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2021 शरद  पूर्णिमा अंक​

क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें?​

Read this article in English
मासूम बच्चे पर क्रोध करनामासूम बच्चे पर अत्यधिक क्रोध करना लाभकारी नहीं है
प्रश्न 

मुझे अपनी 4 वर्ष की बेटी पर पता नहीं क्यों अत्यधिक क्रोध आता है । मुझे क्या करना चाहिए?
​
उत्तर 

क्रोध माया का विकार है और क्रोध का मुख्य कारण है हमारी अपूर्ण​ कामनाएँ। कामना जाग्रत होने पर दो परिणाम हो सकते हैं ।  कामना की पूर्ति पर लोभ बढ़ता है।  कामना की अपूर्ति पर क्रोध आता है।  हमारा यह दृढ़ विश्वास है की इच्छा पूर्ति से आनंद प्राप्ति होगी परंतु इच्छाएँ अनंत है और हमारे साधन सीमित हैं। मायिक पदार्थों को प्राप्त करने से सीमित सुख​ क्षण भर​ के लिये मिलता है ।

तो यदि हमारी इच्छाएँ पूर्ण भी हो जाएँ, तब भी अनंत काल के लिये आनंद प्राप्ति होना असंभव है। और अनंत आनंद ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है ।


अतः यदि हमें संपूर्ण​ पृथ्वी का एक छत्र राज्य मिल जाये तब भी हम सदैव असंतुष्ट ही रहेंगे।

​वेद व्यास जी के अनुसार​ -
यत्पृथिव्यां व्रीहि यवं हिरण्यं पशवस्त्रियः।
नालमेकस्य पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्  ।।
भागवत​​
"यदि किसी को संपूर्ण मृत्युलोक के सभी सुख दे दिए जाएँ फिर भी उसकी अतृप्ति अपूर्णता ज्यों की त्यों बनी रहेगी ।"

कहाँ तक कहें, स्वर्ग सम्राट इंद्र भी अपने पद से असंतुष्ट है । आनंद पाने की
आशा में वह ब्रह्मा का पद चाहता है ।
संपूर्ण पृथ्वी के सभी सुख मिलने के बाद भी असंतुष्टता
यदि किसी को संपूर्ण मृत्युलोक के सभी सुख दे दिए जाएँ फिर भी उसकी इच्छाएँ कम नहीं होंगी
ऐसा इसलिये है क्योंकि हम लोग चूने के पानी से मक्खन निकालने की कोशिश में हैं। चूने के पानी में मक्खन है ही नहीं तो निकलेगा कैसे ? जब अथक प्रयास करने पर भी इच्छा पूर्ति नहीं होती तब हम हताश हो जाते हैं । औरों पर दोषारोपण करते हैं । और यदि दोषारोपण के लिये कोई और नहीं मिलता तो अपने को ही दोषी ठहराते हैं एवं अपने हताशाजनित क्रोध से किसी ऐसे असहाय को प्रताड़ित करते हैं, जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता है।
सम्भवतः, आप किसी परिस्थिति से असंतुष्ट हैं परंतु किसी को उस का ज़िम्मेदार नहीं ठहरा पा रही हैं । छोटे बच्चों का लालान-पालन लाड़-दुलार से करना होता है । परंतु आप अपनी झुंझलाहट को अपनी बेटी पर निकाल देती हैं । वो मासूम बच्ची आपसे लाड़-दुलार की आशा रखती है । मुझे आपकी बेटी पर तरस आ रहा है।  आपके प्रश्न से प्रतीत होता है की आप भी मेरे मत से सहमत हैं, परन्तु आप अपने क्रोध के आवेश में ​ऐसा दुर्व्यवहार करती हैं जो आप कदापि नहीं करना चाहती।

अतः यह ध्यान रहे कि वर्तमान सुख और दुख हमारे इस जन्म तथा पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों का फल है। 
​

भक्त प्रह्लाद का जन्म एक दानव परिवार में हुआ था। एक दिन गुरुकुल में, जब उनके गुरु व गुरुपुत्र​ कहीं बाहर गये थे, प्रह्लाद ने अन्य दानव बालकों को संबोधित किया और उन्हें भगवान के बारे में बताया। उन​ बालकों की जिज्ञासा थी की जब उन्हें सांसारिक सुख, सुविधा की कामना है तो प्रह्लाद उन्हें भगवान की​ भक्ति करने की सलाह क्यों दे रहे हैं?

तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रह्लाद ने उन्हें समझाया (1)-
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोनेन देहिनाम्। सर्वत्र लभ्यते दैवात्। यथा दुःखमयत्नतः ।
भा ७.६.३
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"ओ असुर बालकों! इस जीवनकाल में समस्त सुख और दुःख तुम्हारे पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार ही आते हैं " 
इस जीवन काल में हमें सुखद क्षण हमारे पूर्व जन्म में किए गए कर्मों के फ​लस्वरूप मिलते हैं । इसी प्रकार आपदाएँ भी बिना प्रयत्न व इच्छा के पूर्व जन्म में किए गए कर्मों के फ​लस्वरूप आती हैं । अतः सदा सुखों को प्राप्त करने के लिए उद्यम करना बुद्धिमत्ता नहीं है। आपको भौतिक सुख सुविधाएँ बिना प्रयास के कर्मानुसार​ प्राप्त हो जाएँगी ​(2)। संक्षेप में कहें तो हम सभी अपने जीवनकाल में दुख नहीं चाहते हैं। हम दुःख से कोसों दूर रहना चाहते हैं, परंतु सभी के जीवन में दुख आ ही जाता है।
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अतः विवेकी जीव को वेद-शास्त्र के इस​ वाक्य पर दृढ़ विश्वास करना होगा कि “जो कुछ भी हमारे जीवन में हमारी इच्छाओं एवं प्रयासों के विपरीत हो रहा है वह पूर्व निर्धारित है” । अतः उन अवांछित परिस्थितियों में हम विचलित​ न हों । वर्तमान में विवेक पूर्वक​​ परिस्थिति का सामना करें तथा भविष्य में ऐसी पुनरावृत्ति से बचने हेतु श्रेय मार्ग का अवलंब लें ताकी आगामी जीवन में दुखों से पिंड छूट जाये ।

यदि आपको किसी पर क्रोध आता है तो सिद्धांत का मनन करें, पश्चाताप करते हुए भगवान से प्रार्थना करें कि वे हमारे क्रोधित ​मन को नियंत्रित करें (3) । किसी को भी दुख देना सबसे बड़ा पाप है, चाहें वह हमारा अपना मासूम बालक ही क्यों न हो। इस प्रकार सोचकर हमें उस राक्षसी प्रवृत्ति से उबरने का अभ्यास करना चाहिए ।

आप​को साधना (4) द्वारा हर क्षण सदा हरि-गुरु को अपने पास मानने का अभ्यास बढ़ाना होगा । इस बात का निरंतर मनन करिये कि “वे कितने कृपालु हैं । कितना ममत्व है उनमें । मैं कृतघ्नी जीव उन्हें भूली हुई हूँ फिर भी वे सदैव मेरे ऊपर​ अपनी कृपा बरसाते रहते हैं । मैं देव-दुर्लभ मानव शरीर, सक्षम​ मन​-बुद्धि, तत्व ज्ञान, सत्संग पाकर भी अपने लाभ के लिए उन​की बात नहीं
मानती यद्यपि वह सब कुछ मेरी उन्नति में सहायक होगा”।​

​इस प्रकार कृतज्ञता एवं साधना के द्वारा अपने मन पर नियंत्रण करके आप आपनी मासूम बच्ची की परवरिश प्रेम व स्नेह से सिक्त होकर कर पायेंगी ।

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