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Divya Ras Bindu

श्री कृष्ण ने महाभारत का भीषण संग्राम क्यों होने दिया ?

Read this article in English
Kagbhushindi Preaching to Garudगरुड़ महाराज कागभुशुंडी को ज्ञान देते हुए
प्रश्न
रामायण में गरुड़ महाराज ने कागभुशुंडी जी को बताया कि अहिंसा एक अति विशिष्ट मानवीय गुण है I गीता के प्रारम्भ में कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा अर्जुन, युद्ध में होने वाले नरसंहार से विचलित हो, युद्ध करने से कतराता हैं I परन्तु श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध की नैतिकता समझा कर युद्ध करने को उकसाया, एवं  स्वयं युद्ध में सहायता भी की I इस महाभारत के युद्ध में सम्पूर्ण विश्व के महारथी भाग लेने के लिये उपस्थित हुए । तदोपरांत सहस्त्रों जीवों के वीर गति को प्राप्त होने के कारण पृथ्वी पर कुछ मुट्ठी भर लोग ही बचे थे I

भगवान् ने अहिंसा को परम धर्म कहा है, फिर श्री कृष्ण, जो स्वयं भगवान् हैं, उन्होंने इस परम धर्म का पालन क्यों नहीं किया ?  

उत्तर
कुछ परिस्थितियों में किये हुए पाप कर्म, पुण्य का फल प्रदान करते हैं, और कभी कभी पुण्य भी पाप के सामान हो जाता है I हमारे अनादि, अनंत, दिव्य, वेदों में समस्त धर्मों का उल्लेख है I वेद कहते हैं -

सत्यम् वद
Lying can be virtuousकुछ परिस्थितियों में किये हुए पाप कर्म, पुण्य का फल प्रदान करते हैं
"सदा सच बोलो" । सच बोलना धर्म के अनुकूल कृत्य है I परन्तु वेदों में ऐसे भी दृष्टांत हैं जहाँ झूठ बोलना पुण्य का प्रतीक है और सच बोलना पाप समान है I जैसे एक निर्दोष के प्राण लेने के लिए कोई व्यक्ति उसका पीछा कर रहा हो, और मारने के लिए उत्तेजित व्यक्ति यदि किसी राहगीर से पूछे कि, "कोई इधर से भाग कर गया ?" उस निरपराधी की जीवन सुरक्षा के लिए यदि राहगीर झूठ बोलता है कि, "नहीं, इधर से कोई नहीं गया ", यह कृत्य पुण्य समझा जायेगा l इस परिस्थिति में सच बोलना पाप कहलाता l

द्वापर के अंत में, राक्षसों का आतंक चरम सीमा पर था, इन राक्षसों को भोले भाले लोगों को पीड़ित करने में बड़ा आनंद अनुभव होता था l पृथ्वी पर पाप का वर्चस्व देख, भगवान् शिव, ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं ने श्री कृष्ण से पृथ्वी से पाप का भार कम करने के लिए, एवं जन साधारण की रक्षा हेतु प्रार्थना करी l तत्पश्चात सबकी प्रार्थना सुन, पृथ्वी पर पाप का अंत करने के लिए और समस्त प्राणीमात्र को अभय प्रदान कर धर्म की पुनर्स्थापना के लिए प्रभु इस धराधाम पर अवतरित हुए l प्रभु श्री राम ने कहा -

अहिंंसा परमो धर्मः
“अहिंसा का पालन ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है l” भगवान् श्री कृष्ण ने भी कुछ ऐसा ही किया था l

समस्त कौरव भ्राता अधर्मी, स्वार्थी और लोभी थे l उनके समस्त सहयोगी भी पापी एवं घोर अत्याचारी थे l छल से कौरवों ने पांडवों का समस्त राज्य हड़प लिया l भगवान् श्री कृष्ण ने कौरवों को समझने का भरसक प्रयत्न​ किया कि वे पांडवों का राज्य उन्हें लौटा दें अथवा शांतिपूर्वक कोई उचित समाधान के लिए विचार विमर्श करें l  परन्तु दंभी कौरव अपनी छल पूर्ण नीति से टस से मस न हुए, और अंततोगत्वा दंड के भागीदार बने l पाप कर्म में सहयोगी भी पापी होता है ।


समस्त विश्व के देशों की सरकार भी अपराधियों को दण्डित करती है l अपराधों की अवहेलना कर अपराधियों को स्वछंद घूमने देने से समाज​ में अराजकता बढ़ेगी और ये नीति के विरुद्ध भी है l दंड प्रणाली न होने से समाज में अपराध को और बढ़ावा मिलेगा l

Armies of Kauravs and Pandavasपांडवों और कौरवों की सेनायें
विचार करने योग्य ये है कि क्या कंस एवं उसके जैसे अन्य दुष्ट प्रवृति वाले राजाओं का अंत करना श्री कृष्ण का कर्त्तव्य नहीं था ?

निःसंदेह महाभारत के युद्ध में लाखों की मृत्यु हुई, परन्तु वे सब वो थे जो क्रूर राजाओं को समर्थन प्रदान कर रहे थे l इस युद्ध में दुर्योधन अधर्म का द्योतक था, और युधिष्ठिर धर्म के द्योतक थे l युद्धस्थल में, युद्ध के प्रारम्भ में युधिष्ठिर ने समस्त योद्धाओं को अपने निर्णय पर पुनः विचार करने का एक और सुअवसर प्रदान किया l युधिष्ठिर ने घोषणा की कि, " जो भी योद्धा मेरी सेना में आना चाहते हैं मैं उनका स्वागत करता हूँ और जो मेरी सेना छोड़ कर दुर्योधन की सेना में सम्मिलित होना चाहते हैं, उनको ऐसा करने की पूर्ण स्वतंत्रता है l " यह धर्म अथवा अधर्म का पक्ष चुनने का अंतिम अवसर था l


भगवन श्री कृष्ण ने अर्जुन से ये कहा था कि, " हे अर्जुन ! समस्त योद्धा जो प्रतिद्वंदी सेना में हैं, उनका मृत्यु का समय निकट आ गया है l "

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥ गीता ११.३३
”मैंने उनका वध पहले ही कर दिया है, ओ अर्जुन ! तुम तो निमित्त मात्र हो l”

यहाँ यह ज्ञात रहे कि कोई भी निर्धारित समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता l 

महापुरुष होने के कारण अर्जुन शाश्वत सत्य और समस्त धर्म के मर्मज्ञ थे l फिर भी ये महापुरुष धरती पर अवतरित हो श्री कृष्ण से, जन साधारण के समान इस जीवन के लक्ष्य तथा इसके निर्वाह से सम्बंधित, प्रश्न करते हैं । तदनन्तर श्री कृष्ण उन प्रश्नों का उत्तर दे कर हमारे संशयों का निवारण करते हैं, हमें जीवन के तथ्यों से अवगत करा कर हमें एक आदर्श व्यवहारिकता का ज्ञान प्रदान करते हैं l जब प्रभु स्वयं को प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं, तो उसमें संदेह नहीं रहता ।

भगवान् श्रीकृष्ण प्राणीमात्र को धर्म एवं नैतिकता से युक्त जीवन निर्वाह करने के लाभ से अवगत करना चाहते थे l वे यह भी प्रदर्शित करना चाहते थे की यदि हम ऐसा न करें तो हमें जीवन के प्रत्येक मोड़ पर शिकस्त और असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ेगी l यह सब उन्होंने पांडवों और कौरवों की जीवनी से हमको दर्शाया l
यहाँ प्रमुख बातें श्रेयस्कर एवं उल्लेखनीय हैं -

१. हमको दृढ़ता से यह समझना है कि, "भगवान् सर्वज्ञ हैं ", अतः जब वे सब जानते हैं और उनसे कुछ भी नहीं छुपा है,तो उनसे कोई त्रुटि होना संभव नहीं है l
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः ।
२. "उनको (भगवन को ) कोई कमाई नहीं करनी और कुछ प्राप्त भी नहीं करना, अतः वे पक्षपात नहीं कर सकते l लिंग पुराण में कहा गया है -
आत्मप्रयोजनाभावे परानुग्रह एव हि ।
३. "वे (भगवान्) अवतार लेते हैं, एक मात्र ध्येय से, कि वे इस पृथ्वी को अन्याय के आघात से उबार सकें "
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानंं सृजाम्यहम् ।
भगवान् के हर कार्य का एक ही, मात्र एक ही कारण होता है, "मानवता का कल्याण" l कभी कभी हम प्रभु के कृत्यों को, लीलाओं को, अपनी बुद्धि से समझने की चेष्टा करते हैं, हम सर्वज्ञ तो हैं नहीं, संभवतः इसी कारण से उनके कृत्य हमारी बुद्धि की समझ के परे रहते हैं l यदि हम यह सत्य पूर्णतया अंगीकार कर लें तो भविष्य में  कोई भी संशय से सदा अछूते रहेंगे l 

भगवद गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने वृहद् रूप से इसी तत्वज्ञान की विवेचना की है l


मानव देह देव दुर्लभ होने के साथ साथ क्षण भी भंगुर है । व्यर्थ के चिन्तन में अपना समय मत गँवाओ ।
- जगदगुरुः कृपालु जी महाराज​
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