भक्ति दिवस (नव वर्ष ) |
यह परंपरा प्राचीन बेबीलोनियों ने शुरू की । वे वसंत विषुव के बाद पहली अमावस्या को नए साल की शुरुआत मानते थे । वर्ष में दो बार सूर्य भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर होता है (मार्च के अंत में और सितम्बर के अंत में) अतः दिन और रात समान लंबाई के होते हैं । मार्च के अंत में आने वाले वसंत विषुव को प्राचीन बेबीलोनी नव वर्ष के रूप में मानाने के लिये कई दिनों तक उत्सव मनाते थे । अनेक देशों में यह दिन चार हजार वर्षों से नव वर्ष के रूप में मनाया जाता रहा है ।
आज, अधिकांश नव वर्ष के उत्सव ग्रेगोरियन कैलेंडर के अंतिम दिन 31 दिसंबर (नए साल की पूर्व संध्या) से शुरू होते हैं, और 1 जनवरी (नए साल के पहले दिन) के कुछ घंटों में मनाया जाता हैं। आम तौर पर पार्टियों में शामिल होना, विशेष भोजन करना, आगामी वर्ष के लिए संकल्प करना और आतिशबाजी देखना शामिल है।
नया साल मनाने का प्राचीन भारतीय तरीका अध्यात्म पर केंद्रित है । भारतीय अपने-अपने इष्टदेव की उपासना करते हैं और सदाचारी जीवन जीने का संकल्प लेते हैं।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के दृष्टिकोण में नव वर्ष आरंभ करने की विधि बहुत अपरंपरागत तथा दार्शनिक है । उनका कहना है कि हर नया साल यह याद दिलाता है कि हमारे अनमोल मानव जीवन का एक और साल बीत गया है । इस समय, पिछले वर्ष में अपनी उपलब्धियों पर और परम-चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कितना प्रयास किया गया, इस पर विचार करने का समय है । क्योंकि शास्त्रों की उद्घोष है कि हम केवल मानव जीवन में ही अनंत और चिरस्थायी सुख प्राप्त कर सकते हैं। भले ही किसी ने अथाह धन, प्रसिद्धि और प्रभुत्व अर्जित किया हो, लेकिन यदि जीवन के इस लक्ष्य को पाने में प्रगति नहीं हुई तो समय व्यर्थ माना जाता है । क्योंकि आध्यात्मिक पूँजी ही चिरकाल के लिये होती है । सांसारिक सुख प्राप्त करने के लिए अर्जित की गई सभी भौतिक संपत्ति अस्थायी है और केवल इस जीवनकाल तक चल सकती है। जैसा आप जानते ही हैं कि मृत्यु पर कोई इस संसार से एक फूटी कौड़ी भी नहीं ले जा सकता । एकमात्र अर्जित की हुई आध्यात्मिक पूँजी ही जाती है । अगर किसी ने कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं की है, तो जश्न मनाने का कोई कारण नहीं है । बल्कि यह अपनी लापरवाही पर शोक मनाने का क्षण है, क्योंकि इससे भविष्य के जन्मों में बहुत नुकसान होगा।
इसलिए इस अवसर को मनाने का सही तरीका कम से कम 24 घंटे भगवान को याद करना है। मन से हर समय भगवद् चिंतन का अभास करना चाहिए, ताकि व्यक्ति अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
श्री महाराज जी के अधिकांश आश्रमों में अच्छे भोजन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा 24 घंटे की अखंड साधना आयोजित की जाती है और श्री महाराज जी के प्रवचन सुनाये जाते हैं । लक्ष्य यही होता है की वर्ष के अन्तिम क्षणों में और नव वर्ष के प्रारंभिक क्षणों में भगवद् चिंतन बना रहे । साथ ही भविष्य में भी भक्ति का अभ्यास जारी रखने का संकल्प लेना चाहिए ।
यह भौतिक उत्सवों की भाँति दावत-खाने, गाने-बजाने और नृत्यादि करके मौज-मस्ती करने का दिन नहीं है। इस दिन अपनी अज्ञानता और हानि पर पछतावा करना चाहिए । भक्त परमानंद में गाते और नाचते हैं लेकिन यह भगवान की याद में है। वे स्वादिष्ट भोजन 'प्रसाद' के रूप में ग्रहण करते हैं। वे उन भक्तों की संगति का भी आनंद लेते हैं जिनका लक्ष्य भी भगवद् प्राप्ति है। तो, श्री महाराज जी इस अवसर को भगवान के प्रेम में डूबकर मनाने का सुझाव देते हैं।
हर दिन और विशेष रूप से इस दिन भक्ति के महत्व को याद दिलाने के लिए श्री महाराज जी ने इसे भक्ति दिवस का नाम दिया है।
मैं इस नव वर्ष में सभी भक्तों की साधना में दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति की मंगलकामना करती हूँ ।
आज, अधिकांश नव वर्ष के उत्सव ग्रेगोरियन कैलेंडर के अंतिम दिन 31 दिसंबर (नए साल की पूर्व संध्या) से शुरू होते हैं, और 1 जनवरी (नए साल के पहले दिन) के कुछ घंटों में मनाया जाता हैं। आम तौर पर पार्टियों में शामिल होना, विशेष भोजन करना, आगामी वर्ष के लिए संकल्प करना और आतिशबाजी देखना शामिल है।
नया साल मनाने का प्राचीन भारतीय तरीका अध्यात्म पर केंद्रित है । भारतीय अपने-अपने इष्टदेव की उपासना करते हैं और सदाचारी जीवन जीने का संकल्प लेते हैं।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के दृष्टिकोण में नव वर्ष आरंभ करने की विधि बहुत अपरंपरागत तथा दार्शनिक है । उनका कहना है कि हर नया साल यह याद दिलाता है कि हमारे अनमोल मानव जीवन का एक और साल बीत गया है । इस समय, पिछले वर्ष में अपनी उपलब्धियों पर और परम-चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कितना प्रयास किया गया, इस पर विचार करने का समय है । क्योंकि शास्त्रों की उद्घोष है कि हम केवल मानव जीवन में ही अनंत और चिरस्थायी सुख प्राप्त कर सकते हैं। भले ही किसी ने अथाह धन, प्रसिद्धि और प्रभुत्व अर्जित किया हो, लेकिन यदि जीवन के इस लक्ष्य को पाने में प्रगति नहीं हुई तो समय व्यर्थ माना जाता है । क्योंकि आध्यात्मिक पूँजी ही चिरकाल के लिये होती है । सांसारिक सुख प्राप्त करने के लिए अर्जित की गई सभी भौतिक संपत्ति अस्थायी है और केवल इस जीवनकाल तक चल सकती है। जैसा आप जानते ही हैं कि मृत्यु पर कोई इस संसार से एक फूटी कौड़ी भी नहीं ले जा सकता । एकमात्र अर्जित की हुई आध्यात्मिक पूँजी ही जाती है । अगर किसी ने कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं की है, तो जश्न मनाने का कोई कारण नहीं है । बल्कि यह अपनी लापरवाही पर शोक मनाने का क्षण है, क्योंकि इससे भविष्य के जन्मों में बहुत नुकसान होगा।
इसलिए इस अवसर को मनाने का सही तरीका कम से कम 24 घंटे भगवान को याद करना है। मन से हर समय भगवद् चिंतन का अभास करना चाहिए, ताकि व्यक्ति अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
श्री महाराज जी के अधिकांश आश्रमों में अच्छे भोजन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा 24 घंटे की अखंड साधना आयोजित की जाती है और श्री महाराज जी के प्रवचन सुनाये जाते हैं । लक्ष्य यही होता है की वर्ष के अन्तिम क्षणों में और नव वर्ष के प्रारंभिक क्षणों में भगवद् चिंतन बना रहे । साथ ही भविष्य में भी भक्ति का अभ्यास जारी रखने का संकल्प लेना चाहिए ।
यह भौतिक उत्सवों की भाँति दावत-खाने, गाने-बजाने और नृत्यादि करके मौज-मस्ती करने का दिन नहीं है। इस दिन अपनी अज्ञानता और हानि पर पछतावा करना चाहिए । भक्त परमानंद में गाते और नाचते हैं लेकिन यह भगवान की याद में है। वे स्वादिष्ट भोजन 'प्रसाद' के रूप में ग्रहण करते हैं। वे उन भक्तों की संगति का भी आनंद लेते हैं जिनका लक्ष्य भी भगवद् प्राप्ति है। तो, श्री महाराज जी इस अवसर को भगवान के प्रेम में डूबकर मनाने का सुझाव देते हैं।
हर दिन और विशेष रूप से इस दिन भक्ति के महत्व को याद दिलाने के लिए श्री महाराज जी ने इसे भक्ति दिवस का नाम दिया है।
मैं इस नव वर्ष में सभी भक्तों की साधना में दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति की मंगलकामना करती हूँ ।