2022 होली अंक
तनिक ठहरो । इतनी भी क्या जल्दी है? |

एक समय की बात है एक सेठ जी (धनवान व्यापारी) थे। उनकी पत्नी बहुत पूजा पाठ करती थी परंतु सेठ जी की संतो, धार्मिक क्रियाकलापों और भक्ति में आस्था नहीं थी। जब कभी उनकी पत्नी उनको कुछ धार्मिक कार्य करने के लिए कहतीं तो वो उनसे यों ही कहते, "तनिक ठहरो । इतनी भी क्या जल्दी है?" इस प्रकार उनके पति ने अपना पूरा यौवन सांसारिक संपत्ति के संचय में बिता दिया। अब दोनों वृद्ध हो चले। पत्नी अपने पति के नास्तिक होने के के कारण उदास रहती थी ।
एक दिन उनके पति को तेज बुखार हो गया । उन्हें अपने पति को सबक सिखाने का यह अच्छा मौका दिखा। पत्नी ने उन्हें डॉक्टर को दिखाने के पश्चात रास्ते से दवाइयां भी खरीद ली। जब दोनों घर पहुंचे तो सेठ जी बहुत थक चुके थे अतः वे लेट गए और उन्होंने पत्नी से दवाइयां देने के लिए कहा। उसने आज्ञाकारीणी पत्नी की भांति कहा, " तनिक ठहरो । मैं अभी लाती हूँ।" काफी समय बीत जाने के पश्चात सेठ जी ने पुनः पत्नी से कहा, "मुझे दवाइयां दे दो"। पत्नी ने पुनः वही उत्तर दिया, "तनिक ठहरो । मैं अभी लाती हूँ"। थोड़ी देर इंतजार करने के पश्चात सेठ जी ने कमजोर आवाज से चिल्ला कर कहा, " मुझे मेरी दवाइयाँ दे दो।" पत्नी ने पुनः वही उत्तर दिया, "ठहरो, मै अभी लाती हूँ"। दवाइयाँ लेकर घर पहुंचने के पश्चात अब तक 2-3 घंटे बीत चुके थे और अभी तक उसकी पत्नी ने उसको दवाइयाँ नहीं दी । सेठ जी बुखार में तप रहे थे । सारा शरीर दर्द से टूट रहा था । अतः बहुत दुखी थे और दवा न मिलने के कारण गुस्से से भर गए। वो बिस्तर से उठ कर लड़खड़ाते हुए पत्नी के पास पहुँचे तो देखा उनकी पत्नी आराम से बैठी हुई थी और कोई काम भी नहीं कर रही थी। यह देखकर सेठ जी आपे से बाहर होकर बोले, "तुम मुझे दवाइयाँ क्यों नहीं दे रही हो ?" पत्नी ने फिर वही उत्तर दिया, "तनिक ठहरो । इतनी भी क्या जल्दी है? दवाई दे दूँगी"।
अचानक सेठजी को याद आया कि ये वही शब्द हैं जो वो अपनी पत्नी से कहते थे जब वो सत्संग जाने के लिए कहती थी । सेठजी सांसारिक क्रियाओं में इतने व्यस्त थे कि उन्होंने अपनी आत्मा के कल्याण के लिए जो करना चाहिए था उसको नजरअंदाज कर दिया। सेठ जी को दो-तीन घंटा दवाई न मिलने के कारण ही इतना क्रोध आ गया जबकि उनकी पत्नी ने पूरे जीवन आत्मा की दवाई के लिए इंतजार किया और फिर भी क्रोधित नहीं हुई। सेठ जी का गुस्सा अचानक गायब हो गया। अपने पति के पश्चाताप को देखकर उसने सेठ जी को दवाइयाँ दी तथा उससे वो ठीक हो गए।
एक दिन उनके पति को तेज बुखार हो गया । उन्हें अपने पति को सबक सिखाने का यह अच्छा मौका दिखा। पत्नी ने उन्हें डॉक्टर को दिखाने के पश्चात रास्ते से दवाइयां भी खरीद ली। जब दोनों घर पहुंचे तो सेठ जी बहुत थक चुके थे अतः वे लेट गए और उन्होंने पत्नी से दवाइयां देने के लिए कहा। उसने आज्ञाकारीणी पत्नी की भांति कहा, " तनिक ठहरो । मैं अभी लाती हूँ।" काफी समय बीत जाने के पश्चात सेठ जी ने पुनः पत्नी से कहा, "मुझे दवाइयां दे दो"। पत्नी ने पुनः वही उत्तर दिया, "तनिक ठहरो । मैं अभी लाती हूँ"। थोड़ी देर इंतजार करने के पश्चात सेठ जी ने कमजोर आवाज से चिल्ला कर कहा, " मुझे मेरी दवाइयाँ दे दो।" पत्नी ने पुनः वही उत्तर दिया, "ठहरो, मै अभी लाती हूँ"। दवाइयाँ लेकर घर पहुंचने के पश्चात अब तक 2-3 घंटे बीत चुके थे और अभी तक उसकी पत्नी ने उसको दवाइयाँ नहीं दी । सेठ जी बुखार में तप रहे थे । सारा शरीर दर्द से टूट रहा था । अतः बहुत दुखी थे और दवा न मिलने के कारण गुस्से से भर गए। वो बिस्तर से उठ कर लड़खड़ाते हुए पत्नी के पास पहुँचे तो देखा उनकी पत्नी आराम से बैठी हुई थी और कोई काम भी नहीं कर रही थी। यह देखकर सेठ जी आपे से बाहर होकर बोले, "तुम मुझे दवाइयाँ क्यों नहीं दे रही हो ?" पत्नी ने फिर वही उत्तर दिया, "तनिक ठहरो । इतनी भी क्या जल्दी है? दवाई दे दूँगी"।
अचानक सेठजी को याद आया कि ये वही शब्द हैं जो वो अपनी पत्नी से कहते थे जब वो सत्संग जाने के लिए कहती थी । सेठजी सांसारिक क्रियाओं में इतने व्यस्त थे कि उन्होंने अपनी आत्मा के कल्याण के लिए जो करना चाहिए था उसको नजरअंदाज कर दिया। सेठ जी को दो-तीन घंटा दवाई न मिलने के कारण ही इतना क्रोध आ गया जबकि उनकी पत्नी ने पूरे जीवन आत्मा की दवाई के लिए इंतजार किया और फिर भी क्रोधित नहीं हुई। सेठ जी का गुस्सा अचानक गायब हो गया। अपने पति के पश्चाताप को देखकर उसने सेठ जी को दवाइयाँ दी तथा उससे वो ठीक हो गए।
शिक्षा
शरीर दो घटकों से मिलकर बना है एक दिव्य है जिसे आत्मा कहते हैं और एक माया का बना है जिसे स्थूल शरीर कहते हैं ।आत्मा को "मैं" से संबोधित किया जाता है तथा शरीर को "मेरा" से संबोधित किया जाता है । मानव शरीर को आत्मा के उपयोग के लिए बनाया गया है जिससे आत्मा अपने परम चरम लक्ष्य दिव्यानंद अर्थात भगवान को प्राप्त कर सके। परंतु अधिकतर लोग सेठ जी की तरह अपने शरीर के विषय में ही सोचते हैं ।आत्मा के विषय में उधार कर देते हैं। हम शरीर को "मैं" मान लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि मानव देह हमारे परम चरम लक्ष्य "दिव्यानंद" को प्राप्त करने का साधन है। हम सभी आनंद चाहते हैं और दिन-रात इसी की खोज में लगे रहते हैं।
शरीर जड़ है। भौतिक संपन्नता से "मुझे" अर्थात "आत्मा" को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। अतः हमें आत्मा की संतुष्टि पर ध्यान देना चाहिए। यदि आत्मा संतुष्ट है तो भौतिक आवश्यकताएँ स्वतः कम होती जाएँगी । यथार्थ सत्य यह है कि उच्चतम भौतिक संपन्नता भी आत्मा को कदापि संतुष्ट नहीं कर सकती बल्कि यह आग में घी डालने जैसा है अर्थात उल्टी दवाई है जो आत्मा को संतुष्ट करने के विपरीत दुख को बढ़ाती है।
अतः बुद्धिमता इसी में है कि उतना ही उद्यम किया जाए जिससे शरीर ठीक ठीक चल जाए और शेष समय आत्मा के कल्याण हेतु बिताना चाहिए। शरीर के माध्यम से ही आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है अतः शरीर को हष्ट पुष्ट रखकर अपने परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अथक अटूट प्रयास करिए ।
शरीर जड़ है। भौतिक संपन्नता से "मुझे" अर्थात "आत्मा" को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। अतः हमें आत्मा की संतुष्टि पर ध्यान देना चाहिए। यदि आत्मा संतुष्ट है तो भौतिक आवश्यकताएँ स्वतः कम होती जाएँगी । यथार्थ सत्य यह है कि उच्चतम भौतिक संपन्नता भी आत्मा को कदापि संतुष्ट नहीं कर सकती बल्कि यह आग में घी डालने जैसा है अर्थात उल्टी दवाई है जो आत्मा को संतुष्ट करने के विपरीत दुख को बढ़ाती है।
अतः बुद्धिमता इसी में है कि उतना ही उद्यम किया जाए जिससे शरीर ठीक ठीक चल जाए और शेष समय आत्मा के कल्याण हेतु बिताना चाहिए। शरीर के माध्यम से ही आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है अतः शरीर को हष्ट पुष्ट रखकर अपने परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अथक अटूट प्रयास करिए ।
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