Philosophy
Importance of a Spiritual Master (Guru) is well known to every one, since it is illustrated in all the scriptures emphatically. Tulasidas Ji says,
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जौं विरंचि संकर सम होई ।।
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guru binu bhavnidhi taraye na koi, so viranchi sankar sam hoee
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Even a most genius person equivalent to the creator Brahma and Lord Shankar in knowledge cannot traverse the ocean of Maya without the grace of a Spiritual Master.
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।
मुंडकोपनिषद् १.२.१२ |
tadvijñānārthaṃ sa gurumevābhigacchet
samitpāṇi: śrotriyaṃ brahmaniṣṭham Muṇḍakopaniṣad 1.2.12 |
"A true Spiritual master is śrotriyaṃ, endowed with complete and meticulous knowledge of all the scriptures and is also brahmaniṣṭham, God realized. "
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
कठोपनिषद् १.३.१४ |
"uttishthata jagrata prapt varanibodhatah"
Kathopanishad, 1.3.14 |
आचार्यवान् पुरुषो हि वेद ।
छान्दोग्योपनिषद् |
acharyavan purusho hi ved
Chandogyopanishad |
All these hymns of the Vedas are unanimously asserting the same thing that It is impossible to know God without the help of a true Spiritual Master. True Spiritual master means śrotriyaṃ | A God realized soul brahmaniṣṭham endowed with meticulous knowledge of all the scriptures. The Gita and Bhagavat affirm the same and suggest to choose a God realized saint as your Guru who knows the deep meanings of the holy scriptures and able to reveal that knowledge to you as well.
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥ भागवत ११.३.२१ |
tasmādguruṃ prapadyeta jijñāsuh śreya uttamam,
śābde pare ca niṣṇātaṃ brahmaṇyupaśamāśrayam Bhāgavatam, 11.3.21 |
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ॥ भगवद् गीता ४.३४ |
tadviddhi praṇipātena paripraśnena sevayā,
upadekṣyanti te jñānaṃ jñāninastattvadarśinah Bhagavad Gītā 4.34 |
"Surrender yourself to your Guru. inquisitively and humbly ask questions to clarify your spiritual doubts. The the means of his lectures he will tell impart to you the true knowledge".
The meaning of the word Guru is
The meaning of the word Guru is
गुं रौतीति गुरु: ।
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guṃ rauti iti guruh
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This means, “The one who dispels the darkness of ignorance is the Guru.”
The other definition is
The other definition is
गिरति अज्ञानं इति गुरु: ।
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áoiây girati ajñānaṃ iti guruh
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"the one who chases away the ignorance is Guru". Mahaprabhu Chaitanya says
जेइ कृष्ण तत्त्ववेत्ता, सेइ गुरु हय ।
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jei kr̥ṣṇa tatvavēttā vettā, sei guru haya
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This means, “The Guru is the one who has realized God.”
In a nut shell, if some one obtains shelter of a real Guru, endowed with above mentioned quality with the ability to infuse the true knowledge in the mind of an inquisitive soul, then there is no delay in realization of God, absolute liberation from the miseries and attainment of unlimited divine happiness. Narada Ji gave the same message to Prahlad, when he was in the womb of his mother saying, “although there are many ways to realize God, yet the best and easiest way is the selfless service to your Spiritual Master with pure devotion.
गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च ।
संगेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ॥ भा. ७.७.३० |
guruśuśrūṣayā bhaktyā sarvalbadhārpaṇena ca,
saṃgena sādhubhaktānāmīśvarārādhanena ca Bhāgwatam 7.7.30 |
This is the reason, why Aditi said to Lord Krishna, “If it is true that my devotion to my Guru is superior than my devotion to You, please show Your beautiful divine form to me on the basis of this truth.”
भक्तिर्यथा हरौ मेऽस्ति, तद्वरिष्ठा गुरौ यदि ।
ममास्ति तेन सत्येन, संदर्शयतु मे हरि: ॥ पद्म पुराण |
bhaktiryathā haraume'sti tadvariṣṭhā gurau yadi,
mamāsti tena satyena saṃdarśayatu me harih Padma Purāṇa |
Hence, on the auspicious day of Guru Poornima, let us pay our homage to our venerable Spiritual Masters with these verses:
प्रथमं सद्गुरुं वन्दे, श्रीकृष्णं तदनन्तरम् ।
गुरु: पापात्मनां त्राता, श्रीकृष्णस्त्वमलात्मनाम् ॥ |
prathamaṃ sad guruṃ vande śrīkṛṣṇaṃ tadanantaram,
guruh pāpātmanāṃ trātā śrīkṛṣṇastvamalātmanām |
"Let us adore our Gurudev first then Lord Krishna. Because, Guru delivers the fallen souls like us while Lord Krishna delivers the pure ones only. "
आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।
न मर्त्य बुद्ध्याऽ सूयेत सर्व देवमयो गुरु: ॥ भा. १.१७.२७ |
ācāryaṃ māṃ vijānīyānnāvamanyetakarhicit,
na martyabuddhyā'sūyeta sarva devamayo guruh Bhāgavatam, 1.17.27 |
Lord Krishna says to Uddhava depicting the authentic way of implementation of true dharma, “Uddhava! A true religious person must see Me in Guru. Neither he should insult him at any cost nor consider him as an ordinary being. He is the embodiment of all forms of God.”
Philosophy
हम गर्व के साथ मस्तक उन्नत कर के कहते हैं हमारे गुरुदेव, हमारे महाराज जी भारत के इतिहास में पाँचवे मौलिक जगदगुरु व विश्व विश्रुत संत हैं । जिनके परम पुनीत ज्ञान दीप से आज सारा विश्व आलोकित हो रहा है ।
प्राय: लोग पूछते हैं कि जगद्गुरु का वास्तविक तात्पर्य क्या है और इनको मौलिक जगद्गुरु क्यों कहा जाता है ?
जगद् शब्द का अर्थ है- गच्छतीति जगद् । जो सदा चलता रहता है उसे जगद् कहते हैं । अर्थात् माया निर्मित वह अखिल संसार जो जड़ है, द्वन्द्वात्मक है, जो सृष्टि और प्रलय, उत्थान व पतन के क्रमिक आवर्तन के साथ सतत् गतिशील है, उसीका नाम है । यहीं समस्त चराचर जीवों का सदा निवास रहता है।
म जगद्
गुरु शब्द का अर्थ है - "गुं रौति इति गुरुः " अथवा "गिरति अज्ञानम् इति गुरुः "। अर्थात् जो हमारे अनादिकालीन अज्ञान के अंधकार को मिटा कर दिव्य ज्ञान प्रदान करने में पूर्णतया सक्षम हो. वही गुरु है ।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम नमः ॥
अतः इस परिभाषा के अनुसार जो समस्त विश्व में सर्वसम्मति से सर्वोच्च गुरु के रूप में मान्य हो, उसे जगदगुरु कहा जाता है।
मौलिक जगद्गुरु का तात्पर्य जब किसी संत को उसकी दिव्य प्रतिभा से प्रभावित हो कर जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया जाता है तो वह मौलिक जगद्गुरु होताहै और जब उस जगद्गुरु के चले जाने के बाद उसी के सम्प्रदाय वाले किसी अन्य सर्वाधिक सुयोग्य व्यक्ति को जगद्गुरु का आसनव उपाधि प्रदान करते हैं । तो अपने गुरु की गद्दी पर आसीन होने वाला व्यक्तित्त्व जगद्गुरु का उत्तराधिकारीमात्र कहा है । उस जगद्गुरु को मौलिकजगद्गुरु नहीं कहा जा सकता। यथा आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व श्री शंकराचार्य जी महाराज को तत्कालि क विद्वानों ने उनके अलौकिक ज्ञान से प्रभावितहो कर जगद्गुरु की उपाधि प्रदानकी थी । अतः वे मौलिक जगद्गुरु थे । उनके अथवा अन्य जगद्गुरुओंके पद पर आसीन आज जो भी जगद्गुरु हैं, वे मौलिक जगद्गुरु नहीं कहे जा सकते ।
पाँचवे मौलिक जगद्गुरु ? - इनके पूर्व अद्यावधि केवल चार महापुरुषों को जगद्गुरु की उपाधि से अलंकृत किया जा चुका है । जगद्गुरु शंकराचार्य जी महाराज जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य जी महाराज,जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य जी महाराजव जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य जी महाराज । जो कि १३वीं शताब्दी में अवतरित हुये थे । सात सौ वर्षों के दीर्घ अन्तराल के उपरान्त हमारे पूज्य गुरुदेव श्री कृपालु महाप्रभु को १४ जनवरी सन् १९५७ के पुनीत अवसर पर इस उपाधि से विभूषित किया गया । अतः ये पाँचवे मौलिक जगद्गुरु हैं ।
ये उपाधि कौन किसको दे सकता है ? यह उपाधि किसी विश्व विद्यालय आदिद्वारा किसी को भी केवल अपने ज्ञानके आधार पर नहीं प्राप्त हो सकती । वस्तुतः जब अज्ञान व अज्ञानजनित अधर्म संसार में बहुत अधिक व्याप्त हो जाता है तब भगवत्कृपा से किसी एक वास्तविक संत का पृथ्वी पर अवतरण होता है । यह संत जब तात्कालिक प्रचलित धर्म से पृथक धर्म, ज्ञान व भक्ति का वास्तविक स्वरूप प्रकट करता है तो शेष तथाकथित संत व विद्वान् भड़क उठते हैं और धार्मिक क्षेत्र में एक क्रांति सी मच जाती है । ऐसी स्थिति में धर्म के प्रचलित व गलत स्वरूप का प्रचार करने वाले समस्तविद्वान् व संत एकओर व अवतरित संत एक ओर होता है । भड़क कर वे उस संत को शास्त्रार्थ के लिये ललकार देते हैं । इस अवसर पर समस्त विद्वानों के समक्ष वास्तविक संत का स्वरूप स्वयमेव उभर जाता है । साथ-साथ जनता के समक्ष भी नीर व क्षीर का न्याय हो जाता । उपस्थित विद्वान् व अन्य धर्मज्ञ भी संत के दिव्य ज्ञान से अत्यंत प्रभावित होकर स्वभावतः नतमस्तक हो जाते हैं ।
इस प्रकार समस्त विद्वानों की सम्मति से उस संत को जगद्गुरु की अद्वितीय उपाधि से सम्मानित किया जाता है और सम्मानित करने वाले विद्वज्जन भी अपने आपको परम सौभाग्यशाली व गौरवान्वित अनुभव करते हैं । हमारे महाराजजी 'जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज' के साथ भी अन्य जगद्गुरुओं की भाँति ऐसा ही हुआ । जब वे अपने अद्वितीय दिव्यज्ञान के साथ पृथिवी पर अवतरित हुये तो प्रथम तो अनेकानेक छोटे मोटे सम्मेलनों में उनके प्रवचनों को सुनकर लोग भड़कते रहे । किन्तु प्रवचनों में चौंका देने वाले ज्ञान की स्पष्टता, वेद शास्त्रों के उद्धरण, सटीक उदाहरण व तर्कसंगतता काबाहुल्य होने के कारण कोई भी खुल्लम खुल्ला प्रत्यक्ष विरोध नहीं कर पाता था । किन्तु श्री महाराज जी ने स्वयं अक्टूबर सन् १९५५ में चित्रकूट में एक वृहत् संत सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें समस्त जगद्गुरुओं, संतो, मठाधीशों आदि को आमंत्रित किया गया । उनकी यात्रा व ठहरने आदिका सुन्दरतम् प्रबन्ध किया गया । हज़ारोभक्तों की भीड़ एकत्र हुई ।जगद्गुरुओं के मध्य किसी प्रकार के मन मुटाव अथवा विरोध को बचाने के लिये श्री महाराज जी ने अयोध्यावासी श्री सीताराम शरण की राममंडली को आमंत्रित किया और उनके ही स्वरूपों में से श्री राम को सम्मेलन का अध्यक्ष बना दिया । तदुरान्त श्री महाराज जी ने समस्त आगन्तुक संत व विद्वानों के सम्मुख एक प्रश्नावली रख दी, जिसमें कतिपय परस्पर विरोधी युगल प्रश्नों को रखकर उनके समन्वय करने की प्रार्थना की । यथा - (१) अ. विश्व का प्रत्येक जीव नास्तिक है । आ. विश्व का प्रत्येक जीव आस्तिक है । समन्वय कीजिये ।
ऐसे ही १२ युगल प्रश्नों का समन्वय करना था । किन्तु एक भी विद्वान् एक भी प्रश्न - युगल के समन्वय में सक्षम नहीं हो सका । अनेक विद्वानों ने प्रश्नों के निराधार होने का दावा भी किया । किन्तु श्री करपात्री जी आदि विद्वानों ने बड़ी चतुराई व शिष्टता के साथ यह कहा कि "प्रश्नों को निराधार बताना समीचीन न होगा, हमें यह कहना चाहिये कि संभवतः हमें इन प्रश्नों का उत्तर नहीं पता और श्री कृपालु जी महाराज अवश्य ही इन प्रश्नों का उत्तर जानते होंगे । अतः हमाराउनसे ही निवेदन है वही इन प्रश्नों का उत्तर दें ।" उनका यह भी आशय था कि जब इतने विद्वान् मिलकर भी इनमें से एक भी प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम नहीं हैं तो अल्प वयस्क कृपालु जी अकेले इनका उत्तर कैसे दे सकते हैं ! अगरवे स्वयं भी इनका उत्तर नहीं जानते तब हमारी कोई मान हानि नहीं होगी और वहभी हमारी ही श्रेणी में आ जायेंगे । श्रीमहाराज जी स्वागताध्यक्ष थे । अतः अध्यक्ष श्री राम की अनुमति से श्री महाराज जी ने प्रश्नों का उत्तर देना स्वीकार करलिया । सारी भीड़ गहन उत्साह के साथ उन उत्तरों को सुनने के लिये उमड़ पड़ी। उन युगल प्रश्नों का आश्चर्यजनकसमन्वय सुन कर जनता व विद्वज्जन दोनों, दाँतों तले उँगली दबा कर रह गये । श्रेष्ठ विद्वानों ने तो हृदय से उनके दिव्य ज्ञान की भूरि भूरि सराहना की । किन्तु अन्य विद्वानों ने ईर्ष्यालु होकर परस्पर सला हकर के व यह सोच कर कि श्री कृपालु जी का ज्ञान कितना ही अधिक होगा तो भी भारत के शार्षस्थ ५०० विद्वानों के सम्मिलित ज्ञान के सम्मुख तो निरस्त हो ही जायेगा,उनको काशी विद्वत् परिषत् की ओर से शास्त्रार्थ के लिये आमंत्रण दिया । हमारे महाराज जी बड़े ही लीलाधारी हैं । जिस समय उन्हें यह निमंत्रण मिला था, वह मेरे पिता श्री (श्री हनुमान प्रसादमहाबनी) के निवास स्थान पर ही थे । निमंत्रण के उपरान्त वह महाबनी जी से, जो प्रायः उनके प्रति वात्सल्य भाव रखतेथे,बोले "महाबनी ! हमें काशी के पंडित शास्त्रार्थ के लिये बुलारहे हैं । जाऊँ ? महाबनी जी बोले "शीशे में मुँह देखा है! ये जायेंगे शास्त्रार्थ के लिये । " किन्तु जब दो तीन बार पूछा तो वह श्री महाराज जी से बोले "देखो ! अगर तुम्हें जीत कर आना है तब तो जाओ, नहीं तो चुपचाप घर में बैठे रहो ।" महाराज जी बोले "मुझे क्या पता कि जीतूंगा या हारूँगा ।" महाबनीजी बोले " बनो मत । तुम्हें सब मालूम है कि तुम क्या करने जा रहे हो।" महाराजजी बोले "अच्छा तो एक काम करते हैं । दो पर्चिर्यों पर जीतेंगे व हारेंगे लिख कर देखते हैं क्या होगा ।" मेरी अवस्था उस समय ५ - ६ वर्ष की थी और उस समय व हाँ मैं ही सबसे छोटी थी, इसलिये मुझे बुलाकर पर्ची उठवाई गई और जो पर्ची उठाई उसमें लिखा था 'जीतेंगे' । अब तो निर्णय हो गया ।
वाराणसी में पहुँचने पर श्री महाराज जी के पास सूचना भेजी गई कि उन्हें संस्कृत में ही बोलना है । और पहले दस दिनकेवल उनका प्रवचन होगा । जिससे उन से शास्त्रार्थ करने की क्षमता किस किस विद्वान् में है इसका सही अनुमान लग जायेगा । पश्चात् केवल वे ही विद्वज्जन शास्त्रार्थ के लिये अग्रसर होंगे | अगले दिन जब श्री महाराज जी निर्धारित समय व स्थान पर पहुँचे तो श्री महाराज जी को एक तखत पर, जिस पर एकचादर बिछी हुई थी, बैठने के लिये कहा गया। शेष ५०० विद्वान् फर्श पर बिछी हुई दरी पर विराजित हुये । वे सभी विद्वान् श्री महाराज जी के सम्मुख वयोवृद्ध दिखाई देते थे और सभी वर्षों से किसी एक ग्रंथ के अनुसंधान में लगे हुये थे । श्री महाराज जी उनके समक्ष एक बालक के समान प्रतीत होते थे । उन विद्वानों के मध्य तखत पर बैठे हुये श्री महाराज जी के परम तेजस्वी व्यक्तित्त्व को देखकर रामायण की ये पंक्ति याद आ जाती है ।
" उदित उदय गिरि मंच पर, रघुबर बाल पत पत । "
उस समय उस विद्वद् सभा की क्या ही अद्वितीय शोभा होगी ! और वे लोग कितने भाग्यशाली होंगे जो इस शोभा को निरख रहे होंगे !! श्री महाराज जी ने प्रारंभ में साधारण संस्कृत में बोलकर प्रवचन का श्री गणेश किया । सबकी गर्दनें हिली कि हाँ ये संस्कृत बोल लेते हैं । १० - १५ मिनट के पश्चात् क्लिष्ट साहित्यिक हिन्दी में बोलना प्रारंभ किया तो सभीविद्वान् प्रभावित होकर सुनने लगे कि इनकी संस्कृत तो बहुत उच्चकोटि की है । वस्तुतः कतिपय विद्वानों को पूर्णतया समझने में भी श्रम पड़ रहा था। पुनः १० मिनट के पश्चात् श्री महाराज जी ने वैदिक संस्कृत में बोलना प्रारंभ कर दिया । अब तो वहाँ २-४ इने गिने विद्वान् ही समझ पा रहे थे । शेष को तो यही नहीं पता चल रहा था कि वह बोल क्या रहे हैं । किन्तु इसके पश्चात् काशी विद्वत् परिषत् के अध्यक्ष श्री गिरिधर शर्मा, श्री राजनारायण खिस्ते, मंत्री श्री राजनारायणशुक्ल षट्शास्त्री से लेकर सभी विद्वानों की भाव भंगिमा व व्यवहार में आशातीत अंतर दिखाई देने लगा । वे श्री महाराजजी के सामने उत्तरोत्तर विनम्रतर होते गये । यहाँ तक कि एक बार जब श्री महाराज जी का प्रवचन चल रहा था एक विद्वान् ने खड़े हो कर कहा "आपने भक्तियोग का समन्वय नहीं किया ।" तो अध्यक्ष श्री खिस्ते ने खीझ कर कहा "तुम्हे इनके प्रवचन के एक भी शब्द का अर्थ समझमें आया ? कृपा कर के व्यवधान न उत्पन्न कीजिये और अपने स्थान पर बैठ जाइये ।" ऐसा कह कर वही अध्यक्ष महोदय जो अभी तक श्री महाराज जी को मात्र युवक विद्वान् समझ कर साधारणतया नाम लेकर संबोधन कर रहे थे, बड़े आदरसे बोले । " क्षमा कीजयेगा । आप कृपया अपना वक्तव्य प्रारंभ करे ।"
छठे दिन श्री महाराज जी ने साथ में आये हुये भक्तों से कहा "जाओ टेलिग्राम दे दो कि मैं जीत गया। मुझे जगद्गुरु की उपाधि मिल गई । वे लोग (योजना के अनुसार) नगर - यात्रा की तैयारी करें ।" सभी एक दूसरे का मुँह देख रहे थे कि अभी तो चार दिन प्रवचन के ही बाकी हैं, शास्त्रार्थ तो प्रारंभ भी नहीं हुआ महाराज जी कैसे कह रहे हैं कि विजयी होने का तार दे दो । किन्तु गुर्वाज्ञा के सम्मुख कोई कुछ कह तो सकता नहीं था । अतः इलाहाबाद तार भेज दिया गया और नगर यात्रा की तैयारियाँ खूब जोर शोर के साथ प्रारंभ हो गई ।
अगले दिन प्रवचन के पश्चात् काशी विद्वत् परिषत् के अध्यक्ष व मंत्री ने समस्त ५०० विद्वानों की ओर से पद्मप्रसूनोपहार व पुष्पमाला आदि द्वारा श्री महाराज जी का अतीव स्वागत करते हुये व उन्हें जगद्गुरूत्तम की उपाधि से अलङ्कृत करते हुये अनेकानेक अन्य उपाधियों से स्वागत किया । उनके द्वारा प्रदत्त संपूर्ण उपाधि इस प्रकार है -
श्रीमदपदवाक्यप्रमाणपारावारीण, वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिल दर्शन समन्वयाचार्य, सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापन सत्संप्रदायपरमाचार्य भक्तियोगरसावतार, भगवदनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु १००८ श्री कृपालु जी महाराज
श्रीमद्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण - अर्थात् जो व्याकरण, न्याय, मीमांसा आदि समस्त दर्शनों के सर्वश्रेष्ठ आचार्य हैं ।
वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य - वैदिक दर्शनानुसार मार्ग दर्शन करने हेतु समस्त आचार्यों में श्रेष्ठ हैं ।
निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य - समस्त दर्शनों का शास्त्र वेद सम्मत समन्वय करनें पारङ्गत ।
सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य - वेद - विहित सनातन धर्म की सुस्थापना करने व भगवन्निष्ठा के संवर्द्धन हेतु जो परमाचार्य हैं।
भक्तियोगरसावतार - जिनके श्रीराधाकृष्ण भक्ति में तन्मय व तल्लीन श्री विग्रह में भक्ति के विभिन्न सात्विक भावों का उद्रेक प्रायः लक्षित हो कर उपस्थित भक्तजनों को रस से सराबोर कर देता है, उनकी भावावेश अवस्था को देखकर ऐसा आभास होता है मानो वह स्वयं ही भक्तियोग के रस के मूर्तिमान् अवतार हैं ।
भगवदनन्तश्रीविभूषित जो अनन्तानन्त भगवदीय गुणों व विभूतियों से ओतप्रोत हैं ।
अखिल भूमंडल हमारे महाराज जी के अद्वितीय, अलौकिक ज्ञान के सम्मुख नतमस्तक है । मुझे शैशवावस्था से ही श्री महाराज जी का अहर्निश सम्पर्क प्राप्त करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । अपनी याद में मैंने कभी भी उनको किसी ग्रंथ को पढ़ते हुये नहीं देखा । प्रत्युत् सत्य तो यह है कि उनके जितने भी अनुयायी हैं,उनके घर में यदि कोई गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रंथ होते भी हैं तो वह ताख पर रख दिये जाते हैं। क्योंकि वह इन ग्रंथों को पढ़ने की अनुमति ही नहीं देते । उनका कथन है कि प्रथम तो ये भगवद् वाणी है, उसे भगवान् अथवा भगवत्प्राप्त संत ही समझ या समझा सकते हैं । दूसरी बात यह है कि इन ग्रंथों मे इतना विरोधाभास आभासित होता है कि पढ़ने वाला उलझता ही चला जाता है, समझ में कुछ नहीं आता । फिर वे स्वयं दिन रातसमस्त शास्त्र वेदों का निचोड़ अपने भक्तों को समझाते ही रहते हैं । इतना ही नहीं, समस्त शास्त्र वेदों का सम्यक् समन्वय करके उसका सार अत्यंत सरल भाषा में उन्होंने अपनी एक छोटी सी पुस्तक " प्रेम रस सिद्धान्त" में लिखदिया है । पुनः वे जो दिन रात नये नये संकीर्तनों की रचना करते रहते हैं उसमें भी कूट कूट कर फिलौसफी ही भरी हुई है। अतएव भ्रान्त होने से बचने के लिये वे किसी को इन ग्रन्थों को पढ़ने के लिय उत्साहित नही ं करते । यहाँ पर इस बात का उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि जो बिना पढ़े सारे विश्व को समस्त ग्रंथों का ज्ञान इतनी सहजता से प्रदान कर सके, वह तो कोई दिव्यविभूति ही हो सक ती है ।
श्री महाराज जी के व्यक्तित्त्व, स्वभाव, हाव भाव, कीर्तन - प्रणाली व सात्विक भावों के उद्रेक को देखकर सभी आगन्तुक भक्तों के मुख से स्वभावतः एक ही बात निकलती है कि 'ये तो साक्षात् चैतन्य महाप्रभु ही प्रतीत होते हैं ।" दुबला, पतला, लम्बा व तेजस्वी श्री विग्रह, गर्दन तक लम्बे घुँघराले केश, घुटने तक लम्बी भुजाएँ, चौड़ावक्षस्थल, नेत्रों में छलकता ममता व दिव्य प्रेम का सागर ! ये सभी कुछ एक स्थान पर देखकर अपने आप श्रीचैतन्य महाप्रभु की स्मृति होने लगती है।
श्री महाराज जी का अद्यावधि संपूर्ण इतिहास महाप्रभु के इतिहास की ही आवृत्ति प्रतीत होती है । विशेषकर जबभी वह भावावेश अवस्था में आते हैं, चैतन्य महा प्रभु की भाँति सुध बुध खोकर केवल 'हरि हरि बोल' का कीर्तन ही करते हैं । उस समय एक ऐसे दिव्य वातावरण का प्रादुर्भाव होता है कि उपस्थित सभी भक्तजनों के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है एवं सभी को ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो वह किसी अलौकिक जगद् के सुखद वातावरण में विचरण कर रहे हैं। शेष समय में महाप्रभु चैतन्य की ही भाँति श्री महाराज जी को भी हरे राम महामंत्र का संकीर्तन ही सर्वाधिक प्रिय है ।
महाप्रभु चैतन्य की ही भाँति श्री महाराज जी को भी देखकर पशु भी मानो प्रेम रस से ओतप्रोत हो जाते हैं । उदाहरणार्थ एक बार मसूरी में एक छोटा सा पिल्ला सड़क पर भटकता हुआ मिला । श्री महाराज जी ने उसे पहले तो मसूरी के आश्रम 'सेवा कुञ्ज' में ही शरण दी फिर उसे मनगढ़ धाम के आश्रम में भिजवा दिया। कुछ ही दिनों मे वह काफी बड़ा कुत्ता हो गया और मनगढ़ की रक्षा करने लगा। जब वहाँ अक्टूबर में वार्षिक साधनाका समय प्रारंभ हुआ तो साधना से एक दिन पहले श्री महाराज जी ने उस कुत्ते को साधना भवन में घूमते हुये देख कर आज्ञा की तौर पर कहा, "साधना भर हाल में कभी मत आना ।" उस दिन से पूरे एक माह तक वह साधना भवन में प्रविष्ट नहीं हुआ और उसने पूरी साधना पर्यंत (एक मास पर्यंत) साधना मे आये हुये सत्संगी जोकुछ बचा खुचा भोजन नीचे डाल देते बस उसको ही उनकी प्रसादी मान कर खाता रहा। इसके अतिरिक्त उसने पूरे माह कुछ नहीं खाया । वह साधक, जिन्हें कुत्ते को खिलाने की सेवा दी गई थी, तंग आ गया किन्तु सुदामानामक कुत्ते ने आश्रम से मिलने वाले भोजन को मुँह भी नहीं लगाया । साधना समाप्त होने के दूसरे दिन, जबथोड़े से ही साधक हाल में बैठे थे वह कुत्ता (सुदामा) सबसे पीछे दिवाल से लगकर एक कोने में बैठा था । श्री महाराज जी गये और अपने चरणों से उसे हिला कर बोले "उठ" । श्री महाराज जी चरणों का स्पर्श पाते ही मानोउसे नशा सा हो गया । महाराज जी आगे आकर अपने आसन वाले रंगमंच की सीढ़ियों पर बैठ गये । और सबको यह बात बताई कि इसको मैंने यह आज्ञा दी थी इसीलिये ये आज हाल में आया है। फिर श्री महाराज जीने पुकारा सुदामा! इधर आ।" जब वह उठ कर श्री महाराज जी के चरणों तक आया, उसकी आँखों से लम्बे लम्बे आँसू बह रहे थे और उसकी चाल से ऐसा लगता था मानो उसे चार बोतल का नशा हो गया हो । और चरणों के पास आते आते तो वह गिर ही गया । ऐसे बहुत सी घटनाएँ हैं । उन सब को यहाँ उल्लिखित करना असंभव है ।
प्राय: लोग पूछते हैं कि जगद्गुरु का वास्तविक तात्पर्य क्या है और इनको मौलिक जगद्गुरु क्यों कहा जाता है ?
जगद् शब्द का अर्थ है- गच्छतीति जगद् । जो सदा चलता रहता है उसे जगद् कहते हैं । अर्थात् माया निर्मित वह अखिल संसार जो जड़ है, द्वन्द्वात्मक है, जो सृष्टि और प्रलय, उत्थान व पतन के क्रमिक आवर्तन के साथ सतत् गतिशील है, उसीका नाम है । यहीं समस्त चराचर जीवों का सदा निवास रहता है।
म जगद्
गुरु शब्द का अर्थ है - "गुं रौति इति गुरुः " अथवा "गिरति अज्ञानम् इति गुरुः "। अर्थात् जो हमारे अनादिकालीन अज्ञान के अंधकार को मिटा कर दिव्य ज्ञान प्रदान करने में पूर्णतया सक्षम हो. वही गुरु है ।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम नमः ॥
अतः इस परिभाषा के अनुसार जो समस्त विश्व में सर्वसम्मति से सर्वोच्च गुरु के रूप में मान्य हो, उसे जगदगुरु कहा जाता है।
मौलिक जगद्गुरु का तात्पर्य जब किसी संत को उसकी दिव्य प्रतिभा से प्रभावित हो कर जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया जाता है तो वह मौलिक जगद्गुरु होताहै और जब उस जगद्गुरु के चले जाने के बाद उसी के सम्प्रदाय वाले किसी अन्य सर्वाधिक सुयोग्य व्यक्ति को जगद्गुरु का आसनव उपाधि प्रदान करते हैं । तो अपने गुरु की गद्दी पर आसीन होने वाला व्यक्तित्त्व जगद्गुरु का उत्तराधिकारीमात्र कहा है । उस जगद्गुरु को मौलिकजगद्गुरु नहीं कहा जा सकता। यथा आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व श्री शंकराचार्य जी महाराज को तत्कालि क विद्वानों ने उनके अलौकिक ज्ञान से प्रभावितहो कर जगद्गुरु की उपाधि प्रदानकी थी । अतः वे मौलिक जगद्गुरु थे । उनके अथवा अन्य जगद्गुरुओंके पद पर आसीन आज जो भी जगद्गुरु हैं, वे मौलिक जगद्गुरु नहीं कहे जा सकते ।
पाँचवे मौलिक जगद्गुरु ? - इनके पूर्व अद्यावधि केवल चार महापुरुषों को जगद्गुरु की उपाधि से अलंकृत किया जा चुका है । जगद्गुरु शंकराचार्य जी महाराज जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य जी महाराज,जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य जी महाराजव जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य जी महाराज । जो कि १३वीं शताब्दी में अवतरित हुये थे । सात सौ वर्षों के दीर्घ अन्तराल के उपरान्त हमारे पूज्य गुरुदेव श्री कृपालु महाप्रभु को १४ जनवरी सन् १९५७ के पुनीत अवसर पर इस उपाधि से विभूषित किया गया । अतः ये पाँचवे मौलिक जगद्गुरु हैं ।
ये उपाधि कौन किसको दे सकता है ? यह उपाधि किसी विश्व विद्यालय आदिद्वारा किसी को भी केवल अपने ज्ञानके आधार पर नहीं प्राप्त हो सकती । वस्तुतः जब अज्ञान व अज्ञानजनित अधर्म संसार में बहुत अधिक व्याप्त हो जाता है तब भगवत्कृपा से किसी एक वास्तविक संत का पृथ्वी पर अवतरण होता है । यह संत जब तात्कालिक प्रचलित धर्म से पृथक धर्म, ज्ञान व भक्ति का वास्तविक स्वरूप प्रकट करता है तो शेष तथाकथित संत व विद्वान् भड़क उठते हैं और धार्मिक क्षेत्र में एक क्रांति सी मच जाती है । ऐसी स्थिति में धर्म के प्रचलित व गलत स्वरूप का प्रचार करने वाले समस्तविद्वान् व संत एकओर व अवतरित संत एक ओर होता है । भड़क कर वे उस संत को शास्त्रार्थ के लिये ललकार देते हैं । इस अवसर पर समस्त विद्वानों के समक्ष वास्तविक संत का स्वरूप स्वयमेव उभर जाता है । साथ-साथ जनता के समक्ष भी नीर व क्षीर का न्याय हो जाता । उपस्थित विद्वान् व अन्य धर्मज्ञ भी संत के दिव्य ज्ञान से अत्यंत प्रभावित होकर स्वभावतः नतमस्तक हो जाते हैं ।
इस प्रकार समस्त विद्वानों की सम्मति से उस संत को जगद्गुरु की अद्वितीय उपाधि से सम्मानित किया जाता है और सम्मानित करने वाले विद्वज्जन भी अपने आपको परम सौभाग्यशाली व गौरवान्वित अनुभव करते हैं । हमारे महाराजजी 'जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज' के साथ भी अन्य जगद्गुरुओं की भाँति ऐसा ही हुआ । जब वे अपने अद्वितीय दिव्यज्ञान के साथ पृथिवी पर अवतरित हुये तो प्रथम तो अनेकानेक छोटे मोटे सम्मेलनों में उनके प्रवचनों को सुनकर लोग भड़कते रहे । किन्तु प्रवचनों में चौंका देने वाले ज्ञान की स्पष्टता, वेद शास्त्रों के उद्धरण, सटीक उदाहरण व तर्कसंगतता काबाहुल्य होने के कारण कोई भी खुल्लम खुल्ला प्रत्यक्ष विरोध नहीं कर पाता था । किन्तु श्री महाराज जी ने स्वयं अक्टूबर सन् १९५५ में चित्रकूट में एक वृहत् संत सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें समस्त जगद्गुरुओं, संतो, मठाधीशों आदि को आमंत्रित किया गया । उनकी यात्रा व ठहरने आदिका सुन्दरतम् प्रबन्ध किया गया । हज़ारोभक्तों की भीड़ एकत्र हुई ।जगद्गुरुओं के मध्य किसी प्रकार के मन मुटाव अथवा विरोध को बचाने के लिये श्री महाराज जी ने अयोध्यावासी श्री सीताराम शरण की राममंडली को आमंत्रित किया और उनके ही स्वरूपों में से श्री राम को सम्मेलन का अध्यक्ष बना दिया । तदुरान्त श्री महाराज जी ने समस्त आगन्तुक संत व विद्वानों के सम्मुख एक प्रश्नावली रख दी, जिसमें कतिपय परस्पर विरोधी युगल प्रश्नों को रखकर उनके समन्वय करने की प्रार्थना की । यथा - (१) अ. विश्व का प्रत्येक जीव नास्तिक है । आ. विश्व का प्रत्येक जीव आस्तिक है । समन्वय कीजिये ।
ऐसे ही १२ युगल प्रश्नों का समन्वय करना था । किन्तु एक भी विद्वान् एक भी प्रश्न - युगल के समन्वय में सक्षम नहीं हो सका । अनेक विद्वानों ने प्रश्नों के निराधार होने का दावा भी किया । किन्तु श्री करपात्री जी आदि विद्वानों ने बड़ी चतुराई व शिष्टता के साथ यह कहा कि "प्रश्नों को निराधार बताना समीचीन न होगा, हमें यह कहना चाहिये कि संभवतः हमें इन प्रश्नों का उत्तर नहीं पता और श्री कृपालु जी महाराज अवश्य ही इन प्रश्नों का उत्तर जानते होंगे । अतः हमाराउनसे ही निवेदन है वही इन प्रश्नों का उत्तर दें ।" उनका यह भी आशय था कि जब इतने विद्वान् मिलकर भी इनमें से एक भी प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम नहीं हैं तो अल्प वयस्क कृपालु जी अकेले इनका उत्तर कैसे दे सकते हैं ! अगरवे स्वयं भी इनका उत्तर नहीं जानते तब हमारी कोई मान हानि नहीं होगी और वहभी हमारी ही श्रेणी में आ जायेंगे । श्रीमहाराज जी स्वागताध्यक्ष थे । अतः अध्यक्ष श्री राम की अनुमति से श्री महाराज जी ने प्रश्नों का उत्तर देना स्वीकार करलिया । सारी भीड़ गहन उत्साह के साथ उन उत्तरों को सुनने के लिये उमड़ पड़ी। उन युगल प्रश्नों का आश्चर्यजनकसमन्वय सुन कर जनता व विद्वज्जन दोनों, दाँतों तले उँगली दबा कर रह गये । श्रेष्ठ विद्वानों ने तो हृदय से उनके दिव्य ज्ञान की भूरि भूरि सराहना की । किन्तु अन्य विद्वानों ने ईर्ष्यालु होकर परस्पर सला हकर के व यह सोच कर कि श्री कृपालु जी का ज्ञान कितना ही अधिक होगा तो भी भारत के शार्षस्थ ५०० विद्वानों के सम्मिलित ज्ञान के सम्मुख तो निरस्त हो ही जायेगा,उनको काशी विद्वत् परिषत् की ओर से शास्त्रार्थ के लिये आमंत्रण दिया । हमारे महाराज जी बड़े ही लीलाधारी हैं । जिस समय उन्हें यह निमंत्रण मिला था, वह मेरे पिता श्री (श्री हनुमान प्रसादमहाबनी) के निवास स्थान पर ही थे । निमंत्रण के उपरान्त वह महाबनी जी से, जो प्रायः उनके प्रति वात्सल्य भाव रखतेथे,बोले "महाबनी ! हमें काशी के पंडित शास्त्रार्थ के लिये बुलारहे हैं । जाऊँ ? महाबनी जी बोले "शीशे में मुँह देखा है! ये जायेंगे शास्त्रार्थ के लिये । " किन्तु जब दो तीन बार पूछा तो वह श्री महाराज जी से बोले "देखो ! अगर तुम्हें जीत कर आना है तब तो जाओ, नहीं तो चुपचाप घर में बैठे रहो ।" महाराज जी बोले "मुझे क्या पता कि जीतूंगा या हारूँगा ।" महाबनीजी बोले " बनो मत । तुम्हें सब मालूम है कि तुम क्या करने जा रहे हो।" महाराजजी बोले "अच्छा तो एक काम करते हैं । दो पर्चिर्यों पर जीतेंगे व हारेंगे लिख कर देखते हैं क्या होगा ।" मेरी अवस्था उस समय ५ - ६ वर्ष की थी और उस समय व हाँ मैं ही सबसे छोटी थी, इसलिये मुझे बुलाकर पर्ची उठवाई गई और जो पर्ची उठाई उसमें लिखा था 'जीतेंगे' । अब तो निर्णय हो गया ।
वाराणसी में पहुँचने पर श्री महाराज जी के पास सूचना भेजी गई कि उन्हें संस्कृत में ही बोलना है । और पहले दस दिनकेवल उनका प्रवचन होगा । जिससे उन से शास्त्रार्थ करने की क्षमता किस किस विद्वान् में है इसका सही अनुमान लग जायेगा । पश्चात् केवल वे ही विद्वज्जन शास्त्रार्थ के लिये अग्रसर होंगे | अगले दिन जब श्री महाराज जी निर्धारित समय व स्थान पर पहुँचे तो श्री महाराज जी को एक तखत पर, जिस पर एकचादर बिछी हुई थी, बैठने के लिये कहा गया। शेष ५०० विद्वान् फर्श पर बिछी हुई दरी पर विराजित हुये । वे सभी विद्वान् श्री महाराज जी के सम्मुख वयोवृद्ध दिखाई देते थे और सभी वर्षों से किसी एक ग्रंथ के अनुसंधान में लगे हुये थे । श्री महाराज जी उनके समक्ष एक बालक के समान प्रतीत होते थे । उन विद्वानों के मध्य तखत पर बैठे हुये श्री महाराज जी के परम तेजस्वी व्यक्तित्त्व को देखकर रामायण की ये पंक्ति याद आ जाती है ।
" उदित उदय गिरि मंच पर, रघुबर बाल पत पत । "
उस समय उस विद्वद् सभा की क्या ही अद्वितीय शोभा होगी ! और वे लोग कितने भाग्यशाली होंगे जो इस शोभा को निरख रहे होंगे !! श्री महाराज जी ने प्रारंभ में साधारण संस्कृत में बोलकर प्रवचन का श्री गणेश किया । सबकी गर्दनें हिली कि हाँ ये संस्कृत बोल लेते हैं । १० - १५ मिनट के पश्चात् क्लिष्ट साहित्यिक हिन्दी में बोलना प्रारंभ किया तो सभीविद्वान् प्रभावित होकर सुनने लगे कि इनकी संस्कृत तो बहुत उच्चकोटि की है । वस्तुतः कतिपय विद्वानों को पूर्णतया समझने में भी श्रम पड़ रहा था। पुनः १० मिनट के पश्चात् श्री महाराज जी ने वैदिक संस्कृत में बोलना प्रारंभ कर दिया । अब तो वहाँ २-४ इने गिने विद्वान् ही समझ पा रहे थे । शेष को तो यही नहीं पता चल रहा था कि वह बोल क्या रहे हैं । किन्तु इसके पश्चात् काशी विद्वत् परिषत् के अध्यक्ष श्री गिरिधर शर्मा, श्री राजनारायण खिस्ते, मंत्री श्री राजनारायणशुक्ल षट्शास्त्री से लेकर सभी विद्वानों की भाव भंगिमा व व्यवहार में आशातीत अंतर दिखाई देने लगा । वे श्री महाराजजी के सामने उत्तरोत्तर विनम्रतर होते गये । यहाँ तक कि एक बार जब श्री महाराज जी का प्रवचन चल रहा था एक विद्वान् ने खड़े हो कर कहा "आपने भक्तियोग का समन्वय नहीं किया ।" तो अध्यक्ष श्री खिस्ते ने खीझ कर कहा "तुम्हे इनके प्रवचन के एक भी शब्द का अर्थ समझमें आया ? कृपा कर के व्यवधान न उत्पन्न कीजिये और अपने स्थान पर बैठ जाइये ।" ऐसा कह कर वही अध्यक्ष महोदय जो अभी तक श्री महाराज जी को मात्र युवक विद्वान् समझ कर साधारणतया नाम लेकर संबोधन कर रहे थे, बड़े आदरसे बोले । " क्षमा कीजयेगा । आप कृपया अपना वक्तव्य प्रारंभ करे ।"
छठे दिन श्री महाराज जी ने साथ में आये हुये भक्तों से कहा "जाओ टेलिग्राम दे दो कि मैं जीत गया। मुझे जगद्गुरु की उपाधि मिल गई । वे लोग (योजना के अनुसार) नगर - यात्रा की तैयारी करें ।" सभी एक दूसरे का मुँह देख रहे थे कि अभी तो चार दिन प्रवचन के ही बाकी हैं, शास्त्रार्थ तो प्रारंभ भी नहीं हुआ महाराज जी कैसे कह रहे हैं कि विजयी होने का तार दे दो । किन्तु गुर्वाज्ञा के सम्मुख कोई कुछ कह तो सकता नहीं था । अतः इलाहाबाद तार भेज दिया गया और नगर यात्रा की तैयारियाँ खूब जोर शोर के साथ प्रारंभ हो गई ।
अगले दिन प्रवचन के पश्चात् काशी विद्वत् परिषत् के अध्यक्ष व मंत्री ने समस्त ५०० विद्वानों की ओर से पद्मप्रसूनोपहार व पुष्पमाला आदि द्वारा श्री महाराज जी का अतीव स्वागत करते हुये व उन्हें जगद्गुरूत्तम की उपाधि से अलङ्कृत करते हुये अनेकानेक अन्य उपाधियों से स्वागत किया । उनके द्वारा प्रदत्त संपूर्ण उपाधि इस प्रकार है -
श्रीमदपदवाक्यप्रमाणपारावारीण, वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिल दर्शन समन्वयाचार्य, सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापन सत्संप्रदायपरमाचार्य भक्तियोगरसावतार, भगवदनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु १००८ श्री कृपालु जी महाराज
श्रीमद्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण - अर्थात् जो व्याकरण, न्याय, मीमांसा आदि समस्त दर्शनों के सर्वश्रेष्ठ आचार्य हैं ।
वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य - वैदिक दर्शनानुसार मार्ग दर्शन करने हेतु समस्त आचार्यों में श्रेष्ठ हैं ।
निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य - समस्त दर्शनों का शास्त्र वेद सम्मत समन्वय करनें पारङ्गत ।
सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य - वेद - विहित सनातन धर्म की सुस्थापना करने व भगवन्निष्ठा के संवर्द्धन हेतु जो परमाचार्य हैं।
भक्तियोगरसावतार - जिनके श्रीराधाकृष्ण भक्ति में तन्मय व तल्लीन श्री विग्रह में भक्ति के विभिन्न सात्विक भावों का उद्रेक प्रायः लक्षित हो कर उपस्थित भक्तजनों को रस से सराबोर कर देता है, उनकी भावावेश अवस्था को देखकर ऐसा आभास होता है मानो वह स्वयं ही भक्तियोग के रस के मूर्तिमान् अवतार हैं ।
भगवदनन्तश्रीविभूषित जो अनन्तानन्त भगवदीय गुणों व विभूतियों से ओतप्रोत हैं ।
अखिल भूमंडल हमारे महाराज जी के अद्वितीय, अलौकिक ज्ञान के सम्मुख नतमस्तक है । मुझे शैशवावस्था से ही श्री महाराज जी का अहर्निश सम्पर्क प्राप्त करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । अपनी याद में मैंने कभी भी उनको किसी ग्रंथ को पढ़ते हुये नहीं देखा । प्रत्युत् सत्य तो यह है कि उनके जितने भी अनुयायी हैं,उनके घर में यदि कोई गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रंथ होते भी हैं तो वह ताख पर रख दिये जाते हैं। क्योंकि वह इन ग्रंथों को पढ़ने की अनुमति ही नहीं देते । उनका कथन है कि प्रथम तो ये भगवद् वाणी है, उसे भगवान् अथवा भगवत्प्राप्त संत ही समझ या समझा सकते हैं । दूसरी बात यह है कि इन ग्रंथों मे इतना विरोधाभास आभासित होता है कि पढ़ने वाला उलझता ही चला जाता है, समझ में कुछ नहीं आता । फिर वे स्वयं दिन रातसमस्त शास्त्र वेदों का निचोड़ अपने भक्तों को समझाते ही रहते हैं । इतना ही नहीं, समस्त शास्त्र वेदों का सम्यक् समन्वय करके उसका सार अत्यंत सरल भाषा में उन्होंने अपनी एक छोटी सी पुस्तक " प्रेम रस सिद्धान्त" में लिखदिया है । पुनः वे जो दिन रात नये नये संकीर्तनों की रचना करते रहते हैं उसमें भी कूट कूट कर फिलौसफी ही भरी हुई है। अतएव भ्रान्त होने से बचने के लिये वे किसी को इन ग्रन्थों को पढ़ने के लिय उत्साहित नही ं करते । यहाँ पर इस बात का उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि जो बिना पढ़े सारे विश्व को समस्त ग्रंथों का ज्ञान इतनी सहजता से प्रदान कर सके, वह तो कोई दिव्यविभूति ही हो सक ती है ।
श्री महाराज जी के व्यक्तित्त्व, स्वभाव, हाव भाव, कीर्तन - प्रणाली व सात्विक भावों के उद्रेक को देखकर सभी आगन्तुक भक्तों के मुख से स्वभावतः एक ही बात निकलती है कि 'ये तो साक्षात् चैतन्य महाप्रभु ही प्रतीत होते हैं ।" दुबला, पतला, लम्बा व तेजस्वी श्री विग्रह, गर्दन तक लम्बे घुँघराले केश, घुटने तक लम्बी भुजाएँ, चौड़ावक्षस्थल, नेत्रों में छलकता ममता व दिव्य प्रेम का सागर ! ये सभी कुछ एक स्थान पर देखकर अपने आप श्रीचैतन्य महाप्रभु की स्मृति होने लगती है।
श्री महाराज जी का अद्यावधि संपूर्ण इतिहास महाप्रभु के इतिहास की ही आवृत्ति प्रतीत होती है । विशेषकर जबभी वह भावावेश अवस्था में आते हैं, चैतन्य महा प्रभु की भाँति सुध बुध खोकर केवल 'हरि हरि बोल' का कीर्तन ही करते हैं । उस समय एक ऐसे दिव्य वातावरण का प्रादुर्भाव होता है कि उपस्थित सभी भक्तजनों के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है एवं सभी को ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो वह किसी अलौकिक जगद् के सुखद वातावरण में विचरण कर रहे हैं। शेष समय में महाप्रभु चैतन्य की ही भाँति श्री महाराज जी को भी हरे राम महामंत्र का संकीर्तन ही सर्वाधिक प्रिय है ।
महाप्रभु चैतन्य की ही भाँति श्री महाराज जी को भी देखकर पशु भी मानो प्रेम रस से ओतप्रोत हो जाते हैं । उदाहरणार्थ एक बार मसूरी में एक छोटा सा पिल्ला सड़क पर भटकता हुआ मिला । श्री महाराज जी ने उसे पहले तो मसूरी के आश्रम 'सेवा कुञ्ज' में ही शरण दी फिर उसे मनगढ़ धाम के आश्रम में भिजवा दिया। कुछ ही दिनों मे वह काफी बड़ा कुत्ता हो गया और मनगढ़ की रक्षा करने लगा। जब वहाँ अक्टूबर में वार्षिक साधनाका समय प्रारंभ हुआ तो साधना से एक दिन पहले श्री महाराज जी ने उस कुत्ते को साधना भवन में घूमते हुये देख कर आज्ञा की तौर पर कहा, "साधना भर हाल में कभी मत आना ।" उस दिन से पूरे एक माह तक वह साधना भवन में प्रविष्ट नहीं हुआ और उसने पूरी साधना पर्यंत (एक मास पर्यंत) साधना मे आये हुये सत्संगी जोकुछ बचा खुचा भोजन नीचे डाल देते बस उसको ही उनकी प्रसादी मान कर खाता रहा। इसके अतिरिक्त उसने पूरे माह कुछ नहीं खाया । वह साधक, जिन्हें कुत्ते को खिलाने की सेवा दी गई थी, तंग आ गया किन्तु सुदामानामक कुत्ते ने आश्रम से मिलने वाले भोजन को मुँह भी नहीं लगाया । साधना समाप्त होने के दूसरे दिन, जबथोड़े से ही साधक हाल में बैठे थे वह कुत्ता (सुदामा) सबसे पीछे दिवाल से लगकर एक कोने में बैठा था । श्री महाराज जी गये और अपने चरणों से उसे हिला कर बोले "उठ" । श्री महाराज जी चरणों का स्पर्श पाते ही मानोउसे नशा सा हो गया । महाराज जी आगे आकर अपने आसन वाले रंगमंच की सीढ़ियों पर बैठ गये । और सबको यह बात बताई कि इसको मैंने यह आज्ञा दी थी इसीलिये ये आज हाल में आया है। फिर श्री महाराज जीने पुकारा सुदामा! इधर आ।" जब वह उठ कर श्री महाराज जी के चरणों तक आया, उसकी आँखों से लम्बे लम्बे आँसू बह रहे थे और उसकी चाल से ऐसा लगता था मानो उसे चार बोतल का नशा हो गया हो । और चरणों के पास आते आते तो वह गिर ही गया । ऐसे बहुत सी घटनाएँ हैं । उन सब को यहाँ उल्लिखित करना असंभव है ।
Philosophy
It’s a matter of great pride for us that the Fifth Original Jagadguru, Shri Kripalu Ji Maharaj is our beloved Master, whose divine knowledge is illuminating the whole world with its radiance.
What is Jagadguru? The word Jagad means the entire world, which is ever dynamic. Guru means one who is all-capable of dispelling the beginning-less ignorance and is capable of infusing the divine knowledge. In a nutshell, one who is accepted as the supreme spiritual teacher for the whole world is a Jagadguru.
What does Original Jagadguru mean? When the world in general is impressed by the Divine knowledge of a saint then this title is conferred upon the person. Once that saint leaves this world, most qualified of the remaining folks is granted his seat. That person is also called Jagadguru. But they are not called “Original Jagadguru”.
Why Fifth Original Jagadguru? Before him in the past 2500 years 4 other people have been adorned with this title. Shankaracharya, Nimbarkacharya, Madhavacharya and Ramanujacharya (13th Century). After 700 years this title has been conferred upon our Guru Swami Shri Kripalu Ji Maharaj. So he is the fifth Original Jagadguru.
Who is qualified to confer this title? This title is not a degree that can be attained by going to a school. When the world is groping in the darkness of ignorance and irreligion then God out of his causelessly merciful nature sends a Divine personality, a saint, on this earth. When he propagates the Divine religion, knowledge and devotion (love for God aka Bhakti), which is drastically different from the contemporary beliefs, all religious henchmen take offense and invite the saint for a scriptural debate. In 1957 a panel of 500 scholars also invited Shri Maharajji for such a debate. Then Maharajji was asked to speak for several hours each day for a period of 10 days. On the 7th day seeing His unprecedented knowledge of the scriptures they willingly conferred upon him “Jagadguru” title along with 6 others as listed below
What is Jagadguru? The word Jagad means the entire world, which is ever dynamic. Guru means one who is all-capable of dispelling the beginning-less ignorance and is capable of infusing the divine knowledge. In a nutshell, one who is accepted as the supreme spiritual teacher for the whole world is a Jagadguru.
What does Original Jagadguru mean? When the world in general is impressed by the Divine knowledge of a saint then this title is conferred upon the person. Once that saint leaves this world, most qualified of the remaining folks is granted his seat. That person is also called Jagadguru. But they are not called “Original Jagadguru”.
Why Fifth Original Jagadguru? Before him in the past 2500 years 4 other people have been adorned with this title. Shankaracharya, Nimbarkacharya, Madhavacharya and Ramanujacharya (13th Century). After 700 years this title has been conferred upon our Guru Swami Shri Kripalu Ji Maharaj. So he is the fifth Original Jagadguru.
Who is qualified to confer this title? This title is not a degree that can be attained by going to a school. When the world is groping in the darkness of ignorance and irreligion then God out of his causelessly merciful nature sends a Divine personality, a saint, on this earth. When he propagates the Divine religion, knowledge and devotion (love for God aka Bhakti), which is drastically different from the contemporary beliefs, all religious henchmen take offense and invite the saint for a scriptural debate. In 1957 a panel of 500 scholars also invited Shri Maharajji for such a debate. Then Maharajji was asked to speak for several hours each day for a period of 10 days. On the 7th day seeing His unprecedented knowledge of the scriptures they willingly conferred upon him “Jagadguru” title along with 6 others as listed below
श्रीमत्पदवाक्यप्रमाण पारावारीण वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य, सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनपरमाचार्य, भक्तियोगरसावतार भगवदनन्तश्रीविभूषित
जगद्गुरु1008 स्वामि श्री कृपालु जी महाराज |
śrīmatpadavākyapramāṇapārāvārīṇa vedamārgapratiṣṭhāpanācārya, nikhiladarśanasamanvayācārya, sanātanavaidikadharmapratiṣṭhāpanaparamācārya, bhaktiyogarasāvatāra bhagavadanantaśrīvibhūṣita
jagadguru1008 svāmi śrī kṛpālu jī mahārāja |
śrīmatpadavākyapramāṇapārāvārīṇa - One who is proficient in all philosophies propounded in “Vyakran”, “Nyay” and “Mimansa”.
vedamārgapratiṣṭhāpanācārya - Supreme teacher who competently establishes a path of God realization according to Vedic philosophy.
nikhiladarśanasamanvayācārya - One who reconciles all philosophies according to the scriptures and Vedas.
sanātanavaidikadharmapratiṣṭhāpanaparamācārya - Supreme teacher for promoting Sanatan Vedic religion and the Supreme master of all the authentic schools of philosophy.
bhaktiyogarasāvatāra - One who is an incarnation of veritable Bhaktiyog and nectar of divine love.
bhagavadanantaśrīvibhūṣita - One who is endowed with innumerable divine attributes.
In order to spread the authentic knowledge to all masses, He has written a book “Prem Ras Siddhant”. This is the core of all Divine knowledge. He has reconciled all the seemingly conflicting beliefs and practices. This book is available in both Hindi and English
Kid's Story
A sage by the name of Ayoddhaumya had his hermitage in the forest. Out of all the students Aruni was the most sincere disciple. Sage Dhaumya himself was very hard working and taught his students the same. All of his students were very obedient and they used to finish their tasks in right earnest.
One day it was raining heavily. Sage Dhaumya ordered Aruni to build a bund in the fields so the swift water current did not erode the fields, otherwise the yield would be adversely impacted. Aruni obeyed the command of his teacher and went to the fields. Since it was raining very heavily, the field was filled up with water. But at one end of the field, the swift current washed a portion of the boundary away. The current of the water was gushing out very fast from that place. Aruni tried to stop the water from flowing out by putting some soil in that place by the help of a spade.
But the swift current washed it away. He tried many times but all his efforts went in vain. Now, he started worrying because he was not able to obey the command of his teacher. Suddenly, an idea came to his mind and he kept aside the spade and fay down at the place from where the water was gushing out. After sometime, it stopped raining but he could not get up because the water would have flown outside the field. So, he kept lying in the same position.
Next morning, when Sage Dhaumya did not see Aruni at his service as usual, called all his students to enquire about Aruni's whereabouts. The students replied that: "Guru ji, you had sent him to build a bund in the field." Sage Dhaumya became worried and he along with the other students went in search of Aruni with a lantern in his hand. But they could not find Aruni anywhere.
Sage Dhaumya called him out several times: " Aruni, where are you, we are searching for you." Aruni heard his teacher's voice and replied in that same position: " Guru Ji, here I am". Sage Dhaumya followed the direction from which Aruni's voice came. When he found Aruni lying in place of a bund, his heart was overcome with love. He called Aruni and embraced him. He blessed Aruni by saying: " Son Aruni! I am very pleased by your devotion; you will acquire every kind of knowledge even without studying. You will become famous in this world and will become the supreme devotee of God. From today, onwards you will be known as 'Uddalak'. The same Aruni became famous as sage 'Uddalak'.
One day it was raining heavily. Sage Dhaumya ordered Aruni to build a bund in the fields so the swift water current did not erode the fields, otherwise the yield would be adversely impacted. Aruni obeyed the command of his teacher and went to the fields. Since it was raining very heavily, the field was filled up with water. But at one end of the field, the swift current washed a portion of the boundary away. The current of the water was gushing out very fast from that place. Aruni tried to stop the water from flowing out by putting some soil in that place by the help of a spade.
But the swift current washed it away. He tried many times but all his efforts went in vain. Now, he started worrying because he was not able to obey the command of his teacher. Suddenly, an idea came to his mind and he kept aside the spade and fay down at the place from where the water was gushing out. After sometime, it stopped raining but he could not get up because the water would have flown outside the field. So, he kept lying in the same position.
Next morning, when Sage Dhaumya did not see Aruni at his service as usual, called all his students to enquire about Aruni's whereabouts. The students replied that: "Guru ji, you had sent him to build a bund in the field." Sage Dhaumya became worried and he along with the other students went in search of Aruni with a lantern in his hand. But they could not find Aruni anywhere.
Sage Dhaumya called him out several times: " Aruni, where are you, we are searching for you." Aruni heard his teacher's voice and replied in that same position: " Guru Ji, here I am". Sage Dhaumya followed the direction from which Aruni's voice came. When he found Aruni lying in place of a bund, his heart was overcome with love. He called Aruni and embraced him. He blessed Aruni by saying: " Son Aruni! I am very pleased by your devotion; you will acquire every kind of knowledge even without studying. You will become famous in this world and will become the supreme devotee of God. From today, onwards you will be known as 'Uddalak'. The same Aruni became famous as sage 'Uddalak'.
Kid's Story
Once the disciples of Guru Dronacharya asked him, "How is that Yudhishtra is recognized as an embodiment of virtues and Duryodhana as a wicked man?" Guru Ji did not give any answer. Instead He called out Duryodhana and said, "O Duryodhana, go and seek a virtuous man". Obeying his Guru's command, Duryodhana traveled far and wide and returned after a long time. He told Dronacharya: "I searched high and low but could not find even a single virtuous man in the whole world. I saw men only of evil nature everywhere." Dronacharya then instructed Yudhishtra: "O Yudhishtra, find a wicked man and bring him to me. "Yudhishtra, too, traveled far and wide and came back after many years.
Humbly, he approached his guru and said: "My worthy master, I tried hard to find such a man but could not find even a single wicked man in the whole world."
Guru Ji then said “My dear disciples! Here is the answer of your question. You see the world the way you are. Most of the time we receive what we give and we perceive as we are. If we have a positive attitude we find that everyone is wonderful. And if we treat people with respect we receive respect in return.”
Humbly, he approached his guru and said: "My worthy master, I tried hard to find such a man but could not find even a single wicked man in the whole world."
Guru Ji then said “My dear disciples! Here is the answer of your question. You see the world the way you are. Most of the time we receive what we give and we perceive as we are. If we have a positive attitude we find that everyone is wonderful. And if we treat people with respect we receive respect in return.”
It is a proof that there is no good or evil in this world. If you see evil in the world that means that evil is in your heart. So, this is a good indication of what you should change in your own life.
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