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2022 जगद्गुरुत्तम दिवस अंक

कृपालु लीलामृतम् - शरणागत भक्त की इच्छा सर्वोपरि

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जगद्गुरु कृपालुजी महाराजजगद्गुरु कृपालुजी महाराज
​जगद्गुरूत्तम पद से विभूषित करने के पश्चात काशी विद्वत परिषद ने श्री महाराज जी को एक नियमावली भी दी जिसके अनुसार : ​
  • जगद्गुरु का किसी गृहस्थी के यहाँ निवास करना वर्जित है।
  • वह किसी गृहस्थी के यहाँ बिना ₹100  की दक्षिणा लिए नहीं जा सकते ।
  • वह केवल ब्राह्मण के द्वारा बनाया भोजन ही ग्रहण कर सकते हैं ।
  • किसी के घर कच्चा खाना (बिना तेल के पका हुआ) नहीं खाएँगे ।

​जगद्गुरु बनने से पहले ही श्री महाराज जी ने प्रतापगढ़ में साधकों को टेलीग्राम भेजा, "मैं जगद्गुरु बन गया हूँ और 15 जनवरी को शाम 4:00 बजे प्रतापगढ़ पहुँच जाऊँगा । पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार विजयोत्सव की तैयारी कीजिए। "

भक्तों ने विजयोत्सव की तैयारियाँ शुरू कर दी । शोभायात्रा रेलवे स्टेशन से आरंभ होकर शहर से होते हुए राजकीय विद्यालय के मैदान तक आई ।  वहाँ 8 फीट ऊँचा मंच बनाया गया जिससे कि श्री महाराज जी और कुछ अन्य विद्वान 15 दिनों तक श्रृंखला बद्ध प्रवचन कर सकें।

साधक श्री महाराज जी पर लगाए गए प्रतिबंधों से भी अवगत​​ थे। यद्यपि श्री महाराज जी काशी जाने से पहले महाबनी परिवार के साथ रहते थे तथापि प्रियदर्शी जी तथा प्रियाशरण जी ने पास ही बाबूलाल धर्मशाला में श्री महाराज जी के लिए रहने का प्रबंध किया । महाबनी जी माथुर कायस्थ थे । उनके घर में एक ब्राह्मण रसोई बनाता था जिसे सभी लोग महाराज कहकर बुलाते थे। तय हुआ कि महाराज धर्मशाला में जाकर श्री महाराज जी के लिए उनकी रूचि के अनुसार व्यंजन बनाएगा।

​इन नियमों के कारण श्री महाबनी के परिवार वाले बड़े चिंतित हो गए थे कि क्या अब श्री महाराज जी अपने घर नहीं आ सकेंगे ?  इतने वर्षों से निरंतर वहाँ घर की तरह रहने के कारण महाबनी परिवार की उनसे घर के सदस्य​ जैसी आत्मीयता हो गई थी । श्री महाराज जी के अनुसार ही घर के सब काम-काज होते थे । अतः यदि वे अब बाहर रहेंगे तो हम लोग उनके बिना कैसे रहेंगे? महाबनी जी का यह हठ​ था कि वे श्री महाराज जी को भेंट देकर नहीं बुलाएँगे। अतः चिंता और बढ़ गई कि इसका मतलब तो यह हुआ कि अब श्री महाराज जी कभी यहाँ भोजन करने भी नहीं आएँगे।

​15 जनवरी सन 1957 को प्रतापगढ़ के निकट शहरों एवं गांवों में रहने वाले सभी साधक गण प्रतापगढ़ पहुँच गए। जब श्री महाराज जी वहाँ पहुँचे तो उनकी शोभायात्रा प्रतापगढ़ की गलियों से गुजरी तो लोग छतों, छज्जे तथा चौबारे पर खड़े होकर अपने प्रिय श्री महाराज जी के विजयी होने की खुशी में प्रेम से फूल आदि बरसाकर, उनका जयघोष कर रहे थे। योजना के अनुसार शोभायात्रा राजकीय विद्यालय के मैदान पर पहुँचकर संपन्न हुई। श्री महाराज जी ने मंचासीन होकर 25,000 साधकों के लिए एक छोटा प्रवचन दिया। यद्यपि बिजली चले जाने से लाउडस्पीकर बंद हो गया परंतु वहाँ उपस्थित सभी लोगों को श्री महाराज जी की वाणी स्पष्ट सुनाई दी।

प्रवचन समाप्त होते ही श्री महाराज जी ने श्री महाबनी जी को चलने का इशारा किया। श्री महाबनी जी श्री महाराज जी के अनन्य भक्त थे अतः बिना 
कुछ पूछे, बिना विरोध किए वे दोनों बिना किसी को बताए प्रवचन-स्थलि छोड़कर रिक्शे के द्वारा महाबनी जी के घर आ गए। घर पहुँचने पर श्री महाराज जी ने कहा "मैं बहुत भूखा हूँ"। महाबनी जी धर्मशाला का पक्का (तेल में​ पका हुआ) खाना नहीं खाना चाहते थे अतः उन्होंने घर में महाराज से खिचड़ी बनवाई थी । महाबनी जी ने वही खिचड़ी श्री महाराज जी को परोसी । श्री महाराज जी ने उसे अत्यंत आनंद पूर्वक ग्रहण किया । उधर धर्मशाला में जब श्री महाबनी जी की पत्नी ने देखा कि वे दोनों तो गायब हैं तो वे भी शीघ्रता से घर पहुँचीं। उधर अन्य साधकों ने भी जब तीनों को वहाँ नहीं पाया तो वे सब भी श्री महाबनी जी के घर पर पहुँच गए। सभी साधकों को देखते हुए श्री महाराज जी ने श्री महाबनी जी की पत्नी श्रीमती चांदरानी जी से सभी के लिए भोजन पकाने के लिए कहा।
​
बाद में श्री प्रियदर्शी जी ने श्री महाराज जी से जगद्गुरु की पदवी के नियमों का पालन करने के लिए पूछा । श्री महाराज जी ने कहा “नियम मेरे (मुझे प्राप्त करने के) लिए बनाए गए हैं, मैं नियमों के लिए नहीं बना हूँ (उनका पालन करने हेतु बाध्य नहीं हूँ)”। उस दिन श्री महाराज जी ने अपने अनन्य भक्त के प्रेम में उन नियमों को तोड़ दिया।

सिद्धांत​: भगवान का सर्वोच्च गुण है भक्तवश्यता । वे शरणागत भक्त की इच्छा को सर्वोपरि रखते हैं। यदि वेद-शास्त्र, समाज आदि के नियम भक्त की इच्छा के विरुद्ध हों तो भगवान उन नियमों को तोड़ देते हैं। यहाँ तक कि भगवान अपने वचन को भी भक्तों के लिए तोड़ देते हैं। भगवान धर्म, जाति, लिंग, राष्ट्रीयता आदि से सर्वथा परे हैं । वे आत्मा को देखते हैं, शरीर को नहीं।


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