलने में कोई रुचि नहीं थी। इसके बजाय वह प्रभु की याद में खोया रहता था। भगवान् श्री कृष्ण की कृपा और ममत्व ने उनको इतना मोहित कर लिया था कि उन्हें बाहरी संसार का होश ही नहीं रहा। उन्हें ऐसा महसूस होता था मानो ईश्वर ने स्वयं उसे अपनी गोद में ले लिया है और गले लगा रहे हैं । यद्यपि प्रह्लाद ईश्वर के प्रति ऐसी घनिष्ठ विचारों में खोये रहते थे फिर भी वे बिना किसी सोच-विचार के खाना, पीना, सोना, बैठना, चलना आदि जैसे सांसारिक कर्म करते रहते थे । कभी-कभी वे यह सोचकर जोर-जोर से रोने लगता कि भगवान् छोड़कर चले गये हैं। कभी-कभी अपने मन में यह अनुभव करके कि भगवान् उसकी आंखों के सामने हैं, वह आनंदित होकर हंसने लगते थे। कभी-कभी उनका स्मरण करके मधुर सुख का अनुभव करते हुए प्रह्लाद जोर-जोर से गाने लगते। कभी-कभी संस्कआर को भूल कर भाव में नृत्य करना शुरू कर देते थे। कभी-कभी प्रह्लाद श्री कृष्ण की लीलाओं के विचारों में इतना खो जाते थे कि वे अपनी की सुध-बुध खोकर और भगवान्। की नकल करने लगते थे। कभी-कभी, भगवान् के कोमल दिव्य स्पर्श का अनुभव करके, वह आनंदित हो जाते और चुपचाप बैठ जाते। उस समय उसके शरीर का रोम-रोम आनन्दित हो उठता था। उनकी आधी खुली आँखों में अटल प्रेम और प्रसन्नता के अश्रु प्रवाह करते ।
दैत्यों ने शुक्राचार्य को अपना पुरोहित नियुक्त किया था। शुक्राचार्य के दो पुत्र थे - शन्द और अमर्क। उनके दोनों बेटे, राजा के महल के बगल में रहते थे और गुणी और सक्षम प्रह्लाद और अन्य असुर बच्चों को कूटनीति, अर्थशास्त्र आदि के बारे में पढ़ाते थे। प्रह्लाद अपने गुरु की शिक्षाओं को सुनते थे और उन्हें वापस दोहराते थे परंतु हृदय से उस शिक्षा को ग्रहण नहीं करते थे। एक दिन, प्रह्लाद के पिता ने बड़े लाड़ से अपने पुत्र प्रह्लाद से पूछा - "बेटा! तुम्हें क्या पसंद है?" प्रह्लाद का उत्तर सुनकर हिरण्यकशिपु को अपने छोटे भाई हिरण्याक्ष के वध का समाचार सुनने से भी अधिक पीड़ा हुई थी । प्रह्लाद ने हँसते हुए कहा था
बचपन से ही प्रह्लाद को खेलने में कोई रुचि नहीं थी। इसके बजाय वह प्रभु की याद में खोया रहता था। भगवान् श्री कृष्ण की कृपा और ममत्व ने उनको इतना मोहित कर लिया था कि उन्हें बाहरी संसार का होश ही नहीं रहा। उन्हें ऐसा महसूस होता था मानो ईश्वर ने स्वयं उसे अपनी गोद में ले लिया है और गले लगा रहे हैं । यद्यपि प्रह्लाद ईश्वर के प्रति ऐसी घनिष्ठ विचारों में खोये रहते थे फिर भी वे बिना किसी सोच-विचार के खाना, पीना, सोना, बैठना, चलना आदि जैसे सांसारिक कर्म करते रहते थे । कभी-कभी वे यह सोचकर जोर-जोर से रोने लगता कि भगवान् छोड़कर चले गये हैं। कभी-कभी अपने मन में यह अनुभव करके कि भगवान् उसकी आंखों के सामने हैं, वह आनंदित होकर हंसने लगते थे। कभी-कभी उनका स्मरण करके मधुर सुख का अनुभव करते हुए प्रह्लाद जोर-जोर से गाने लगते। कभी-कभी संस्कआर को भूल कर भाव में नृत्य करना शुरू कर देते थे। कभी-कभी प्रह्लाद श्री कृष्ण की लीलाओं के विचारों में इतना खो जाते थे कि वे अपनी की सुध-बुध खोकर और भगवान्। की नकल करने लगते थे। कभी-कभी, भगवान् के कोमल दिव्य स्पर्श का अनुभव करके, वह आनंदित हो जाते और चुपचाप बैठ जाते। उस समय उसके शरीर का रोम-रोम आनन्दित हो उठता था। उनकी आधी खुली आँखों में अटल प्रेम और प्रसन्नता के अश्रु प्रवाह करते ।
दैत्यों ने शुक्राचार्य को अपना पुरोहित नियुक्त किया था। शुक्राचार्य के दो पुत्र थे - शन्द और अमर्क। उनके दोनों बेटे, राजा के महल के बगल में रहते थे और गुणी और सक्षम प्रह्लाद और अन्य असुर बच्चों को कूटनीति, अर्थशास्त्र आदि के बारे में पढ़ाते थे। प्रह्लाद अपने गुरु की शिक्षाओं को सुनते थे और उन्हें वापस दोहराते थे परंतु हृदय से उस शिक्षा को ग्रहण नहीं करते थे। एक दिन, प्रह्लाद के पिता ने बड़े लाड़ से अपने पुत्र प्रह्लाद से पूछा - "बेटा! तुम्हें क्या पसंद है?" प्रह्लाद का उत्तर सुनकर हिरण्यकशिपु को अपने छोटे भाई हिरण्याक्ष के वध का समाचार सुनने से भी अधिक पीड़ा हुई थी । प्रह्लाद ने हँसते हुए कहा था
बनं गतो यद्धरिमाश्रयेत
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banaṁ gato yaddharimāśrayeta
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"पिताजी! मुझे वन में जाकर श्रीकृष्ण की निरंतर भक्ति करना पसंद है।"
उत्तर सुनते ही हिरण्यकशिपु क्रोध में अंधा हो गया । उसने शुक्राचार्य के पुत्र शन्द और अमर्क को बुलाया और आदेश दिया "प्रह्लाद को मेरी आंखों के सामने ले जाओ ! उसे समझाओ, उसे पढ़ना-लिखना सिखाओ। उसे साम (तर्क), दाम (पैसे का प्रलोभन देना), दंड, भेद (विभक्त करके कमजोर बनाना) के 4 कूटनैतिक सिद्धांत सिखाओ। उसे राजपाट चलाने की विभिन्न कलाओं की शिक्षा दो"।
प्रह्लाद को क्या सीखना था? वे जन्मजात पूर्णज्ञ संत थे। शन्द और अमर्क ने प्रह्लाद को कूटनीति के अनुसार आकर्षक पद देकर विरोधियों (तथा समर्थकों) को संतुष्ट करना, फूट डालकर शासन करना और अवज्ञा करने पर दंड देना आदि सिखाया । गुरुजी जो कुछ सिखाते थे, प्रह्लाद ज्यों का त्यों दोहरा देते लेकिन आत्मसात कुछ भी न करते थे । हृदय से उन्हें वह ज्ञान व्यर्थ जान पड़ता था । कुछ समय बाद जब उनके गुरुओं को विश्वास हो गया कि प्रह्लाद कूटनीति की विभिन्न कलाओं में पर्याप्त रूप से शिक्षित हो गये हैं, तो वे प्रह्लाद को उनकी माँ के पास ले गए। प्रह्लाद की माँ ने बड़े लाड़ से उसे नहलाया, सुन्दर वस्त्र व आभूषण से सुसज्ज्जित किया और उनके पिता के सामने ले गईं । प्रह्लाद ने अपने पिता को प्रणाम किया । हिरण्यकशिपु ने प्रसन्न चित्त प्रह्लाद को फिर अपनी गोद में ले लिया और उसकी आँखों से प्रेम के आँसू प्रह्लाद को भिगोने लगे। उन्होंने पूछा, "बेटा, अब बताओ, तुम्हें क्या पसंद है? तुमने क्या सीखा? तुमने अपने गुरुओं से क्या समझा है?"
उत्तर सुनते ही हिरण्यकशिपु क्रोध में अंधा हो गया । उसने शुक्राचार्य के पुत्र शन्द और अमर्क को बुलाया और आदेश दिया "प्रह्लाद को मेरी आंखों के सामने ले जाओ ! उसे समझाओ, उसे पढ़ना-लिखना सिखाओ। उसे साम (तर्क), दाम (पैसे का प्रलोभन देना), दंड, भेद (विभक्त करके कमजोर बनाना) के 4 कूटनैतिक सिद्धांत सिखाओ। उसे राजपाट चलाने की विभिन्न कलाओं की शिक्षा दो"।
प्रह्लाद को क्या सीखना था? वे जन्मजात पूर्णज्ञ संत थे। शन्द और अमर्क ने प्रह्लाद को कूटनीति के अनुसार आकर्षक पद देकर विरोधियों (तथा समर्थकों) को संतुष्ट करना, फूट डालकर शासन करना और अवज्ञा करने पर दंड देना आदि सिखाया । गुरुजी जो कुछ सिखाते थे, प्रह्लाद ज्यों का त्यों दोहरा देते लेकिन आत्मसात कुछ भी न करते थे । हृदय से उन्हें वह ज्ञान व्यर्थ जान पड़ता था । कुछ समय बाद जब उनके गुरुओं को विश्वास हो गया कि प्रह्लाद कूटनीति की विभिन्न कलाओं में पर्याप्त रूप से शिक्षित हो गये हैं, तो वे प्रह्लाद को उनकी माँ के पास ले गए। प्रह्लाद की माँ ने बड़े लाड़ से उसे नहलाया, सुन्दर वस्त्र व आभूषण से सुसज्ज्जित किया और उनके पिता के सामने ले गईं । प्रह्लाद ने अपने पिता को प्रणाम किया । हिरण्यकशिपु ने प्रसन्न चित्त प्रह्लाद को फिर अपनी गोद में ले लिया और उसकी आँखों से प्रेम के आँसू प्रह्लाद को भिगोने लगे। उन्होंने पूछा, "बेटा, अब बताओ, तुम्हें क्या पसंद है? तुमने क्या सीखा? तुमने अपने गुरुओं से क्या समझा है?"
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ भा. 7.5.23 |
śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇo: smaraṇaṁ pādasevanam ।
arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ sakhyamātmanivedanam ॥ bhā. 7.5.23 |
"पिताजी! भगवान् विष्णु की भक्ति करने के 9 तरीके ( नवधा भक्ति ) हैं - भगवान्। के पूर्ण शरणागत होने के उपरांत उनकी महिमा, उनके नाम, उनकी लीलाओं को सुनना, गाना और स्मरण करना, उनके चरण कमलों की सेवा करना, पूजन करना, उन्हें प्रणाम करना, स्वयम्। को उनका सेवक या सखा मानकर उनकी सेवा करना। पहले, भगवान् के पूर्ण शरणागत होना फिर नवधा भक्ति करना । यही ज्ञान मैंने अर्जित किया है।"
यह सुनकर हिरण्यकशिपु आग बबूला हो गया । उसने प्रह्लाद को अपनी गोद से फेंक दिया और अपने सेनापतियों को आदेश दिया कि किसी भी प्रकार से प्रह्लाद को मार डालो । प्रह्लाद को मारने के लिए सेनापतियों ने अनेक हथकंड़े अपनाये । उन्होंने प्रह्लाद को ऊँचे पहाड़ से फेंक दिया, डूबाने के लिये समुद्र में फेंक दिया, उसे हाथी से कुचलवाने का प्रयत्न किया, जहरीले नागों के कुंड मे डाल दिया, उसे जहर पिलाया । अर्थात प्रह्लाद को मारने का भरसक प्रयत्न किया परंतु विफल रहे। हिरण्यकशिपु विफल होने के कारण चिन्तित था । अन्य कोई उपाय भी नहीं सूझ रहा था । अतः गुरु पुत्रों की बात मानकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को फिर से पढ़ने के लिए भेज दिया । गुरु पुत्रों ने प्रह्लाद को धर्म यानी परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन, आर्थिक शिक्षा, सामाजिक और राजनीतिक सफलता प्राप्त करने का साधन और कामना पूर्ति के विभिन्न साधनों के बारे में शिक्षा देना शुरू कर दिया । यद्यपि प्रह्लाद को गुरुओं द्वारा दिया जा रहा ज्ञान पसंद नहीं था फिर भी वे एक विनम्र सेवक की भांति आश्रम में रहते थे ।
एक दिन, जब उनके गुरु किसी काम से बाहर गए हुए थे, तब प्रह्लाद अपनी सुमधुर वाणी से राक्षस बलकों को उपदेश देने लगे । सभी बच्चे प्रह्लाद के पास इकट्ठे हो गए और प्रह्लाद की बातों को बड़े ध्यान से सुनने लगे, उनकी नजरें प्रेमपूर्वक प्रह्लाद पर टिकी हुई थीं।
प्रह्लाद ने कहा
यह सुनकर हिरण्यकशिपु आग बबूला हो गया । उसने प्रह्लाद को अपनी गोद से फेंक दिया और अपने सेनापतियों को आदेश दिया कि किसी भी प्रकार से प्रह्लाद को मार डालो । प्रह्लाद को मारने के लिए सेनापतियों ने अनेक हथकंड़े अपनाये । उन्होंने प्रह्लाद को ऊँचे पहाड़ से फेंक दिया, डूबाने के लिये समुद्र में फेंक दिया, उसे हाथी से कुचलवाने का प्रयत्न किया, जहरीले नागों के कुंड मे डाल दिया, उसे जहर पिलाया । अर्थात प्रह्लाद को मारने का भरसक प्रयत्न किया परंतु विफल रहे। हिरण्यकशिपु विफल होने के कारण चिन्तित था । अन्य कोई उपाय भी नहीं सूझ रहा था । अतः गुरु पुत्रों की बात मानकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को फिर से पढ़ने के लिए भेज दिया । गुरु पुत्रों ने प्रह्लाद को धर्म यानी परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन, आर्थिक शिक्षा, सामाजिक और राजनीतिक सफलता प्राप्त करने का साधन और कामना पूर्ति के विभिन्न साधनों के बारे में शिक्षा देना शुरू कर दिया । यद्यपि प्रह्लाद को गुरुओं द्वारा दिया जा रहा ज्ञान पसंद नहीं था फिर भी वे एक विनम्र सेवक की भांति आश्रम में रहते थे ।
एक दिन, जब उनके गुरु किसी काम से बाहर गए हुए थे, तब प्रह्लाद अपनी सुमधुर वाणी से राक्षस बलकों को उपदेश देने लगे । सभी बच्चे प्रह्लाद के पास इकट्ठे हो गए और प्रह्लाद की बातों को बड़े ध्यान से सुनने लगे, उनकी नजरें प्रेमपूर्वक प्रह्लाद पर टिकी हुई थीं।
प्रह्लाद ने कहा
कौमार आचरेत् प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह। दुर्लभं मानुषं जन्म तदस् ध्रवमर्थदम्।
भा. 7.6.1 |
kaumāra ācaret prājño dharmān bhāgavatāniha। durlabhaṁ mānuṣaṁ janma tadas dhravamarthadam।
bhā. 7.6.1 |
"बचपन से ही श्री कृष्ण भक्ति करनी चाहिए। मानव शरीर बहुत ही दुर्लभ तथा क्षणभंगुर है । मानव जीवन तभी सार्थक होगा जब जीव भक्ति करे ।"
भक्ति को भविष्य पर छोड़ना एक बड़ी भारी गलती है। वेद कहते हैं - अभी करो
भक्ति को भविष्य पर छोड़ना एक बड़ी भारी गलती है। वेद कहते हैं - अभी करो
न श्वः श्वः उपासीत को हि पुरुषस्य श्वो वेद ।
वेद |
na śvaḥ śvaḥ upāsīta ko hi puruṣasya śvo veda ।
veda |
यानी यह कहकर विलंब न करें कि "मैं इसे कल करूँगा।"। यह संभव है कि आप कल तक जीवित ही न रहें। यह मानव शरीर अत्यंत बहुमूल्य होने के साथ-साथ देव-दुर्लभ है तथा क्षणिक है। इसलिए, जीव को तुरंत कृष्ण भक्ति आरंभ करनी चाहिए । भविष्य पर नहीं छोड़ना चाहिए। भगवान् के चरणकमलों की शरण लेना ही इस मानव रूप की एकमात्र सफलता है। क्योंकि ईश्वर सभी प्राणियों का स्वामी, मित्र, प्रियतम तथा आत्मा हैं।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ।
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yadeṣa sarvabhūtānāṁ priya ātmeśvaraḥ suhr̥t ।
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"ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए बहुत अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे सभी प्राणियों की आत्मा हैं "। प्रह्लाद ने घोषणा की -
प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद् विडम्बनम् ॥
भा. 7.7.52 |
prīyate'malayā bhaktyā hariranyad viḍambanam ॥
bhā. 7.7.52 |
"श्री कृष्ण की कृपा केवल निःस्वार्थ भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है, आध्यात्मिक उत्थान के अन्य सभी साधन वांछित परिणाम (जो कि अनंत आनंद है ) नहीं देते हैं "। उन साधनों से भौतिक परिणाम प्राप्त होते हैं। वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से स्वर्ग लोकों में कुछ समय के लिये निवास मिलता है। उन लोकों में इन्द्रिय सुख भोगने की प्रवृत्ति बढ़ती है। अन्य योनियों जैसे जड़ जीव (पेड़ , लता आदि) और चेतन जीव (जैसे पक्षी, जानवर आदि) में तत्वज्ञान को समझने की शक्ति नहीं है। इसलिए, मानव जीवन में भगवान् कृष्ण की भक्ति करके ही मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करना संभव है। प्रह्लाद ने आगे कहा, "मित्रों! इस संसार में या मानव रूप में सबसे बड़ा उद्देश्य भगवान् कृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करना है।"
असुर बालकों ने उनसे पूछा – “भाई! तुम्हें यह ज्ञान किसने और कब दिया?”
प्रह्लाद ने अपने जन्म की कथा सुनाई कि किस प्रकार उन्हें यह ज्ञान माँ के गर्भ में ही प्राप्त हुआ था। जब वारह भगवान् ने हिरण्याक्ष का वध किया, तो उसका भाई हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया। हिरण्यकशिपु ने अमरता का वरदान पाने के लिए घोर तपस्या करने का निर्णय लिया । जब वह वन में तपस्या कर रहा था, तब हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु के गर्भ में प्रह्लाद थे । इन्द्र ने सोचा – “यह तो उत्तम अवसर है! शत्रु के पूरे परिवार को नष्ट कर दो!” इसलिए, उसने देवताओं की सेना के साथ हिरण्यकशिपु के राज्य पर हमला किया और गर्भवती कयाधु का अपहरण कर लिया । इंद्रप्रस्थ (इंद्र का राज्य) जाते समय रास्ते में ऋषि नारद से भेंट हुई। नारद जी ने पूछा “क्या कर रहे हो?” "मैं क्या कर रहा हूँ? मैं अपने शत्रु की पत्नी को स्वर्ग की जेल में कैद करने के लिए ले जा रहा हूँ।” नारद जी ने उसे डाँटते हुए कहा, “अरे मूर्ख! वह अपने गर्भ में एक संत को पाल रही है और इसके खिलाफ कुछ भी सोचा तो सबका नियंत्रक (भगवान्) दंड देगा" ! संत नारद ने कयाधू को मुक्त कर दिया और फिर उसे अपने आश्रम में ले गए और विभिन्न ग्रंथों से दर्शन सुनाए। प्रह्लाद ने वे सभी उपदेश सुने, कंठस्थ किये और स्वयं को भगवान् श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया। वह श्री कृष्ण का भक्त बन गया। भगवान् कृष्ण ने उन्हें अपने दिव्य रूप में दर्शन दिये। यह सब उसकी माँ के गर्भ में हुआ। कहानी सुनकर सभी असुर बालक प्रह्लाद की प्रशंसा करने लगे। प्रह्लाद ने उन्हें श्री कृष्ण की भक्ति करने का निर्देश दिया।
प्रह्लाद के प्रवचन सुनकर उनका मन भगवान् में लग गया। यह देखकर उनके गुरु डर गए और हिरण्यकशिपु को पुरंत सूचित कर दिया । प्रह्लाद हिरण्यकशिपु के प्रकांड शत्रु के उपासक थे तथा औरों को भी उन्हीं की भक्ति करना सिखा रहे थे । इस कृत्य को सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध से काँपने लगा। चूँकि उसके सभी सेनापति पहले ही विफल हो चुके थे, हिरण्यकशिपु ने निश्चय किया कि वह प्रह्लाद को अपने हाथों से मार डालेगा। उसने गरजते हुए प्रह्लाद से पूछा – “तेरा भगवान् कहाँ है?” यदि वह सर्वव्यापी है, तो उसे इस स्तंभ में क्यों नहीं दीख रहा है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया ,"पिताजी वे सर्वव्यापक हैं तथा आप के अन्दर भी वास करते हैं । अब वह अपने क्रोध पर काबू नहीं रख सका और अपने सिंहासन से उछल कर उतरा । गदा से स्तंभ पर बहुत जोर से प्रहार किया। स्तंभ टूट गया और उसी क्षण ,खम्भे से जोर की आवाज आई। ऐसा लगा मानो सारा ब्रह्माण्ड फट गया हो। डरा हुआ हिरण्यकशिपु इधर-उधर देखने लगा। उसके ठीक सामने भगवान् नरसिंह (आधे नर आधे शेर) खड़े थे । उनका रूप भयानक था । भगवान् की योगमाया शक्ति के कारण सभी रक्षक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और उन्होंने अपने राजा की रक्षा करने का प्रयास भी नहीं किया। भगवान् नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को एक खिलौने की तरह उठाया और उसे दरबार के प्रवेश द्वार तक ले गए। वहाँ, नरसिंह भगवान् ने हिरण्यकशिपु को अपनी जांघों पर रखा और खेल-खेल में नाखून से उसे फाड़ दिया ।
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, भगवान् शंकर, अनेक देवी - देवता उपस्थित थे । पृथ्वी का भार उतारने के लिये उनकी महिमा का गान करना तो दूर की बात है कोई उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा सका । नृसिंह भगवान् आंतों का हार पहने हुए, क्रोध में गरज रहे थे । अनके अनंत सूर्य के समान तेज को देखकर सभी भयभीत थे । देवताओं ने उनकी अर्धांगिनी माँ लक्ष्मी से अनुरोध किया कि आप जाकर उन्हें शांत करें, लेकिन उनकी क्रोधित स्थिति को देखकर लक्ष्मी जी भी उनके करीब जाने का साहस नहीं जुटा सकीं। तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद को भेजा । प्रह्लाद को देखकर भगवान् का क्रोध तुरंत शांत हो गया । उन्होंने प्रह्लाद के पैरों को अपनी हथेली में रखा और दूसरे हाथ को उनके सिर पर रखा और खुशी से नाचने लगा। जब प्रह्लाद को भगवान् का स्पर्श मिला तो वह परमानंदित हो गया और उसके हृदय में दिव्य प्रेम की धारा बहने लगी और उसकी आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे । बाकी सब भी स्तुति करने पहुँच गये ।
नैतिक
भगवान् यह नहीं देखते हैं कि स्थान पवित्र है या अपवित्र है , मंदिर है या मदिरालय है । भगवान् सर्वव्यापी हैं । वे सभी स्थानों में समान रूप से निवास करते हैं । उन्होंने एक राक्षस के महल में एक खंभे से प्रकट होकर अपनी सर्वव्यापकता साबित की । भगवान् को सदा सर्वत्र अपने साथ मानकर उनकी निष्काम सेवा से ही जीव कृतार्थ हो जायेगा । यही होली का वास्तविक संदेश है ।
भक्तों के मुकुटमणि प्रह्लाद की जय हो !
असुर बालकों ने उनसे पूछा – “भाई! तुम्हें यह ज्ञान किसने और कब दिया?”
प्रह्लाद ने अपने जन्म की कथा सुनाई कि किस प्रकार उन्हें यह ज्ञान माँ के गर्भ में ही प्राप्त हुआ था। जब वारह भगवान् ने हिरण्याक्ष का वध किया, तो उसका भाई हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया। हिरण्यकशिपु ने अमरता का वरदान पाने के लिए घोर तपस्या करने का निर्णय लिया । जब वह वन में तपस्या कर रहा था, तब हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु के गर्भ में प्रह्लाद थे । इन्द्र ने सोचा – “यह तो उत्तम अवसर है! शत्रु के पूरे परिवार को नष्ट कर दो!” इसलिए, उसने देवताओं की सेना के साथ हिरण्यकशिपु के राज्य पर हमला किया और गर्भवती कयाधु का अपहरण कर लिया । इंद्रप्रस्थ (इंद्र का राज्य) जाते समय रास्ते में ऋषि नारद से भेंट हुई। नारद जी ने पूछा “क्या कर रहे हो?” "मैं क्या कर रहा हूँ? मैं अपने शत्रु की पत्नी को स्वर्ग की जेल में कैद करने के लिए ले जा रहा हूँ।” नारद जी ने उसे डाँटते हुए कहा, “अरे मूर्ख! वह अपने गर्भ में एक संत को पाल रही है और इसके खिलाफ कुछ भी सोचा तो सबका नियंत्रक (भगवान्) दंड देगा" ! संत नारद ने कयाधू को मुक्त कर दिया और फिर उसे अपने आश्रम में ले गए और विभिन्न ग्रंथों से दर्शन सुनाए। प्रह्लाद ने वे सभी उपदेश सुने, कंठस्थ किये और स्वयं को भगवान् श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया। वह श्री कृष्ण का भक्त बन गया। भगवान् कृष्ण ने उन्हें अपने दिव्य रूप में दर्शन दिये। यह सब उसकी माँ के गर्भ में हुआ। कहानी सुनकर सभी असुर बालक प्रह्लाद की प्रशंसा करने लगे। प्रह्लाद ने उन्हें श्री कृष्ण की भक्ति करने का निर्देश दिया।
प्रह्लाद के प्रवचन सुनकर उनका मन भगवान् में लग गया। यह देखकर उनके गुरु डर गए और हिरण्यकशिपु को पुरंत सूचित कर दिया । प्रह्लाद हिरण्यकशिपु के प्रकांड शत्रु के उपासक थे तथा औरों को भी उन्हीं की भक्ति करना सिखा रहे थे । इस कृत्य को सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध से काँपने लगा। चूँकि उसके सभी सेनापति पहले ही विफल हो चुके थे, हिरण्यकशिपु ने निश्चय किया कि वह प्रह्लाद को अपने हाथों से मार डालेगा। उसने गरजते हुए प्रह्लाद से पूछा – “तेरा भगवान् कहाँ है?” यदि वह सर्वव्यापी है, तो उसे इस स्तंभ में क्यों नहीं दीख रहा है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया ,"पिताजी वे सर्वव्यापक हैं तथा आप के अन्दर भी वास करते हैं । अब वह अपने क्रोध पर काबू नहीं रख सका और अपने सिंहासन से उछल कर उतरा । गदा से स्तंभ पर बहुत जोर से प्रहार किया। स्तंभ टूट गया और उसी क्षण ,खम्भे से जोर की आवाज आई। ऐसा लगा मानो सारा ब्रह्माण्ड फट गया हो। डरा हुआ हिरण्यकशिपु इधर-उधर देखने लगा। उसके ठीक सामने भगवान् नरसिंह (आधे नर आधे शेर) खड़े थे । उनका रूप भयानक था । भगवान् की योगमाया शक्ति के कारण सभी रक्षक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और उन्होंने अपने राजा की रक्षा करने का प्रयास भी नहीं किया। भगवान् नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को एक खिलौने की तरह उठाया और उसे दरबार के प्रवेश द्वार तक ले गए। वहाँ, नरसिंह भगवान् ने हिरण्यकशिपु को अपनी जांघों पर रखा और खेल-खेल में नाखून से उसे फाड़ दिया ।
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, भगवान् विष्णु, भगवान् शंकर, अनेक देवी - देवता उपस्थित थे । पृथ्वी का भार उतारने के लिये उनकी महिमा का गान करना तो दूर की बात है कोई उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा सका । नृसिंह भगवान् आंतों का हार पहने हुए, क्रोध में गरज रहे थे । अनके अनंत सूर्य के समान तेज को देखकर सभी भयभीत थे । देवताओं ने उनकी अर्धांगिनी माँ लक्ष्मी से अनुरोध किया कि आप जाकर उन्हें शांत करें, लेकिन उनकी क्रोधित स्थिति को देखकर लक्ष्मी जी भी उनके करीब जाने का साहस नहीं जुटा सकीं। तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद को भेजा । प्रह्लाद को देखकर भगवान् का क्रोध तुरंत शांत हो गया । उन्होंने प्रह्लाद के पैरों को अपनी हथेली में रखा और दूसरे हाथ को उनके सिर पर रखा और खुशी से नाचने लगा। जब प्रह्लाद को भगवान् का स्पर्श मिला तो वह परमानंदित हो गया और उसके हृदय में दिव्य प्रेम की धारा बहने लगी और उसकी आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे । बाकी सब भी स्तुति करने पहुँच गये ।
नैतिक
भगवान् यह नहीं देखते हैं कि स्थान पवित्र है या अपवित्र है , मंदिर है या मदिरालय है । भगवान् सर्वव्यापी हैं । वे सभी स्थानों में समान रूप से निवास करते हैं । उन्होंने एक राक्षस के महल में एक खंभे से प्रकट होकर अपनी सर्वव्यापकता साबित की । भगवान् को सदा सर्वत्र अपने साथ मानकर उनकी निष्काम सेवा से ही जीव कृतार्थ हो जायेगा । यही होली का वास्तविक संदेश है ।
भक्तों के मुकुटमणि प्रह्लाद की जय हो !
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सिद्धांत
जगद्गुरूत्तम दिवसA day in history worth remembering |
जनवरी का महीना नववर्ष का शुभ संदेश देने के साथ-साथ एक ऐतिहासिक घटना के कारण भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।
मकर संक्रांति के पावन दिन यानी 14 जनवरी को, वर्तमान मूल जगद्गुरु, श्री कृपालु जी महाराज ने 700 वर्षों के अंतराल के बाद "जगद्गुरु" की विशिष्ट उपाधि स्वीकार की थी।
यह भारत के इतिहास में पहली बार था कि "जगदगुरूत्तम" की उपाधि प्रदान की गई, जिसका अर्थ है "सभी जगद्गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ" । जगदगुरूत्तम उपाधि इस तथ्य की पुष्टी है कि स्वामी श्री कृपालु जी महाराज न केवल ज्ञान के सर्वोच्च आचार्य हैं वरन् भक्ति के सर्वोच्च आचार्य भी हैं। वे सभी पूर्व जगदगुरुओं, प्रामाणिक ग्रंथों और संतों के दर्शनों का समन्वय करने में भी निपुण हैं । वे सब सिद्धान्तों व मतोँ का सम्मान करते हुये प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों के अनुरूप अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने में भी विशेषज्ञ हैं।
हम संतशिरोमणी और हमारे प्रिय गुरु जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के चरण कमलों में अनंत बार प्रणाम करते हैं।
मकर संक्रांति के पावन दिन यानी 14 जनवरी को, वर्तमान मूल जगद्गुरु, श्री कृपालु जी महाराज ने 700 वर्षों के अंतराल के बाद "जगद्गुरु" की विशिष्ट उपाधि स्वीकार की थी।
यह भारत के इतिहास में पहली बार था कि "जगदगुरूत्तम" की उपाधि प्रदान की गई, जिसका अर्थ है "सभी जगद्गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ" । जगदगुरूत्तम उपाधि इस तथ्य की पुष्टी है कि स्वामी श्री कृपालु जी महाराज न केवल ज्ञान के सर्वोच्च आचार्य हैं वरन् भक्ति के सर्वोच्च आचार्य भी हैं। वे सभी पूर्व जगदगुरुओं, प्रामाणिक ग्रंथों और संतों के दर्शनों का समन्वय करने में भी निपुण हैं । वे सब सिद्धान्तों व मतोँ का सम्मान करते हुये प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों के अनुरूप अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने में भी विशेषज्ञ हैं।
हम संतशिरोमणी और हमारे प्रिय गुरु जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के चरण कमलों में अनंत बार प्रणाम करते हैं।
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बच्चों के प्रश्न
अनिष्का - दीदी जी, हमारे बुरे / गलत कर्म करने पर भी भगवान हम पर कृपा क्यों करते हैं?
दीदी जी - चाहे कुछ भी हो जाए भगवान कृपा ही करते हैं क्योंकि कृपा करना उनका स्वभाव है । अपने स्वभाव के कारण भगवान् जीव को सभी आवश्यकताएँ जैसे हवा, पानी, अन्न आदि प्रदान करते हैं। केवल मनुषयों को ही नहीं पौधों, जानवरों सहित सभी जीवित प्राणियों के लिये प्रबंध करते हैं । हालाँकि, ईश्वर सर्वशक्तिमान है तथा हमारा हितैषी है, फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो उस पर विश्वास नहीं करते हैं । कुछ तो व्यर्थ में ही उसे गाली भी देते हैं और उस पर आरोप लगाते हैं। वह उनको भी शुद्ध जल, वायु आदि से वंचित करके दण्डित नहीं करते । इन आवश्यक चीजों को उनके लिए जहरीला भी नहीं बनाते हैं। यह उनके अकारण-करुण स्वभाव के कारण है।
जैसे एक ममतामयी माँ, अपने आज्ञाकारी बालक को और अवज्ञाकारी बालक दोनों को हमेशा एक जैसा भोजन देती है । अवज्ञाकारी बालक के दुर्व्यवहार को सुधारने हेतु वह उस पर क्रोध भी करती है । इसी प्रकार ईश्वर, जो हमारे सनातन पिता और माता हैं, अपने सभी बच्चों को जीवन की सभी ज़रूरतें प्रदान करते हैं, उनके कार्यों की परवाह किए बिना । इसके अलावा, जिस तरह एक माँ अपने सबसे आज्ञाकारी और अच्छे आचरण वाले बच्चे को विशेष उपहार देती है, उसी तरह भगवान उन लोगों को विशेष कृपा करते हैं जो अच्छे होते हैं और बिना किसी स्वार्थ के भगवान के शरणागत रहते हैं।
अतः विशेष कृपा केवल अच्छे कार्मों से ही प्राप्त होती है ।
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अनिष्का- दीदी आप कहती हैं कि हमारा शरीर मिट्टी से बना है, तो फिर ऐसा क्यों है कि कुछ लोग गोरे, कुछ काले और कुछ भूरे होते हैं। इसके अलावा हमारे शरीर के अलग-अलग हिस्सों का रंग भी अलग-अलग होता है जैसे कि हमारे दांतों का रंग सफेद, होंठ गुलाबी, बाल काले आदि। यदि हम मिट्टी।कीचड़ से बने हैं, तो शरीर के सभी अंग भूरे रंग के होने चाहिए और हम सभी का रंग भूरा होना चाहिए, जैसे मिट्टी का रंग भूरा होता है।
दीदी जी - जब हम कहते हैं कि यह शरीर मिट्टी से बना है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह शरीर पृथ्वी पर पाई जाने वाली मिट्टी से बना है, जैसे आप बर्फ से स्नो मैन बनाते हैं या बच्चे रेत से घर बनाते हैं। रेत, मिट्टी, कीचड़ पांच स्थूल तत्वों से बनता है - आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। मानव शरीर भी उन्हीं पांच तत्वों से बना है। इसीलिए कहा जाता है कि शरीर मिट्टी से बना है।
मानव शरीर का निर्माण माँ के गर्भ में सर्वशक्तिमान ईश्वर के संकल्प से होता है। एक बार जब शरीर बनना शुरू हो जाता है तो भगवान आत्मा को शरीर के अंदर भेज देते हैं। परिणामस्वरूप, शरीर को आत्मा से जीवन प्राप्त होता है और शरीर के विभिन्न अंगों को अपना-अपना कार्य करने की शक्ति प्राप्त होती है। आँखें देखने के लिए, कान सुनने के लिए, नाक सूँघने के लिए, जीभ स्वाद लेने के लिए और त्वचा स्पर्ष करने के लिए। और मृत्यु के समय जब आत्मा इस शरीर को छोड़ देती है तो शरीर मिट्टी में मिल जाता है। इसके अलावा, चूँकि शरीर और मिट्टी समान पंचतत्वों से बने होते हैं, शरीर तभी बढ़ता है जब उसे इस मिट्टी से उगने वाले भोजन से सभी पोषक तत्व मिलते हैं, जैसे फल, सब्जियाँ, अनाज आदि।
इस प्रकार यह पंचतत्वों से बना है। जब इसे वही 5 तत्व दिए जाते हैं तो यह बढ़ता है और अंततः यह पृथ्वी के उन्हीं तत्वों में विलीन हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि शरीर मिट्टी से बना है। शरीर का रंग अधिकतर आपके जन्म स्थान की जलवायु और फिर वंश पर निर्भर करता है। शरीर की संरचना और सुंदरता वंश पर भी निर्भर करती है, जो आपको आपके भाग्य के अनुसार मिलती है । भाग्य आपके पिछले कर्मों पर निर्भर करता है। शरीर के विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग रंग देना भगवान की एक कला है, जैसा कि आप खिलौनों या अन्य ड्राइंग कार्यों के साथ करते हैं। सोचिए, अगर आपके बालों सहित पूरा शरीर सफेद होता, तो यह कितना बदसूरत दिखता और एक हिस्से को दूसरे से अलग करना और भी मुश्किल हो जाता।
दीदी जी - चाहे कुछ भी हो जाए भगवान कृपा ही करते हैं क्योंकि कृपा करना उनका स्वभाव है । अपने स्वभाव के कारण भगवान् जीव को सभी आवश्यकताएँ जैसे हवा, पानी, अन्न आदि प्रदान करते हैं। केवल मनुषयों को ही नहीं पौधों, जानवरों सहित सभी जीवित प्राणियों के लिये प्रबंध करते हैं । हालाँकि, ईश्वर सर्वशक्तिमान है तथा हमारा हितैषी है, फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो उस पर विश्वास नहीं करते हैं । कुछ तो व्यर्थ में ही उसे गाली भी देते हैं और उस पर आरोप लगाते हैं। वह उनको भी शुद्ध जल, वायु आदि से वंचित करके दण्डित नहीं करते । इन आवश्यक चीजों को उनके लिए जहरीला भी नहीं बनाते हैं। यह उनके अकारण-करुण स्वभाव के कारण है।
जैसे एक ममतामयी माँ, अपने आज्ञाकारी बालक को और अवज्ञाकारी बालक दोनों को हमेशा एक जैसा भोजन देती है । अवज्ञाकारी बालक के दुर्व्यवहार को सुधारने हेतु वह उस पर क्रोध भी करती है । इसी प्रकार ईश्वर, जो हमारे सनातन पिता और माता हैं, अपने सभी बच्चों को जीवन की सभी ज़रूरतें प्रदान करते हैं, उनके कार्यों की परवाह किए बिना । इसके अलावा, जिस तरह एक माँ अपने सबसे आज्ञाकारी और अच्छे आचरण वाले बच्चे को विशेष उपहार देती है, उसी तरह भगवान उन लोगों को विशेष कृपा करते हैं जो अच्छे होते हैं और बिना किसी स्वार्थ के भगवान के शरणागत रहते हैं।
अतः विशेष कृपा केवल अच्छे कार्मों से ही प्राप्त होती है ।
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अनिष्का- दीदी आप कहती हैं कि हमारा शरीर मिट्टी से बना है, तो फिर ऐसा क्यों है कि कुछ लोग गोरे, कुछ काले और कुछ भूरे होते हैं। इसके अलावा हमारे शरीर के अलग-अलग हिस्सों का रंग भी अलग-अलग होता है जैसे कि हमारे दांतों का रंग सफेद, होंठ गुलाबी, बाल काले आदि। यदि हम मिट्टी।कीचड़ से बने हैं, तो शरीर के सभी अंग भूरे रंग के होने चाहिए और हम सभी का रंग भूरा होना चाहिए, जैसे मिट्टी का रंग भूरा होता है।
दीदी जी - जब हम कहते हैं कि यह शरीर मिट्टी से बना है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह शरीर पृथ्वी पर पाई जाने वाली मिट्टी से बना है, जैसे आप बर्फ से स्नो मैन बनाते हैं या बच्चे रेत से घर बनाते हैं। रेत, मिट्टी, कीचड़ पांच स्थूल तत्वों से बनता है - आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। मानव शरीर भी उन्हीं पांच तत्वों से बना है। इसीलिए कहा जाता है कि शरीर मिट्टी से बना है।
मानव शरीर का निर्माण माँ के गर्भ में सर्वशक्तिमान ईश्वर के संकल्प से होता है। एक बार जब शरीर बनना शुरू हो जाता है तो भगवान आत्मा को शरीर के अंदर भेज देते हैं। परिणामस्वरूप, शरीर को आत्मा से जीवन प्राप्त होता है और शरीर के विभिन्न अंगों को अपना-अपना कार्य करने की शक्ति प्राप्त होती है। आँखें देखने के लिए, कान सुनने के लिए, नाक सूँघने के लिए, जीभ स्वाद लेने के लिए और त्वचा स्पर्ष करने के लिए। और मृत्यु के समय जब आत्मा इस शरीर को छोड़ देती है तो शरीर मिट्टी में मिल जाता है। इसके अलावा, चूँकि शरीर और मिट्टी समान पंचतत्वों से बने होते हैं, शरीर तभी बढ़ता है जब उसे इस मिट्टी से उगने वाले भोजन से सभी पोषक तत्व मिलते हैं, जैसे फल, सब्जियाँ, अनाज आदि।
इस प्रकार यह पंचतत्वों से बना है। जब इसे वही 5 तत्व दिए जाते हैं तो यह बढ़ता है और अंततः यह पृथ्वी के उन्हीं तत्वों में विलीन हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि शरीर मिट्टी से बना है। शरीर का रंग अधिकतर आपके जन्म स्थान की जलवायु और फिर वंश पर निर्भर करता है। शरीर की संरचना और सुंदरता वंश पर भी निर्भर करती है, जो आपको आपके भाग्य के अनुसार मिलती है । भाग्य आपके पिछले कर्मों पर निर्भर करता है। शरीर के विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग रंग देना भगवान की एक कला है, जैसा कि आप खिलौनों या अन्य ड्राइंग कार्यों के साथ करते हैं। सोचिए, अगर आपके बालों सहित पूरा शरीर सफेद होता, तो यह कितना बदसूरत दिखता और एक हिस्से को दूसरे से अलग करना और भी मुश्किल हो जाता।
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