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सबसे बड़ा कौन है

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सबसे बड़ा कौन - गुरु या भगवानसबसे बड़ा कौन है
वेदों-शास्त्रों में तीन मत मिलते हैं जो परस्पर विपरीत प्रतीत होते हैं ;

1. भगवान् गुरु से बड़ा है
2. भगवान् और गुरु समान हैं
3. गुरु ​भगवान् से बड़ा है

तार्किक दृष्टि से, इनमें से केवल एक कथन सही हो सकता है। लेकिन सभी शास्त्र एकमत हैं कि वेदों में एक मात्रा भी गलत नहीं है।
 
तो आइए हम इस पर विचार करें कि वेदों में ये तीनों परस्पर विरोधाभासी प्रतीत होने वाले कथन कैसे सही हैं।

वर्तमान युग के परम विद्वान जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इस विरोधी मतों का समन्वय किया है और बहुत ही सहज और सरल ढंग से समझाया है;

भगवान् गुरु से बड़ा है

1.  वेद के अनुसार​​
न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । श्वेता.
"कोई भी ब्रह्म के बराबर नहीं है" । परात्पर ब्रह्म के बराबर भी कोई नहीं है तो बड़ा कैसे होगा" । परात्पर ब्रह्म अपनी अनंत शक्ति की एक कला से समस्त ब्रह्मांड की सृष्टि करते हैं। और, असंख्य ब्रह्मण्ड प्रलय के समय उनके महोदर में विलीन हो जाते हैं। तो वे निर्विवाद रूप से महानतम हैं ।

भगवान् और गुरु समान हैं

2. जिस क्षण जीव भगवान् को प्राप्त कर लेता है, उसी क्षण भगवान् जीव को अपनी सभी दिव्य शक्तियाँ प्रदान कर के अपने बराबर बना देता है। भगवद्-प्राप्ति होने पर, भगवान् अपनी अंतरंग योगमाया शक्ति से अपने आठों दिव्य गुण जीव को प्रदान कर देते हैं।

भगवान् के आठ गुण

  1. अपहृत्पापमा - सदा के लिए पापों से मुक्त
  2. विजरो - माया के सभी रूपों से सदा मुक्त
  3. विमृत्युः - सदा के लिए मृत्यु से मुक्त
  4. विशोको - सदा के लिए सभी दुखों से मुक्त
  5. विजिहत्सो - नित्य वैराग्य से मुक्त
  6. अपिपासः - सदा के लिए सभी महत्वाकांक्षाओं से मुक्त
  7. सत्यकामः - सभी इच्छाओं को तुरंत पूरा करने वाला
  8. सत्यसंकल्पः - उनके सभी संकल्प तुरंत पूरे होते हैं।

एक बार भगवान्, जो इन सभी दैवीय गुणों का स्वामी है, एक व्यक्तिगत आत्मा को सभी गुण प्रदान करता है, भगवद्-प्राप्त आत्मा और ईश्वर समान हो जाते हैं। इस प्रकार, एक ईश्वर बोध प्राप्त आत्मा (गुरु) और ईश्वर समान हैं।

गुरु ​भगवान् से बड़ा है

3. अंत में, एक साधक की दृष्टि से, गुरु भगवान् से भी बड़ा है, क्योंकि, साधक पर गुरु की कृपा की कोई सीमा नहीं है। भगवान कहते हैं,​
निर्मल मन जन जोइ सोइ महिं भावा ।
"मैं केवल शुद्ध अंतःकरण वालों का ही पूर्ण योगक्षेम वहन करता हूँ"। 

फिर जीव की अनादिकालीन मलिनता को धोकर निर्मल कौन करेगा?

गुरु साधक के अशुद्ध मन को साफ करने, उसे ज्ञान प्रदान करने और उसे भगवद्-प्राप्ति के मार्ग पर चलने में मदद करने का दुष्कर कर्म करते हैं । गुरु एक लड़की के माता-पिता की तरह हैं, जो बड़ी मेहनत से उसका पालन-पोषण करते हैं, उसे शिक्षित करते हैं और उसमें सर्व-गुण समपन्न बनाते हैं और और जब वह विवाह योग्य हो गई, तो एक लड़का आता है, उसके गुणों का आकलन करने के लिए उसका साक्षात्कार लेता है, शादी करता है उसे और उसे घर ले जाता है। लगभग उसी तरह, गुरु शिष्य पर सभी प्रारंभिक कार्य करता है और एक बार जब शिष्य तैयार हो जाता है, तो भगवान शुद्ध अंतःकरण वाले जीव को स्वीकार कर लेते हैं ।

गुरु ज्ञान प्रदान करता है और जीव का भगवान्। से साक्षातकार कराता है । गुरु साधक को सिखाता है कि भक्ति कैसे करनी है और मार्ग में पग-पग पर उसकी सहायता भी करता है, जिससे साधक भक्ति मार्ग में उन्नति करता रहे । गुरु पूर्व संस्कारों से उत्पन्न बाधाओं को भी दूर करता है, और साधक के भक्ति में बाधक बुरे संस्कारों से लड़ता है  ।

इस प्रकार, गुरु समर्पित जीव को भक्ति के मार्ग पर सुरक्षित रखने के लिए अगनित काम करते हैं। इसलिए संत कबीरदास जी कहते हैं,
गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाँय । बलिहारी गुरू आपकी गोविंद दियो मिलाय ॥ 
"यदि गुरु और भगवान दोनों एक ही समय सामने आ जाएँ तो मुझे पहले किसको प्रणाम करना चाहिए? मैं अपने आप को गुरु पर न्योछावर करता हूँ, जिनकी कृपा से मुझे अपने भगवान गोविंद के दर्शन हुए"। 
 
भगवान भी कहते हैं,
ये मे भक्ता हि हे पार्थ न मे भक्तास्तु ते मतम् । मद्भस्य ये भक्ता ते मे भक्ततमा मताः ॥
"ओ अर्जुन! वह भक्त, जो मेरी उपासना करता है, वह मेरा सच्चा भक्त नहीं है । मैं उसको सच्चा भक्त मानता हूँ जो मेरे प्रिय भक्तों को मुझसे अधिक मानते हैं"।​

निष्कर्ष

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अत: तीनों कथन सही हैं।

इसके अलावा, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इस दर्शन में अपना दृष्टिकोण जोड़ते हैं:

वे कहते हैं, वास्तव में ईश्वर और गुरु एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। परमात्मा को पूर्ण समर्पण करने से ही जीव संत बनता है। उस समय से, जीवात्मा सभी कर्म करना बंद कर देता है और हमेशा के लिए भगवान के दिव्य रस​ का रसपान​ करता रहता है।

इस स्थिति में संत के सभी कार्यों का निर्देशन स्वयं भगवान करते हैं। इसीलिए भागवत में श्रीकृष्ण ने कहा है

आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।               भागवत​

"अपने गुरु को मेरा प्रत्यक्ष रूप समझो। हमारे बीच रत्ती भर भी अंतर नहीं है"।​​​
।
जब ईश्वर और गुरु एक ही हैं तो "सबसे बड़ा कौन है?" यह प्रश्न ही गलत है ।

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