सबसे घातक विष - प्रशंसा
अधिकांश लोग प्रशंसा पाना पसंद करते हैं और आलोचना पसंद नहीं करते। माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करने, खेल-कूद गतिविधियों में भाग लेने, सामाज में उचित व्यवहार अपनाने आदि के लिए प्रशंसा का उपयोग करते हैं।
पति-पत्नी भी एक-दूसरे की प्रशंसा करते हैं। ओलम्पिक जैसे खेलों में विजेताओं को पदक दिये जाते हैं, जो एक प्रकार की प्रशंसा ही है । आधुनिक समाज में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए यह सब आवश्यक है। लेकिन, भगवान् की ओर चलने में वास्तविक प्रशंसा भी साधक के अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करने में बड़ी बाधा है।
पति-पत्नी भी एक-दूसरे की प्रशंसा करते हैं। ओलम्पिक जैसे खेलों में विजेताओं को पदक दिये जाते हैं, जो एक प्रकार की प्रशंसा ही है । आधुनिक समाज में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए यह सब आवश्यक है। लेकिन, भगवान् की ओर चलने में वास्तविक प्रशंसा भी साधक के अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करने में बड़ी बाधा है।
स्तुति से अहंकार बढ़ता है और भगवान् को दीनता भाती है । भगवान् दीनों के रखवार हैं । पतितों की पतवार हैं । अहंकारी से भगवान् कोसों दूर रहते हैं । भगवद्प्राप्ति में यदि कोई सबसे बड़ी बाधा है तो वह है अहंकार। श्री महाराज जी ने समझाया है कि जीव की वास्तविक लक्ष्य (गति), वास्तविक ज्ञान (मति) और वास्तविक प्रेम का केंद्र (रति) श्री कृष्ण के चरण कमल है ।
उन श्री चरण कमलों में प्रीति पाने के लिए उनकी कृपा की आवश्यकता है और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए हमें अपने को दीन, साधन-हीन, अकिंचन मानना होगा । अहंकार भगवान् का शत्रु है ।
भक्ति का अर्थ है प्रेम । प्रेम का अनुभव मन से होता है, इंद्रियों से नहीं । मन का संपूर्ण लगाव भगवान् में होने को ही भक्ति, शरणागति कहा जाता है । जिस भी कर्म करते समय मन पूर्णरूपेण भगवान् में नहीं लगा है तो वह मात्र शारीरिक व्यायाम है और कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं देता है। ऐसे कर्म करने से अहंकार की वृद्धि होती है । इससे जीव स्वयं को महान भक्त मानने लगता है।
अक्सर, मंदिरों में यह देखा जाता है कि साधक अपने बच्चों को संगीत / वाद्ययंत्र बजाना और कीर्तन करना सीखाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । लोग तालियाँ बजाकर बच्चों की सराहना करते हैं । इससे बच्चे और भी बेहतर प्रदर्शन करने और नियमित रूप से मंदिर जाने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। लेकिन, उस प्रशंसा से अक्सर हानि यह होती है कि उनकी भक्ति के बजाय उनका अहंकार बढ़ जाता है ।
उन श्री चरण कमलों में प्रीति पाने के लिए उनकी कृपा की आवश्यकता है और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए हमें अपने को दीन, साधन-हीन, अकिंचन मानना होगा । अहंकार भगवान् का शत्रु है ।
भक्ति का अर्थ है प्रेम । प्रेम का अनुभव मन से होता है, इंद्रियों से नहीं । मन का संपूर्ण लगाव भगवान् में होने को ही भक्ति, शरणागति कहा जाता है । जिस भी कर्म करते समय मन पूर्णरूपेण भगवान् में नहीं लगा है तो वह मात्र शारीरिक व्यायाम है और कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं देता है। ऐसे कर्म करने से अहंकार की वृद्धि होती है । इससे जीव स्वयं को महान भक्त मानने लगता है।
अक्सर, मंदिरों में यह देखा जाता है कि साधक अपने बच्चों को संगीत / वाद्ययंत्र बजाना और कीर्तन करना सीखाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । लोग तालियाँ बजाकर बच्चों की सराहना करते हैं । इससे बच्चे और भी बेहतर प्रदर्शन करने और नियमित रूप से मंदिर जाने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। लेकिन, उस प्रशंसा से अक्सर हानि यह होती है कि उनकी भक्ति के बजाय उनका अहंकार बढ़ जाता है ।
अहंकार ही भक्ति में सबसे बड़ी बाधा है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा -
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥ चै. महा.
भक्ति के मार्ग पर पहला कदम है, घास के तिनके से भी अधिक विनम्र होना, एक पेड़ से भी अधिक सहनशील होना, दूसरों का सम्मान करना । अपने सम्मान की कोई इच्छा नहीं होना।
श्री महाराज जी ने कहा -
श्री महाराज जी ने कहा -
मान मन! छाँड़ मान अपमान ।
"रे मन ! मेरी बात सुन और सम्मानित या निंदित होने का भाव त्याग दे । ” प्रेम रस मदिरा - सिद्धांत माधुरी, पैड नंबर 76 यह पूरा पद है,
“जब तक तुम अपने दिव्य प्रियतम श्री कृष्ण से नहीं मिलते, तब तक तुम्हारा क्या सम्मान है ? तुम माया के अधीन होकर घर-घर जाकर सुख की भीख माँगते रहते हो, फिर किस मान-सम्मान की आशा रखते हो? माया के वश में होने के कारण तुम सभी बुराइयों के निवास स्थान हो । ऐसे में अगर कोई तुम्हारी कोई बुराई बता दे, तो यह सच है, फिर तुमको बुरा क्यों लगता है? क्रोध एक विकार है । और यदि तुम में कोई विकार नहीं है और कोई तुमको बुरा आदमी कहता है, तो तुम क्रोध कैसे कर सकते हैं? जान लो कि भक्ति मागे बढ़ने के लिए तुमको सम्मान और अपमान की इन सभी भावनाओं को त्यागना होगा । श्री कृष्ण की कृपा पाने के लिए उनसे रो-रो कर प्रेम माँगो। ।
“जब तक तुम अपने दिव्य प्रियतम श्री कृष्ण से नहीं मिलते, तब तक तुम्हारा क्या सम्मान है ? तुम माया के अधीन होकर घर-घर जाकर सुख की भीख माँगते रहते हो, फिर किस मान-सम्मान की आशा रखते हो? माया के वश में होने के कारण तुम सभी बुराइयों के निवास स्थान हो । ऐसे में अगर कोई तुम्हारी कोई बुराई बता दे, तो यह सच है, फिर तुमको बुरा क्यों लगता है? क्रोध एक विकार है । और यदि तुम में कोई विकार नहीं है और कोई तुमको बुरा आदमी कहता है, तो तुम क्रोध कैसे कर सकते हैं? जान लो कि भक्ति मागे बढ़ने के लिए तुमको सम्मान और अपमान की इन सभी भावनाओं को त्यागना होगा । श्री कृष्ण की कृपा पाने के लिए उनसे रो-रो कर प्रेम माँगो। ।
एक बार सनातन गोस्वामी को खुजली हो गई और उनके पूरे शरीर से बदबू आने लगी। चैतन्य महाप्रभु फिर भी सनातन को गले लगाना चाहते थे। इससे उन्हें बहुत दुख हुआ इसलिए उन्होंने महाप्रभु जी से जाने की अनुमति लेने का फैसला किया। महाप्रभु जी ने अनुरोध अस्वीकार कर दिया। इसलिए उन्होंने महाप्रभु जी के एक भक्त से अनुमति मांगी। जब महाप्रभु जी को यह बात पता चली तो वे दुःखी हो गये। उन्होंने सनातन गोस्वामी को डांटते हुए कहा कि तुम्हारी उनसे अनुमति मांगने की हिम्मत कैसे हुई। वह आपके पैर धोने के योग्य भी नहीं है और आप उससे अनुमति मांगते हैं। सनातन गोस्वामी महाप्रभु जी के चरणों में गिर पड़े और रोने लगे, “हे प्रभु! मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है जिसके लिए आप मुझे प्रशंसा नाम का विष खिला रहे हैं। प्रशंसा मन में बैठ जाती है और अहंकार को जन्म देती है। आप नम्र के मित्र हैं, कृपया मेरी प्रशंसा न करें और मुझे अपने से दूर न करें”।
आप की जिज्ञासा होगी कि इस मायिक संसार अधिकांशतः नास्तिकों के साथ सम्पर्क रहता है। तो आपको शंका होगी कि हम इस सिद्धांत को अपने दैनिक जीवन में कैसे लागू करते हैं।
क्या मुझे दूसरों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, भले ही वे कुछ अच्छा करें?
मायिक संसार में, जीव को के रख-रखाव के लिए सब आवश्यक कर्म करने पड़ते है और करने भी चाहिए । लेकिन याद रखें कि यह संसार आपके के पोषण के लिए बनाया गया है। यह संसार जड़ है । मायिक जगत में अनंत आनंद देने की सामर्थय नहीं है और नहीं आनंद छीनने की शक्ति है । ऐसा सोचकर इस संसार से अनासक्त रहो। जब कोई साधक आपकी सहायता करे तो उसे अवश्य धन्यवाद दें । हरि-गुरु सेवा में सहायता मिलने पर अपना आभार व्यक्त करें । जैसे बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए आप कह सकते हैं, "रूपध्यान युक्त कीर्तन करने से हरि-गुरु प्रसन्न होते हैं । "। इससे उनका ध्यान अपने अहंकार को बढ़ाने के बजाय राधा कृष्ण को प्रसन्न करने की कोशिश पर रहेगा।
जब कोई मेरी प्रशंसा करता है तो मुझे क्या करना चाहिए?
भक्ति मार्ग के साधक को सदा रहे प्रशंसा पुरस्कार नहीं है । आप उनकी बात बेमनी से सुनकर तुरंत उनका ध्यान कहीं और डाइवर्ट कर दें । बात आगे न बढ़ने दें । उस प्रशंसा का चिंतन मनन न करो । उससे सूक्ष्म अहंकार और बढ़ेगा ।
कुछ अच्छा हो जाए तो सोचो हरि-गुरु कृपा से हो गया । वरना मैं अलप बिद्धि युक्त जीव, मेरी क्या औकात की कुछ भगवद सम्बन्धी सतकर्म करूँ। ऐसा सोचने से अहंकार नहीं बढ़ेगा ।
याद रखें, मानव जीवन क्षणभंगुर है लेकिन बहुत मूल्यवान है। इस अमूल्य समय को सम्मान या अपमान के बारे में सोचने में बर्बाद मत करो। अपने भगवान् को प्राप्त करने के लिए आंसू बहाकर विनती करो. उनकी क-रपा की भीख माँगो । अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने का यही एकमात्र साधन है।
क्या मुझे दूसरों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए, भले ही वे कुछ अच्छा करें?
मायिक संसार में, जीव को के रख-रखाव के लिए सब आवश्यक कर्म करने पड़ते है और करने भी चाहिए । लेकिन याद रखें कि यह संसार आपके के पोषण के लिए बनाया गया है। यह संसार जड़ है । मायिक जगत में अनंत आनंद देने की सामर्थय नहीं है और नहीं आनंद छीनने की शक्ति है । ऐसा सोचकर इस संसार से अनासक्त रहो। जब कोई साधक आपकी सहायता करे तो उसे अवश्य धन्यवाद दें । हरि-गुरु सेवा में सहायता मिलने पर अपना आभार व्यक्त करें । जैसे बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए आप कह सकते हैं, "रूपध्यान युक्त कीर्तन करने से हरि-गुरु प्रसन्न होते हैं । "। इससे उनका ध्यान अपने अहंकार को बढ़ाने के बजाय राधा कृष्ण को प्रसन्न करने की कोशिश पर रहेगा।
जब कोई मेरी प्रशंसा करता है तो मुझे क्या करना चाहिए?
भक्ति मार्ग के साधक को सदा रहे प्रशंसा पुरस्कार नहीं है । आप उनकी बात बेमनी से सुनकर तुरंत उनका ध्यान कहीं और डाइवर्ट कर दें । बात आगे न बढ़ने दें । उस प्रशंसा का चिंतन मनन न करो । उससे सूक्ष्म अहंकार और बढ़ेगा ।
कुछ अच्छा हो जाए तो सोचो हरि-गुरु कृपा से हो गया । वरना मैं अलप बिद्धि युक्त जीव, मेरी क्या औकात की कुछ भगवद सम्बन्धी सतकर्म करूँ। ऐसा सोचने से अहंकार नहीं बढ़ेगा ।
याद रखें, मानव जीवन क्षणभंगुर है लेकिन बहुत मूल्यवान है। इस अमूल्य समय को सम्मान या अपमान के बारे में सोचने में बर्बाद मत करो। अपने भगवान् को प्राप्त करने के लिए आंसू बहाकर विनती करो. उनकी क-रपा की भीख माँगो । अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने का यही एकमात्र साधन है।